प्रकृति में हर अवस्था के अनुसार संयमता है. संयमता = आचरण.
मानव को कैसे आचरण करना है, संयमता से रहना है - यह मानव चेतना विधि से आएगा, जीव चेतना विधि से आएगा नहीं.
नियति विधि से यौगिक विधि से रसायन संसार में नृत्य (उत्सव) के आधार धरती पर प्राणावस्था स्थापित हुआ. वनस्पतियों में स्त्री-कोषा व पुरुष-कोषा की परिकल्पना शुरू हुई. वनस्पति संसार में एक स्त्री-कोषा है तो उसके लिए एक करोड़ पुरुष-कोषा होगा. जबकि एक स्त्री-कोषा के साथ एक पुरुष-कोषा का योग फल होने के लिए पर्याप्त है.
उसके बाद जीवावस्था में - गाय, बन्दर आदि में - नर में यौन संवेदना की संयमता कम है, मादा में संयमता अधिक है. नर में यौन चेतना की विवशता अधिक है, मादा में यौन चेतना की विवशता कम है. जीवों में यौन क्रिया सामयिक है.
मानव के प्रकटन के साथ यौन चेतना की संवेदना स्त्री और पुरुष में समान है. मानव परम्परा में यौन चेतना की नर-नारी में समानता है. विवेक को दोनों में समान रूप से प्रमाणित होना है. नर-नारी में समानता का एक आयाम यह भी है. इसे नियति क्रम का वैभव कहा जाए या पराभव कहा जाए - आप सोच लो!
ज्ञान के प्रमाणित होने में हर नर-नारी में समान अधिकार हैं. यह समान अधिकार समझदारी में है, ज्ञान में है, विवेक में है, विज्ञान में है. इस समान अधिकार की जगह में संसार अभी पहुंचा नहीं है. अभी नर-नारी में समानता को लेकर सोचते हैं - "यदि एक रुपया है तो ५० पैसे नर का और ५० पैसे नारी का होना चाहिए!" "यदि नर एक घूँसा मार सकता है तो नारी को दो घूँसा मारना चाहिए" - इसको समानता मानते हैं! इसमें यदि आपका जीना बन जाता है तो क्या तकलीफ है? मुझे इससे कोई तकलीफ नहीं है.
जीवों से अच्छा जीने के लिए शरीर संवेदना को आधार बना कर हम आज जी रहे हैं. जीव चार विषयों की सीमा में जीते हैं. मानव ४ विषयों के साथ ५ संवेदनाओं के साथ जीता है. संवेदनाओं को राजी रखने और विषयों को भोगने के अर्थ में आज मानव का सारा जीना है. इसके लिए सुविधा-संग्रह को लक्ष्य बना कर ज्ञानी, विज्ञानी. अज्ञानी तीनो पागल हैं. इस सुविधा-संग्रह के पागलपन में धरती ही बीमार हो गयी. धरती बीमार होने पर कौन जियेगा? इसके विकल्प में इस प्रस्ताव का उदय हुआ कि समाधान-समृद्धि पूर्वक जिया जाए. समाधान-समृद्धि पूर्वक हर परिवार जी सकता है. हर व्यक्ति समाधान संपन्न हो सकता है. पूरा मानव समाज समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व प्रमाण परम्परा हो सकता है. इस प्रस्ताव के किसी कोने में निरर्थकता आपको दिखता है तो आप बताइये, मैं उसकी सार्थकता आपको समझा दूंगा.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अछोटी, २००८)
मानव को कैसे आचरण करना है, संयमता से रहना है - यह मानव चेतना विधि से आएगा, जीव चेतना विधि से आएगा नहीं.
नियति विधि से यौगिक विधि से रसायन संसार में नृत्य (उत्सव) के आधार धरती पर प्राणावस्था स्थापित हुआ. वनस्पतियों में स्त्री-कोषा व पुरुष-कोषा की परिकल्पना शुरू हुई. वनस्पति संसार में एक स्त्री-कोषा है तो उसके लिए एक करोड़ पुरुष-कोषा होगा. जबकि एक स्त्री-कोषा के साथ एक पुरुष-कोषा का योग फल होने के लिए पर्याप्त है.
उसके बाद जीवावस्था में - गाय, बन्दर आदि में - नर में यौन संवेदना की संयमता कम है, मादा में संयमता अधिक है. नर में यौन चेतना की विवशता अधिक है, मादा में यौन चेतना की विवशता कम है. जीवों में यौन क्रिया सामयिक है.
मानव के प्रकटन के साथ यौन चेतना की संवेदना स्त्री और पुरुष में समान है. मानव परम्परा में यौन चेतना की नर-नारी में समानता है. विवेक को दोनों में समान रूप से प्रमाणित होना है. नर-नारी में समानता का एक आयाम यह भी है. इसे नियति क्रम का वैभव कहा जाए या पराभव कहा जाए - आप सोच लो!
ज्ञान के प्रमाणित होने में हर नर-नारी में समान अधिकार हैं. यह समान अधिकार समझदारी में है, ज्ञान में है, विवेक में है, विज्ञान में है. इस समान अधिकार की जगह में संसार अभी पहुंचा नहीं है. अभी नर-नारी में समानता को लेकर सोचते हैं - "यदि एक रुपया है तो ५० पैसे नर का और ५० पैसे नारी का होना चाहिए!" "यदि नर एक घूँसा मार सकता है तो नारी को दो घूँसा मारना चाहिए" - इसको समानता मानते हैं! इसमें यदि आपका जीना बन जाता है तो क्या तकलीफ है? मुझे इससे कोई तकलीफ नहीं है.
जीवों से अच्छा जीने के लिए शरीर संवेदना को आधार बना कर हम आज जी रहे हैं. जीव चार विषयों की सीमा में जीते हैं. मानव ४ विषयों के साथ ५ संवेदनाओं के साथ जीता है. संवेदनाओं को राजी रखने और विषयों को भोगने के अर्थ में आज मानव का सारा जीना है. इसके लिए सुविधा-संग्रह को लक्ष्य बना कर ज्ञानी, विज्ञानी. अज्ञानी तीनो पागल हैं. इस सुविधा-संग्रह के पागलपन में धरती ही बीमार हो गयी. धरती बीमार होने पर कौन जियेगा? इसके विकल्प में इस प्रस्ताव का उदय हुआ कि समाधान-समृद्धि पूर्वक जिया जाए. समाधान-समृद्धि पूर्वक हर परिवार जी सकता है. हर व्यक्ति समाधान संपन्न हो सकता है. पूरा मानव समाज समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व प्रमाण परम्परा हो सकता है. इस प्रस्ताव के किसी कोने में निरर्थकता आपको दिखता है तो आप बताइये, मैं उसकी सार्थकता आपको समझा दूंगा.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अछोटी, २००८)
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