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Sunday, April 29, 2012

स्वयं की संतुष्टि के लिए अध्ययन


संयम में जब मुझे दृश्य दिखना शुरू हुआ, पहले दिन से ही मुझे यह स्वीकार हो गया कि यह मेरे स्वरूप का ही अध्ययन है.  यह मेरे स्वयं की संतुष्टि के लिए अध्ययन है – ऐसा मेरी स्वीकृति हुई.  अध्ययन पूरा होने के बाद मेरी स्वीकृति हुई कि यह मेरा ही नहीं सर्व-मानव के अध्ययन की वस्तु है.

प्रश्न: आपका इतना दृढ़ विश्वास कैसे है कि अध्ययन विधि से भी अनुभव को पाया जा सकता है, जिसको आपने इतनी साधना के फलस्वरूप पाया?

उत्तर: क्योंकि मैंने स्वयं अध्ययन ही किया है!  मैंने साधना-समाधि विधि से चल कर अध्ययन किया.  मैंने जो देखा उसकी सूचना देने योग्य हो गया – उस आधार पर मेरा विश्वास है कि उस सूचना से आप भी अध्ययन कर सकते हैं.  समाधि से केवल मेरी संयम के लिए अर्हता बनी.  उसके आगे अध्ययन में हम और आप समान हैं.  जैसे अनुभव में मैंने देखा, अनुभवगामी विधि से उसको अध्ययन करने का व्यवस्था दे दिया.  अनुभव मूलक विधि से दी गयी सूचना से आपको अनुमान होता है, जो आपके अनुभव में जाकर confirm हो जाता है.  इतनी ही बात है.  जो अनुमान सटीक बन पाता है, उसमे आपकी निष्ठा बनती है और वह आगे अनुभव में आता है.  जो अनुमान सटीक नहीं बन पाता है, उसके लिए आपमें जिज्ञासा बनती है.  जिसका उत्तर अनुभव संपन्न व्यक्ति देता है.

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद के आधार पर (दिसम्बर २००८). 

Friday, April 27, 2012

ज्ञानगोचर को प्राथमिकता दी जाए


समझने की प्यास हम सभी में एक जैसी है.  समझने के लिए कुछ बातें दृष्टिगोचर और ज्ञानगोचर संयुक्त रूप में हैं.  कुछ बातें केवल ज्ञानगोचर से ही तृप्त होती हैं.  “ज्ञानगोचर भाग को समझ गए हैं”, इस बात का प्रमाण केवल व्यवहार में ही आता है.  व्यवहार में समाधान प्रमाणित होना ही अखंड समाज का पहला सूत्र है.  ज्ञानगोचर सभी का स्वत्व बनने की आवश्यकता है.  “इसको क्या मैं केवल मान लूं?” ऐसा शंका करना यहाँ उचित नहीं है.  “यह मुझे समझ में आया या नहीं समझ में आया” – इस तरह अध्ययन क्रम में चलना है.  ज्ञानगोचर को अपना स्वत्व बनाने के लिए ध्यान देना ही पड़ता है.  इसमें दूसरे द्वारा स्वयं पर कुछ आरोपण का मतलब ही नहीं है.  दूसरे से सूचना है.  ध्यान देना आप ही को है, समझना आप ही को है.  मेरी समझदारी मेरा ही स्वत्व है, उसकी सूचना आप तक पहुँचता है.  सूचना है – कैसे मैं इसको पा गया, कैसे मैं इसको समझ गया, कैसे इसको जी गया.  मेरे जीने से आप सहमत हो गए.  समझने में भी आप सहमत हो गए.  समझ को आपका अपना स्वत्व बनाने में कहीं न कहीं देरी है. ज्ञानगोचर को स्वत्व बनाने के बाद आप अपना ताना-बाना बनाइये.  पहले अपना ताना-बाना बनाना आपके समझने में अड़चन बन जाता है.  मानव की कल्पनाशीलता में समझने का ताना-बाना भी आता है, समझाने का ताना-बाना भी आता है.  ये दोनों साथ-साथ रहता है.  इसमें समझने के पक्ष को प्राथमिक बनाया जाए.  “मैं इन्द्रियगोचर संपन्न हूँ, ज्ञानगोचर संपन्न हो सकता हूँ” – इस विश्वास के साथ चलें, तो ध्यान देने पर बात बन जायेगी.  इस में कोई काली दीवाल आएगा नहीं.  यह सबसे मासूम, सबसे प्राथमिक, सर्वप्रथम समझने की चीज है.  यह समझ में आने के बाद सब हल हो जाता है.

