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Wednesday, August 28, 2019

अध्ययन में मन लगना




अभी तक मानव की इच्छाओं का शरीर संवेदनाओं और विषय क्रियाकलाप के साथ समर्थन रहा है.  इच्छाओं का जब ज्ञानगोचर के साथ समर्थन होता है तो मन उसके अनुसार काम करता है.  वही मन लगने का मतलब है.  मन लगने पर ही शोध होता है.

प्रश्न: यहाँ आप "मन लगना" किस वस्तु को कह रहे हैं?

उत्तर: जीवन में मन होता है, जिसमे आशा होती है.  यह क्रिया सबके साथ "जीने की आशा" स्वरूप में जुड़ा है.  जीने की आशा के साथ शरीर संवेदनाओं को जीवन मान लिया.  जीवन का ऐसा मानना या समर्थन करना इच्छा तक जाता है, इससे आगे जाता नहीं है.  इसलिए साढ़े चार क्रिया में रह गए.  साढ़े चार क्रिया से आगे जाने के लिए ज्ञानगोचर विधि को अपनाना ही होगा.  अपनाने के लिए मन को लगाना ही होगा.  ज्ञान का प्रस्ताव अस्तित्व सहज है, जीवन सहज है - इसलिए मन लगता है.  क्योंकि सुखी होने की चाहत मन में ही बनता है.  सुखी होने की चाहत के सफल होने के लिए मन लगता है.  मन लगता है तो दसों क्रियाएं क्रियाशील होने का कार्यक्रम शुरू हो जाता है.  यह ज्ञानगोचर विधि से होगा, इन्द्रियगोचर विधि से होगा नहीं.

- श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

Sunday, August 18, 2019

छिद्रान्वेषण के स्थान पर सत्यान्वेषण


मैं किसी से भी मिलता हूँ तो उससे मुझे कुछ न कुछ प्रेरणा तो मिलता ही है.  किसी भी व्यक्ति से मिलना वृथा तो गया ही नहीं.  जिसको मैं डांटता भी हूँ उससे भी कुछ न कुछ प्रेरणा मुझे मिलता ही है.  जिससे प्यार करता हूँ उससे भी मुझे प्रेरणा मिलती है.  इससे ज्यादा क्या बयान करूँ?  लोगों में जो अच्छी बात है छान कर मैं उसको स्वीकारता हूँ.  अभी का लोगों का अभ्यास है - सामने वाले में एक खराब बात मिली तो उसके सब कुछ पर डामर पोत देते हैं!  सामने आदमी का १०० में से ९९ ठीक है, एक छेद मिल गया तो उसके पूरे पर डामर पोत दिया!  उसको पूरा नकार दिया.  ऐसा करके ही तो आदमी जात दरिद्र हुआ है.  आदमी ५१% सही है, उससे आगे क्यों नहीं बढ़ा अभी तक?  एक दूसरे के काम में छेद देखने से. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, अमरकंटक)

Friday, August 16, 2019

विकल्प का अर्थ

प्रश्न:  "विकल्प" से क्या अर्थ है?

उत्तर: विकल्प से मतलब है: - विगत से जो कुछ भी हमको दर्शन मिला, सोच-विचार मिला, आचरण मिला, संविधान मिला, व्यवस्था मिला और जो कुछ भी मिला - उसका यह विकल्प है.

दर्शन, सोच-विचार के विकल्प को लेकर हमने स्पष्ट किया है - विगत में अस्तित्व को पूरा न समझते हुए, अस्तित्व में ही किसी एक भाग को दर्शन का आधार मानते हुए ईश्वरवाद और भौतिकवाद तैयार हुआ.  अस्तित्व को छोड़ कर तो कुछ कहा नहीं जा सकता. 

अस्तित्व में ही एक भाग को लेकर ईश्वरवाद चला.  "ईश्वर" जिसका नाम दिया उसको जीव-जगत का जिम्मेवार मान लिया.  जीव-जगत में सृष्टि-स्थिति-लय को माना किन्तु उसको "माया" माना.  ईश्वरवाद पूरा अनुग्रहवाद हुआ.  इस आधार पर किताब (शास्त्र) को प्रमाण बताया.  ईश्वरवाद से भक्ति-विरक्ति मार्ग निकला.  लोग ईश्वरवाद की देहरी पर अपना सर झुकाए, अपनाए, अनुष्ठान किये, आजीवन अनुष्ठान किये.  बहुत सारे उनमे से ईमानदार भी होंगे, बेईमान भी होंगे.  ईमानदार भी जो हुए उनसे कोई ऐसा प्रमाण प्रस्तुत नहीं हुआ, जो परम्परा के रूप में चल पाए.  मानव परम्परा के लिए - जैसे परिवार परम्परा है, जैसे मानव में सांस लेने का परम्परा है, जैसे मानव  में आँख काम करने का परम्परा है - ऐसा कुछ बात उससे निकला नहीं.


अस्तित्व में एक भाग को ही लेकर भौतिकवाद भी चला.  प्रकृति में सृष्टि-स्थिति-लय होने को भौतिकवाद ने भी माना.  किन्तु ईश्वरवाद ने जहाँ भौतिक-रासायनिक वस्तु को माया माना, भौतिकवाद ने उसको सच माना.  किन्तु उसको "अंतिम सत्य" नहीं माना.  यह उनके साथ रखा हुआ एक आधार है.  भौतिकवाद पूरा यंत्रवाद हुआ.  इस तरह यंत्र को सामने रख के ये प्रमाण बताते हैं.  यंत्रवाद ने आकर अपने वर्चस्व का प्रदर्शन करते हुए आदमी को मोटर में घुमा दिया, रेलगाड़ी में घुमा दिया, एयरोप्लेन में घुमा दिया, चंद्रमा का यात्रा करा दिया - इसको "सच" बताया. 

