ANNOUNCEMENTS



Friday, December 27, 2019

पद, पद चक्र और पद मुक्ति



पद भेद से अर्थ भेद को व्यक्त करने वाली वस्तु की पदार्थ संज्ञा है.  चार पद हैं - प्राण पद, भ्रांत पद, देव पद और दिव्य पद.  पदार्थ ही इन चारों पदों में व्यक्त है.

प्राणपद में भौतिक-रासायनिक वस्तु  हैं.  रासायनिक वस्तु का भौतिक वस्तु में परिणिति को "ह्रास" और भौतिक वस्तु का रासायनिक वस्तु में परिणिति को "विकास" कहा.  इस ढंग से यह एक चक्र है - प्राण पद चक्र.

भ्रांतपद में जीवन का मानव शरीर को चलाने योग्य हो जाना "विकास" है, मानव शरीर को चलाने वाले जीवन का जीव शरीर को चलाने जाना "ह्रास" है.  इस ढंग से यह एक चक्र है - भ्रांत पद चक्र.  भ्रांत पद चक्र में जीवन मानव शरीर को चलाये तब भी जीव चेतना ही है, जीव शरीर को चलाये तब तो जीव चेतना है ही.

भ्रांतपद (जीव चेतना) से देवपद (मानव चेतना) में गुणात्मक परिवर्तन है - जो एक संक्रमण है.  देव पद चक्र में आने के बाद भ्रांतपद चक्र में जाता नहीं है.  भ्रांतपद में रहते तक जीवन में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं है.

देव पद में देवचेतना से मानवचेतना में परिवर्तन "ह्रास" है.  मानवचेतना से देवचेतना में परिवर्तन "विकास" है.  श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर में और श्रेष्ठतर से श्रेष्ठ में आवर्तन ही देवपद चक्र है.  एक ही शरीर यात्रा में कभी देवपद तो कभी मानवपद में व्यक्त करना हो सकता है.

फिर दिव्यपद में पहुँचता है.  दिव्यचेतना में आवर्तनशीलता कुछ नहीं है.  चक्र से मुक्त हुए, निरंतरता से युक्त हुए.  दिव्यचेतना श्रेष्ठतम है.  उसमे पहुंचने पर उससे नीचे आने का प्रावधान नहीं है.  दिव्य पद एक संक्रमण है.  दिव्य पद की निरंतरता है - शरीर यात्रा में भी, शरीर यात्रा के बाद भी.

देवपद चक्र तक जीवन को अपनी जागृति को प्रमाणित करने के लिए शरीर यात्रा की आवश्यकता शेष रहता है.  दिव्य पद में आने के बाद शरीर यात्रा करना स्वेच्छा पर हो जाता है परिस्थिति पर नहीं.  देव पद चक्र में रहते तक जीवन अपनी जागृति को प्रमाणित करने के लिए बारम्बार शरीर को ग्रहण करेगा.

मानव पद में उपकार कम से कम रहता है, देव पद में उपकार बढ़ जाता है, दिव्य पद में उपकार पूर्ण हो जाता है.  दिव्य पद में ऐश्नाएं गौण हो जाती हैं तथा ज्ञान के अर्थ में ही जीना बनता है.

दिव्य मानव के समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व प्रमाणित करते हुए सहअस्तित्व को प्रमाणित करना प्रधान रहेगा.  देवपद चक्र में समाधान-समृद्धि प्रमाणित रहेगा, सार्वभौम व्यवस्था में जीने की विधि से अभय सदा सुलभ रहेगा.

यदि सम्पूर्ण मानव परंपरा ही दिव्य चेतना में परिवर्तित हो जाता है, उसके बाद दिव्य जीवन ही मानव शरीर ग्रहण करेगा, क्योंकि दूसरा कोई रास्ता नहीं है.

पहले एक व्यक्ति, फिर अनेक व्यक्ति देवपद चक्र में मानव या देवमानव पद में काम करेंगे.  अभी देव चेतना के मार्गदर्शन में परम्परा बनाने की बात है.  इतने में अखंड समाज - सार्वभौम व्यवस्था स्थापित होगी.  मानव चेतना पूर्वक मानवीयता पूर्ण आचरण पर आधारित व्यवस्था हो जाता है. दिव्य चेतना संपन्न मानव भी मानवीयता पूर्ण आचरण ही करेगा.   सार्वभौम व्यवस्था सभी को स्वीकार होती है - इसके आधार पर दिव्य चेतना प्रभावी होना शुरू हो जाता है.  तब चारों अवस्थाओं की अक्षुण्णता हुआ, जीवन क्रम से दिव्य पद में संक्रमित होते गए, जनसंख्या नियंत्रित हुई, सब संतुलित रहने की व्यवस्था हुई.

सम्पूर्ण मानव जाति जब देवपद में संक्रमित हो जाती है तब अधिकांश लोग मानव चेतना में जियेंगे, कुछ लोग देव चेतना को प्रमाणित करेंगे.  इसके साथ दिव्य पद में मानव परम्परा के प्रमाणित होने की सम्भावना उदय हो जाती है.

देव चेतना के आधार पर मानव चेतना में स्थिरता-निरंतरता परम्परा स्वरूप में हो जाती है.  दिव्य चेतना के आधार पर देव चेतना में स्थिरता-निरंतरता हो जाती है.  मानवीयता की परम्परा की देवपद चक्र से ही शुरुआत है.

इस तरह सम्पूर्ण धरती पर पहले प्राण पद चक्र, फिर भ्रांत पद चक्र, फिर देव पद चक्र, फिर दिव्य पद (पद मुक्ति) का प्रकटन होने का क्रम है.

जीव चेतना में (भ्रांत पद चक्र) रहते हुए मानव क्षति ग्रस्त हो गया तब जाग्रति की आवश्यकता उदय हुई.  देवपद चक्र में मानव का धरती के साथ और मानव के साथ अहिंसक होना बनता है.

प्रश्न:  आपकी क्या भविष्यवाणी है?  क्या मानव जाति का देवपद चक्र में संक्रमण हमारे जीते जी हो  जायेगा?

उत्तर:  बिलकुल हो जायेगा!  होना पड़ेगा!  जीव चेतना विधि से यह धरती अगले सौ वर्ष भी नहीं चलेगा.  धरती ने अपने बीमार होने का अलार्म दे दिया है, उसके आधार पर मानव जाति संक्रमित हो सकता है.  सर्वाधिक लोग इस भय से ही संक्रमित होंगे.  जीव चेतना में भय और प्रलोभन से ही हैं.  प्रलोभन वश धरती को मानव ने घायल किया, जिससे उसी के लिए भय पैदा हो गया.  बीमार धरती पर तो रह नहीं पायेंगे, इसलिए हमको परिवर्तित होना है - यहाँ आएगा मानव पहले.  इस तरह जीव चेतना का भय भी एक asset हो गया!  परिवर्तित होने के बाद मानव का अहिंसक होना होगा, फिर धरती में शेष बची ताकत से उसके पुनः संभलने की सम्भावना बनती है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Tuesday, December 24, 2019

पहली बात है - मानव का अध्ययन

अभी हर व्यक्ति अपने स्वरूप को भुलावा देकर जी रहा है.  वैसे जी नहीं पाता है, इसीलिये ऊटपटांग होता है.

क्या अपने को पूरा भुला कर कोई आदमी जी पायेगा? तुमको क्या लगता है?

नहीं जी पायेगा.  अपने को पूरा भुला देने की तो कल्पना भी नहीं होती.

इसीलिये भ्रमित हो कर जीता है, यह भाषा दिया.  भ्रमवश मानव सभी गलती करने के लिए उद्द्यत हुआ.  स्वयं के साथ अधिमूल्यन-अवमूल्यन करेगा तो संसार के साथ भी करेगा.

इसीलिये यहाँ पहली बात है - मानव का अध्ययन.  मानव जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप में है.  मानव लक्ष्य पूरा होने पर जीवन मूल्य प्रमाणित होता है.  मानव लक्ष्य की पहचान अभी तक की जानकारी में नहीं था.  सुख, शांति, संतोष, आनंद की चर्चा विगत में भी है.  मानव लक्ष्य समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व है - यह अनुसन्धान है.  यह विगत की सूचना नहीं है.  मानव लक्ष्य के बारे में चर्चा नहीं रही.  अभी तक स्वर ही नहीं निकला.  न भौतिकवाद में न आदर्शवाद में.  अथा से इति तक.

-श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)


होने-रहने का प्रमाण मानव ही है

क्षमता = वहन क्रिया, योग्यता = प्रकाशन क्रिया, पात्रता = ग्रहण क्रिया

ये तीनों क्रियाएं हरेक एक में समाई हैं.

प्रश्न:  तो क्या पत्थर में भी योग्यता (प्रकाशन क्रिया) है?

उत्तर: है, लेकिन उसको समझना मानव को ही है, समझ कर जीना मानव को ही है.  यदि आप यह कह कर रुक जाते हैं कि "भौतिक वस्तु प्रकाशमान है" तो वह पर्याप्त नहीं हुआ, क्योंकि उसमे मानव involve नहीं हुआ.  ग्रहण, वहन और प्रकाशन में मानव को पारंगत होना है न कि पत्थर को.  फिर मानव को ही यह समझ में आता है कि सब में ग्रहण, वहन और प्रकाशन क्रिया है.  उनमे यह क्रिया है, पर उसका ज्ञान नहीं है.  यदि इसमें mixup कर देते हैं तो हम कुमार्ग पर चल देते हैं.  भौतिकवाद इसी जगह तो अपनी मृत्यु पाया है!

प्रश्न:  नहीं समझ आया...  "भौतिक वस्तुएं प्रकाशमान हैं", इतना भर कहने में क्या दोष है?  मानव को इसमें बीच में लाने की क्या ज़रूरत है?  भौतिकवाद का कैसे इस जगह मृत्यु हो गया?

उत्तर:  पत्थर में sincerity है, मानव में sincerity नहीं है - इस जगह पर है भौतिकवाद.  ठीक से समझना इसको!  भौतिकवाद के अनुसार यंत्र में sincerity है, मानव में sincerity नहीं है - जबकि मानव सभी यंत्र बनाता है.  भौतिकवाद का इसमें मृत्यु नहीं होगा तो और क्या होगा?  आदर्शवाद का मृत्यु तब हुआ जब वे बताये - प्रमाण का आधार किताब है, मानव नहीं है.

यहाँ हम कह रहे हैं - "प्रमाण का आधार मानव ही है."  किस बात का प्रमाण: - निपुणता, कुशलता, पांडित्य का प्रमाण.  ज्ञान, विवेक, विज्ञान का प्रमाण.  समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व का प्रमाण.  मानव को प्रमाण का आधार बताने के लिए मैंने सारा सारस्वत जोड़ा.

होने का प्रमाण हर वस्तु है.  होने-रहने का प्रमाण मानव ही है.

जीव-संसार तक 'होने' की सीमा में ही है.  होने-रहने की सीमा में मानव ही है.

जीव-संसार तक "होने" को सही माना है भौतिकवाद.  मानव का "होना" भौतिकवाद से qualify नहीं हुआ, "रहना" qualify होना तो दूर की बात है.

प्रश्न:  मिट्टी-पत्थर से लेकर जीव संसार तक "होने" को भौतिकवाद में किस आधार पर पहचाना? भौतिकवाद मानव के "होने" को किस प्रकार देखता है?

उत्तर:  भौतिकवाद ने अपने उपयोग की commodity के अर्थ में मिट्टी-पत्थर के "होने" को पहचाना.  इसी क्रम में बड़े-बड़े पहाड़ों को मैदान बना कर अपनी बहादुरी दिखाया और मान लिया कि मिट्टी-पत्थर को उसने पहचान लिया.  उसी तरह जो कुछ भी भौतिकवाद ने पहचाना उसको अपने उपयोग के अर्थ में पहचाना.  मानव को भी उसने अपने उपयोग की commodity के अर्थ में पहचानने का प्रयास किया.  पैसे के आधार पर मानव के उपयोग को आंकलित किया - यह आदमी हजाररूपये योग्य है, यह लाख रूपये योग्य है, यह करोड़ रूपये योग्य है आदि.  इसी क्रम में सारा शिक्षा व्यापार के लिए हो गया.  भौतिकवाद मानव को एक commodity के रूप में सोचा.  मानव को व्यापार में लगाया.  जबकि व्यापार की सीमा में मानव नहीं आता, व्यापार में वस्तु आता है.  व्यापार में मानव का मूल्यांकन नहीं होता.

मानव को छोड़ कर मानवेत्तर प्रकृति को समझ गया है, इस तरह अपनी विद्वता बघार रहा है भौतिकवाद.  भौतिकवाद का सारा तर्क utility के आधार पर है.  उसके अनुसार सर्वोच्च utility है - सीमा सुरक्षा के लिए. जबकि सीमा-सुरक्षा पर सभी अवैध को वैध माना जाता है.

मानव जब अपने में सोचता है तो स्वयं को एक commodity होना नहीं स्वीकार पाता.  इसीलिये जहाँ आत्मीयता है, वहां व्यापार नहीं होता.  जैसे - आप अपनी बेटी के साथ व्यापार नहीं कर सकते, जबकि आप जहाँ नौकरी करते हैं वहां व्यापार से अधिक की कोई बात नहीं है.  "सम्बन्ध में आत्मीयता प्राथमिक वस्तु है" - यह कहीं माना ही नहीं गया.  जबकि हम सब कुछ करके वहीं व्यय करते हैं जहाँ आत्मीयता पाते हैं.  एक चोर चोरी करके लाता है, जहां आत्मीयता पाता है वहाँ उसको खर्च कर देता है.  एक डाकू डाका डालके लाता है, जहाँ आत्मीयता पाता है, वहाँ उसको खर्च कर देता है.  व्यापारी व्यापार करके लाता है, आत्मीयता की जगह में खर्च कर देता है.  आप सोचिये यह कैसे होता है?

भौतिकवाद के चलते आदमी "नीचता" की ओर चल दिया.  नीचता की ओर चलने का मतलब है - मानव का अवमूल्यन करके चल दिया.  मानव को एक commodity के रूप में "होना" बता दिया.  आदर्शवाद ने मानव के "होने" को लेकर कहा - "तुम ईश्वर का ही अंश हो, ईश्वर स्वरूप में समा जाओगे" उसके लिए त्याग, तप, भक्ति, विरक्ति को जोड़ दिया.  वह भी प्रमाणित नहीं हुआ.

प्रश्न: आपने कहा - "होने-रहने का प्रमाण मानव ही है".  मानव के होने और रहने को और समझाइये.

उत्तर: मानव होता भी है, रहता भी है.  जिस तरह गाय का होना सार्वभौमिक है, वैसा अभी मानव के साथ नहीं है.  क्योंकि मानव को मानव में एकात्मता का आधार समझ में नहीं आया.  मानव में एकात्मता का आधार है - ज्ञान.  ज्ञान रूप में हम एक होते हैं, विचार रूप में समाधानित होते हैं, कार्य रूप में अनेक होते हैं.  यदि ज्ञान रूप में हम एक नहीं होते तो विचार रूप में समाधान होता नहीं है.  ज्ञान के आधार पर विचार में समाधान होता है फिर उसके क्रियान्वयन में मानव के साथ व्यव्हार में न्याय और मानवेत्तर प्रकृति के साथ कार्य में नियम-नियंत्रण-संतुलन प्रमाणित होता है.  यह सार्वभौम रूप में मानव के साथ वर्तने वाली प्रक्रिया हो गयी.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Monday, December 23, 2019

सिद्धांत, प्रक्रिया, विधि, पद्दति

सिद्धांत:-  सिद्धांत वह है जिसके अंत में समाधान सिद्ध होता है.

प्रक्रिया:-  किसी प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए श्रंखलाबद्ध कार्यकलाप की प्रक्रिया संज्ञा है.

विधि:-  बुद्धि पूर्वक (ज्ञान सहित) समझदारी को प्रमाणित करना विधि है, जिसमे तर्क-संगत होना और प्रयोजन सिद्ध होना दोनों आवश्यक है.  (धी= बुद्धि)

पद्दति:- जीवन मूल्य और मानव लक्ष्य के अर्थ में किया गया क्रियाकलाप पद्दति है.

सूत्र:  कम शब्दों में ज्यादा अर्थ स्पष्ट कर देना.

व्याख्या: सूत्र को कार्य-पद्दति से जोड़ देना.

