प्रश्न: "हर समझ अनुभव के साक्षी में ही स्वीकृत होता है" - आपके इस कथन का क्या आशय है?
उत्तर: मानव में जो कुछ भी समझ के रूप में स्वीकृत होता है - वह अनुभव के साक्षी में ही होता है. अनुभव के साक्षी का अर्थ है - अनुभव होने वाला है या अनुभव हो गया है. एक व्यक्ति को अनुभव हो गया है, एक को अनुभव होगा - इस विधि से परंपरा होती है. जब कोई अनुभव मूलक विधि से व्यक्त होता है तो वह दूसरे में अनुभव की रोशनी में ही स्वीकार होता है.
प्रश्न: दूसरे में "अनुभव की रोशनी" का क्या अर्थ है?
उत्तर: पहले में अनुभव रहता है, दूसरे में अनुमान रहता है. अनुमान अपने में रोशनी है. अनुभव रोशनी है ही. अनुमान और अनुभव में coherence अध्ययन विधि से आता है. आपको मेरा जीना देख के अनुमान होता है कि मैं अनुभव मूलक विधि से व्यक्त हो रहा हूँ. जब आप स्वयं उसके योग्य हो जाते हैं तो आप स्वयं प्रमाण हो जाते हो. इस ढंग से न्याय-धर्म-सत्य सम्मत परम्परा की सम्भावना उदय हुई.
अभी तक की परंपरा में कहा गया था - ज्ञान अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है. उसके विकल्प में यहाँ हम कह रहे हैं - ज्ञान व्यक्त है, वचनीय है, अनुभवगम्य है. ज्ञान वचन पूर्वक व्यक्त होता है, जो दूसरे में अनुमान पूर्वक स्वीकार होता है, अनुभव में आता है, फिर पुनः प्रमाणित होता है.
अनुभव में शब्द पहुँचता नहीं है. साक्षात्कार तक ही शब्द है. अनुभव जब होता है - उसमे शब्द नहीं है. अनुभव को लेकिन शब्द से समझाया जा सकता है. अनुभव के अर्थ में हम शब्दों का प्रयोग कर स्सकते हैं. अनुभव मध्यस्थ क्रिया है. मध्यस्थ क्रिया सबको संतुलित बना कर रखने वाली क्रिया है, इसी प्रकार शब्द को भी संतुलित बना दिया. शब्द/भाषा संतुलित बनाने पर हम संसार में समझदारी के अर्थ में सम्प्रेष्णा करते हैं. ऐसे अनुभव सकारात्मक सम्प्रेष्णा के लिए आधार बन गया. यह अक्षय स्त्रोत है, जो कभी समाप्त नहीं होता - इसलिए ज्ञान व्यापार, धर्म व्यापार होता नहीं है.
-श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)
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