मानव में "सच" या "झूठ" होता है, यंत्र में क्या होना है?  - ऐसा मैं समझा.  यंत्र में क्या सच, क्या झूठ?  यंत्र को चलाने वाले, बनाने वाले मानव में सच या झूठ की बात हो सकती है.  यंत्र तो मानव का ही बनाया हुआ है.  इसमें हमारा कहना है - विज्ञान का ज्ञान भाग गलत है, तकनीकी भाग ठीक है.  विज्ञान से मानव को जो ज्ञान होता है - वह गलत है. 

अध्यात्मवादी/ईश्वरवादी भी ज्ञान को लेकर प्रयत्न किये, किन्तु वे भी सहअस्तित्व को समझे नहीं.  ईश्वरवादियों ने पहले शब्द को ब्रह्म माना, फिर आप्त-वाक्य को प्रमाण माना, उसके बाद शास्त्र को प्रमाण माना.  इस प्रकार कई लहर उनमे चल चुकी हैं.  विज्ञान अथा से इति तक यंत्र को प्रमाण मानने में टिके हैं.

ज्ञान का धारक-वाहक केवल मानव है.  यंत्र नहीं है.  किताब नहीं है.  इस आधार पर विकल्प को सोचा जाए.

अध्यात्मवाद और भौतिकवाद दोनों का विकल्प बना है तो दोनों में कही हुई बातों को "सुधारा" जाए.  शब्दों को सुधारे बिना कार्य-व्यव्हार में सुधार नहीं हो सकता.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, रायपुर)

विकल्प की आवश्यकता

अस्तित्व सहअस्तित्व स्वरूपी है.
सहअस्तित्व सत्ता में संपृक्त प्रकृति है.
ऐसे प्रकृति चार अवस्था व चार पदों में है.
इसमें विकास-क्रम, विकास, जाग्रति-क्रम, जाग्रति - ये शाश्वत प्रक्रियाएं हैं.

सत्ता अपरिणामी है.  जीवन विकास पूर्वक अपरिणामी हुआ है.

मनुष्य आदिकाल से अमरत्व को खोजता रहा है.  शास्त्रों में लिखा है - "अमरा निर्जरा देवास्त्रिदशा विबुधा सुरा:" (अमरकोष, प्रथम काण्ड, १.१.१३)  जो जरा (वृद्ध) नहीं होता है, उसको उन्होंने देवता कहा.

जीवन में जरा-दोष नहीं है.  परिणाम दोष नहीं है, इसलिए जरा-दोष नहीं है.  जीवन मात्रात्मक परिवर्तन से मुक्त है.  जब तक मात्रात्मक परिवर्तन है तब तक जरा-दोष है.  रासायनिक-भौतिक वस्तुओं में मात्रात्मक परिवर्तन है, जरा दोष है, इसलिए रचना-विरचना उनमे होता ही रहता है.  जीवन में कोई रचना-विरचना होता ही नहीं है.  जीवन में होता है - चेतना.  चेतना में गुणात्मक विकास होता है.

चेतना का स्वरूप बताया - जीव चेतना, मानव चेतना, देव चेतना, और दिव्य चेतना.

मानव जीवचेतना पूर्वक अव्यवस्था में फंसता है, क्लेश को मोलता है, गलती-अपराध को करता है. 

मानव की स्थिति जीव चेतना की है - इसकी गवाही में सभी राजतंत्र यह स्वीकारे हैं कि मानव गलती-अपराध कर सकता है. 

मानव की स्थिति जीव चेतना की है - इसकी गवाही में सभी (ईश्वरवादी) धर्मगद्दी मानव को पापी, अज्ञानी और स्वार्थी कहा है.  इसी ईश्वरवाद में कहा है - "मुंडे मुंडे मतिभिन्ना: कुंडे कुंडे नवं पयः" (वायु पुराण).  (मतलब हर आदमी का अलग अलग मत होगा ही)  इसी क्रम में कहा - "सुनो सबकी, करो मन की".  इसी क्रम में कहा - "खाली हाथ आये, खाली हाथ जायेंगे".  यह सब झूठ का पुलिंदा है, भ्रम है.  भ्रम को आप झूठ मानोगे या नहीं?

"खाली हाथ आये और खाली हाथ जायेंगे" - ये शरीर की बात कर रहे हैं.  जीवन ज्ञान नहीं है, इसका प्रमाण दे दिया या नहीं?  जीवन ज्ञान ईश्वरवादी परम्परा में नहीं था - इस बात का यह प्रमाण है.  शिष्ट परिवारों में, वेद मूर्ति परिवारों में यह नारा चला है - "खाली हाथ आये और खाली हाथ जायेंगे".  इससे पता चलता है कि उनको जीवन ज्ञान नहीं था. 

ईश्वरवाद रहस्यमय होने के कारण प्रमाण तक पहुँच नहीं पाया.  अस्तित्व के कुछ भाग को विज्ञानियों ने सच माना, कुछ भाग को ईश्वरवादियों ने सच माना.  दोनों अधूरे होने के कारण प्रमाणित नहीं हो पाए, संकटग्रस्त हुए.  इसीलिये "विकल्प" की ज़रुरत आ गयी.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, अमरकंटक)

Wednesday, August 14, 2019

वास्तविकता


प्रश्न: आप "वास्तविकता" किसे कहते हैं?