स्थापित मूल्य समझ में आते हैं, शिष्ट मूल्य व्यव्हार में आते हैं.  स्थापित मूल्य स्थिति में रहते हैं, शिष्ट मूल्य गति में रहते हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

ग्रहण क्रिया के लिए वस्तु

ग्रहण क्रिया को पात्रता कहा है.  मानव में समझदारी के लिए ग्रहण क्रिया बनी हुई है.  इस पात्रता के अनुरूप वस्तु भी होने की आवश्यकता है.  अभी तक परम्परा में ग्रहण योग्य वस्तु ही नहीं है.  क्या ग्रहण करना है क्या नहीं - इसको तय करने का आधार नहीं है.  परम्परा से बेवकूफी/भद्दगी को हम सुनते रहे, उसमे से प्रलोभनात्मक को वरते रहे, भयात्मक को छोड़ते रहे - यह हमारी मनमानी करने की विधि रही.  अब यहाँ मानव के ग्रहण करने योग्य वस्तु का प्रस्ताव रखे हैं.  ग्रहण करने की वस्तु है - नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य की समझ.  यह समझ में आ जाए और प्रमाणित हो जाये.  सत्य को हम सहअस्तित्व स्वरूप में बता रहे हैं.  धर्म को हम अभ्युदय (सर्वतोमुखी समाधान) स्वरूप में बता रहे हैं.  न्याय को सम्बन्धों में होने वाला प्रकाशन बता रहे हैं.  नियम-नियंत्रण-संतुलन को मनुष्येत्तर प्रकृति को बनाये रखने के रूप में बता रहे हैं. 

अध्ययन क्रम में अपनी मनमानी की बात को secondary करते हुए यथार्थ को ग्रहण करने/समझने की बात बलवती होता जाता है.  यथार्थ समझ में आने के बाद हमारा अभिव्यक्ति, सम्प्रेष्णा, प्रकाशन रहेगा ही. 

अभी परंपरा में यथार्थता का स्त्रोत नहीं रहने के कारण एक आयु के बाद मानव में ग्रहण क्रिया बोथरा हो जाता है.  मानवजाति के सामने अब यह यथार्थता का पूरा प्रस्ताव आ गया है.  यथार्थता के इस प्रस्ताव में न कोई भय है न प्रलोभन है.  ग्रहण क्रिया, प्रकाशन क्रिया और वहन क्रिया जीवन में बनी हुई है.  उसमे क्या वस्तु होना है यह निर्णय होना है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित.  अमरकंटक, अगस्त २००७

Monday, December 9, 2019

सर्वभाषा में समानता का सूत्र


सर्वभाषा में समानता का सूत्र है - कारण गुण गणित

भाषा का प्रयोजन है - मानव परस्परता में सच्चाई की सम्प्रेष्णा

मानव में सच्चाई को प्रमाणित करने की अपेक्षा है.  सच्चाई को प्रमाणित करना = उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनशीलता प्रमाणित करना.  भाषा इसको संप्रेषित करने के लिए है.

सहअस्तित्व रुपी अस्तित्व के स्वरूप में प्रयोजनशीलता अनुभव में आता है, जो सार्वभौम व्यवस्था के रूप में प्रमाणित होता है.  इसको संप्रेषित करने के लिए कारणात्मक भाषा है.  दर्शन कारणात्मक भाषा में लिखा है.

(अनुभव मूलक विधि से) उपयोगिता और सदुपयोगिता व्यवहार में आता है, जो न्याय और धर्म के स्वरूप में प्रमाणित होता है.  इसको संप्रेषित करने के लिए गुणात्मक भाषा है.  वाद और शास्त्र गुणात्मक भाषा में है.

गणना करने के लिए गणितात्मक भाषा है.

गणित आखों से अधिक लेकिन समझ से कम होता है.  समझ के लिए गुणात्मक और कारणात्मक भाषा है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Friday, December 6, 2019

मानसिकता

मानव संवेदनाओं से अपने को व्यक्त करता है.

मानव संवेदनाओं द्वारा अपनी मानसिकता को व्यक्त करता है.

संवेदनाओं को व्यक्त करते समय मानव (भ्रमवश) अपनी मानसिकता में अनिश्चयता को व्यक्त कर सकता है.

मानसिकता या मन जीवन का अभिन्न अंग है.  मन के बाद वृत्ति, वृत्ति के बाद चित्त, चित्त के बाद बुद्धि, बुद्धि के बाद आत्मा - इन पाँचों के संयुक्त रूप में जीवन है. 

मानव में संवेदनाओं द्वारा जीवन अपने स्वरूप को व्यक्त करता है.

जीवन का अपने स्वरूप को व्यक्त करने का और कोई तरीका नहीं है.

सुखी होने के लिए मानव जो कुछ भी करता है उस सब के मूल में मन में आस्वादन है.

मानव मन से काम करता है - इस बारे में मानवजाति आश्वस्त है या नहीं?  अधिकांश लोग मन होता है, इसको मानते ही होंगे.  कुछ लोग नहीं भी मानते होंगे.  मन के होने को मानते हैं इसीलिये मनोविज्ञान को पढ़ते-पढ़ाते हैं.  फ्रायड ने मनोविज्ञान को लगभग १०० वर्ष पहले लिखा.  भारतीय विचार में मनु के समय से मन को पहचाना गया.  "मन एव मनुष्याणाम बन्धमोक्ष्यो: कारणं" या मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है - यह गीता में लिखा है.  "निर्भ्रमता पूर्वक मोक्ष और भ्रमवश बंधन है" - यह प्रतिपादित करते हुए वे भ्रम-निर्भ्रम की भाषा लाये।  फिर भ्रम-मुक्ति के लिए वे भक्ति-विरक्ति मार्ग बताए, वह रहस्य में फंस गया.  "भ्रम मुक्ति ही मोक्ष है" - यह हमने मध्यस्थ दर्शन में भी प्रतिपादित किया है.  भ्रम-मुक्ति के लिए हम समझदारी के पास ले गए, उसके लिए अध्ययन का मार्ग बताया.  समझदारी का स्वरूप है - मानव चेतना, देव चेतना और दिव्य चेतना.  नासमझी का स्वरूप है - जीव चेतना.  नासमझी है - सकल अपराध को वैध मानना.  समझदारी है - वैध को वैध मानना, अवैध को अवैध मानना.  इसी से सही और गलत का demarcation  होता है.  वैध को वैध मानने का मतलब है, वैध आचरण में आना.  आचरण में आने का स्वरूप है - समाधान-समृद्धि.  इस क्रम में हम स्थिर हो पाते हैं तो उसकी परम्परा बनाने का काम हम शुरू करते हैं.  यदि यह क्रम हममे स्थिर नहीं है तो इसकी परम्परा नहीं बनेगी.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)

Friday, November 29, 2019

एक मार्मिक बात

हम जब अपने समझे होने की घोषणा कर देते हैं उसके बाद हम सबके लिए शोध की वस्तु हो जाते हैं.  आप मेरे पास इसीलिये आये हो क्योंकि मैं घोषणा किया हूँ कि सभी समस्याओं का समाधान मेरे पास है.  हर बात का आप परीक्षण करते हो और वो आपको करना भी चाहिए - ऐसा मेरा स्वीकृति है.  इस परीक्षण को करने पर आगे यह आपका स्वत्व हो सकता है, यह मेरी शुभकामना है.  आप यदि सही ढंग से जांचते हो, शोध करते हो तो यह पूरा प्रस्तुति आपका स्वत्व हो सकता है.  इस आधार पर आपका और हमारा एक resonance बना हुआ है - जो संगीत है, अपेक्षा है, सम्भावना है और उत्साह है.  इसमें कहीं भी विश्रंखलता होती है तो उत्साह भंग होता है.  ऐसा भी हमारे बीच कभी-कभी हुआ है.  इसमें मैंने निर्णय लिया कि आपका उत्साह भंग करना मेरा काम नहीं है, आपका उत्साह वर्धन करना मेरा काम है.  आप उसको स्वागत करने योग्य हुए, इस आधार पर हम आगे काम कर रहे हैं.

जब मैंने अपने समझे होने की घोषणा के साथ शुरू किया था तब एक भी व्यक्ति समझने को तैयार नहीं था.  उस समय मेरे अन्तःकरण में उदय हुआ - "आदमी समझता है, मैं समझा नहीं पा रहा हूँ."  इससे अनेक प्रकार से समझाने की विधि आ गयी.  समझ वही है, समझाने के तरीके अनेक हैं - हर तरीके से उसी बिंदु पर मैं ले आता हूँ.  कोई कहीं से भी हो उसको अपनी बात संप्रेषित करना मुझसे बन गया.  उससे बहुत लाभ हुआ.  संसार में किसी को ऐसा न माना जाए कि यह समझ नहीं सकता, यह सुधर नहीं सकता.  कोई हमारे कितने भी विरोध में गया हो, यह मानना कि कल इनको यह समझना ही पड़ेगा.  उसमे अपना कार्यक्रम बना रहता है.  यदि हम मान लेते हैं कि सामने वाला समझ नहीं सकता तो हमारा कार्यक्रम बंद हो जाता है. 

- श्रद्धेय श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

व्यापारिक अस्मिता से दर्शन संप्रेषित नहीं हो सकता.



व्यापारिक भाषा का स्वरूप ही है - "सामने व्यक्ति को निरर्थक बताना और स्वयं को सार्थक बताना."  व्यापार का स्वरूप ही ऐसा है.  व्यापारिकता में "हम ऊपर हैं" - ऐसा बताने का प्रयास रहता है.  हर व्यापारी अपने को ऊपर और बाकियों को नीचे मानता है.  रास्ते पर स्टाल लगाने वाला टटपूंजिया भी मिल के मालिक से अपने को ऊपर मान कर बात करता है.  व्यापारिक अस्मिता की रेखाएं ही ऐसी बनी हैं!  दार्शनिक भाषा का स्वरूप है - "सभी सार्थक हो सकते हैं, सभी सार्थक हैं, सभी सार्थक होना चाहते हैं."  दर्शन जीने से जुड़ा है.  हर व्यक्ति सही जी सकता है, सही जी रहा है, सही जीने का प्रयत्न कर रहा है".  इन तीन खाकों में हर व्यक्ति है.  तभी संसार से मंगल मैत्री हो सकता है.  इस पर हम स्वयं का अच्छे से शोध कर सकते हैं.  व्यापारिक भाषा और दार्शनिक भाषा के आशय में भेद है.  व्यापारिक भाषा का आशय है - लाभ पैदा करना.  दार्शनिक भाषा का आशय है - सर्वशुभ होना.  दोनों में अंतर है!  व्यापारिक भाषा इस दर्शन से जुड़ता नहीं है.  यह पूरा दर्शन सर्वमानव के अनुभव, विचार, व्यव्हार और कार्य से सम्बद्ध है.  व्यव्हार में मानव चेतना के प्रमाण और कार्य में व्यवस्था के प्रमाण के लिए हम जुड़ते हैं.

आपकी भाषा आपकी अस्मिता से जुडी है.  आप जो अभी तक व्यापार का जो अभ्यास किये हो उससे आपकी कुछ अस्मिता बनी ही है.  वह अस्मिता इस दर्शन को संप्रेषित करने में न झलके!  व्यापारिक अस्मिता से दर्शन संप्रेषित नहीं हो सकता.  आपकी सम्प्रेष्णा में अस्मिता या अहंकार का पुट न हो!  अभी जैसे आगे आप इस दर्शन को इन्टरनेट और अंग्रेजी में रखने का सोच रहे हो - उसमे ऐसा कोई भी बात नहीं आना चाहिए कि इसको दूसरा कोई नहीं कर सकता था.  भाषांतरण करने में आप जितना विनम्र विधि से काम करोगे, उतना ज्यादा वह प्रभावशील होगा.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Monday, November 18, 2019

अध्ययन से आचरण की प्रवृत्ति बनती है.


"आचरण ही अपने में पूरी बात है" - ऐसा बता कर सही जीने का मॉडल बनेगा नहीं. 

विगत में (आदर्शवाद में) कहा - "आचरण पहले, विचार बाद में".  उस विधि से वे अनुकरणीय हो नहीं पाए.  जबकि विगत में अच्छे लोग नहीं हुए, ऐसा कहा नहीं जा सकता.

यहाँ मध्यस्थ दर्शन में कह रहे हैं - अध्ययन से आचरण की प्रवृत्ति बनती है.  अध्ययन आचरण के लिए प्रथम सीढ़ी है.  अध्ययन के बिना आचरण को अंतिम बात मान लिया तो वो गड़बड़ हो गया. 

प्रश्न:  आदर्शवादी विधि में आचरण पहले बताने का क्या स्वरूप रहा?

उत्तर:  निषेध बता कर विधि को इंगित करना - यह तरीका रहा.  जैसे - दूसरों को पीड़ा नहीं पहुँचाओ, चोरी मत करो, आदि.  सही आचरण क्या है - उसके लिए अध्ययन कहाँ दिया? वह तो रिक्त पड़ा है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

Monday, September 30, 2019

वर्तुलात्मक गति और कम्पनात्मक गति


परिवेशीय गति को वर्तुलात्मक गति कहा है.  जैसे - सौर मंडल में धरती का घूमना हो या परमाणु में परमाणु अंशों का घूमना.

इकाई अपने में एक मात्रा है.  ऊर्जा सम्पन्नता उसमे रहता ही है, जिससे हर परमाणु उसमे क्रियाशील रहते हैं.  ऐसे सारे परमाणुओं के साथ में उस इकाई में कम्पनात्मक गति प्रकट हो जाती है.  कम्पनात्मक गति सभी ओर हिल-डुल, कंपकपी के रूप में होती है.  कम्पनात्मक गति इकाई का वातावरण बनाती है.  इकाइयों के बीच अच्छी निश्चित दूरी तय करने का आधार कम्पनात्मक गति है.  एक ग्रह-गोल व दूसरे ग्रह-गोल के बीच, एक परमाणु व दूसरे परमाणु के बीच निश्चित अच्छी दूरी कम्पनात्मक गति के आधार पर होती है. 

प्रश्न:  आपने लिखा है - "गठनपूर्ण परमाणु में कम्पनात्मक गति वर्तुलात्मक गति से अधिक हो जाती है."  इसका क्या आशय है?

उत्तर: परमाणु में जब तक वर्तुलात्मक गति कम्पनात्मक गति से अधिक रहता है तब तक जड़ परमाणु है.  जड़   परमाणु भौतिक या रासायनिक क्रिया में भागीदारी करता हुआ हो सकता है.  जड़ परमाणु भौतिक क्रिया में सहवास विधि से साथ-साथ रहते हैं, रासायनिक क्रिया में यौगिक विधि से साथ-साथ रहते हैं.  रासायनिक क्रिया जीवन क्रिया से सेतु जैसा काम करता है.  जीव शरीर और मानव शरीर रासायनिक क्रिया ही है.  शरीर के बिना जीवन क्रिया के व्यक्त होने का प्रश्न ही नहीं है.

गठनपूर्ण होते ही परमाणु अणुबंधन और भारबंधन से मुक्त हो गया और उसी मुहूर्त (समय) से आशा-बंधन युक्त हो गया.  अपने कार्य गतिपथ को आशानुरूप तैयार कर लिया.  जीवन का यह कार्य गतिपथ अपने आप में एक आकार होता है.  उस आकार का शरीर रचना उपलब्ध रहता है.  उस शरीर को वह चलाता है.  कम्पनात्मक गतिवश ही जीवन अपने कार्यगति पथ को तैयार कर पाता है.  जीवन में कम्पनात्मक गति मनोगति के बराबर होता है. 

जीवन में वर्तुलात्मक गति उसकी कार्य सीमा है.  कम्पनात्मक गति उस कार्य सीमा से अधिक है.  तभी वह अपने पुन्जाकार को तैयार किया.  इस तरह कम्पनात्मक गति में वर्तुलात्मक गति नियंत्रित हो गयी. यही कम्पनात्मक गति आगे चल के आशा, विचार व इच्छा बंधन मुक्ति पूर्वक अनुभव तक का आधार बनना होता है.

प्रश्न: "चैतन्य क्रिया में कम्पनात्मक गति ही संचेतना एवं वर्तुलात्मक गति ही यांत्रिकता है." - आपके इस कथन का क्या आशय है?

उत्तर: वर्तुलात्मक गति बार बार दोहराने के रूप में होता है, उसको "यांत्रिकता" मैंने नाम दिया.   जैसे - जीवन का शरीर को पुन्जाकार बनाते हुए जीवंत बनाना यांत्रिकता है.  शरीर के साथ जीवन यांत्रिकता को व्यक्त करता है.  जीवन तृप्ति यांत्रिकता में नहीं है.  जीवन तृप्ति ज्ञान में है.  ज्ञान मानव परम्परा में कम्पनात्मक गति से परावर्तित होता है.  इसमें द्रव्य कुछ आता जाता नहीं है.  ज्ञान स्पष्ट होना, नहीं होना - यही रहता है.  ज्ञान स्वरूप में हम दूर दूर तक पहुँचते हैं, यांत्रिक स्वरूप में शरीर तक ही रहते हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)

Sunday, September 8, 2019

प्रकृति में संयमता का स्वरूप

प्रकृति में हर अवस्था के अनुसार संयमता है.  संयमता = आचरण. 

मानव को कैसे आचरण करना है, संयमता से रहना है - यह मानव चेतना विधि से आएगा, जीव चेतना विधि से आएगा नहीं. 

