व्यापारिक भाषा का स्वरूप ही है - "सामने व्यक्ति को निरर्थक बताना और स्वयं को सार्थक बताना." व्यापार का स्वरूप ही ऐसा है. व्यापारिकता में "हम ऊपर हैं" - ऐसा बताने का प्रयास रहता है. हर व्यापारी अपने को ऊपर और बाकियों को नीचे मानता है. रास्ते पर स्टाल लगाने वाला टटपूंजिया भी मिल के मालिक से अपने को ऊपर मान कर बात करता है. व्यापारिक अस्मिता की रेखाएं ही ऐसी बनी हैं! दार्शनिक भाषा का स्वरूप है - "सभी सार्थक हो सकते हैं, सभी सार्थक हैं, सभी सार्थक होना चाहते हैं." दर्शन जीने से जुड़ा है. हर व्यक्ति सही जी सकता है, सही जी रहा है, सही जीने का प्रयत्न कर रहा है". इन तीन खाकों में हर व्यक्ति है. तभी संसार से मंगल मैत्री हो सकता है. इस पर हम स्वयं का अच्छे से शोध कर सकते हैं. व्यापारिक भाषा और दार्शनिक भाषा के आशय में भेद है. व्यापारिक भाषा का आशय है - लाभ पैदा करना. दार्शनिक भाषा का आशय है - सर्वशुभ होना. दोनों में अंतर है! व्यापारिक भाषा इस दर्शन से जुड़ता नहीं है. यह पूरा दर्शन सर्वमानव के अनुभव, विचार, व्यव्हार और कार्य से सम्बद्ध है. व्यव्हार में मानव चेतना के प्रमाण और कार्य में व्यवस्था के प्रमाण के लिए हम जुड़ते हैं.
आपकी भाषा आपकी अस्मिता से जुडी है. आप जो अभी तक व्यापार का जो अभ्यास किये हो उससे आपकी कुछ अस्मिता बनी ही है. वह अस्मिता इस दर्शन को संप्रेषित करने में न झलके! व्यापारिक अस्मिता से दर्शन संप्रेषित नहीं हो सकता. आपकी सम्प्रेष्णा में अस्मिता या अहंकार का पुट न हो! अभी जैसे आगे आप इस दर्शन को इन्टरनेट और अंग्रेजी में रखने का सोच रहे हो - उसमे ऐसा कोई भी बात नहीं आना चाहिए कि इसको दूसरा कोई नहीं कर सकता था. भाषांतरण करने में आप जितना विनम्र विधि से काम करोगे, उतना ज्यादा वह प्रभावशील होगा.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
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