उत्तर:  चार अवस्थाएं या चार पद वास्तविकता हैं.  वस्तुएं जो कुछ भी प्रकट कर रही हैं, वह सब वास्तविकता है.  उसमे से मानव को जाग्रति के पद में व्यक्त होना वास्तविकता कहा है.  भ्रमित हो कर जो मानव व्यक्त होता है, उसको हमने वास्तविकता कहा नहीं है.  इसलिए दुःख को हमने वास्तविकता नहीं कहा है. 

यह बुद्ध जो "दुःख आर्यसत्य है" कह कर गए, उससे भिन्न है.  हम यहाँ कह रहे हैं - दुःख एक "घटना" है.  मानव जाति की नासमझी से दुःख है.  जिससे हम मुक्ति पाना चाहते हैं वह सब घटना ही है.  घटनाएं परम्परा नहीं हैं.  परम्परा वह है जिसकी निरंतरता हो. 

प्रश्न: दुर्घटनाओं को आप कैसे देखते हैं?

उत्तर: जितने भी दुर्घटनाएं हैं वे मानव जाति की नासमझी से ही होते हैं.  समझ के जीने में दुर्घटना का कोई स्थान ही नहीं है. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, रायपुर)

निरपेक्ष ऊर्जा

प्रश्न:  आपने लिखा है - "सम्पूर्ण पदार्थ अपनी परमाण्विक स्थिति में सचेष्ट हैं, इससे स्पष्ट होता है कि इन्हें ऊर्जा प्राप्त है.  यह निरपेक्ष ऊर्जा है"

इकाइयों की क्रियाशीलता के मूल में ऊर्जा इकाई का ही गुण क्यों नहीं हो सकता?  इसमें "सत्ता" या "निरपेक्ष ऊर्जा" को लाने की क्या आवश्यकता थी?

उत्तर:  इकाई स्वयं से क्रियाशील हो और दूसरों को क्रियाशील करवा सके - ऐसा कुछ गवाहित नहीं है.  यदि आप कहते हो कि ऊर्जा इकाई का ही गुण है तो आपको यह भी बताना होगा कि एक इकाई का ऊर्जा दूसरे तक कैसे पहुँचता है?  अभी इकाइयों की सापेक्षता पूर्वक हम जो ऊर्जा प्राप्त करते हैं - उसमे ईंधन की ऊर्जा से कम ऊर्जा को ही हम प्राप्त करते हैं.  जैसे - स्टीम इंजन में जितना कोयला हम जलाते हैं उस कोयले की ऊष्मा-ऊर्जा से कम ऊर्जा ही हमे वाष्प से मिलती है.  इसका मतलब यह हुआ कि भौतिक वस्तुएं अपने से अधिक ऊर्जान्वित हो कर दूसरे को ऊर्जा दे नहीं पाते हैं.

"ऊर्जा इकाई का ही गुण है" - यह अवधारणा दे कर आप क्या कल्याण करना चाहते हैं?  किस उद्देश्य से?  यदि बिना उद्देश्य के बोलने की इजाज़त हो तो कुछ भी बोलना बनता है.  क्या बिना उद्देश्य के कुछ बात हो सकती है?

सत्ता को निरपेक्ष ऊर्जा इसलिए कहा क्योंकि यह ऊर्जा का अक्षय स्त्रोत है.  सब वस्तुओं में वह ऊर्जा आ करके जितना वो वस्तु है उससे ज्यादा वह ताकत है.  कोई परमाणु हज़ार वर्ष क्रियाशील रह कर भी रुकता नहीं है, उसकी क्रियाशीलता यथावत रहती है - क्योंकि निरपेक्ष ऊर्जा का अक्षय स्त्रोत है.   ऊर्जा सम्पन्नता के फलन में क्रियाशीलता ही "मूल चेष्टा" है.  भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया, और जीवन क्रिया के मूल में परमाणु ही है.  परमाणु में ही मूल चेष्टा की पहचान है.  क्रियाशीलता ही श्रम, गति, परिणाम के रूप में व्याख्यायित है.  श्रम का विश्राम, गति का गंतव्य और परिणाम का अमरत्व ही विकास व जाग्रति है.  अस्तित्व में जो कुछ भी क्रिया है उसका अर्थ इतना ही है.  उसको अध्ययन करना है, जीना है. 

प्रश्न:  आपके निरपेक्ष ऊर्जा को ऊर्जा का अक्षय स्त्रोत बताने का क्या उद्देश्य है?

उत्तर: मैंने संसार को व्यवस्था के स्वरूप में देखा.  व्यवस्था के स्वरूप में संसार को प्रस्तुत करना ज़रूरी माना.  भौतिकवादी संसार को अव्यवस्था बता कर शुरू किया.  ईश्वरवाद संसार को माया बता कर शुरू किया.  इन दोनों से व्यवस्था बनने वाला नहीं है.  व्यवस्था के स्वरूप में अस्तित्व को प्रस्तुत करने के तकलीफ हो तो बताओ!

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, रायपुर)

Friday, August 9, 2019

प्रमाण : अनुभव, व्यव्हार, प्रयोग




प्रमाण को लेकर आपने सूत्र दिया है: -

अनुभव ही प्रमाण परम 
प्रमाण ही समझ ज्ञान
समझ ही प्रत्यक्ष
प्रत्यक्ष ही समाधान, कार्य-व्यव्हार
कार्य-व्यव्हार ही प्रमाण 
प्रमाण ही जागृत परम्परा
जागृत परम्परा ही सहअस्तित्व 

इसको और स्पष्ट कर दीजिये.