नियति विधि से यौगिक विधि से रसायन संसार में नृत्य (उत्सव) के आधार धरती पर प्राणावस्था स्थापित हुआ.  वनस्पतियों में स्त्री-कोषा व पुरुष-कोषा की परिकल्पना शुरू हुई.  वनस्पति संसार में एक स्त्री-कोषा है तो उसके लिए एक करोड़ पुरुष-कोषा होगा.  जबकि एक स्त्री-कोषा के साथ एक पुरुष-कोषा का योग फल होने के लिए पर्याप्त है. 

उसके बाद जीवावस्था में - गाय, बन्दर आदि में - नर में यौन संवेदना की संयमता कम है, मादा में संयमता अधिक है.  नर में यौन चेतना की विवशता अधिक है, मादा में यौन चेतना की विवशता कम है.  जीवों में यौन क्रिया सामयिक है.

मानव के प्रकटन के साथ यौन चेतना की संवेदना स्त्री और पुरुष में समान है.  मानव परम्परा में यौन चेतना की नर-नारी में समानता है.  विवेक को दोनों में समान रूप से प्रमाणित होना है.  नर-नारी में समानता का एक आयाम यह भी है.  इसे नियति क्रम का वैभव कहा जाए या पराभव कहा जाए - आप सोच लो!

ज्ञान के प्रमाणित होने में हर नर-नारी में समान अधिकार हैं.  यह समान अधिकार समझदारी में है, ज्ञान में है, विवेक में है, विज्ञान में है.  इस समान अधिकार की जगह में संसार अभी पहुंचा नहीं है.  अभी नर-नारी में समानता को लेकर सोचते हैं - "यदि एक रुपया है तो ५० पैसे नर का और ५० पैसे नारी का होना चाहिए!"  "यदि नर एक घूँसा मार सकता है तो नारी को दो घूँसा मारना चाहिए" - इसको समानता मानते हैं!  इसमें यदि आपका जीना बन जाता है तो क्या तकलीफ है?  मुझे इससे कोई तकलीफ नहीं है.

जीवों से अच्छा जीने के लिए शरीर संवेदना को आधार बना कर हम आज जी रहे हैं.  जीव चार विषयों की सीमा में जीते हैं.  मानव ४ विषयों के साथ ५ संवेदनाओं के साथ जीता है.  संवेदनाओं को राजी रखने और विषयों को भोगने के अर्थ में आज मानव का सारा जीना है.  इसके लिए सुविधा-संग्रह को लक्ष्य बना कर ज्ञानी, विज्ञानी. अज्ञानी तीनो पागल हैं.  इस सुविधा-संग्रह के पागलपन में धरती ही बीमार हो गयी.   धरती बीमार होने पर कौन जियेगा?  इसके विकल्प में इस प्रस्ताव का उदय हुआ कि समाधान-समृद्धि पूर्वक जिया जाए.  समाधान-समृद्धि पूर्वक हर परिवार जी सकता है.  हर व्यक्ति समाधान संपन्न हो सकता है.  पूरा मानव समाज समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व प्रमाण परम्परा हो सकता है.  इस प्रस्ताव के किसी कोने में निरर्थकता आपको दिखता है तो आप बताइये, मैं उसकी सार्थकता आपको समझा दूंगा.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अछोटी, २००८)

विश्वासघात का सुधार

प्रश्न: कुछ लोग जैसे दिखते हैं, वैसे वो हैं नहीं; जैसे वो हैं, वैसे दिखते नहीं हैं - ऐसे लोगों से कैसे बचा जाए?

उत्तर: ऐसे लोगों से कैसे बचें - एक चीज़ है, उनका सुधार कैसे हो - यह दूसरी चीज़ है.

ऐसे लोगों से बच के कहाँ जाओगे?  क्या इस प्रकार के लोग संसार में कम हैं?  ऐसे लोग संसार में बहुत हैं.

जैसे दिखना वैसा होना नहीं, जैसा होना वैसे दिखना नहीं - यह "विश्वासघात" है.

विश्वासघात का चार स्वरूप है - छल, कपट, दंभ, पाखण्ड.

छल = विश्वासघात के बाद भी जिसके साथ विश्वासघात हुआ हो, उसको समझ में नहीं आना.
कपट = विश्वासघात होने के बाद जिसके साथ विश्वासघात हुआ हो, उसको समझ में आना.
दंभ = आश्वासन पूर्वक विश्वासघात
पाखण्ड = दिखावा पूर्वक विश्वासघात

अभी जिस तरह की शिक्षा है, उससे इस प्रकार के ही आदमी तैयार हो रहे हैं.  इस तरह की शिक्षा कौन दे रहे हैं?  "अच्छा आदमी" जो कहलाते हैं, वही ऐसी शिक्षा दे रहे हैं.

यदि हम जागृत होते हैं तो हम इन सबके सुधार के लिए उत्तर हम दे पाएंगे.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अछोटी, २००८)

Wednesday, August 28, 2019

अध्ययन में मन लगना




अभी तक मानव की इच्छाओं का शरीर संवेदनाओं और विषय क्रियाकलाप के साथ समर्थन रहा है.  इच्छाओं का जब ज्ञानगोचर के साथ समर्थन होता है तो मन उसके अनुसार काम करता है.  वही मन लगने का मतलब है.  मन लगने पर ही शोध होता है.

प्रश्न: यहाँ आप "मन लगना" किस वस्तु को कह रहे हैं?

उत्तर: जीवन में मन होता है, जिसमे आशा होती है.  यह क्रिया सबके साथ "जीने की आशा" स्वरूप में जुड़ा है.  जीने की आशा के साथ शरीर संवेदनाओं को जीवन मान लिया.  जीवन का ऐसा मानना या समर्थन करना इच्छा तक जाता है, इससे आगे जाता नहीं है.  इसलिए साढ़े चार क्रिया में रह गए.  साढ़े चार क्रिया से आगे जाने के लिए ज्ञानगोचर विधि को अपनाना ही होगा.  अपनाने के लिए मन को लगाना ही होगा.  ज्ञान का प्रस्ताव अस्तित्व सहज है, जीवन सहज है - इसलिए मन लगता है.  क्योंकि सुखी होने की चाहत मन में ही बनता है.  सुखी होने की चाहत के सफल होने के लिए मन लगता है.  मन लगता है तो दसों क्रियाएं क्रियाशील होने का कार्यक्रम शुरू हो जाता है.  यह ज्ञानगोचर विधि से होगा, इन्द्रियगोचर विधि से होगा नहीं.

- श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

Sunday, August 18, 2019

छिद्रान्वेषण के स्थान पर सत्यान्वेषण


मैं किसी से भी मिलता हूँ तो उससे मुझे कुछ न कुछ प्रेरणा तो मिलता ही है.  किसी भी व्यक्ति से मिलना वृथा तो गया ही नहीं.  जिसको मैं डांटता भी हूँ उससे भी कुछ न कुछ प्रेरणा मुझे मिलता ही है.  जिससे प्यार करता हूँ उससे भी मुझे प्रेरणा मिलती है.  इससे ज्यादा क्या बयान करूँ?  लोगों में जो अच्छी बात है छान कर मैं उसको स्वीकारता हूँ.  अभी का लोगों का अभ्यास है - सामने वाले में एक खराब बात मिली तो उसके सब कुछ पर डामर पोत देते हैं!  सामने आदमी का १०० में से ९९ ठीक है, एक छेद मिल गया तो उसके पूरे पर डामर पोत दिया!  उसको पूरा नकार दिया.  ऐसा करके ही तो आदमी जात दरिद्र हुआ है.  आदमी ५१% सही है, उससे आगे क्यों नहीं बढ़ा अभी तक?  एक दूसरे के काम में छेद देखने से. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, अमरकंटक)

Friday, August 16, 2019

विकल्प का अर्थ

प्रश्न:  "विकल्प" से क्या अर्थ है?

उत्तर: विकल्प से मतलब है: - विगत से जो कुछ भी हमको दर्शन मिला, सोच-विचार मिला, आचरण मिला, संविधान मिला, व्यवस्था मिला और जो कुछ भी मिला - उसका यह विकल्प है.

दर्शन, सोच-विचार के विकल्प को लेकर हमने स्पष्ट किया है - विगत में अस्तित्व को पूरा न समझते हुए, अस्तित्व में ही किसी एक भाग को दर्शन का आधार मानते हुए ईश्वरवाद और भौतिकवाद तैयार हुआ.  अस्तित्व को छोड़ कर तो कुछ कहा नहीं जा सकता. 

अस्तित्व में ही एक भाग को लेकर ईश्वरवाद चला.  "ईश्वर" जिसका नाम दिया उसको जीव-जगत का जिम्मेवार मान लिया.  जीव-जगत में सृष्टि-स्थिति-लय को माना किन्तु उसको "माया" माना.  ईश्वरवाद पूरा अनुग्रहवाद हुआ.  इस आधार पर किताब (शास्त्र) को प्रमाण बताया.  ईश्वरवाद से भक्ति-विरक्ति मार्ग निकला.  लोग ईश्वरवाद की देहरी पर अपना सर झुकाए, अपनाए, अनुष्ठान किये, आजीवन अनुष्ठान किये.  बहुत सारे उनमे से ईमानदार भी होंगे, बेईमान भी होंगे.  ईमानदार भी जो हुए उनसे कोई ऐसा प्रमाण प्रस्तुत नहीं हुआ, जो परम्परा के रूप में चल पाए.  मानव परम्परा के लिए - जैसे परिवार परम्परा है, जैसे मानव में सांस लेने का परम्परा है, जैसे मानव  में आँख काम करने का परम्परा है - ऐसा कुछ बात उससे निकला नहीं.


अस्तित्व में एक भाग को ही लेकर भौतिकवाद भी चला.  प्रकृति में सृष्टि-स्थिति-लय होने को भौतिकवाद ने भी माना.  किन्तु ईश्वरवाद ने जहाँ भौतिक-रासायनिक वस्तु को माया माना, भौतिकवाद ने उसको सच माना.  किन्तु उसको "अंतिम सत्य" नहीं माना.  यह उनके साथ रखा हुआ एक आधार है.  भौतिकवाद पूरा यंत्रवाद हुआ.  इस तरह यंत्र को सामने रख के ये प्रमाण बताते हैं.  यंत्रवाद ने आकर अपने वर्चस्व का प्रदर्शन करते हुए आदमी को मोटर में घुमा दिया, रेलगाड़ी में घुमा दिया, एयरोप्लेन में घुमा दिया, चंद्रमा का यात्रा करा दिया - इसको "सच" बताया. 

मानव में "सच" या "झूठ" होता है, यंत्र में क्या होना है?  - ऐसा मैं समझा.  यंत्र में क्या सच, क्या झूठ?  यंत्र को चलाने वाले, बनाने वाले मानव में सच या झूठ की बात हो सकती है.  यंत्र तो मानव का ही बनाया हुआ है.  इसमें हमारा कहना है - विज्ञान का ज्ञान भाग गलत है, तकनीकी भाग ठीक है.  विज्ञान से मानव को जो ज्ञान होता है - वह गलत है. 

अध्यात्मवादी/ईश्वरवादी भी ज्ञान को लेकर प्रयत्न किये, किन्तु वे भी सहअस्तित्व को समझे नहीं.  ईश्वरवादियों ने पहले शब्द को ब्रह्म माना, फिर आप्त-वाक्य को प्रमाण माना, उसके बाद शास्त्र को प्रमाण माना.  इस प्रकार कई लहर उनमे चल चुकी हैं.  विज्ञान अथा से इति तक यंत्र को प्रमाण मानने में टिके हैं.

ज्ञान का धारक-वाहक केवल मानव है.  यंत्र नहीं है.  किताब नहीं है.  इस आधार पर विकल्प को सोचा जाए.

अध्यात्मवाद और भौतिकवाद दोनों का विकल्प बना है तो दोनों में कही हुई बातों को "सुधारा" जाए.  शब्दों को सुधारे बिना कार्य-व्यव्हार में सुधार नहीं हो सकता.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, रायपुर)

विकल्प की आवश्यकता

अस्तित्व सहअस्तित्व स्वरूपी है.
सहअस्तित्व सत्ता में संपृक्त प्रकृति है.
ऐसे प्रकृति चार अवस्था व चार पदों में है.
इसमें विकास-क्रम, विकास, जाग्रति-क्रम, जाग्रति - ये शाश्वत प्रक्रियाएं हैं.

सत्ता अपरिणामी है.  जीवन विकास पूर्वक अपरिणामी हुआ है.

मनुष्य आदिकाल से अमरत्व को खोजता रहा है.  शास्त्रों में लिखा है - "अमरा निर्जरा देवास्त्रिदशा विबुधा सुरा:" (अमरकोष, प्रथम काण्ड, १.१.१३)  जो जरा (वृद्ध) नहीं होता है, उसको उन्होंने देवता कहा.

जीवन में जरा-दोष नहीं है.  परिणाम दोष नहीं है, इसलिए जरा-दोष नहीं है.  जीवन मात्रात्मक परिवर्तन से मुक्त है.  जब तक मात्रात्मक परिवर्तन है तब तक जरा-दोष है.  रासायनिक-भौतिक वस्तुओं में मात्रात्मक परिवर्तन है, जरा दोष है, इसलिए रचना-विरचना उनमे होता ही रहता है.  जीवन में कोई रचना-विरचना होता ही नहीं है.  जीवन में होता है - चेतना.  चेतना में गुणात्मक विकास होता है.

चेतना का स्वरूप बताया - जीव चेतना, मानव चेतना, देव चेतना, और दिव्य चेतना.

मानव जीवचेतना पूर्वक अव्यवस्था में फंसता है, क्लेश को मोलता है, गलती-अपराध को करता है. 

मानव की स्थिति जीव चेतना की है - इसकी गवाही में सभी राजतंत्र यह स्वीकारे हैं कि मानव गलती-अपराध कर सकता है. 

मानव की स्थिति जीव चेतना की है - इसकी गवाही में सभी (ईश्वरवादी) धर्मगद्दी मानव को पापी, अज्ञानी और स्वार्थी कहा है.  इसी ईश्वरवाद में कहा है - "मुंडे मुंडे मतिभिन्ना: कुंडे कुंडे नवं पयः" (वायु पुराण).  (मतलब हर आदमी का अलग अलग मत होगा ही)  इसी क्रम में कहा - "सुनो सबकी, करो मन की".  इसी क्रम में कहा - "खाली हाथ आये, खाली हाथ जायेंगे".  यह सब झूठ का पुलिंदा है, भ्रम है.  भ्रम को आप झूठ मानोगे या नहीं?

"खाली हाथ आये और खाली हाथ जायेंगे" - ये शरीर की बात कर रहे हैं.  जीवन ज्ञान नहीं है, इसका प्रमाण दे दिया या नहीं?  जीवन ज्ञान ईश्वरवादी परम्परा में नहीं था - इस बात का यह प्रमाण है.  शिष्ट परिवारों में, वेद मूर्ति परिवारों में यह नारा चला है - "खाली हाथ आये और खाली हाथ जायेंगे".  इससे पता चलता है कि उनको जीवन ज्ञान नहीं था. 

ईश्वरवाद रहस्यमय होने के कारण प्रमाण तक पहुँच नहीं पाया.  अस्तित्व के कुछ भाग को विज्ञानियों ने सच माना, कुछ भाग को ईश्वरवादियों ने सच माना.  दोनों अधूरे होने के कारण प्रमाणित नहीं हो पाए, संकटग्रस्त हुए.  इसीलिये "विकल्प" की ज़रुरत आ गयी.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, अमरकंटक)

Wednesday, August 14, 2019

वास्तविकता


प्रश्न: आप "वास्तविकता" किसे कहते हैं?

उत्तर:  चार अवस्थाएं या चार पद वास्तविकता हैं.  वस्तुएं जो कुछ भी प्रकट कर रही हैं, वह सब वास्तविकता है.  उसमे से मानव को जाग्रति के पद में व्यक्त होना वास्तविकता कहा है.  भ्रमित हो कर जो मानव व्यक्त होता है, उसको हमने वास्तविकता कहा नहीं है.  इसलिए दुःख को हमने वास्तविकता नहीं कहा है. 

यह बुद्ध जो "दुःख आर्यसत्य है" कह कर गए, उससे भिन्न है.  हम यहाँ कह रहे हैं - दुःख एक "घटना" है.  मानव जाति की नासमझी से दुःख है.  जिससे हम मुक्ति पाना चाहते हैं वह सब घटना ही है.  घटनाएं परम्परा नहीं हैं.  परम्परा वह है जिसकी निरंतरता हो. 

प्रश्न: दुर्घटनाओं को आप कैसे देखते हैं?

