प्रश्न: आपने अनुभव दर्शन में लिखा है - "दिव्यमानव को ब्रह्मानुभूति, देवमानव को ब्रह्म प्रतीति, मानवीयता पूर्ण मानव को ब्रह्म का आभास और अमानव को भी ब्रह्म का भास होता है."
इससे ऐसा आशय जा रहा है कि मानव पद में अनुभव सम्पन्नता नहीं है, केवल आभास ही है. जबकि आपने कई स्थानों पर स्पष्ट किया है कि अनुभव सम्पन्नता के बाद ही मानव पद है. इसको स्पष्ट कीजिये.
उत्तर: व्यापक वस्तु (ब्रह्म) के प्रमाणित होने के सम्बन्ध में यह लिखा है. अनुभव में पूरा ज्ञान रहता है, वह क्रम से प्रमाणित होता है. भास, आभास, प्रतीति और अनुभूति - प्रमाणित होने के ये चार स्तर हैं.
अमानव (पशु मानव, राक्षस मानव) में भी ब्रह्म का भास होना पाया जाता है. भास प्रमाणित नहीं होता. भास में प्रमाणित होने की आशा रहती है. न्याय की आशा सबके पास है.
मानव चेतना युक्त मानव में ब्रह्म-आभास न्याय स्वरूप में प्रमाणित होता है.
देव चेतना युक्त मानव में ब्रह्म-प्रतीति समाधान (धर्म) स्वरूप में प्रमाणित होता है.
दिव्य चेतना युक्त मानव में ब्रह्म-अनुभूति सत्य (सहअस्तित्व) स्वरूप में प्रमाणित होता है.
यही चेतना में वरीयता या श्रेष्ठता का मतलब है. दिव्यचेतना में समानता ही होता है. ज्ञान में अनुभव एक साथ ही होता है, प्रमाणित होना क्रम से होता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
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