उत्तर:  अब प्रमाण पूर्वक जीने की बात आयी है.  प्रमाण है - अनुभव प्रमाण, व्यव्हार प्रमाण और प्रयोग प्रमाण

हमारे आवश्यक वस्तुओं को बनाने में प्रयोग होगा.  व्यव्हार प्रमाण मानव के साथ होगा.  अनुभव प्रमाण व्यवस्था के रूप में होगा.  प्रयोग, व्यव्हार और व्यवस्था कैसा होगा, उसको प्रमाणित करने का सूत्र-व्याख्या भी प्रस्तुत कर दिए.

मानव का अनुभव-प्रमाण पूर्वक सार्वभौम व्यवस्था में जीना बनता है.  व्यव्हार-प्रमाण पूर्वक अखंड-समाज में मानव के साथ जीना बनता है.  प्रयोग-प्रमाण पूर्वक सामान्याकान्क्षा (आहार, आवास, अलंकार) और महत्त्वाकांक्षा (दूरगमन, दूरश्रवण, दूरदर्शन) की वस्तुओं का उत्पादन पूर्वक उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशील बनाना बनता है.  इस प्रकार यदि हम इन तीनों प्रमाणों के साथ जीने का परम्परा बनाते हैं तो मानव का समाधान पूर्वक, समृद्धि पूर्वक व्यवस्था में जीना बनता है.

प्रश्न:  मध्यस्थ दर्शन के प्रकटन से पहले प्रमाण का क्या स्वरूप रहा?

उत्तर:  इसके पहले हमारे पूर्वजों ने (आदर्शवाद में) प्रमाण के बारे में कुछ प्रस्तुत किया.  पहले "शब्द प्रमाण" बताया.  शब्द-प्रमाण को लेकर एक बहुत भारी उपनिषद ही लिखा है - उसका नाम है "कठोपनिषद".  उसमे प्रतिपादित किया है - प्रणव शब्द (ॐ) को शब्द माना.  इसके बाद वेद को शब्द माना.  ब्रह्म सूत्र में लिखा है - "ईक्षतेर नाशब्दम" (ब्र. सू. १, १.५)  जिसका शंकराचार्य ने व्याख्या दिया - ये तीनों वेदों के शब्दों से इस को वर्णन नहीं किया जा सकता.  इस प्रकार वेद को और प्रणव (ॐ) को शब्द माना.  उसके आधार पर कहा - शब्द ही प्रमाण है.

उसके संरक्षण में व्याकरण आयी.  व्याकरण में शब्द को ही "पद" माना.  शब्द को एक ने "प्रमाण" माना और दूसरे ने "पद" माना.  इससे जो उथलपुथल (वाद-विवाद) हुई वह अपने में एक इतिहास ही है.

इसके बाद कहा - आप्त-वाक्य प्रमाण है.

उसके बाद कहा - प्रत्यक्ष अनुमान आगम प्रमाण है.

उसके बाद चौथा कहा - शास्त्र प्रमाण है.

करीब-करीब ये सभी शब्द-प्रमाण ही हैं.

विज्ञानियों ने प्रयोग को प्रमाण कहा.  प्रयोग में यंत्र रहा.  यंत्र जो कहेगा वह सत्य है - ऐसा माना.  उसी आधार पर हमारी स्वास्थ्य को बताने के लिए भी यंत्र को लाये.  यंत्र प्रमाण के तले अपने सुखी होने के लिए हम बहुत सारा प्रयत्न कर रहे हैं.  उसमे कुछ में आसार दिखता है, कुछ में आसार भी नहीं दिखता - ये दोनों हो रहा है.  होते-होते हम विज्ञान विधि से कहीं पहुंचेंगे.

आदर्शवाद और भौतिकवाद (विज्ञान) ने प्रमाण को लेकर जो कहा उसके विकल्प में हम ये तीन प्रमाणों (अनुभव प्रमाण, व्यव्हार प्रमाण और प्रयोग प्रमाण) को प्रतिपादित कर रहे हैं.  इस तरह विकल्प में प्रमाण बदला है, प्रमाण की विधि बदली है, प्रमाण की स्वीकृतियाँ बदली हैं.  अनुभवमूलक विधि से प्रमाण होना है या प्रत्यक्ष-अनुमान-आगम विधि से होना है या शब्द-प्रमाण विधि से होना है - उस पर हमे सोचने की आवश्यकता है.  सोचने पर यदि किसी व्यक्ति का निष्कर्ष निकलता है कि अनुभवमूलक विधि से ही प्रमाण पूरा पड़ता है तो वह निष्ठावान होगा ही.  ऐसा मेरा सोचना है.

प्रमाण के लिए क्या कहा? - "समझ के करो!"

समझ क्या चीज़ है? - "ज्ञान"

ज्ञान क्या चीज़ है ? - "अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान"

इसको अध्ययन किया जा सकता है - यह आपको भी विश्वास हुआ है, मुझको भी विश्वास हुआ है.  अध्ययन आप भी कराते हो, अध्ययन मैं भी कराता हूँ.

ज्ञान ही है जो अध्ययन कराया जा सकता है.  बाकी को अध्ययन कराना बनता भी नहीं है.  अभी की "ज़बरदस्ती" है - जो अध्ययन कराना बनता नहीं है उसको हम अध्ययन मान रहे हैं, जो अध्ययन होता है उसको हम अध्ययन मान नहीं रहे हैं.  जबरदस्ती किया है इसलिए दुःख पाया भी है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (रायपुर, २००५)

Wednesday, August 7, 2019

उपदेश: "जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो"



ईश्वरवादी परंपरा में कहा गया, विज्ञान में भी कहा गया - "कर के समझो".  ईश्वरवादी परम्परा में कहा गया - "आचरण प्रथमो धर्मः विचारम तदनंतरम"  मतलब - आचरण के बाद विचार करना, उससे पहले नहीं!  इसमें व्यतिरेक यह दिखा - विचार के बिना कोई आचरण कर ही नहीं सकता.  मैंने यह कहा तो मुझे बताया गया कि तुम छोटा मुंह बड़ी बात करते हो.