उत्तर: जितने भी दुर्घटनाएं हैं वे मानव जाति की नासमझी से ही होते हैं.  समझ के जीने में दुर्घटना का कोई स्थान ही नहीं है. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, रायपुर)

निरपेक्ष ऊर्जा

प्रश्न:  आपने लिखा है - "सम्पूर्ण पदार्थ अपनी परमाण्विक स्थिति में सचेष्ट हैं, इससे स्पष्ट होता है कि इन्हें ऊर्जा प्राप्त है.  यह निरपेक्ष ऊर्जा है"

इकाइयों की क्रियाशीलता के मूल में ऊर्जा इकाई का ही गुण क्यों नहीं हो सकता?  इसमें "सत्ता" या "निरपेक्ष ऊर्जा" को लाने की क्या आवश्यकता थी?

उत्तर:  इकाई स्वयं से क्रियाशील हो और दूसरों को क्रियाशील करवा सके - ऐसा कुछ गवाहित नहीं है.  यदि आप कहते हो कि ऊर्जा इकाई का ही गुण है तो आपको यह भी बताना होगा कि एक इकाई का ऊर्जा दूसरे तक कैसे पहुँचता है?  अभी इकाइयों की सापेक्षता पूर्वक हम जो ऊर्जा प्राप्त करते हैं - उसमे ईंधन की ऊर्जा से कम ऊर्जा को ही हम प्राप्त करते हैं.  जैसे - स्टीम इंजन में जितना कोयला हम जलाते हैं उस कोयले की ऊष्मा-ऊर्जा से कम ऊर्जा ही हमे वाष्प से मिलती है.  इसका मतलब यह हुआ कि भौतिक वस्तुएं अपने से अधिक ऊर्जान्वित हो कर दूसरे को ऊर्जा दे नहीं पाते हैं.

"ऊर्जा इकाई का ही गुण है" - यह अवधारणा दे कर आप क्या कल्याण करना चाहते हैं?  किस उद्देश्य से?  यदि बिना उद्देश्य के बोलने की इजाज़त हो तो कुछ भी बोलना बनता है.  क्या बिना उद्देश्य के कुछ बात हो सकती है?

सत्ता को निरपेक्ष ऊर्जा इसलिए कहा क्योंकि यह ऊर्जा का अक्षय स्त्रोत है.  सब वस्तुओं में वह ऊर्जा आ करके जितना वो वस्तु है उससे ज्यादा वह ताकत है.  कोई परमाणु हज़ार वर्ष क्रियाशील रह कर भी रुकता नहीं है, उसकी क्रियाशीलता यथावत रहती है - क्योंकि निरपेक्ष ऊर्जा का अक्षय स्त्रोत है.   ऊर्जा सम्पन्नता के फलन में क्रियाशीलता ही "मूल चेष्टा" है.  भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया, और जीवन क्रिया के मूल में परमाणु ही है.  परमाणु में ही मूल चेष्टा की पहचान है.  क्रियाशीलता ही श्रम, गति, परिणाम के रूप में व्याख्यायित है.  श्रम का विश्राम, गति का गंतव्य और परिणाम का अमरत्व ही विकास व जाग्रति है.  अस्तित्व में जो कुछ भी क्रिया है उसका अर्थ इतना ही है.  उसको अध्ययन करना है, जीना है. 

प्रश्न:  आपके निरपेक्ष ऊर्जा को ऊर्जा का अक्षय स्त्रोत बताने का क्या उद्देश्य है?

उत्तर: मैंने संसार को व्यवस्था के स्वरूप में देखा.  व्यवस्था के स्वरूप में संसार को प्रस्तुत करना ज़रूरी माना.  भौतिकवादी संसार को अव्यवस्था बता कर शुरू किया.  ईश्वरवाद संसार को माया बता कर शुरू किया.  इन दोनों से व्यवस्था बनने वाला नहीं है.  व्यवस्था के स्वरूप में अस्तित्व को प्रस्तुत करने के तकलीफ हो तो बताओ!

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, रायपुर)

Friday, August 9, 2019

प्रमाण : अनुभव, व्यव्हार, प्रयोग




प्रमाण को लेकर आपने सूत्र दिया है: -

अनुभव ही प्रमाण परम 
प्रमाण ही समझ ज्ञान
समझ ही प्रत्यक्ष
प्रत्यक्ष ही समाधान, कार्य-व्यव्हार
कार्य-व्यव्हार ही प्रमाण 
प्रमाण ही जागृत परम्परा
जागृत परम्परा ही सहअस्तित्व 

इसको और स्पष्ट कर दीजिये.

उत्तर:  अब प्रमाण पूर्वक जीने की बात आयी है.  प्रमाण है - अनुभव प्रमाण, व्यव्हार प्रमाण और प्रयोग प्रमाण

हमारे आवश्यक वस्तुओं को बनाने में प्रयोग होगा.  व्यव्हार प्रमाण मानव के साथ होगा.  अनुभव प्रमाण व्यवस्था के रूप में होगा.  प्रयोग, व्यव्हार और व्यवस्था कैसा होगा, उसको प्रमाणित करने का सूत्र-व्याख्या भी प्रस्तुत कर दिए.

मानव का अनुभव-प्रमाण पूर्वक सार्वभौम व्यवस्था में जीना बनता है.  व्यव्हार-प्रमाण पूर्वक अखंड-समाज में मानव के साथ जीना बनता है.  प्रयोग-प्रमाण पूर्वक सामान्याकान्क्षा (आहार, आवास, अलंकार) और महत्त्वाकांक्षा (दूरगमन, दूरश्रवण, दूरदर्शन) की वस्तुओं का उत्पादन पूर्वक उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशील बनाना बनता है.  इस प्रकार यदि हम इन तीनों प्रमाणों के साथ जीने का परम्परा बनाते हैं तो मानव का समाधान पूर्वक, समृद्धि पूर्वक व्यवस्था में जीना बनता है.

प्रश्न:  मध्यस्थ दर्शन के प्रकटन से पहले प्रमाण का क्या स्वरूप रहा?

उत्तर:  इसके पहले हमारे पूर्वजों ने (आदर्शवाद में) प्रमाण के बारे में कुछ प्रस्तुत किया.  पहले "शब्द प्रमाण" बताया.  शब्द-प्रमाण को लेकर एक बहुत भारी उपनिषद ही लिखा है - उसका नाम है "कठोपनिषद".  उसमे प्रतिपादित किया है - प्रणव शब्द (ॐ) को शब्द माना.  इसके बाद वेद को शब्द माना.  ब्रह्म सूत्र में लिखा है - "ईक्षतेर नाशब्दम" (ब्र. सू. १, १.५)  जिसका शंकराचार्य ने व्याख्या दिया - ये तीनों वेदों के शब्दों से इस को वर्णन नहीं किया जा सकता.  इस प्रकार वेद को और प्रणव (ॐ) को शब्द माना.  उसके आधार पर कहा - शब्द ही प्रमाण है.

उसके संरक्षण में व्याकरण आयी.  व्याकरण में शब्द को ही "पद" माना.  शब्द को एक ने "प्रमाण" माना और दूसरे ने "पद" माना.  इससे जो उथलपुथल (वाद-विवाद) हुई वह अपने में एक इतिहास ही है.

इसके बाद कहा - आप्त-वाक्य प्रमाण है.

उसके बाद कहा - प्रत्यक्ष अनुमान आगम प्रमाण है.

उसके बाद चौथा कहा - शास्त्र प्रमाण है.

करीब-करीब ये सभी शब्द-प्रमाण ही हैं.

विज्ञानियों ने प्रयोग को प्रमाण कहा.  प्रयोग में यंत्र रहा.  यंत्र जो कहेगा वह सत्य है - ऐसा माना.  उसी आधार पर हमारी स्वास्थ्य को बताने के लिए भी यंत्र को लाये.  यंत्र प्रमाण के तले अपने सुखी होने के लिए हम बहुत सारा प्रयत्न कर रहे हैं.  उसमे कुछ में आसार दिखता है, कुछ में आसार भी नहीं दिखता - ये दोनों हो रहा है.  होते-होते हम विज्ञान विधि से कहीं पहुंचेंगे.

आदर्शवाद और भौतिकवाद (विज्ञान) ने प्रमाण को लेकर जो कहा उसके विकल्प में हम ये तीन प्रमाणों (अनुभव प्रमाण, व्यव्हार प्रमाण और प्रयोग प्रमाण) को प्रतिपादित कर रहे हैं.  इस तरह विकल्प में प्रमाण बदला है, प्रमाण की विधि बदली है, प्रमाण की स्वीकृतियाँ बदली हैं.  अनुभवमूलक विधि से प्रमाण होना है या प्रत्यक्ष-अनुमान-आगम विधि से होना है या शब्द-प्रमाण विधि से होना है - उस पर हमे सोचने की आवश्यकता है.  सोचने पर यदि किसी व्यक्ति का निष्कर्ष निकलता है कि अनुभवमूलक विधि से ही प्रमाण पूरा पड़ता है तो वह निष्ठावान होगा ही.  ऐसा मेरा सोचना है.

प्रमाण के लिए क्या कहा? - "समझ के करो!"

समझ क्या चीज़ है? - "ज्ञान"

ज्ञान क्या चीज़ है ? - "अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान"

इसको अध्ययन किया जा सकता है - यह आपको भी विश्वास हुआ है, मुझको भी विश्वास हुआ है.  अध्ययन आप भी कराते हो, अध्ययन मैं भी कराता हूँ.

ज्ञान ही है जो अध्ययन कराया जा सकता है.  बाकी को अध्ययन कराना बनता भी नहीं है.  अभी की "ज़बरदस्ती" है - जो अध्ययन कराना बनता नहीं है उसको हम अध्ययन मान रहे हैं, जो अध्ययन होता है उसको हम अध्ययन मान नहीं रहे हैं.  जबरदस्ती किया है इसलिए दुःख पाया भी है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (रायपुर, २००५)

Wednesday, August 7, 2019

उपदेश: "जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो"



ईश्वरवादी परंपरा में कहा गया, विज्ञान में भी कहा गया - "कर के समझो".  ईश्वरवादी परम्परा में कहा गया - "आचरण प्रथमो धर्मः विचारम तदनंतरम"  मतलब - आचरण के बाद विचार करना, उससे पहले नहीं!  इसमें व्यतिरेक यह दिखा - विचार के बिना कोई आचरण कर ही नहीं सकता.  मैंने यह कहा तो मुझे बताया गया कि तुम छोटा मुंह बड़ी बात करते हो.

अब हमने प्रस्तुत किया है - "समझ के करो!" समझ के सोच विचार करना, काम करना, फल परिणाम पाना यदि हम शुरू करते हैं तो धरती में यदि कुछ ताकत बचा होगा तो वह सुधार लेगा.  इस शुभेच्छा से यह प्रस्ताव रखा है.

सभी वास्तविकताओं का प्रयोजन का पता लगा लेना = जानना.  जानने के बाद मानना. 
जानने-मानने के बाद पहचानने-निर्वाह करने की बात आती है.

जाने हुए को मान लेने और माने हुए को जान लेने - इन दोनों स्थितियों में समझ के ही करना बनता है.

समझ के करने से प्रयोजन के अर्थ में प्रयोग करना बन जाता है.  व्यर्थता के प्रयोग करना बंद हो जाता है.

प्रश्न: "जाना हुआ" और "माना हुआ" में क्या अंतर है?

उत्तर: भ्रमित संसार में जाने हुए और माने हुए में व्यतिरेक रहता है.  जागृत संसार में जाने हुए और माने हुए में कोई व्यतिरेक नहीं है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, रायपुर)

सिद्धांत: श्रम-गति-परिणाम



प्रश्न:  श्रम-गति-परिणाम सिद्धांत को समझा दीजिये.

उत्तर:  व्यापक वस्तु में भीगे रहने से प्रकृति में ऊर्जा संपन्नता है.  ऊर्जा सम्पन्नता का प्रकटन बल के रूप में है.  बल का प्रकटन गति के रूप में है.  गति का प्रकटन परिणाम के रूप में है. 

परिणाम और श्रम "गति" के रूप में प्रकट होता गया.
श्रम और गति "परिणाम" के रूप में प्रकट होता गया.
गति और परिणाम "श्रम" के रूप में प्रकट होता गया.

यह स्वयंस्फूर्त होता है.  इस सिद्धांत से प्रकृति की हर इकाई स्वयंस्फूर्त काम कर रही है.  हर वस्तु सत्ता में भीगे रहने से ऊर्जा-संपन्न, डूबे रहने से क्रियाशील और घिरे रहने से नियंत्रित है.  हर वस्तु, हर परमाणु अपने में नियंत्रित है, क्रियाशील है, बल संपन्न है.  यह तीन बात हरेक वस्तु में दिखाई पड़ती है.  इससे प्रकृति की सम्पूर्ण क्रियाएं स्वयंस्फूर्त हैं.  ऐसा नहीं है कि पतंग जैसे सबकी डोर कहीं से बंधी हो और वो चला रहा हो!  स्वयंस्फूर्त रूप में सब क्रिया है इस में हम विश्वास रख सकते हैं.  इससे आशय है - मनुष्य अपने में स्वयंस्फूर्त विधि से व्यवस्था में जी जाए.  मानव जब व्यवस्था में जियेगा तो शुभ घटित होगा - उससे पहले शुभ घटित होने वाला नहीं है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, रायपुर)

अनुभव ज्ञान




आपने "अनुभव ज्ञान" शीर्ष में लिखा है:

"सत्ता में संपृक्त जड़ चैतन्य प्रकृति, सत्ता (व्यापक) में संपृक्त जड़ चैतन्य इकाइयां अनंत

व्यापक (पारगामी व पारदर्शी) सत्ता में संपृक्त सभी इकाइयां रूप, गुण, स्वभाव व धर्म संपन्न, त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में है"

इसको और व्याख्या कर दीजिये.

उत्तर:  मैंने क्या अनुभव किया - इस बात को यहाँ सत्यापित किया है.  यह संसार के लिए सूचना है.  अभी आप-हम जो सत्संग कर रहे हैं वो इसलिए जिससे यह सूचना हृदयस्पर्शी हो सके.

इसमें मूल बात है - "सत्ता में संपृक्त प्रकृति"

सत्ता को मैंने सर्वत्र एक सा विद्यमान, सुखप्रद व नित्य प्रतिष्ठा स्वरूप में देखा.  इसमें रद्दोबदल, कमीबेशी का काम नहीं है.  यहाँ ज्यादा, वहाँ कम - ऐसा कुछ नहीं है.  सत्ता सम्पूर्ण जड़ चैतन्य प्रकृति में पारगामी है.  प्रकृति का सत्ता में डूबा, भीगा, घिरा होना समझ में आया.  हरेक वस्तु - सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल से स्थूल, छोटे से छोटा', बड़े से बड़ा - इसमें भीगा है.  सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु के रूप में परमाणु अंश मिला.  परमाणु अंश का प्रवृत्ति परमाणु की व्यवस्था स्वरूप में काम करने का बना रहता है.  ऐसे परमाणु अंश भी व्यापक वस्तु में डूबा, भीगा, घिरा रहता है.  परमाणु के बाद ही व्यवस्था का प्रकटन है.  परमाणु अंश में परमाणु स्वरूप में गठित होने का प्रवृत्ति प्रकट हुआ.

यह सिद्धांत है - "हरेक प्रकटन के पूर्व स्थिति में उसका बीज स्वरूप निहित रहता है."  इसी आधार पर परमाणु अंश में व्यवस्था में होने की प्रवृत्ति निहित रहती है.  इसी कारण परमाणु में मध्य और परिवेशों में परमाणु अंश स्थापित और गतित होते हैं और एक निश्चित आचरण को प्रकाशित कर पाते हैं.  अकेले में परमाणु अंश किसी निश्चित आचरण को प्रकाशित नहीं कर पाता है.  निश्चित आचरण से उपयोगिता और पूरकता स्पष्ट होती है.  इस तरह एक प्रजाति के परमाणु की अवस्था और यथास्थिति दूसरे प्रजाति के परमाणु की अवस्था और यथास्थिति के लिए पूरक हो गयी.  इस प्रकार अनेक प्रजाति के परमाणुओं का प्रकटन हुआ.

परमाणुओं के सारे क्रियाकलाप को भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया और जीवन क्रिया स्वरूप में देखा.  तीन ही क्रियाएं हैं.  जीवन क्रिया जाग्रति-क्रम और जाग्रति अर्थ में काम करता रहता है.   भौतिक-रासायनिक क्रियाएं विकास-क्रम और विकास के अर्थ में काम करता मिलता है.

विकास-क्रम के बिना विकास का प्रमाण नहीं हो सकता.  जीवन का प्रमाण सहअस्तित्व में ही होगा.  इसको लेकर मैंने प्रतिपादित किया है - "सहअस्तित्व नित्य प्रभावी है".  सहअस्तित्व नित्य प्रभावी होने के कारण ही चैतन्य का वैभव और जड़ की सीमायें स्पष्ट हो जाती है.  चैतन्य प्रकृति गठनपूर्ण होने के आधार पर जड़ प्रकृति से भिन्न हो गया.  चैतन्य भी जड़ के साथ ही अपने वैभव को व्यक्त करता है.  व्यापक जैसा निर्मल वस्तु...  उसमे कोई ज़रुरत का खाका नहीं है, ज्यादा-कम का खाका उसमे नहीं है, परिणाम का खाका उसमे नहीं है, परिवर्तन का खाका उसमे नहीं है.  ऐसे पावन वस्तु भी सहअस्तित्व के बिना प्रमाणित नहीं हो पाया!  इससे बड़ी चीज़ बताया नहीं जा सकता.