पारगामीयता का मतलब है - सब में निर्बाध प्रवेश पूर्वक चले जाना.  विगत में ब्रह्म के बारे में बताया था – “यह सब में समा गया है.”  समाने वाली बात गलत निकल गयी.  “समाने” का मतलब ऐसा निकलता है – जिसमे समाया उसमे रहा, बाकी में नहीं रहा.  यहाँ बताया है – ब्रह्म (सत्ता) जड़-चैतन्य वस्तु में पारगामी है.  मेरे अनुसंधान का पहला प्रतिपादन यही है.  जड़-चैतन्य में पारगामी होने से जड़ में ऊर्जा-सम्पन्नता और चैतन्य में ज्ञान-सम्पन्नता है.  जड़ प्रकृति में मूल-ऊर्जा यही है.  साम्य-ऊर्जा उसको नाम दिया है.  चैतन्य प्रकृति में ज्ञान यही है.  ज्ञान जीव-संसार में चार विषयों में प्रवृत्ति और संवेदना के रूप में प्रकट है.  मानव में संवेदनाएं प्रबल हुआ, तथा कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता ज्ञान-संपन्न होने के लिए प्रवृत्त हुआ.  ज्ञानगोचर को स्वत्व बनाने के लिए मानव के पास कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता स्वाभाविक रूप में प्रकृति-प्रदत्त है.  कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता की तृप्ति के लिए ही पूरा ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर का प्रयोग है.  इन्द्रियगोचर का प्रयोग करने में मानव पारंगत है.  अब ज्ञानगोचर भाग को जोड़ने की आवश्यकता है.  उसको जोड़ने की आवश्यकता क्या है? सुखी होना.  समाधान पूर्वक सुखी होना होता है.  समस्या पूर्वक दुखी होना होता है.  अब प्रोत्साहन है – ज्ञानगोचर को प्राथमिकता दी जाए.  सारा उन्माद इन्द्रिय-गोचर विधि से है.  मानव का अध्ययन इन्द्रिय-गोचर विधि से हो नहीं पाता.  सत्ता में संपृक्त प्रकृति को समझना, जीवन को समझना, सार्वभौमता को समझना, अखंडता को समझना, प्रबुद्धता पूर्ण होना यह ज्ञानगोचर विधि से ही होगा.

मानव जो कुछ भी बात-चीत करता है वह ज्ञान की अपेक्षा में ही करता है.  मानव बहुत सारे भाग में ज्ञानगोचर विधि से जीता ही है.  विषयों और संवेदनाओं में भी मानव जो अभी जीता है वह भी ज्ञानगोचर विधि से ही जीता है.  पहले कल्पना से पहचानता है, फिर उसको शरीर द्वारा करता है.  कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता ज्ञानगोचर ही है.  कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग चेतना-विकास के लिए होने की आवश्यकता है.  इस पर तुलने की ज़रूरत है.  यही मूल मुद्दा है.   

श्री ए. नागराज के साथ संवाद के आधार पर (दिसम्बर २००८). 

Wednesday, April 25, 2012

सत्ता के “होने” को समझना

आप हमारे बीच में जो खाली वस्तु है, हर परस्परता के मध्य में जो वस्तु है – वही सत्ता है.  सत्ता पारगामी, पारदर्शी और व्यापक है.  व्यापक का अर्थ है – सर्वत्र विद्यमान रहना.  पारगामी होने के आधार पर जड़-प्रकृति ऊर्जा-संपन्न है और चैतन्य-प्रकृति ज्ञान-संपन्न है.  सत्ता ही साम्य-ऊर्जा है और सत्ता ही ज्ञान है.

सत्ता (ज्ञान) के पारगामी होने के आधार पर ही अस्तित्व मानव को स्वीकार होता है, अन्यथा मानव में कहाँ से आएगा?  ज्ञानगोचर को छोड़ करके हम चलते हैं तो यांत्रिकता के अलावा कुछ मिलेगा नहीं.

प्रश्न: “सत्ता ही साम्य-ऊर्जा है और सत्ता ही ज्ञान है” – इस को कैसे समझें?

उत्तर: जड़ प्रकृति के साथ सत्ता साम्य-ऊर्जा है.  जड़-प्रकृति में मात्रात्मक के साथ गुणात्मक विकास होने पर गठन-पूर्णता होने पर चैतन्य-पद (जीवन परमाणु) है.  चैतन्य-पद में सत्ता ज्ञान है.