अब हमने प्रस्तुत किया है - "समझ के करो!" समझ के सोच विचार करना, काम करना, फल परिणाम पाना यदि हम शुरू करते हैं तो धरती में यदि कुछ ताकत बचा होगा तो वह सुधार लेगा.  इस शुभेच्छा से यह प्रस्ताव रखा है.

सभी वास्तविकताओं का प्रयोजन का पता लगा लेना = जानना.  जानने के बाद मानना. 
जानने-मानने के बाद पहचानने-निर्वाह करने की बात आती है.

जाने हुए को मान लेने और माने हुए को जान लेने - इन दोनों स्थितियों में समझ के ही करना बनता है.

समझ के करने से प्रयोजन के अर्थ में प्रयोग करना बन जाता है.  व्यर्थता के प्रयोग करना बंद हो जाता है.

प्रश्न: "जाना हुआ" और "माना हुआ" में क्या अंतर है?

उत्तर: भ्रमित संसार में जाने हुए और माने हुए में व्यतिरेक रहता है.  जागृत संसार में जाने हुए और माने हुए में कोई व्यतिरेक नहीं है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, रायपुर)

सिद्धांत: श्रम-गति-परिणाम



प्रश्न:  श्रम-गति-परिणाम सिद्धांत को समझा दीजिये.

उत्तर:  व्यापक वस्तु में भीगे रहने से प्रकृति में ऊर्जा संपन्नता है.  ऊर्जा सम्पन्नता का प्रकटन बल के रूप में है.  बल का प्रकटन गति के रूप में है.  गति का प्रकटन परिणाम के रूप में है. 

परिणाम और श्रम "गति" के रूप में प्रकट होता गया.
श्रम और गति "परिणाम" के रूप में प्रकट होता गया.
गति और परिणाम "श्रम" के रूप में प्रकट होता गया.

यह स्वयंस्फूर्त होता है.  इस सिद्धांत से प्रकृति की हर इकाई स्वयंस्फूर्त काम कर रही है.  हर वस्तु सत्ता में भीगे रहने से ऊर्जा-संपन्न, डूबे रहने से क्रियाशील और घिरे रहने से नियंत्रित है.  हर वस्तु, हर परमाणु अपने में नियंत्रित है, क्रियाशील है, बल संपन्न है.  यह तीन बात हरेक वस्तु में दिखाई पड़ती है.  इससे प्रकृति की सम्पूर्ण क्रियाएं स्वयंस्फूर्त हैं.  ऐसा नहीं है कि पतंग जैसे सबकी डोर कहीं से बंधी हो और वो चला रहा हो!  स्वयंस्फूर्त रूप में सब क्रिया है इस में हम विश्वास रख सकते हैं.  इससे आशय है - मनुष्य अपने में स्वयंस्फूर्त विधि से व्यवस्था में जी जाए.  मानव जब व्यवस्था में जियेगा तो शुभ घटित होगा - उससे पहले शुभ घटित होने वाला नहीं है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, रायपुर)

अनुभव ज्ञान




आपने "अनुभव ज्ञान" शीर्ष में लिखा है:

"सत्ता में संपृक्त जड़ चैतन्य प्रकृति, सत्ता (व्यापक) में संपृक्त जड़ चैतन्य इकाइयां अनंत

व्यापक (पारगामी व पारदर्शी) सत्ता में संपृक्त सभी इकाइयां रूप, गुण, स्वभाव व धर्म संपन्न, त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में है"

इसको और व्याख्या कर दीजिये.

उत्तर:  मैंने क्या अनुभव किया - इस बात को यहाँ सत्यापित किया है.  यह संसार के लिए सूचना है.  अभी आप-हम जो सत्संग कर रहे हैं वो इसलिए जिससे यह सूचना हृदयस्पर्शी हो सके.

इसमें मूल बात है - "सत्ता में संपृक्त प्रकृति"

सत्ता को मैंने सर्वत्र एक सा विद्यमान, सुखप्रद व नित्य प्रतिष्ठा स्वरूप में देखा.  इसमें रद्दोबदल, कमीबेशी का काम नहीं है.  यहाँ ज्यादा, वहाँ कम - ऐसा कुछ नहीं है.  सत्ता सम्पूर्ण जड़ चैतन्य प्रकृति में पारगामी है.  प्रकृति का सत्ता में डूबा, भीगा, घिरा होना समझ में आया.  हरेक वस्तु - सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल से स्थूल, छोटे से छोटा', बड़े से बड़ा - इसमें भीगा है.  सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु के रूप में परमाणु अंश मिला.  परमाणु अंश का प्रवृत्ति परमाणु की व्यवस्था स्वरूप में काम करने का बना रहता है.  ऐसे परमाणु अंश भी व्यापक वस्तु में डूबा, भीगा, घिरा रहता है.  परमाणु के बाद ही व्यवस्था का प्रकटन है.  परमाणु अंश में परमाणु स्वरूप में गठित होने का प्रवृत्ति प्रकट हुआ.