सहअस्तित्व नित्य प्रभावी है.  व्यापक वस्तु अपने वैभव को जड़-चैतन्य प्रकृति के साथ ही प्रकट किया है.  जड़-चैतन्य प्रकृति न हो और व्यापक वस्तु प्रकट हो जाए - ऐसा होता नहीं है.  हमारे बुजुर्गों ने जबकि लिखा है - "व्यापक वस्तु ज्ञान है जो अपने में अव्यक्त और अनिर्वचनीय है."  उस समय में शायद उतना ही लिखने का ज़रूरत रहा होगा, इसलिए उतना ही लिखे.  या उनको समझ में नहीं आया होगा - ऐसा भी हम सोच सकते हैं.  मेरे हिसाब से सम्मानजनक भाषा यही है कि उस समय में उतना ही लिखना उचित समझा, उतना ही लिखा, उतना ही प्रमाणित हुए, और आगे के लिए आशीर्वाद दे कर गए.

शुभकामना की पूर्ति के लिए ये सब देखा/समझा या शुभकामना की पूर्ति के लिए ये सब दिखा/समझ में आ गया.  उसको हमने प्रकट किया है.  प्रकट करने पर पता चलता है यह पूरा अभिव्यक्ति "अस्तित्व में व्यवस्था है" - इस आधार पर है.   "व्यवस्था नहीं है" - भौतिकवाद यहाँ से शुरू किया.  दोनों में अंतर इतना ही है.  व्यवस्था होने के आधार पर ही सब कुछ एक दूसरे के लिए व्यवस्था में होने के लिए प्रेरक है, पूरक है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, रायपुर)

Sunday, August 4, 2019

आगे चल कर समाधि-संयम मार्ग की उपयोगिता





प्रश्न:  आगे चल कर संसार में समाधि-संयम के रास्ते पर लोगों को जाना पड़ेगा या नहीं जाना पड़ेगा?

उत्तर: समाधि-संयम घटना के रूप में घटित होता है.  यह क्रमिक नहीं है.  किसी क्रम में चल के यह घटित हो जाएगा - ऐसी कोई गारंटी नहीं है.  किसी को हो भी सकता है, किसी को नहीं भी हो  सकता है.  अरबों वर्षों तक भी न हो, तो किसी को एक ही क्षण में हो जाए.  ऐसी अनिश्चयता इसके साथ जुड़ी है.

इसमें मूलतः मैंने पहचाना - समाधि के लिए तीव्र जिज्ञासा का होना आवश्यक है.  वह "अज्ञात को ज्ञात करने" से सम्बंधित ही होना चाहिए - मेरे अनुसार!  "अप्राप्त को प्राप्त करने" से सम्बंधित बात में समाधि होगा - ऐसा मेरा विश्वास नहीं है.   अभी पतंजलि योग सूत्र में संयम को लेकर जो कुछ लिखा है, वह अप्राप्त को प्राप्त करने के लिए है.  वह सिद्धियों (विभूतियों) को प्राप्त करने के लिए है.  इसका नाम "विभूतिपाद" ही लिखा है.

इन सब को देख कर मुझे लगता है अज्ञात को ज्ञात करने के लिए संयम किसी ने किया नहीं होगा.   समाधि में जो होता है, उसी को "ज्ञान" मान लिया होगा.  उसी को "गुड़ खाया हुआ गूंगा" उपमा दे दिया.  ऐसा मैं मानता हूँ.  हो सकता है किसी को सत्य बोध हो भी गया हो, किन्तु वह प्रमाणित नहीं हुआ - यह मेरा सत्यापन है.

ज्ञान प्रमाणित नहीं हुआ.  किताबों में भी लिखा है - ज्ञान अनिर्वचनीय है.  हमारे बुजुर्गों ने भी यही बताया है कि ज्ञान अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है.  जबकि उन्ही ने पहले कहा है - "सत्यं ज्ञानम् अनंतम ब्रह्म".  अर्थात ज्ञान जैसा पवित्र वस्तु सब जगह समान रूप से  है.  ज्ञान यदि सब जगह पर नहीं है तो और क्या है?  इस बात पर मेरा जिज्ञासा रही, उसका उत्तर मुझे मिल गया.  मिल जाने के बाद मेरा सत्यापन यही है - "निश्चित ज्ञान के लिए मानव का समाधि के लिए प्रयत्न करना नहीं होगा.  निश्चित ज्ञान के लिए अध्ययन विधि ही है जो परंपरा में से ही होगा."

मानव परंपरा को आगे बढाने के लिए या तो "शोध" पूर्वक कुछ जोड़ा जा सकता है या "अनुसंधान" पूर्वक कुछ जोड़ा जा सकता है.  मैंने अनुसंधान पूर्वक मानव परम्परा में तीन बात को जोड़ा है - गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता.  श्रम-गति-परिणाम के साथ गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता को मैंने अनुसन्धान स्वरूप में प्रस्तुत किया है.  यह ज्ञान हो जाने पर मानव सटीकता से जी पाता है.

अध्ययन के लिए ध्यान देना पड़ेगा, अनुभव के बाद ध्यान बना ही रहता है.

जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (रायपुर, २००५)

Friday, August 2, 2019

ऐसा सोचने में क्या तकलीफ है?

सूर्य ऊष्मा सदा-सदा के लिए है - सूर्य जब तक ठंडा न हो जाए, तब तक.  अभी विज्ञानी ऐसा बताते हैं कि ५० करोड़ साल बाद सूर्य फैलने लगेगा और फैलते-फैलते धरती को अपने में निगल लेगा.  ऐसी बेसिरपैर की बातें हम विज्ञानियों से सुनते रहते हैं.

हमारे अनुसार ऐसी भी कल्पना दी जा सकती है कि सूर्य कभी चारों अवस्थाओं के साथ समृद्ध था, और वहां के विज्ञानी ही उसको आग का गोला बना कर अब इस धरती पर आ गए हों!  अब वही काम इस धरती पर भी करने के लिए तैयार बैठे हैं. 

ऐसा सोचने में क्या तकलीफ है?

हमारी इस कल्पना की हमारे पास गवाही तो है नहीं.  न विज्ञानियों के पास गवाही है कि सूर्य ५० करोड़ साल बाद धरती को निगल लेगा!  वो कल्पना कर सकते हैं तो हम भी कल्पना कर सकते हैं! 

प्रश्न:  आपने अनुसार सूरज कभी ठंडा होगा क्या?

उत्तर: मैं कह रहा हूँ - ठंडा होगा!  आज जो सूरज है वह पहले से किसी सूक्ष्म से सूक्ष्म अंश में ठंडा हुआ ही है.  ऐसा मैं कल्पना करता हूँ.  यह धीरे-धीरे हो कर के भारी परमाणु बनेंगे, उसके बाद उसका धरती के स्वरूप में गठन होगा. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (२००५, रायपुर)

आवर्तनशीलता की पहचान

प्रश्न : आवर्तनशीलता को कैसे पहचाने?

उत्तर: मनुष्य प्राकृतिक वैभव (खनिज और वनस्पति) को अपनी आकांक्षाओं (आहार, आवास, अलंकार, दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन) को पूरा करने के लिए कच्चा माल के रूप में प्रयोग करता है.  आवर्तनशीलता है - हम उन्ही वस्तुओं का प्रयोग करें कि जितना हम उपयोग करें प्रकृति उसको उतना पुनः बना पाए.  अभी वनस्पतियों में हमको पता लगता है कि हमारे उपयोग के बाद वह पुनः बनता रहता है.  तो वनस्पतियों को उपयोग करने के अनुपात में पुनः लगाते रहना आवर्तनशीलता है.  जबकि खनिज जो हम उपयोग करते हैं, वह पुनः बन रहा है - यह हमको प्रतीत नहीं होता.  तो जिन खनिजों को धरती अपने गर्भ में न रखते हुए बाहर कर दिया, उसको मानव उपयोग करे तो वह आवर्तनशील है.  धरती के गर्भ से खनिजों को निकालना बंद कर देना चाहिए.  लोहा आदि धातुओं को जिनको निकाल लिया गया है, उनको बारम्बार उपयोग करने का (recycle) कार्यक्रम रहे.  जैसे - घिसी हुई रेल पटरियां जंग खा कर, चोरी हो कर न जाएँ - उनका पुनः उपयोग हो.  अभी जितना लोहा धरती की सतह पर आ चुका है वह मानव की हज़ार वर्ष की आवश्यकता को पूरा कर सकता है. 

हम जंगल से बांस/लकड़ी काट कर लाते हैं, उसका हज़ारों टन मात्रा में कागज़ बनाते हैं.  उस सारे कागज़ को उपयोग के बाद स्याही को धोकर, पुनः pulp बना कर कागज़ बनाने की बात होना चाहिए.  इस recycling को आसानी से कर सकते हैं.  इस तरह बांस/जंगल काटने की आवश्यकता कम होगा. 

जंगल से ईंधन प्राप्त करने को कम करने के लिए सौर ऊर्जा का प्रयोग करना.  घर-घर में सौर ऊर्जा को पहुँचाना.  सौर ऊर्जा से घर में खाना बनाना और रोशनी होना.  सूर्य ऊष्मा सदा-सदा के लिए है - जब तक सूरज ठंडा न हो जाए तब तक.  इसी तरह गोबर गैस का उपयोग कर सकते हैं.  आज गोबर डाले, उससे गैस मिला, कल भी मिलेगा - यह आवर्तनशील है.  वायु तरंग को ऊर्जा प्राप्त करने के लिए उपयोग कर सकते हैं.  आज हवा चला, उससे ऊर्जा मिला, कल भी मिलेगा - यह आवर्तनशील है. 

मानव यदि मानव चेतना में परिवर्तित होता है तो बहुत सी आवश्यकताएं सीमित/संयत हो जाती हैं.  अभी बहुत सी आवश्यकताएं अमानवीयता के आधार पर हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (२००५, रायपुर)

व्यव्हार में संवाद का महत्त्व




मानव मानव के साथ व्यव्हार करता है, उसके मूल में वह दूसरे के बारे में कुछ मानता है.  उस के अनुसार या तो वह "स्नेह" करेगा या "विरोध" करेगा.  विगत में तीसरा भाषा भी प्रयोग किया कि "तटस्थ" रहेगा.  मेरे अनुसार विरोध का ही दूसरा नाम है "तटस्थ"!  इस तरह मानव व्यव्हार में या तो स्नेह होगा या नहीं तो विरोध ही होगा.  स्नेह के साथ ही परस्परता में विश्वास होता है.  स्नेह यदि टूटा रहता है तो परस्परता में विश्वास नहीं है.

व्यव्हार में संवाद भावी है.  व्यवहार में हम न्याय पूर्वक जीने के लिए संवाद करें.  समाधान पूर्वक जीने के लिए संवाद करें.  जब कभी भी हम संवाद शुरू करें - समाधान को आधार मान कर करें.  समाधान पूर्वक हम कैसे जियेंगे - इस पर संवाद करें.  न्याय पूर्वक कैसे जीना है? समाधान पूर्वक कैसे जीना है?  सत्य पूर्वक कैसे जीना है?  नियम पूर्वक कैसे जीना है?  नियंत्रण पूर्वक कैसे जीना है?  संतुलन पूर्वक कैसे जीना है?  व्यवहारात्मक जनवाद में हम व्यव्हार करते हुए इन ६ मुद्दों को कैसे प्रमाणित करेंगे - इस पर संवाद करने की सलाह दिया है.  स्कूल-कॉलेजों में इन ६ मुद्दों पर बच्चों से संवाद कराया जा सकता है.  इससे बच्चों में समाधान की मानसिकता तैयार होगी.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (२००५, रायपुर)

Thursday, August 1, 2019

त्व की पहचान से विश्वास



प्रश्न: आपने समाधानात्मक भौतिकवाद में प्रतिपादित किया है - "अस्तित्व में प्रत्येक एक अपने त्व सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदार है".  "त्व" से क्या आशय है?

उत्तर:  यदि भारत में कोई लोहा है तो कोई दूसरे देश में रहने वाला भी उसके लोहा ही होने में विश्वास करता है.  भारत में रहने वाला भी उस लोहे को लोहा ही होने में विश्वास करता है.  तो लोहे में "लोहत्व" होता है - इसमें मानव को संदेह नहीं है.

कुत्ता लन्दन में भी है, भारत में भी है.  भारत वालों को लन्दन वाले कुत्ते का कुत्ता ही होना स्वीकारने में विश्वास है.  लन्दन में रहने वालों के भारत वाले कुत्ते का कुत्ता ही होना स्वीकारने में विश्वास है.  कुत्ते में  "श्वानत्व" होता है - इसमें मानव को संदेह नहीं है.

अब भारत में मानव हैं, कोई दूसरा देश वाला उनके "मानव" होना स्वीकारने में विश्वास नहीं करता.  न भारत वाला दूसरे देश में रहने वालों के "मानव" होना स्वीकारने में विश्वास करता है.  इसका प्रमाण इतिहास में हुई मारकाट ही है.

हमारे अपने देश में ही एक आदमी दूसरे आदमी के साथ अभी तक कितना विश्वास कर पाया है?

इससे ज्यादा दुखद है जब परिवार में विश्वास की स्थिति को देखते हैं.  परिवार में कितना विश्वास कर पाए?  इसको लेकर सभी में कहीं न कहीं घायल होने का स्थिति बना ही है.

कुल मिला कर - मानव के त्व (या मानवत्व) की पहचान नहीं हुई. 

मानव-मानव के बीच विश्वासार्जन अनुभव मूलक विधि से ही होगा.

जब हम स्वयं में विश्वास कर पाते हैं तो परिवार में विश्वास होगा.  परिवार में विश्वास कर पाते हैं तो अडोस-पड़ोस में विश्वास होगा.  अडोस-पड़ोस में विश्वास कर पाते हैं तो देश-धरती में विश्वास होगा.  ऐसा विधि बनी हुई है.

मानव-मानव के बीच विश्वास के लिए "मानवत्व" एक महासेतु है.  इसके आधार पर हम एक दूसरे को पहचान सकते हैं, विश्वास कर सकते हैं, व्यव्हार कर सकते हैं, व्यवसाय कर सकते हैं, अखंड समाज स्वरूप में सम्पूर्ण मानव जाति को पहचान सकते हैं, व्यवस्था में जी सकते हैं और उसके अनुसार सूत्र-व्याख्या को प्रस्तुत कर सकते हैं. यह समाधानात्मक भौतिकवाद का मतलब है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (२००५, रायपुर)  

Wednesday, July 31, 2019

अनुभव दर्शन है - अनुभव स्वरूप में जीना.


अनुभव दर्शन का मतलब है - सहअस्तित्व अनुभव में आना.  सहअस्तित्व समझ में आना समझदारी की सम्पूर्णता है.  सहअस्तित्व समझ में आने से विकासक्रम अनुभव में आना, विकास अनुभव में आना, जाग्रति-क्रम अनुभव में आना, जाग्रति अनुभव में आना.  यही अनुभव में आने का वस्तु है.  इसी के साथ नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म और सत्य अनुभव में आता है.  यह स्थिति-सत्य, वस्तुस्थिति सत्य और वस्तुगत सत्य के रूप में पूरा व्याख्या हो जाता है.

इस तरह सहअस्तित्व अनुभव में आने पर "समझदारी" को समझाने का परम्परा बनता है.  परम्परा में अभी तक एक तरफ "यांत्रिकता" को समझाने की बात हुई, दूसरी तरफ "रहस्य" को समझाने की बात हुई.  अभी हम सहअस्तित्व को समझाने के लिए तैयार हुए हैं.  सहअस्तित्व में विकासक्रम, विकास, जाग्रतिक्रम, जाग्रति को समझाने के योग्य हम हुए हैं.  यह अधिकार सम्पन्नता हमारे पास है.  इसके आधार पर मानव को समझदार बनाने की कोशिश कर रहे हैं.  इसमें कुछ दूर तक हम चले हैं, कुछ दूर चलना शेष है.  इस तरह हमारा गति बना है.  इसको पूरा समझा ले जाने के बाद मानव अनुभवमूलक विधि से ही जियेगा.  दूसरा कोई रास्ता नहीं है.  अनुभवगामी पद्दति से यदि हम अध्ययन कराते हैं तो अनुभवमूलक विधि से ही प्रमाणित होना बनता है.