प्रश्न: सत्ता की “पारदर्शीयता” से क्या आशय है?

उत्तर: आप और हम यहाँ आमने-सामने बैठे हैं.  आपको मैं पहचान रहा हूँ, मुझको आप पहचान रहे हैं.  बीच में सत्ता इस पहचान को रोकता नहीं है.  आप अपने को यथावत प्रस्तुत करें और मैं अपने को यथावत प्रस्तुत करूँ, इसमें सत्ता सहमत है.  इसीलिये सत्ता पारदर्शी है.  हम और आप एक दूसरे को देख-समझ पा रहे हैं – यही सत्ता की पारदर्शीयता का “प्रमाण” है.

प्रश्न: जैसे बिजली के कारण-वश बल्ब जलता है – सत्ता के कारण-वश प्रकृति क्रियाशील है.  बिजली के स्त्रोत को हम हटा देते हैं तो बल्ब जलता नहीं है – इसलिए हमको यह सिद्ध हो जाता है कि बिजली के कारण ही बल्ब जल रहा था.  लेकिन सत्ता के साथ ऐसा किया नहीं जा सकता, फिर सत्ता को कारण स्वरूप में कैसे समझें?

उत्तर: सत्ता को हटाया नहीं जा सकता – इसलिए सत्ता और प्रकृति के सह-अस्तित्व को इस विधि से नहीं सिद्ध कर सकते.  “सत्ता पारगामी है, इसलिए प्रकृति क्रियाशील है” – यह मानव के “समझ” में आता है.  समझ का मतलब है – ज्ञान.  मैंने जो “समझा” है – वह आपको बताया है.  जो मैंने बताया है – वह आपके लिए “सूचना” है.  आप भी उस ओर “ध्यान” देकर (या अध्ययन पूर्वक) उसे “समझ” सकते हैं.    मैंने भी उसे “ध्यान” दे कर अध्ययन पूर्वक “समझा” है.  आपको अपने “समझने के अधिकार” का प्रयोग करना है.  अध्ययन पूर्वक “समझने का अधिकार” हर व्यक्ति में रखा हुआ है.  मानव में जो “कल्पनाशीलता” है – अध्ययन का आधार वहीं से है.  ज्ञान-सम्पन्नता का आंशिक भाग कल्पनाशीलता ही है.  कल्पनाशीलता का आप “सदुपयोग” करेंगे तो सत्ता की पारमीयता, पारदर्शीयता, व्यापकता भी समझ आता है.  वही ज्ञान-गोचर है.  ज्ञान-गोचर विधि से मानव “समझ” सकता है.  इन्द्रिय-गोचर विधि से “समझ” में नहीं आता है.  मानव ज्ञान-अवस्था की इकाई है.  ज्ञान-गोचर विधि से ही मानव की सार्थकता है.  ज्ञान-गोचर विधि से समझने में केवल जीवन का ही श्रम है, शरीर का कोई श्रम नहीं है.  ज्ञान गम्य होने में जीवन ही श्रम करता है.  शरीर से कोई श्रम नहीं होता.  ज्ञान को परंपरा में प्रमाणित करने के लिए जीवन शरीर द्वारा प्रस्तुत होता है.  उसी ढंग से मैं जीता ही हूँ.

“देखने का मतलब ही समझना है.”  कहीं न कहीं इस बात को समझने में हम अटक जाते हैं.  शरीर का एक भाग है – “सुनना”.  जो सुना, उसका कुछ अर्थ होता है.  वह अर्थ अस्तित्व में वस्तु है.  वस्तु को वस्तु स्वरूप में साक्षात्कार करना ही “समझने” का मतलब है.  मुझको समझ में आ सकता है तो आपको भी आ सकता है.  आँखों से जो दिखता है उससे जो निष्कर्ष निकलता है, बारम्बार उसे गौण करके “समझने” को प्राथमिक करने से समझ में आता है.

प्रश्न: पानी में जैसे कपड़ा भीगता है, क्या वैसे ही ज्ञान में जीवन भीगा है?