यह सिद्धांत है - "हरेक प्रकटन के पूर्व स्थिति में उसका बीज स्वरूप निहित रहता है."  इसी आधार पर परमाणु अंश में व्यवस्था में होने की प्रवृत्ति निहित रहती है.  इसी कारण परमाणु में मध्य और परिवेशों में परमाणु अंश स्थापित और गतित होते हैं और एक निश्चित आचरण को प्रकाशित कर पाते हैं.  अकेले में परमाणु अंश किसी निश्चित आचरण को प्रकाशित नहीं कर पाता है.  निश्चित आचरण से उपयोगिता और पूरकता स्पष्ट होती है.  इस तरह एक प्रजाति के परमाणु की अवस्था और यथास्थिति दूसरे प्रजाति के परमाणु की अवस्था और यथास्थिति के लिए पूरक हो गयी.  इस प्रकार अनेक प्रजाति के परमाणुओं का प्रकटन हुआ.

परमाणुओं के सारे क्रियाकलाप को भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया और जीवन क्रिया स्वरूप में देखा.  तीन ही क्रियाएं हैं.  जीवन क्रिया जाग्रति-क्रम और जाग्रति अर्थ में काम करता रहता है.   भौतिक-रासायनिक क्रियाएं विकास-क्रम और विकास के अर्थ में काम करता मिलता है.

विकास-क्रम के बिना विकास का प्रमाण नहीं हो सकता.  जीवन का प्रमाण सहअस्तित्व में ही होगा.  इसको लेकर मैंने प्रतिपादित किया है - "सहअस्तित्व नित्य प्रभावी है".  सहअस्तित्व नित्य प्रभावी होने के कारण ही चैतन्य का वैभव और जड़ की सीमायें स्पष्ट हो जाती है.  चैतन्य प्रकृति गठनपूर्ण होने के आधार पर जड़ प्रकृति से भिन्न हो गया.  चैतन्य भी जड़ के साथ ही अपने वैभव को व्यक्त करता है.  व्यापक जैसा निर्मल वस्तु...  उसमे कोई ज़रुरत का खाका नहीं है, ज्यादा-कम का खाका उसमे नहीं है, परिणाम का खाका उसमे नहीं है, परिवर्तन का खाका उसमे नहीं है.  ऐसे पावन वस्तु भी सहअस्तित्व के बिना प्रमाणित नहीं हो पाया!  इससे बड़ी चीज़ बताया नहीं जा सकता.

सहअस्तित्व नित्य प्रभावी है.  व्यापक वस्तु अपने वैभव को जड़-चैतन्य प्रकृति के साथ ही प्रकट किया है.  जड़-चैतन्य प्रकृति न हो और व्यापक वस्तु प्रकट हो जाए - ऐसा होता नहीं है.  हमारे बुजुर्गों ने जबकि लिखा है - "व्यापक वस्तु ज्ञान है जो अपने में अव्यक्त और अनिर्वचनीय है."  उस समय में शायद उतना ही लिखने का ज़रूरत रहा होगा, इसलिए उतना ही लिखे.  या उनको समझ में नहीं आया होगा - ऐसा भी हम सोच सकते हैं.  मेरे हिसाब से सम्मानजनक भाषा यही है कि उस समय में उतना ही लिखना उचित समझा, उतना ही लिखा, उतना ही प्रमाणित हुए, और आगे के लिए आशीर्वाद दे कर गए.

शुभकामना की पूर्ति के लिए ये सब देखा/समझा या शुभकामना की पूर्ति के लिए ये सब दिखा/समझ में आ गया.  उसको हमने प्रकट किया है.  प्रकट करने पर पता चलता है यह पूरा अभिव्यक्ति "अस्तित्व में व्यवस्था है" - इस आधार पर है.   "व्यवस्था नहीं है" - भौतिकवाद यहाँ से शुरू किया.  दोनों में अंतर इतना ही है.  व्यवस्था होने के आधार पर ही सब कुछ एक दूसरे के लिए व्यवस्था में होने के लिए प्रेरक है, पूरक है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, रायपुर)

Sunday, August 4, 2019

आगे चल कर समाधि-संयम मार्ग की उपयोगिता





प्रश्न:  आगे चल कर संसार में समाधि-संयम के रास्ते पर लोगों को जाना पड़ेगा या नहीं जाना पड़ेगा?

उत्तर: समाधि-संयम घटना के रूप में घटित होता है.  यह क्रमिक नहीं है.  किसी क्रम में चल के यह घटित हो जाएगा - ऐसी कोई गारंटी नहीं है.  किसी को हो भी सकता है, किसी को नहीं भी हो  सकता है.  अरबों वर्षों तक भी न हो, तो किसी को एक ही क्षण में हो जाए.  ऐसी अनिश्चयता इसके साथ जुड़ी है.

इसमें मूलतः मैंने पहचाना - समाधि के लिए तीव्र जिज्ञासा का होना आवश्यक है.  वह "अज्ञात को ज्ञात करने" से सम्बंधित ही होना चाहिए - मेरे अनुसार!  "अप्राप्त को प्राप्त करने" से सम्बंधित बात में समाधि होगा - ऐसा मेरा विश्वास नहीं है.   अभी पतंजलि योग सूत्र में संयम को लेकर जो कुछ लिखा है, वह अप्राप्त को प्राप्त करने के लिए है.  वह सिद्धियों (विभूतियों) को प्राप्त करने के लिए है.  इसका नाम "विभूतिपाद" ही लिखा है.

इन सब को देख कर मुझे लगता है अज्ञात को ज्ञात करने के लिए संयम किसी ने किया नहीं होगा.   समाधि में जो होता है, उसी को "ज्ञान" मान लिया होगा.  उसी को "गुड़ खाया हुआ गूंगा" उपमा दे दिया.  ऐसा मैं मानता हूँ.  हो सकता है किसी को सत्य बोध हो भी गया हो, किन्तु वह प्रमाणित नहीं हुआ - यह मेरा सत्यापन है.