अनुभव दर्शन है - अनुभव स्वरूप में जीना.  जीने का नाम है दर्शन.  बातचीत दर्शन नहीं है.  जीना दर्शन है.  दृश्य के रूप में मानव का "होना" और "जीना" दर्शन का आधार है.  मानव के "होने" के स्वरूप को हम पहचानते ही हैं.  मानव के अनुभव स्वरूप में "जीने" का स्वरूप जाग्रति कहलाया.

अनुभव स्वरूप में जीने के पहले की स्थिति में मनुष्य "समझा हुआ" या "दृष्टा पद" में हो सकता है.  इसको बता नहीं पाता है तो अलग बात है.  इस तरह संभव है विगत में भी लोग हुए हों जो दृष्टा पद में हुए हों, प्रमाण स्वरूप में प्रस्तुत न हो पाए हों.  पहले कोई ज्ञानसंपन्न नहीं हुए - इसका दावा हम नहीं कर सकेंगे.  अभी तक "ज्ञान का प्रमाण" तो नहीं हुआ.  ज्ञान का प्रमाण अभी मध्यस्थ दर्शन ही प्रस्तुत किया.  ज्ञान का प्रमाण मतलब - व्यवस्था, अखंडता, सार्वभौमता, अक्षुण्णता वैभव सम्पन्नता.

प्रश्न: "समाधानात्मक भौतिकवाद" से क्या आशय है?

उत्तर: भौतिक रासायनिक वस्तुएं समाधान के रूप में हैं, समस्या के रूप में नहीं हैं.  हर वस्तु अपने त्व सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदार है.  इसका अर्थ है - नियम, नियंत्रण, संतुलन पूर्वक रहता है. इस तरह भौतिक वस्तुओं को हम व्यवस्था स्वरूप में होना देखते हैं तो हम स्वयं व्यवस्था में होने का प्रेरणा पाते हैं.  उसमे ज्यादा से ज्यादा यौगिक विधि को देख कर प्रेरणा मिलती है.  एक दूसरे से मिलकर गुणात्मक परिवर्तन को कैसे प्रमाणित करें - उसके बारे में हम सोच सकते हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (२००५, रायपुर)

Monday, July 29, 2019

निराकार और साकार



साकार और निराकार की बहुत चर्चाएं हुई हैं.  यह सम्माननीय तर्क भी है, विचार भी है.  इसका समाधान भी उतना ही सम्मान करने योग्य है.  अस्तित्व को यदि समझना है तो यह ध्यान देना आवश्यक है कि साकार और निराकार अलग-अलग होता नहीं है.  हमारा अभी तक का प्राणसंकट रहा है कि साकार और निराकार अलग-अलग है.  हमारे पूर्वज (आदर्शवाद) बताये - साकार अलग चीज़ है, निराकार अलग चीज़ है.  इसको मैंने पाया - "साकार और निराकार सदा-सदा साथ ही रहते हैं."  यदि यह हमें अच्छे से समझ में आता है तो इसमें ९९% समस्याओं का समाधान है.  मैंने इसको लिखा है - "सहअस्तित्व नित्य वर्तमान है.  साकार वस्तु के बिना निराकार वस्तु का पहचान नहीं है, निराकार के बिना साकार वस्तु में ऊर्जा सम्पन्नता का स्त्रोत नहीं है."  इससे ज्यादा क्या शब्दों में लिखा भी जा सकता है?  इससे ज्यादा क्या लिखना भी चाहिए?


निराकार और साकार साथ-साथ रहने के आधार पर हम निराकार को भी पहचानते हैं, साकार को भी पहचानते हैं.  यदि ये दोनों साथ-साथ न हों तो दोनों की पहचान नहीं हो सकती.  इसकी गवाही है - साकार को विज्ञानी जो पहचानने गए, पहचान नहीं पाए.  निराकार को ज्ञानी जो पहचानने गए, पहचान नहीं पाए.  इस धरती के ७०० करोड़ आदमी के सामने यह गवाहित हो चुका है.  और इस तरह सिर कूटना हो तो कूट लें!

विज्ञानी साकार को लेकर सत्य को खोजना शुरू किया, ज्ञानी निराकार को लेकर सत्य को खोजना शुरू किया.  दोनों खोजते रह गए, पराभावित हो चुके.  सत्य का अता-पता नहीं चला.  आज तक कोई विज्ञानी यह कहने योग्य नहीं है कि यह सत्य है.  कोई भी ज्ञानी इस धरती पर नहीं है जो सत्य को प्रमाणित करने के योग्य हो.  इस धरती पर तो नहीं है.  यह मैं अपनी जिम्मेदारी से कह रहा हूँ.  इसको मैं अच्छी तरह से जांच चुका हूँ.  मेरे ज्ञान पटल पर गुजर चुका है धरती का मानव.  मेरे चित्रमाला में न आया हो ऐसा कोई घटिया आदमी नहीं, ऐसा कोई बढ़िया आदमी नहीं.  सबको मैं देख चुका हूँ.  समाधि-संयम जो मैंने किया उसका यदि कोई त्राण-प्राण है, तो वह यही है.

ऐसा समीक्षित होने पर मेरे प्रस्तुत होने का ताकत बढ़ी.  इस प्रस्ताव को हम "विकल्प" स्वरूप में रख सकते हैं - यह ताकत बनी.  आज के संसार के सामने "यह विकल्प है" - ऐसा प्रस्तुत कर देना आसान तो नहीं है.  यह महत पुण्य का प्रताप ही है.  इसको मैंने लिखा है - "मानव पुण्य के आधार पर यह घटित हुआ है."  मानव पुण्य इतना विकसित हो चुका है - इसीलिये इस विकल्प के प्रकटन होने की घटना घटित हुई.

निष्कर्ष यह निकला:  अनिश्चित लक्ष्य के लिए की गई साधना करके इस उपलब्धि (मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना) को हम प्रमाणित करेंगे - ऐसा कभी हो ही नहीं सकता.

अनिश्चित लक्ष्य के लिए साधना के लिए मैं कोई उपदेश दे नहीं पाऊंगा.  मैं यह ठोक-बजाऊ विधि से अवश्य कहूँगा - पूरा का पूरा सच्चाई को मैं शब्द स्वरूप में प्रस्तुत किया हूँ, वह आपके लिए सूचना है.  सूचना के आधार पर आपमें जिज्ञासा होता है तो हम आपको अध्ययन करायेंगे.  अध्ययन पूर्वक आपको सत्य बोध करायेंगे.  बोध कराने पर आपमें उसको प्रमाणित करने का तीव्र संकल्प होगा, फलस्वरूप वह अनुभव मूलक विधि से प्रमाणित होगा.  इसको मैं देखा हूँ - यह सभी मनुष्यों के साथ रखी सम्भावना है.  यह सम्भावना ज्ञानी, विज्ञानी, अज्ञानी तीनो में समान रूप से है.  जो जितना confusion में है उसको उतना ज्यादा ध्यान देना होगा.  IIT जैसे सर्वोच्च कहलाने वाले संस्थानों में मैंने देखा - वे जितना पढ़े हैं, उतना उनमे confusion है, निर्णय ले पाने में असमर्थता है.  जितना ज्यादा पढ़ा उनका उतना मानसिक रूप में टुकड़ा बना रहता है.

प्रश्न:  क्या ईश्वर साकार स्वरूप भी है और क्या उसका साक्षात्कार संभव है, जैसा आपको बनारस में साधना के दौरान (समाधि-संयम से पहले) हुआ?

उत्तर: यदि कोई साक्षात्कार हुआ होगा तो वह "साकार" होना ही होगा.  साक्षात्कार प्रकृति का ही होता है.  प्रकृति का आकार बनाना हमारा मानसिक कला है.  वह कला हमारे मन में बनता है और बिगड़ता भी है.  मुझ में वह थोड़ा ज्यादा देर तक रह गया - इसलिए उसको साक्षात्कार माना.  इसमें किसको क्या तकलीफ है?  मनाकार स्थिर होने से उसको हम साक्षात्कार मानते हैं.  मनाकार स्थिर नहीं होने से हम साक्षात्कार नहीं मानते हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (२००५, रायपुर)

Saturday, July 27, 2019

कारण, गुण, गणित स्वरूप में मानव भाषा





गणितात्मक भाषा जोड़ने-घटाने से सम्बंधित है.

गुणात्मक भाषा उपयोगिता और सदुपयोगिता को पहचानने से सम्बंधित है.

कारणात्मक भाषा में प्रयोजनों को सिद्ध करने की विधि आती है.  कारणात्मक भाषा सत्य को इंगित करता है.  सत्य सार्वभौमता में प्रमाणित होता है.

उपयोगिता का निर्वाह = न्याय.  सदुपयोगिता का निर्वाह = धर्म (समाधान).  प्रयोजनशीलता का निर्वाह = सत्य.

सहअस्तित्व प्रमाणित होना ही प्रयोजन है.  हमारी भाषा, भाव, मुद्रा, अंगहार, व्यवहार से सहअस्तित्व प्रमाणित होना ही प्रयोजन है.

उपयोगिता व सदुपयोगिता व्यव्हार में या परस्परता में (जीने में) प्रमाणित हो जाता है.  उपयोगिता परिवार में तथा सदुपयोगिता अखंड-समाज में समझ आता है.  सार्वभौमता या प्रयोजनशीलता अनुभवमूलक विधि से ही आता है.  अनुभव के बिना कारणात्मक स्वरूप में प्रयोजन सिद्द नहीं होता.  इसीलिये कारणात्मक भाषा दी जाती है.  कारणात्मक विधि से प्रयोजनशीलता सिद्ध होता है.

गणित आँखों से अधिक है पर समझ से कम है.  समझ को लेकर गुणात्मक और कारणात्मक भाषा है.  गुणात्मक भाषा में उपयोग-सदुपयोग प्रमाणित हो जाते हैं.  उत्पादन (व्यवसाय) और व्यवहार गणितात्मक और गुणात्मक भाषा से सिद्ध हो जाता है.  उसके बाद कारणात्मक भाषा से प्रयोजन सिद्ध होता है.  प्रयोजन सिद्ध होने का मतलब है - परम सत्य स्वरूपी सहअस्तित्व समझ में आना और प्रमाणित होना.

पूरा दर्शन कारणात्मक भाषा में लिखा गया है.  विचार (वाद) और शास्त्र को गुणात्मक भाषा में लिखा गया है.  गुणात्मक भाषा से उपयोग और सदुपयोग का स्वरूप स्पष्ट होता है.  दर्शन से प्रयोजन का स्वरूप स्पष्ट होता है.  इस प्रकार पूरा वांग्मय कारणात्मक और गुणात्मक भाषा में लिखा गया है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)


 - श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

सम-विषमात्मक प्रभाव की सीमा


प्रश्न:  आपने लिखा है - "आत्मा पूर्ण मध्यस्थ व नित्य शांत है, इस पर सम या विषम का आक्रमण सिद्ध नहीं होता है."  इसको स्पष्ट कर दीजिये.

उत्तर: अनुभव करने वाले जीवन के मध्यांश को "आत्मा" नाम दिया है.   उस पर सम-विषमात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है, इसीलिये वह सुरक्षित रहता है.  जब आवश्यकता बनता है तब वह अनुभव में आ जाता है.  अनुभव मानव परम्परा में ही प्रमाणित होता है.

प्रश्न: क्या जीवन के प्रथम परिवेश "बुद्धि" पर सम-विषम का आक्रमण हो सकता है?

उत्तर:  नहीं.  बुद्धि पर भी सम विषम का आक्रमण सिद्ध नहीं है.  चित्त के चिंतन भाग पर भी नहीं.  शरीर मूलक जीते तक चित्रण, तुलन, विश्लेषण, आस्वादन व चयन पर सम-विषम का प्रभाव होता है.

प्रश्न:  आत्मा को आपने "सर्वज्ञ" संज्ञा किस आधार पर दी है?

उत्तर: आत्मा से अधिक जानने वाला कोई वस्तु होता नहीं है.  अनुभव से अधिक जानना कुछ होता नहीं है.  सहअस्तित्व में अनुभव से अधिक जानने की वस्तु नहीं है.  दूसरे किसी विधि से इससे ज्यादा कुछ होता नहीं है - इसलिए ऐसा लिखा है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Friday, July 26, 2019

भ्रांत अवस्था की सीमा

प्रमाणित होने में वरीयता क्रम


प्रश्न: दिव्यमानव एषणा मुक्त विधि से किस प्रकार मानवीयता पूर्ण आचरण का निर्वाह करता है?  क्या मानवीयता पूर्ण आचरण करने के लिए जन बल, धन बल और यश बल की आवश्यकता नहीं है?

उत्तर:  शरीर यात्रा पर्यंत न्याय सहज, समाधान सहज, सत्य सहज निर्वाह करने में एश्नाओं की अनिवार्यता नहीं है.  यह वरीयता की बात है.  सत्य पूर्वक जीने में न्याय और धर्म पूर्वक जीना समाया रहता है.  अनुभव के बाद वरीयता क्रम में जाग्रति का प्रमाण होता है - पहले न्याय, फिर धर्म, फिर सत्य.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Thursday, July 25, 2019

परम्परा ही सहअस्तित्व है. परंपरा ही प्रमाण है. परम्परा ही जाग्रति है.





प्रश्न:  मानव व्यवहार दर्शन में से निम्न सूत्र को समझना चाहते हैं.

"विषय चतुष्टय ही सबीज विचार है.  लोकेषणा और एषणा मुक्ति निर्बीज विचार है.  मानव पद में पुत्रेष्णा और वित्तेष्णा सबीज होते हुए भी मानव न्याय सम्मत समाधान संपन्न होता है.  इसलिए 'मानव' भ्रम बाधा से मुक्त होता है तथा जागृत रहता है.  जाग्रति पूर्ण होना शेष रहता है.  मानव पद को भ्रान्ताभ्रांत भी संज्ञा है.  मानव पद में सबीज विचार का समीक्षा हुआ रहता है."

उत्तर:  "अनुभव होना दृष्टा पद है, मानव परंपरा में प्रमाणित करना जाग्रति है"- इस बात को याद रखना.  नहीं तो यह बारम्बार hotch-potch करोगे.

सबीज विचार चार विषय (आहार-निद्रा-भय-मैथुन) और तीन एश्नाओं की सीमा में हैं.  मानव तीन एश्नाओं के साथ मानव चेतना में जीते हुए व्यव्हार में न्याय करता है.  विषयों के साथ न्याय नहीं होता.  न्याय एश्नाओं के साथ ही होता है.  निर्बीज विचार में तीनो एश्नाओं से मुक्ति है.

न्याय और धर्म को प्रमाणित करने के लिए एश्नाओं का होना आवश्यक है.  शरीर छोड़ने के बाद न्याय और धर्म सत्य में विलय हो जाते हैं.  शरीर छोड़ने के बाद जीवन सहअस्तित्व में रहता है. 

मानव तीन एश्नाओं के साथ उपकार करता है. 
देव मानव लोकेष्णा के साथ उपकार करता है.
दिव्यमानव में एषणा मुक्ति होती है, उपकार करना शेष रहता है.

"मानव जाग्रति पूर्ण होना शेष रहता है" - इसका अर्थ है प्रमाणित होना शेष रहता है.  मानव में अनुभव पूरा रहता है, प्रमाणित होना शेष रहता है.

मानव पद को "भ्रान्ताभ्रांत" इसलिए कहा है क्योंकि वह भ्रान्ति और निर्भ्रान्ति दोनों का दृष्टा होता है.  सही और गलत का ज्ञान हुआ रहता है.

"निर्भ्रान्त" वह स्थिति है जब संसार में भ्रान्ति कोई शेष नहीं बचा.  संसार में मानव परम्परा में भ्रम का नहीं रहना ही निर्भ्रांत स्थिति है. 

केवल व्यक्ति में "निर्भ्रांत" का कोई मतलब ही नहीं है.  परम्परा नहीं है तो उसका क्या मतलब है?

अभी भ्रांत परम्परा है.  मान लो मैं समझदारी से संपन्न हो जाता हूँ, लेकिन प्रमाणित नहीं होता हूँ - तो मैं जीवन स्वरूप में रह पाऊंगा, प्रमाण स्वरूप में नहीं रह पाऊंगा.  जीवन स्वरूप में मरने के बाद ही रहना होता है.  जीते-जागते प्रमाण हो गया तो परंपरा होगी.  परम्परा नहीं होगी तो प्रमाण नहीं होगा.

ज्ञान के multiply होने की परंपरा होने में प्रमाण है.  कुछ-एक व्यक्तियों के अनुभव संपन्न हो जाने से भी प्रमाण नहीं है.  परंपरा में प्रमाण है.  यह वैसे ही है जैसे - कोई प्रजाति का जीव धरती पर हुआ, वो चला गया - उसका कोई प्रमाण नहीं है.  उसकी वंश परंपरा बनी तो उसका प्रमाण है.  एक प्रजाति का परमाणु धरती पर प्रकट हुआ और चला गया - तो उसका कोई प्रमाण नहीं है.  उसकी परिणाम परंपरा बनी तो उसका प्रमाण है.