उत्तर: किसी भी तरह की उपमा विधि से यह पूरा नहीं पड़ता.  ज्ञान या सत्ता जैसा और कोई वस्तु नहीं है.  उपमा विधि से “भीगे होने” की वास्तविकता को समझाने की शुरुआत है.  हर परमाणु-अंश भीगा है, हर परमाणु भीगा है, शरीर भीगा है, जीवन भीगा है.  इसको ज्ञान-गोचर विधि से स्वीकारना होता है.  भीगे होने का प्रमाण है – क्रियाशीलता.  क्रियाशीलता का कुछ भाग (रासायनिक भौतिक वस्तुएं) इन्द्रिय-गोचर होने के साथ ज्ञान-गोचर भी है.  जीवन संबंधी वस्तुएं और सत्ता केवल ज्ञान-गोचर हैं.  ज्ञान-गोचर पक्ष पर यदि हमको यकीन होता है तो इस बात को “समझने” में हमको तकलीफ नहीं होगा.  ज्ञान-गोचर पक्ष को पहचानना जीवन का अधिकार है, जब हम यह स्वीकार पाते हैं – तब हम “समझ” पाते हैं.  यदि ऐसा नहीं स्वीकार पाते हैं तो नहीं समझ पायेंगे.  ज्ञान-गोचर पक्ष पर आपका गम्यता कहाँ तक हुआ है, उसको सोचना चाहिए.

आप और हम इसको समझने और समझाने के प्रयास में चल रहे हैं.  “यह समझ में नहीं आ सकता” – ऐसा निर्णय नहीं ले लेना.  “इसको हम समझना चाहते हैं” – यहाँ तक आप की बात ठीक है.

प्रश्न: तो क्या अभी आपकी बात हम बिना समझे स्वीकार लें?

उत्तर: समझने पर ही कोई भी बात स्वीकार होता है या अस्वीकार होता है.  “बिना समझे हम स्वीकारेंगे नहीं!” – इस हठ से तो आप इस प्रस्ताव को सुनेंगे ही नहीं.  इस प्रस्ताव को “सुनना है” या “नहीं सुनना है”, “समझना है” या “नहीं समझना है”, फिर “स्वीकारना है” या “नहीं स्वीकारना है” – यह आपके अधिकार की बात है.  इसका मार्ग है: - “पहले समझने के लिए स्वीकारना.  फिर समझ कर स्वीकारना.” 

प्रश्न: तो क्या आपके तर्क को समझ कर ही स्वीकारा जा सकता है?

उत्तर: यह प्रस्ताव तर्क नहीं है, स्वयं में शोध की बात है.  हम समझ पा रहे हैं या नहीं समझ पा रहे – इसका स्वयं में शोध होना.  अस्तित्व में वस्तु के रूप में समझ पा रहे हैं या नहीं – इसका स्वयं में शोध होना.  अस्तित्व में वस्तु के रूप में समझना ही ज्ञान-गोचर है.  सत्ता और जीवन को ज्ञान-गोचर विधि से ही समझा जा सकता है.  इन्द्रिय-गोचर विधि से यह होगा नहीं!  इन्द्रिय-गोचर विधि से केवल इनके लक्षण आते हैं.  जैसे मैं जो समाधान-समृद्धि पूर्वक जीता हूँ, मेरे वह लक्षण आप तक पहुँचता है.  वह सूत्र भेदते-भेदते जीवन-गत होता है.  जीवन-गत होने पर ज्ञान-गोचर होता है.  ज्ञान-गोचर हो जाने पर वह आपका स्वत्व हो गया.  समझ स्वत्व होने पर स्वतन्त्र हो गए.  मानव के लिए ज्ञान-गोचर विधि से ही तृप्ति बिंदु है.  मानव ज्ञान-विधि से ही तृप्त होता है.  यांत्रिक विधि से मानव तृप्त हो नहीं सकता.  

उत्तेजित होकर समझा नहीं जा सकता.  शान्ति पूर्वक ही समझा जा सकता है.  सत्ता की सर्वत्र विद्यमानता, सर्वत्र पारदर्शीयता और सर्वत्र पारगामीयता ज्ञान-गोचर है.  इन तीनो बातों पर ध्यान देना होता है.  सबसे ज्यादा ज्ञान-गोचर कुछ है, तो वह यही है.  इस भाषा का क्या अर्थ है – इसका शोध करने का दायित्व आपका स्वयं का है.  इसीलिये “ध्यान” देने के लिए कह रहे हैं. समझने के लिए ध्यान देना होता है, समझने के बाद ध्यान बना ही रहता है.  ध्यान का मतलब विधिवत अध्ययन करना ही है.  इसके अलावा पूर्णता पाने के लिए दूसरा रास्ता समाधि-संयम पूर्वक अनुसंधान है – जो अँधेरे में हाथ मारने जैसा है.  मिल जाए तो ठीक है, नहीं तो और हाथ मारते रहो!  भौतिकवादी विधि से यांत्रिकता हाथ लगती है.  यांत्रिकता गलत है – ऐसा मैंने नहीं कहा है.  यांत्रिकता की सीमा में मनुष्य नहीं है – यह कहा है.   संज्ञानीयता यांत्रिकता की सीमा में नहीं है.  