ज्ञान प्रमाणित नहीं हुआ.  किताबों में भी लिखा है - ज्ञान अनिर्वचनीय है.  हमारे बुजुर्गों ने भी यही बताया है कि ज्ञान अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है.  जबकि उन्ही ने पहले कहा है - "सत्यं ज्ञानम् अनंतम ब्रह्म".  अर्थात ज्ञान जैसा पवित्र वस्तु सब जगह समान रूप से  है.  ज्ञान यदि सब जगह पर नहीं है तो और क्या है?  इस बात पर मेरा जिज्ञासा रही, उसका उत्तर मुझे मिल गया.  मिल जाने के बाद मेरा सत्यापन यही है - "निश्चित ज्ञान के लिए मानव का समाधि के लिए प्रयत्न करना नहीं होगा.  निश्चित ज्ञान के लिए अध्ययन विधि ही है जो परंपरा में से ही होगा."

मानव परंपरा को आगे बढाने के लिए या तो "शोध" पूर्वक कुछ जोड़ा जा सकता है या "अनुसंधान" पूर्वक कुछ जोड़ा जा सकता है.  मैंने अनुसंधान पूर्वक मानव परम्परा में तीन बात को जोड़ा है - गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता.  श्रम-गति-परिणाम के साथ गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता को मैंने अनुसन्धान स्वरूप में प्रस्तुत किया है.  यह ज्ञान हो जाने पर मानव सटीकता से जी पाता है.

अध्ययन के लिए ध्यान देना पड़ेगा, अनुभव के बाद ध्यान बना ही रहता है.

जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (रायपुर, २००५)

Friday, August 2, 2019

ऐसा सोचने में क्या तकलीफ है?

सूर्य ऊष्मा सदा-सदा के लिए है - सूर्य जब तक ठंडा न हो जाए, तब तक.  अभी विज्ञानी ऐसा बताते हैं कि ५० करोड़ साल बाद सूर्य फैलने लगेगा और फैलते-फैलते धरती को अपने में निगल लेगा.  ऐसी बेसिरपैर की बातें हम विज्ञानियों से सुनते रहते हैं.

हमारे अनुसार ऐसी भी कल्पना दी जा सकती है कि सूर्य कभी चारों अवस्थाओं के साथ समृद्ध था, और वहां के विज्ञानी ही उसको आग का गोला बना कर अब इस धरती पर आ गए हों!  अब वही काम इस धरती पर भी करने के लिए तैयार बैठे हैं. 

ऐसा सोचने में क्या तकलीफ है?

हमारी इस कल्पना की हमारे पास गवाही तो है नहीं.  न विज्ञानियों के पास गवाही है कि सूर्य ५० करोड़ साल बाद धरती को निगल लेगा!  वो कल्पना कर सकते हैं तो हम भी कल्पना कर सकते हैं! 

प्रश्न:  आपने अनुसार सूरज कभी ठंडा होगा क्या?

उत्तर: मैं कह रहा हूँ - ठंडा होगा!  आज जो सूरज है वह पहले से किसी सूक्ष्म से सूक्ष्म अंश में ठंडा हुआ ही है.  ऐसा मैं कल्पना करता हूँ.  यह धीरे-धीरे हो कर के भारी परमाणु बनेंगे, उसके बाद उसका धरती के स्वरूप में गठन होगा. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (२००५, रायपुर)

आवर्तनशीलता की पहचान

प्रश्न : आवर्तनशीलता को कैसे पहचाने?

उत्तर: मनुष्य प्राकृतिक वैभव (खनिज और वनस्पति) को अपनी आकांक्षाओं (आहार, आवास, अलंकार, दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन) को पूरा करने के लिए कच्चा माल के रूप में प्रयोग करता है.  आवर्तनशीलता है - हम उन्ही वस्तुओं का प्रयोग करें कि जितना हम उपयोग करें प्रकृति उसको उतना पुनः बना पाए.  अभी वनस्पतियों में हमको पता लगता है कि हमारे उपयोग के बाद वह पुनः बनता रहता है.  तो वनस्पतियों को उपयोग करने के अनुपात में पुनः लगाते रहना आवर्तनशीलता है.  जबकि खनिज जो हम उपयोग करते हैं, वह पुनः बन रहा है - यह हमको प्रतीत नहीं होता.  तो जिन खनिजों को धरती अपने गर्भ में न रखते हुए बाहर कर दिया, उसको मानव उपयोग करे तो वह आवर्तनशील है.  धरती के गर्भ से खनिजों को निकालना बंद कर देना चाहिए.  लोहा आदि धातुओं को जिनको निकाल लिया गया है, उनको बारम्बार उपयोग करने का (recycle) कार्यक्रम रहे.  जैसे - घिसी हुई रेल पटरियां जंग खा कर, चोरी हो कर न जाएँ - उनका पुनः उपयोग हो.  अभी जितना लोहा धरती की सतह पर आ चुका है वह मानव की हज़ार वर्ष की आवश्यकता को पूरा कर सकता है. 

हम जंगल से बांस/लकड़ी काट कर लाते हैं, उसका हज़ारों टन मात्रा में कागज़ बनाते हैं.  उस सारे कागज़ को उपयोग के बाद स्याही को धोकर, पुनः pulp बना कर कागज़ बनाने की बात होना चाहिए.  इस recycling को आसानी से कर सकते हैं.  इस तरह बांस/जंगल काटने की आवश्यकता कम होगा. 