परम्परा ही सहअस्तित्व है.
परंपरा ही प्रमाण है.
परम्परा ही जाग्रति है.

भ्रान्ताभ्रांत परम्परा का मतलब है - मानव चेतना में आ गए.  व्यक्ति का भ्रान्ताभ्रांत होने से प्रमाण नहीं है, उसकी परंपरा होने से प्रमाण है.  व्यक्ति के रूप में कोई भ्रान्ताभ्रांत हो कर चला भी गया तो उसका कोई प्रमाण नहीं है.  उस व्यक्ति को ज्ञान (अनुभव) हुआ, पर वो प्रमाणित नहीं हुआ - यही कहना बनेगा.

भ्रांत, भ्रान्ताभ्रांत और निर्भ्रान्त शब्दों की सार्थकता मानव परंपरा के अर्थ में है, न कि व्यक्ति के.

आज की स्थिति में भ्रांत परम्परा है.  भ्रान्ताभ्रांत परम्परा बनने के लिए हम नीव डाल रहे हैं.  भ्रान्ताभ्रांत परम्परा बन जाता है तब निर्भ्रान्त परम्परा बनेगी.  निर्भ्रान्त परम्परा को दिव्य मानव परंपरा कहा.  उसके बाद परंपरा शाश्वत रहेगी.  मानव पद में संक्रमित होने में ही देर है, उसके बाद देव पद और दिव्य पद पास-पास हैं.  मानव पद (भ्रान्ताभ्रांत) की परंपरा होने पर बहुत से देव मानव हो ही जाते हैं.  देव मानव परम्परा होने पर बहुत से दिव्य मानव हो ही जाते हैं.

दिव्य मानव परम्परा में मानव पद में युवावस्था तक पहुंचेंगे, युवावस्था के बाद देव मानव, दिव्य मानव में परिवर्तित हो जायेंगे. 

मानव चेतना सहज परंपरा में विषय-चतुष्टय में से आहार, निद्रा और मैथुन शरीर परम्परा के लिए बने रहते हैं, लेकिन भय मुक्ति हो जाती है.

(भ्रान्ताभ्रांत) मानव परंपरा में समाधान-समृद्धि प्रमाणित होती है.
देव मानव परम्परा में समाधान-समृद्धि-अभय प्रमाणित होता है.
(निर्भ्रान्त) दिव्य मानव परम्परा में समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व प्रमाणित होता है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)






'ज्यादा समझा" - "कम समझा" का झंझट



मनुष्येत्तर प्रकृति में चेतना को प्रकाशित करने वाला जीव संसार है.  वन्शानुशंगी विधि से जीव संसार में जीवनी क्रम को प्रमाणित किया.  जैसे जीवों में जीवनी क्रम है, वैसे मानव में जाग्रति क्रम है.  कोई "ज्यादा समझा" है, कोई "कम समझा" -  यह झंझट आदिकाल से है.  समझदारी को लेकर अनुसंधान होने पर अब जाकर यह स्पष्ट हुआ कि "ज्यादा समझा" - "कम समझा" कुछ होता नहीं है.  "समझा" या "नहीं समझा" होता है.  यहाँ पहुंच गए हम!  ज्ञान की कोई मात्रा तो होती नहीं है.  ज्ञान हुआ या नहीं हुआ - इतनी ही बात है.

अनुभव में ज्ञान हो जाता है, उसको प्रमाणित करना क्रमशः होता है.  अभी जैसे मैं ही हूँ, सम्पूर्ण अस्तित्व को अध्ययन किया हूँ, अनुभव किया हूँ, स्वयं प्रमाणित हूँ - लेकिन समझाने/प्रमाणित करने में क्रम ही है.  पहले न्याय प्रमाणित होगा, न्याय प्रमाणित होने के बाद धर्म प्रमाणित होगा, धर्म प्रमाणित होने के बाद ही सत्य प्रमाणित होगा.

प्रश्न: तो अभी आप क्या प्रमाणित कर रहे हैं?

उत्तर: न्याय और धर्म को प्रमाणित कर रहे हैं.  अभी सत्य प्रमाणित करने का जगह ही नहीं बना है.  कालान्तर में बन जाएगा तो प्रमाणित होगा.  सत्य प्रमाणित होना मतलब सहअस्तित्व प्रमाणित होना, मतलब व्यवस्था प्रमाणित होना.  सत्य प्रमाणित होने के पहले अखंड समाज सूत्र-व्याख्या होना होगा.  धर्म (समाधान) अखंड-समाज सूत्र व्याख्या का आधार है.  समाधान को मैं प्रमाणित करता हूँ - यह मैं घोषित कर चुका हूँ.  यही प्रश्न मुक्ति अभियान है.  मुझे अपने परिवार के सदस्यों के साथ न्याय करने में कोई परेशानी नहीं है.

प्रश्न:  लेकिन दोनों पक्षों के समझदार हुए बिना "उभय तृप्ति" कहाँ हुई?

उत्तर: उभय तृप्ति तो दोनों के समझदार होने पर ही है.  मैं न्याय पूर्वक जीता हूँ, उससे मुझे स्वयं में तृप्ति है.  मेरे ऐसे जीने के प्रमाण में दोनों को तृप्ति मिलनी है, उसके लिए मैं प्रयत्नशील हूँ.  ऐसे कुछ सम्बन्ध हो चुके हैं, कुछ होना शेष है.  इसमें क्या तकलीफ है?  वह सब सही है, इसमें कोई परेशानी नहीं है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

अनुभव एक साथ ही होता है, प्रमाणित होना क्रम से होता है



प्रश्न:  आपने अनुभव दर्शन में लिखा है - "दिव्यमानव को ब्रह्मानुभूति, देवमानव को ब्रह्म प्रतीति, मानवीयता पूर्ण मानव को ब्रह्म का आभास और अमानव को भी ब्रह्म का भास होता है."

इससे ऐसा आशय जा रहा है कि मानव पद में अनुभव सम्पन्नता नहीं है, केवल आभास ही है.  जबकि आपने कई स्थानों पर स्पष्ट किया है कि अनुभव सम्पन्नता के बाद ही मानव पद है.  इसको स्पष्ट कीजिये.

उत्तर: व्यापक वस्तु (ब्रह्म) के प्रमाणित होने के सम्बन्ध में यह लिखा है.  अनुभव में पूरा ज्ञान रहता है, वह क्रम से प्रमाणित होता है.  भास, आभास, प्रतीति और अनुभूति - प्रमाणित होने के ये चार स्तर हैं.

अमानव (पशु मानव, राक्षस मानव) में भी ब्रह्म का भास होना पाया जाता है.  भास प्रमाणित नहीं होता.  भास में प्रमाणित होने की आशा रहती है.  न्याय की आशा सबके पास है.

मानव चेतना युक्त मानव में ब्रह्म-आभास न्याय स्वरूप में प्रमाणित होता है.

देव चेतना युक्त मानव में ब्रह्म-प्रतीति समाधान (धर्म) स्वरूप में प्रमाणित होता है.

दिव्य चेतना युक्त मानव में ब्रह्म-अनुभूति सत्य (सहअस्तित्व) स्वरूप में प्रमाणित होता है.

यही चेतना में वरीयता या श्रेष्ठता का मतलब है.  दिव्यचेतना में समानता ही होता है.  ज्ञान में अनुभव एक साथ ही होता है, प्रमाणित होना क्रम से होता है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Wednesday, July 24, 2019

समग्र वस्तु का क्रमिक साक्षात्कार

प्रश्न: "साक्षात्कार क्रमिक होता है.  एक-एक वास्तविकता का साक्षात्कार होता है" - ऐसा आपने बताया है.  साथ ही आप यह भी कहते हैं - "समझ का भाग-विभाग नहीं होता.  दो ही स्थितियां हैं - समझे या नहीं समझे."  जब समझने की प्रक्रिया क्रमिक है तो समझ की उपलब्धि क्रमिक कैसे नहीं है?

उत्तर: सहअस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व समझने की समग्र वस्तु है.  अस्तित्व व्यापक में अनंत एक-एक समाये हुए होने के स्वरूप में है.  एक-एक का अध्ययन करते हुए अस्तित्व को टुकड़ों में माना जाए या एक समग्र वस्तु माना जाए?  अस्तित्व एक "समग्र वस्तु" है.

व्यापक वस्तु को छोड़ कर कोई अध्ययन नहीं है.  व्यापक वस्तु में एक-एक का अध्ययन है.  एक-एक वस्तु को चार अवस्थाओं में पहचाना.  इनमे सिन्धु-बिंदु न्याय को पहचाना.  एक वस्तु का अध्ययन होने से उस अवस्था की सारी वस्तुओं का अध्ययन हो जाता है.  चारों अवस्थाओं का स्वभाव-धर्म अलग-अलग बताया.

एक-एक का गणना होता है.  एक-एक वस्तु व्यापक में अविभाज्य है.  एक-एक वस्तु अलग-अलग होता है, उसकी अलग-अलग पहचान है, इसलिए उनका अलग-अलग अध्ययन भी है.  व्यापक वस्तु का अनुभव होता है.  व्यापक वस्तु का अनुभव होता है तो "समझे".  उससे पहले "नहीं समझे".

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)



Monday, July 22, 2019

वातावरण

हमने प्रतिपादित किया है: - "इकाई + वातावरण = इकाई सम्पूर्ण"

जैसे: - एक झाड का जो क्रियाकलाप रहता है उसके अनुसार झाड़ का वातावरण है.

पदार्थ के क्रियाकलाप के अनुसार पदार्थ का वातावरण है.

जीव के क्रियाकलाप के अनुसार जीव का वातावरण है.  जीव का क्रियाकलाप जीने की आशा के अनुसार है.

मनुष्य का वातावरण ही उसके सोच-विचार के अनुसार होता है.  बाकी सब में उनके कार्य करने से उनका वातावरण बनता है.  मनुष्य कार्यकलाप नहीं करता, ऐसा नहीं है.  मनुष्य का कार्यकलाप उसके सोच-विचार के अनुसार होता है.  आदिकाल से अब तक ऐसा ही है. 

आपके सोच-विचार से आपका वातावरण बना है.  सोच-विचार का स्त्रोत जीवन है - यह हम मध्यस्थ दर्शन में घोषणा किये हैं.  आपका सोच-विचार ही आपके वातावरण को बनाया है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

रहस्य मुक्ति



प्रश्न:  अकस्मात् घटनाओं के रूप में कई लोग ऐसा सत्यापन किये हैं कि उन्होंने शरीर से अलग कुछ होता है, उसको देखा है.  उसको भूत-प्रेत-आत्मा आदि नाम लेकर कुछ बताते हैं.  अपने आप के शरीर से भिन्न होने की पहचान कुछ तंत्र/अभ्यास विधियों में कराई जाती है - आप के अनुसार वह क्या है?  साक्षात्कार है या कोरी कल्पना है?

उत्तर: साक्षात्कार है - यदि यह आगे पूरी समझ से जुड़ता है.  यदि आगे समझ से नहीं जुड़ता है तो रहस्य है, कोरी कल्पना है.

प्रश्न:  आदि शंकराचार्य के बारे में कहते हैं वे अपने शरीर को एक अवधि तक छोड़ दिए फिर वापस आ गए.  इसको आप क्या कहेंगे?  

उत्तर: शरीर से अलग हो जाना फिर वापस जीने लगना एक बात है, पर वह जीवन के स्वरूप का अध्ययन हो जाना नहीं है.  शंकराचार्य ये जो किये इससे जीवन और शरीर अलग-अलग वास्तविकताएं हैं - यह कहाँ सिद्ध कर पाए?  जीवन को जानते ही नहीं रहे.  वो जितना किये उसको बताया जाए, उसको अपने मन मुताबिक़ रबड़ जैसे खींचा न जाए!

उस परंपरा में शरीर से अलग "जीव" होता है - बताया गया है.  "जीव" के ह्रदय में "आत्मा" रहता है, जो ब्रह्म का अंश है - ऐसा बताया है.  जीव-कल्याण के लिए आत्म-ज्ञान चाहिए - ऐसा बताये.  आत्म-ज्ञान की महिमा वश ऐसे घटना होता है - ऐसा मान लिए.  अब आप उसका इस दर्शन के प्रस्ताव के साथ घोटाला करना चाहते हैं!  उससे कुछ निकलना नहीं है.

आदि शंकराचार्य के समय तक जीवन की कोई अवधारणा नहीं है.  अध्यात्मवाद में "जीव" और "आत्मा" की अवधारणा है.  भौतिकवाद में उस सब को नहीं मानते हैं, उसको निरर्थक कहते हैं.  अध्यात्मवादी भौतिकवादियों को नास्तिक कहते हैं.

प्रश्न:  तो आदि शंकराचार्य के साथ यह जो घटा, उसको "साक्षात्कार" माना जाए या नहीं?

उत्तर: किसका साक्षात्कार माने?  घटना तो अस्तित्व में होता ही रहता है.  शंकराचार्य के पहले भी होता रहा, किन्तु वे "जीवन" को कहाँ पहचाने?

प्रश्न:  मान लिया वे पूरे को नहीं समझ पाए, पर आंशिक तो...

उत्तर: तो आप कह रहे हैं, वे "आंशिक" समझ गए!  यह अतिवाद है.  समझे हैं, या नहीं समझे हैं - यही होता है.  वे क्या "आंशिक" समझे, आप वही बता दो!  यहीं हम अतिवाद करते हैं. 

पहले जो बताया गया है, उसमे "जीव" का जिक्र है, "जीव" के ह्रदय में "आत्मा" का जिक्र है.  यह मैं भी पढ़ा हूँ.  भौतिकवादियों को इससे लेन-देन नहीं है, उनको केवल शरीर से मतलब है.  भौतिकवादियों ने प्रतिपादित किया - "रचना के आधार पर चेतना निष्पन्न होता है"  अध्यात्मवादियों ने ब्रह्म को चेतना बताया, उसी को ज्ञान बताया, उसी से पदार्थ पैदा हुआ - यह बताया.  ये दोनों श्वेत-पत्र सिद्ध हो गया है.  इन दोनों को अजमाने पर पता चला कि ये दोनों झूठ बोल रहे हैं.  श्वेत-पत्र का मतलब है - झूठ को सच बताना. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Thursday, July 18, 2019

मनः स्वस्थता का स्वरूप

प्रकृति ने मानव को प्रकटित कर दिया, कल्पनाशीलता-कर्म स्वतंत्रता सहित!  मानव शरीर रचना ऐसा हुआ कि जीवन उससे कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता को प्रकाशित कर सके.  कर्म स्वतंत्रता के प्रयोग से मानव ने मनाकार को साकार करने का काम पूरा कर लिया.  मनः स्वस्थता का भाग वीरान पड़ा रहा.  उसको पूरा किया जाए!  मनः स्वस्थता न होने का कारण है - संवेदनाओं का अनियंत्रित रहना.  संवेदनाएं नियंत्रित रहने के लिए संज्ञानशीलता ही एक मात्र शरण है.

मनः स्वस्थता न होने का दर्द आदर्शवाद व्यक्त किया है, पर मनः स्वस्थता प्रमाणित करने का काम आदर्शवाद कर नहीं पाया.  कोई भी मूल्य आदर्शवादी विधि से परंपरा में प्रमाणित नहीं हुआ.  आदर्शवादी विधि में परिवार को छोड़ कर विरक्ति में जाने की बात रही.  भक्ति-विरक्ति परिवार के साथ अविश्वास को स्थापित करके गया, उसके बाद क्या उसका बात करना है?

दूसरी ओर भौतिकवाद संसार को राक्षस बनके भक्षण करके जीने की बात ही किया.  उसमे संसार के साथ विश्वास कहाँ है?  इतना ही है मूल सूत्र.

साक्षात्कार के बारे में आदर्शवाद में कहा गया, किन्तु वह परंपरा में प्रमाणित नहीं हुआ.  "साक्षात्कार" शब्द आदर्शवाद ने दिया किन्तु वह व्यव्हार में प्रमाण परंपरा नहीं हुआ.  इतना ही बात है.