संज्ञानीयता है – सत्ता में संपृक्त प्रकृति को समझना.  यह समझ में नहीं आता है तो संज्ञानीयता में प्रवेश ही नहीं हुआ.  संज्ञानीयता की शुरुआत ही यहाँ से है.  यही मूल मुद्दा है.  सत्ता में संपृक्त प्रकृति में ही परिवर्तन, परिमार्जन और गुणात्मक-विकास तक का सम्बन्ध बना हुआ है.  सत्ता में संपृक्तता समझ में नहीं आता है तो हम कितना भी प्रयास करें – वह अधूरा ही रहेगा.  ज्ञानगोचर प्रक्रिया जीवन में समाहित है ही.  जीवन ज्ञानेन्द्रियों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों) से जो भी देखता है, वह ज्ञान-संपन्न होने के लिए ही देखता है.  उसमे कोई तकलीफ भी नहीं है.  ज्ञानगोचर होने के लिए हमको ज्यादा बल देने की ज़रूरत है.  संपृक्तता समझ में नहीं आ रहा है, उसका कारण है – इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर का भेद स्पष्ट नहीं होना.  इन्द्रिय संवेदनाओं से ज्ञान होने के सम्बन्ध को हमने स्वीकार लिया है.  ज्ञानगोचर विधि में ज्ञान से ही वास्तविकताएं स्पष्ट होना और व्यवहार में उसका संकेत पहुँच जाना होता है.  मैंने जो जिया है, उसका तरीका यही है.  मैं तो इतना ही कह सकता हूँ.  

-    - श्री ए. नागराज के साथ संवाद के आधार पर (दिसम्बर २००८). 

ध्वनि - ताप - विद्युत

परमाणु में गति के स्वरूप को हमने समझा. गति के फल-स्वरूप ही ध्वनि भी होता है, ताप भी होता है, विद्युत भी होता है। ताप, ध्वनि, और विद्युत का मूल स्वरूप परमाणु के स्तर पर है।  ध्वनि, ताप, और विद्युत परस्परता में ही व्यक्त होते हैं, इसी लिए इनको सापेक्ष-शक्तियां या कार्य-ऊर्जा भी कहा है। एक इकाई द्वारा अपने गुणों को व्यक्त करने के लिए दूसरी इकाई की आवश्यकता है ही। 

विद्युत:  सत्ता में संपृक्त होने से परमाणु-अंश चुम्बकीय-बल संपन्न हैं। परिवेशीय अंशों और नाभिक के बीच में चुम्बकीय धार बनती है, जिसके नाभिकीय घूर्णन-गति द्वारा विखंडन पूर्वक विद्युत पैदा होती है। अकेले परमाणु-अंश में विद्युत की पहचान नहीं है। 

जड़ वस्तु में अणुओं में संकोचन और प्रसारण होना पाया जाता है.  उसी के आधार पर उनमे विद्युत ग्राहिता होती है.  विद्युत प्रवाहित होने की स्थिति में यह संकोचन और प्रसारण बढ़ जाता है.  हर प्राण-कोशा में संकोचन-प्रसारण पाया जाता है, इसलिए हर प्राण-अवस्था की रचना विद्युतग्राही है.  चुम्बकीयता वश विद्युत का प्रसव है.  चुम्बकीयता के मूल में साम्यऊर्जा में संपृक्तता है.

ध्वनि:  हर इकाई अपने प्रभाव-क्षेत्र को बना कर रखती है.  दो पदार्थों के प्रभाव-क्षेत्र जब पास में आते हैं तो उनमे संघर्ष/घर्षण से ध्वनि होता है. उससे उनके बीच वायु के कण अनुप्राणित हो जाते हैं, जिससे ध्वनि-तरंग होती है.  परमाणु-अंशों के वातावरण में परस्पर घर्षण के कारण ध्वनि है। दूसरे वस्तु के वातावरण के साथ घर्षण हुए बिना ध्वनि की पहचान नहीं है। 

ताप:  अणु, परमाणु सभी वस्तुएं सक्रिय हैं.  क्रिया के फलस्वरूप ताप होता है.  तापविहीन इकाई नहीं है.  अवस्था के अनुसार इकाई के स्वस्थता में रहने की एक ताप अवधि है, उस ताप को वह इकाई बनाए रखता है.  ताप स्वस्थता के अर्थ में है.