जंगल से ईंधन प्राप्त करने को कम करने के लिए सौर ऊर्जा का प्रयोग करना.  घर-घर में सौर ऊर्जा को पहुँचाना.  सौर ऊर्जा से घर में खाना बनाना और रोशनी होना.  सूर्य ऊष्मा सदा-सदा के लिए है - जब तक सूरज ठंडा न हो जाए तब तक.  इसी तरह गोबर गैस का उपयोग कर सकते हैं.  आज गोबर डाले, उससे गैस मिला, कल भी मिलेगा - यह आवर्तनशील है.  वायु तरंग को ऊर्जा प्राप्त करने के लिए उपयोग कर सकते हैं.  आज हवा चला, उससे ऊर्जा मिला, कल भी मिलेगा - यह आवर्तनशील है. 

मानव यदि मानव चेतना में परिवर्तित होता है तो बहुत सी आवश्यकताएं सीमित/संयत हो जाती हैं.  अभी बहुत सी आवश्यकताएं अमानवीयता के आधार पर हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (२००५, रायपुर)

व्यव्हार में संवाद का महत्त्व




मानव मानव के साथ व्यव्हार करता है, उसके मूल में वह दूसरे के बारे में कुछ मानता है.  उस के अनुसार या तो वह "स्नेह" करेगा या "विरोध" करेगा.  विगत में तीसरा भाषा भी प्रयोग किया कि "तटस्थ" रहेगा.  मेरे अनुसार विरोध का ही दूसरा नाम है "तटस्थ"!  इस तरह मानव व्यव्हार में या तो स्नेह होगा या नहीं तो विरोध ही होगा.  स्नेह के साथ ही परस्परता में विश्वास होता है.  स्नेह यदि टूटा रहता है तो परस्परता में विश्वास नहीं है.

व्यव्हार में संवाद भावी है.  व्यवहार में हम न्याय पूर्वक जीने के लिए संवाद करें.  समाधान पूर्वक जीने के लिए संवाद करें.  जब कभी भी हम संवाद शुरू करें - समाधान को आधार मान कर करें.  समाधान पूर्वक हम कैसे जियेंगे - इस पर संवाद करें.  न्याय पूर्वक कैसे जीना है? समाधान पूर्वक कैसे जीना है?  सत्य पूर्वक कैसे जीना है?  नियम पूर्वक कैसे जीना है?  नियंत्रण पूर्वक कैसे जीना है?  संतुलन पूर्वक कैसे जीना है?  व्यवहारात्मक जनवाद में हम व्यव्हार करते हुए इन ६ मुद्दों को कैसे प्रमाणित करेंगे - इस पर संवाद करने की सलाह दिया है.  स्कूल-कॉलेजों में इन ६ मुद्दों पर बच्चों से संवाद कराया जा सकता है.  इससे बच्चों में समाधान की मानसिकता तैयार होगी.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (२००५, रायपुर)

Thursday, August 1, 2019

त्व की पहचान से विश्वास



प्रश्न: आपने समाधानात्मक भौतिकवाद में प्रतिपादित किया है - "अस्तित्व में प्रत्येक एक अपने त्व सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदार है".  "त्व" से क्या आशय है?

उत्तर:  यदि भारत में कोई लोहा है तो कोई दूसरे देश में रहने वाला भी उसके लोहा ही होने में विश्वास करता है.  भारत में रहने वाला भी उस लोहे को लोहा ही होने में विश्वास करता है.  तो लोहे में "लोहत्व" होता है - इसमें मानव को संदेह नहीं है.

कुत्ता लन्दन में भी है, भारत में भी है.  भारत वालों को लन्दन वाले कुत्ते का कुत्ता ही होना स्वीकारने में विश्वास है.  लन्दन में रहने वालों के भारत वाले कुत्ते का कुत्ता ही होना स्वीकारने में विश्वास है.  कुत्ते में  "श्वानत्व" होता है - इसमें मानव को संदेह नहीं है.

अब भारत में मानव हैं, कोई दूसरा देश वाला उनके "मानव" होना स्वीकारने में विश्वास नहीं करता.  न भारत वाला दूसरे देश में रहने वालों के "मानव" होना स्वीकारने में विश्वास करता है.  इसका प्रमाण इतिहास में हुई मारकाट ही है.

हमारे अपने देश में ही एक आदमी दूसरे आदमी के साथ अभी तक कितना विश्वास कर पाया है?

इससे ज्यादा दुखद है जब परिवार में विश्वास की स्थिति को देखते हैं.  परिवार में कितना विश्वास कर पाए?  इसको लेकर सभी में कहीं न कहीं घायल होने का स्थिति बना ही है.

कुल मिला कर - मानव के त्व (या मानवत्व) की पहचान नहीं हुई. 

मानव-मानव के बीच विश्वासार्जन अनुभव मूलक विधि से ही होगा.

जब हम स्वयं में विश्वास कर पाते हैं तो परिवार में विश्वास होगा.  परिवार में विश्वास कर पाते हैं तो अडोस-पड़ोस में विश्वास होगा.  अडोस-पड़ोस में विश्वास कर पाते हैं तो देश-धरती में विश्वास होगा.  ऐसा विधि बनी हुई है.

मानव-मानव के बीच विश्वास के लिए "मानवत्व" एक महासेतु है.  इसके आधार पर हम एक दूसरे को पहचान सकते हैं, विश्वास कर सकते हैं, व्यव्हार कर सकते हैं, व्यवसाय कर सकते हैं, अखंड समाज स्वरूप में सम्पूर्ण मानव जाति को पहचान सकते हैं, व्यवस्था में जी सकते हैं और उसके अनुसार सूत्र-व्याख्या को प्रस्तुत कर सकते हैं. यह समाधानात्मक भौतिकवाद का मतलब है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (२००५, रायपुर)