प्रश्न: आगे चल कर संसार में समाधि-संयम के रास्ते पर लोगों को जाना पड़ेगा या नहीं जाना पड़ेगा?
उत्तर: समाधि-संयम घटना के रूप में घटित होता है. यह क्रमिक नहीं है. किसी क्रम में चल के यह घटित हो जाएगा - ऐसी कोई गारंटी नहीं है. किसी को हो भी सकता है, किसी को नहीं भी हो सकता है. अरबों वर्षों तक भी न हो, तो किसी को एक ही क्षण में हो जाए. ऐसी अनिश्चयता इसके साथ जुड़ी है.
इसमें मूलतः मैंने पहचाना - समाधि के लिए तीव्र जिज्ञासा का होना आवश्यक है. वह "अज्ञात को ज्ञात करने" से सम्बंधित ही होना चाहिए - मेरे अनुसार! "अप्राप्त को प्राप्त करने" से सम्बंधित बात में समाधि होगा - ऐसा मेरा विश्वास नहीं है. अभी पतंजलि योग सूत्र में संयम को लेकर जो कुछ लिखा है, वह अप्राप्त को प्राप्त करने के लिए है. वह सिद्धियों (विभूतियों) को प्राप्त करने के लिए है. इसका नाम "विभूतिपाद" ही लिखा है.
इन सब को देख कर मुझे लगता है अज्ञात को ज्ञात करने के लिए संयम किसी ने किया नहीं होगा. समाधि में जो होता है, उसी को "ज्ञान" मान लिया होगा. उसी को "गुड़ खाया हुआ गूंगा" उपमा दे दिया. ऐसा मैं मानता हूँ. हो सकता है किसी को सत्य बोध हो भी गया हो, किन्तु वह प्रमाणित नहीं हुआ - यह मेरा सत्यापन है.
ज्ञान प्रमाणित नहीं हुआ. किताबों में भी लिखा है - ज्ञान अनिर्वचनीय है. हमारे बुजुर्गों ने भी यही बताया है कि ज्ञान अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है. जबकि उन्ही ने पहले कहा है - "सत्यं ज्ञानम् अनंतम ब्रह्म". अर्थात ज्ञान जैसा पवित्र वस्तु सब जगह समान रूप से है. ज्ञान यदि सब जगह पर नहीं है तो और क्या है? इस बात पर मेरा जिज्ञासा रही, उसका उत्तर मुझे मिल गया. मिल जाने के बाद मेरा सत्यापन यही है - "निश्चित ज्ञान के लिए मानव का समाधि के लिए प्रयत्न करना नहीं होगा. निश्चित ज्ञान के लिए अध्ययन विधि ही है जो परंपरा में से ही होगा."
मानव परंपरा को आगे बढाने के लिए या तो "शोध" पूर्वक कुछ जोड़ा जा सकता है या "अनुसंधान" पूर्वक कुछ जोड़ा जा सकता है. मैंने अनुसंधान पूर्वक मानव परम्परा में तीन बात को जोड़ा है - गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता. श्रम-गति-परिणाम के साथ गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता को मैंने अनुसन्धान स्वरूप में प्रस्तुत किया है. यह ज्ञान हो जाने पर मानव सटीकता से जी पाता है.
अध्ययन के लिए ध्यान देना पड़ेगा, अनुभव के बाद ध्यान बना ही रहता है.
जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (रायपुर, २००५)
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