साक्षात्कार का अर्हता जीवन में रहता है किन्तु परम्परा में प्रमाण नहीं है.  मानव ने अभी तक भौतिक संसार का साक्षात्कार किया है और कल्पनाशीलता का साक्षात्कार किया है - किन्तु मूल्यों का साक्षात्कार किया नहीं है.  मूल्यों का साक्षात्कार करने का प्रमाण अभी तक मानव परंपरा में हुआ नहीं.  कल्पनाशीलता का साक्षात्कार हुआ है - तभी तो मनाकार को साकार कर पाया है और मानव आप जहाँ है वहां पहुंचा है.  मनः स्वस्थता का अभिलाषा मानव में बना ही है.  मनः स्वस्थता का स्त्रोत मानव को ही बनना था, वह नहीं बना.  मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने का स्त्रोत मानव ही है.  मनः स्वस्थता को अभी तक मानव परम्परा में या तो सुविधा-संग्रह से जोड़ लिया गया या भक्ति-विरक्ति से जोड़ लिया गया.  सहअस्तित्ववाद में मनः स्वस्थता के मानव परंपरा में स्वरूप को समाधान-समृद्धि होना समझाया गया है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

परिवर्तन के लिए हम जहाँ हैं वहाँ से विकासोनुम्खता को पहचानना होगा

परिवर्तन के लिए हम जहाँ हैं वहाँ से विकासोनुम्खता को पहचानना होगा.  हम बर्बाद करते रहे और विकास की बात करते रहे तो वह श्वेत पत्र (सफ़ेद झूठ) हो गया कि नहीं?  अभी सर्वोपरि विद्वान ऐसा ही कर रहे हैं.  यह एक दुखदायी स्थिति है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ सम्वाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Wednesday, July 17, 2019

साक्षात्कार के लिए गति


प्रश्न: साक्षात्कार के लिए अपनी गति कैसे बनाई जाए?

उत्तर: संबंधों का प्रयोजनों को पहचानने के बाद गति बनेगी.  संबंधों का प्रयोजन यदि समझ नहीं आया तो हमारा गति कैसे होगा?  उसके लिए अध्ययन ही एक मात्र रास्ता है.  इसमें मनमानी लगता नहीं है.  प्रयोजन के साथ जुड़ने पर गति होता ही है.

निष्ठा पूर्वक परिवार में निर्वाह होने से अग्रिम गति होता है.  समझदार परिवार में संबंधों का निर्वाह होता है.  फिर शेष संसार के साथ हम संबंधों का निर्वाह करते हैं, जबकि वहाँ से वो नहीं करते हैं -  ऐसे में हमारा संबंधों के निर्वाह में विचलित नहीं होना ही हमारी समझदारी का प्रमाण है.  सामने वाला समझता नहीं है - इसलिए हम उनका तिरस्कार कर दें, उपेक्षा कर दें - यह हमारी समझ का प्रदर्शन नहीं है.  उसकी जगह इसको ऐसे देखना - हम समझा नहीं पा रहे हैं, समझाने का नया तरीका हमको शोध करना है.  कोई समझता नहीं है तो उसको कंडम (condemn) नहीं करना है.  अस्तित्व में कंडम करने वाली कोई वस्तु नहीं है.  सभी वस्तुएं एक दूसरे से जुड़ी हैं.  हमारे ज्ञान में कमी रहती है, इसलिए हम दूसरे को कंडम करते हैं.  ज्ञान में कमी दुरुस्त हो गया तो अपने सम्प्रेष्णा के तरीकों को बदलना, तो हम समझाने में सफल हो जाते हैं.  यह मैं स्वयं करता  हूँ.  मेरे पास तो सभी प्रकार के लोग आते ही हैं.
 
समझने के बाद संसार से कोई शिकायत नहीं रहता.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Wednesday, July 3, 2019

हर समझ अनुभव के साक्षी में ही स्वीकृत होता है



प्रश्न: "हर समझ अनुभव के साक्षी में ही स्वीकृत होता है" - आपके इस कथन का क्या आशय है?

उत्तर: मानव में जो कुछ भी समझ के रूप में स्वीकृत होता है - वह अनुभव के साक्षी में ही होता है.  अनुभव के साक्षी का अर्थ है - अनुभव होने वाला है या अनुभव हो गया है.  एक व्यक्ति को अनुभव हो गया है, एक को अनुभव होगा - इस विधि से परंपरा होती है.  जब कोई अनुभव मूलक विधि से व्यक्त होता है तो वह दूसरे में अनुभव की रोशनी में ही स्वीकार होता है.

प्रश्न: दूसरे में "अनुभव की रोशनी" का क्या अर्थ है?

उत्तर: पहले में अनुभव रहता है, दूसरे में अनुमान रहता है.  अनुमान अपने में रोशनी है.  अनुभव रोशनी है ही.  अनुमान और अनुभव में coherence अध्ययन विधि से आता है.  आपको मेरा जीना देख के अनुमान होता है कि मैं अनुभव मूलक विधि से व्यक्त हो रहा हूँ.  जब आप स्वयं उसके योग्य हो जाते हैं तो आप स्वयं प्रमाण हो जाते हो.  इस ढंग से न्याय-धर्म-सत्य सम्मत परम्परा की सम्भावना उदय हुई.

अभी तक की परंपरा में कहा गया था - ज्ञान अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है.  उसके विकल्प में यहाँ हम कह रहे हैं - ज्ञान व्यक्त है, वचनीय है, अनुभवगम्य है.  ज्ञान वचन पूर्वक व्यक्त होता है, जो दूसरे में अनुमान पूर्वक स्वीकार होता है, अनुभव में आता है, फिर पुनः प्रमाणित होता है.

अनुभव में शब्द पहुँचता नहीं है.  साक्षात्कार तक ही शब्द है.  अनुभव जब होता है - उसमे शब्द नहीं है.  अनुभव को लेकिन शब्द से समझाया जा सकता है.  अनुभव के अर्थ में हम शब्दों का प्रयोग कर स्सकते हैं.  अनुभव मध्यस्थ क्रिया है.  मध्यस्थ क्रिया सबको संतुलित बना कर रखने वाली क्रिया है, इसी प्रकार शब्द को भी संतुलित बना दिया.  शब्द/भाषा संतुलित बनाने पर हम संसार में समझदारी के अर्थ में सम्प्रेष्णा करते हैं.  ऐसे अनुभव सकारात्मक सम्प्रेष्णा के लिए आधार बन गया.  यह अक्षय स्त्रोत है, जो कभी समाप्त नहीं होता - इसलिए ज्ञान व्यापार, धर्म व्यापार होता नहीं है.

-श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)

Monday, June 17, 2019

यहाँ जीने को प्रमाण माना है, बाकी को प्रमाण माना नहीं है.

विगत के किसी भी प्रस्ताव में मध्यस्थ दर्शन का मिलावट करने से किसी का फायदा होने वाला नहीं है.  विगत का इतना समीक्षा हो सकता है - "शुभ चाहते रहे, शुभ प्रमाणित नहीं हुआ."  प्रमाणित होने के लिए मध्यस्थ दर्शन का प्रस्ताव है.  इतना ही बात है.  प्रमाणित होने में जो तकलीफ है उसको ठीक किया जाए. 

हमारे उपनिषदों में सर्व्शुभ को चाहते रहे, पर प्रमाणित नहीं हो पाए, स्पष्ट नहीं कर पाए.  उसी को हम स्पष्ट कर रहे हैं, प्रमाणित कर रहे हैं.  विज्ञान ने शुभ चाहा, शुभ को प्रमाणित नहीं कर पाया - हम उसको प्रमाणित कर रहे हैं.  इसमें किसको क्या तकलीफ है?

वेद-उपनिषदों में जो कहा वह किस प्रयोजन के लिए है - उसको वे स्पष्ट नहीं कर पाए.  उसकी जगह भक्ति-विरक्ति, स्वर्ग-नर्क, मोक्ष की तरफ ले गए.  इसके लिए उन्होंने भय और प्रलोभन का विधि अपनाया.   

मध्यस्थ दर्शन में हमने भय और प्रलोभन दोनों को त्याग दिया.  भक्ति को यहाँ भी बताया गया है - भय मुक्ति के रूप में, भ्रम मुक्ति के रूप में.  भय और प्रलोभन से मुक्ति = भक्ति.  १२२ आचरणों में से भक्ति भी एक आचरण है.  पहला आचरण वही लिखा है.  जहां विगत में ईष्ट देवता के साथ तदाकार-तद्रूप होने की बात की गयी थी, यहाँ सच्चाई के साथ तदाकार-तद्रूप होने की बात कही गयी है.  इस बात के लिए हरेक मनुष्य इच्छुक है.  इसीलिए मानव-मानव में अनन्यता और व्यक्ति में भय-मुक्ति होती है.

विगत में शब्दों को जिन अर्थों में प्रयुक्त किया गया है, उस सबको भिन्न अर्थों में यहाँ परिभाषित किया गया है.  विगत की परिभाषाओं में हम जाते नहीं हैं.  उसमे हम पार भी नहीं पायेंगे.  मनपसंद परिभाषाओं को हम त्याग दिए, वस्तु की परिभाषा में हम टिक गए.  रहस्य मूलक चिंतन में मनमानी करने की जगह बन गयी, उसी में सारा अपराध जमा है.  कहना कुछ, करना कुछ, जीना कोसों दूर!  यहाँ जीने को प्रमाण माना है, बाकी को प्रमाण माना नहीं है.  जीने का डिजाईन है - समाधान समृद्धि.  लोहार की सुटाई इतना ही है!

विगत की बातों में अंतर्विरोध है.  उसी बात को एक जगह "हाँ" कहा है, दूसरी जगह पर "ना" कहा है.  उसी सोच पर बने संविधान में एक ही बात को एक जगह सकारा है, दूसरी जगह नकारा है.  छोटी से छोटी बात में, बड़ी से बड़ी बात में अंतर्विरोध है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित 

Friday, June 14, 2019

मध्यस्थ का प्रकाश होना या नहीं होना - इतना ही अंतर है.

प्रश्न:  आत्मा अनुभव से पूर्व भी सम विषम से अप्रभावित है, अनुभव पूर्वक भी सम विषम से अप्रभावित है - तो दोनों स्थितियों में अंतर क्या है?

उत्तर: मध्यस्थ का प्रकाश होना या नहीं होना - इतना ही अंतर है.  सत्य बोध बुद्धि में नहीं हुआ था इसीलिये मध्यस्थ (अनुभव) का प्रकाश नहीं हुआ था.  अध्यापक के अनुभव की रोशनी में विद्यार्थी अध्ययन करता है, जिससे उसको सत्य बोध होता है.  अनुभव होगा इस बात के लिए अध्ययन ही करते हैं.  इस मार्ग में सिलसिले से समाधान निकलता ही जाता है.


- श्रद्धेय श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

Tuesday, April 30, 2019

न्याय दृष्टि जीवन में रहता ही है, पर जागृत नहीं हुआ रहता है


न्याय चाहिए, पर प्रिय-हित-लाभ के चंगुल से छुटे नहीं हैं.  अभी हम न्याय को भी संवेदनाओं के साथ जोड़ते हैं, क्योंकि दूसरा कोई रास्ता मिला नहीं है.  अब इस अनुसंधान पूर्वक दूसरा रास्ता खोज लिया गया है.  यहाँ संबंधों के साथ न्याय होने की बात की शुरुआत किये हैं.  संवेदनाओं में प्रिय-हित-लाभ के साथ न्याय कुछ होना नहीं है.  जैसे - फैक्ट्री में यूनियन और मैनेजमेंट के बीच आज जिसको लेकर compromise हुआ, वह दूसरे क्षण टूटा ही रहता है.

अध्ययन विधि में शब्द से न्याय एक शाश्वत वस्तु के रूप में इंगित होता है.  शब्द का प्रयोजन इतने तक ही है.  इंगित होने के बाद यह मन में, विचार में, साक्षात्कार में आना है.  पहले कल्पना में आना, फिर विचार में तुलन होना, फिर चित्त में साक्षात्कार होना - ये तीनो लगातार हो गया तो बोध और अनुभव होता ही है.

इसमें अड़ने वाली चीज़ है - प्रिय हित लाभ के प्रति सम्मोहन, जो भय और प्रलोभन के रूप में रहता है.  इससे हम "न्याय-प्रिय" तो हो जाते हैं पर न्याय प्रमाणित नहीं होता.

संवेदनाओं के स्थान पर संबंधों में शिफ्ट होने पर ये प्रमाणित होने की स्थिति बनती है. 

प्रश्न:  अभी प्रिय-हित-लाभ दृष्टि हममे प्रभावी है.  न्याय-धर्म-सत्य के बारे में हमे सूचना मिला है - जिससे न्याय-धर्म-सत्य के आधार पर तुलन करने की हममे अपेक्षा है.  आपने बताया कि अध्ययन की शुरुआत वहीं से है.  अब हमारे पास न्याय-दृष्टि है ही नहीं तो हम इसका अभ्यास कैसे करें?

उत्तर: न्याय दृष्टि जीवन में रहता ही है, पर जागृत नहीं हुआ रहता.  न्याय-दृष्टि का पहले कल्पना आ जाए.  अध्ययन विधि से ही न्याय-दृष्टि का कल्पना बनता है, और किसी विधि से बनता नहीं है.  अध्ययन विधि न्याय की पहचान के लिए संबंधों के पास पहुंचा देता है.  "संबंधों की निर्वाह निरंतरता में ही न्याय होता है."  अभी हम प्रिय-हित-लाभ विधि से भय व प्रलोभन पूर्वक थोड़े समय तक सम्बन्ध को पहचानते हैं फिर उसको जूता मार देते हैं - उसमे कौनसा न्याय होने वाला है?  भय और प्रलोभन के अर्थ में संबंधों की पहचान विखंडित होता ही है.  संबंधों का नाम लेना हमारे अभ्यास में है, किन्तु संबंधों के प्रयोजन (अर्थ) को पहचानना शेष रहा है.  संबंधों का प्रयोजन (अर्थ) है - व्यवस्था में जीना.  व्यवस्था बोध करा देने पर संबंधों की निर्वाह निरंतरता स्वाभाविक हो जाता है.

संबंधों की निर्वाह निरंतरता शब्द नहीं है - यह जीवन में होने वाली प्रक्रिया है.  संबंधों की निर्वाह निरंतरता में न्याय अपने आप से आता है.  उदाहरण के लिए जिस क्षण अभिभावक ने संतान के साथ अपने सम्बन्ध को पहचाना, उसी क्षण से उनमे ममता-वात्सल्य अपने आप से उमड़ता है.  उसके लिए उनको कोई कॉलेज का प्रशिक्षण नहीं रहता है, कोई उपदेश दिया नहीं रहता है.  यह अपने आप से आता है, क्योंकि यह सारा चीज़ जीवन में निहित है.  सम्बन्ध पहचान लेने पर यह उभर जाता है.

न्याय-शब्द से न्याय-अर्थ इंगित होने के लिए न्याय में प्रमाणित व्यक्ति का होना बहुत महत्त्वपूर्ण है, अन्यथा शब्द से प्रिय-हित-लाभ के आधार पर ही अर्थ निकाल लेते हैं, उससे न्याय प्रमाणित होता नहीं है.  प्रमाणित व्यक्ति का होना इस तरह अध्ययन की सफलता की पूंजी भी है और कुंजी भी है.

अध्ययन विधि से व्यवस्था स्पष्ट होना और व्यवस्था में हम जी सकते हैं - यह विश्वास दिलाने की ज़रुरत है.  समाधान-समृद्धि पूर्वक हम व्यवस्था में जी सकते हैं, समग्र व्यवस्था में भागीदारी कर सकते हैं, और उपकार कर सकते हैं.

- श्रद्देय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Monday, April 29, 2019

परमाणु में बल सम्पन्नता



परमाणु में चुम्बकीयता बल सम्पन्नता स्वरूप में है.  व्यापक वस्तु में भीगे रहने से चुम्बकीय बल अपने आप से आता है.  चुम्बकीय बल संपन्न होने से ही दो परमाणु अंश मिल कर एक व्यवस्था को प्रमाणित करते हैं.  एक दूसरे के साथ अच्छे निश्चित दूरी में होना और व्यवस्था को प्रमाणित करना.

साम्य ऊर्जा में भीगे रहने से प्रत्येक चुम्बकीय बल संपन्न है.  वो कभी घटता-बढ़ता नहीं है.  चुम्बकीय बल हर अवस्था में रहता है.  वस्तु में परमाणुओं का संख्या बढ़ सकता है या कम हो सकता है - किन्तु वस्तु का चुम्बकीय बल घटता-बढ़ता नहीं है. 

चुम्बकीय बल होने के आधार पर ही संगठित होना होता है.  चुम्बकीयता के आधार पर ही सभी पदार्थ किसी न किसी अंश में विद्युत्-ग्राही होते हैं. 

परमाणु में जो वर्तुलात्मक और घूर्णन गति है - उसके आधार पर शब्द (ध्वनि) भी प्रकट होता है, ताप भी प्रकट होता है, विद्युत् भी प्रकट होता है.  गतिशीलता के आधार पर ये तीनो शक्तियां प्रकट हो जाती हैं. 

गति हो पर ताप-ध्वनि-विद्युत् न हो - ऐसा हो नहीं सकता.  गति न हो - ऐसा कोई वस्तु नहीं है.  पत्थर जो रखा है, वह भी गतिशील है.  उसके परमाण्विक स्वरूप में वह गतिशील है ही.  अगली स्थिति को प्रकट करने के लिए जो ताप-ध्वनि-विद्युत् चाहिए - उस सब से संपन्न रहते ही हैं, तभी आगे की स्थिति प्रकट होती है.  परमाणुओं के संगठित स्वरूप में यह धरती है, जो शून्याकर्षण में गतिशील बना रहता है. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)