दो वस्तुएं व्यवस्था में साथ रहते हैं तो ताप पैदा होता ही है। जैसे, जीभ और दांत के बीच घर्षण से ताप पैदा होता ही है। वह इसकी स्वभाव-गति है. व्यवस्था में कार्य करते तक स्वभाव-गति है। अव्यवस्था होने पर ताप बढ़ गया या कम हो गया। 

ताप परावर्तित होता है। जैसे – चूल्हे में हाथ डालने पर हाथ जल जाता है, थोडा दूर रखने पर गर्म लगता है, और दूर जाने पर उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है। 

जड़ प्रकृति में एक सीमा तक ताप को सहने की बात रहती है, उसके बाद उसमे विकार पैदा होता है.  चैतन्य प्रकृति (जीव और मानव) में ताप की अनुकूलता के लिए प्रयास होता है.

आवेश को पचाने की शक्ति स्वभाव-गति में ही होती है। परमाणु में ध्वनि, ताप, और विद्युत को (एक सीमा तक) पचाने का प्रावधान रहता है। आवेशित इकाई में ध्वनि, ताप, और विद्युत स्वभाव-गति से अधिक होता है। उसके पास में दूसरी इकाई – जो पहले अपने स्वभाव गति में थी - उस आवेश को अपने में पचाती है, जिससे उसकी गति (कम्पनात्मक, वर्तुलात्मक, घूर्णनात्मक) पहले से बढ़ जाती है। परमाणु में होने वाली मध्यस्थ-क्रिया इस आवेश (बढ़ी हुई गति) को सामान्य बनाती है। 

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद के आधार पर (दिसम्बर २००८)

व्यवस्था का सूत्र


व्यापक वस्तु में प्रकृति की इकाइयां डूबी, भीगी और घिरी है.  व्यापक वस्तु पारगामी होने के आधार पर सभी इकाइयां इसमें भीगी है.  परमाणु-अंश भी भीगा हुआ है, इसीलिये ऊर्जा संपन्न है, इसीलिये परमाणु क्रियाशील है.  क्रिया का स्वरूप बना – श्रम, गति, परिणाम.  अकेले परमाणु-अंश में गति तो दिखता है, पर श्रम और परिणाम नहीं दिखता है.  परमाणु-अंश जब परमाणु के रूप में स्वयं-स्फूर्त विधि से गठित हो जाता है – तो श्रम-गति-परिणाम के स्वरूप में वह परमाणु एक निश्चित-आचरण को व्यक्त करता है.  दो अंश के परमाणु का आचरण भी निश्चित है.  परमाणु व्यवस्था का मूल स्वरूप है.  जो कुछ भी अस्तित्व में प्रकाशित है - वह व्यवस्था के सूत्र पर ही निर्भर है.  मानव के अस्तित्व में प्रकाशित होने का आधार व्यवस्था है.  व्यवस्था में जीने के आधार पर ही मानव समाधान-समृद्धि पूर्वक जी सकता है, फलस्वरूप आगे चलकरके अभय और सह-अस्तित्व को प्रमाणित कर पाता है.

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद के आधार पर (दिसम्बर २००८).

Tuesday, April 10, 2012

व्यंजना और अनुभव

प्रश्न: “व्यंजना” से क्या आशय है?

उत्तर: हर मानव में, हर आयु में कल्पनाशीलता है. कल्पनाशीलता में जो कुछ भी आकार आता है, वह व्यंजना है. वही साक्षात्कार होने का आधार बनता है. हर शब्द का अर्थ होता है, अर्थ के स्वरूप में जो वस्तु है उसका आकार यदि कल्पना में आ गया तो व्यंजित हो गया, उस पर विश्वास हो गया तो साक्षात्कार हो गया. व्यंजना का अधिकार चित्त में चित्रण करने के रूप में है, बुद्धि में बोध करने के रूप में है और आत्मा में अनुभव करने के रूप में है.

प्रश्न: अनुभव क्या है?

उत्तर: अनुक्रम से होने वाले उदय को अनुभव नाम दिया है. सह-अस्तित्व में चारों अवस्थाएं कैसे उदय हुई हैं इसको जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करना – इसका नाम है अनुभव. ये चारों बात (जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करना) आता है तो अनुभव है, अन्यथा अनुभव नहीं है. अनुभव ही मूल्य अनुभूति का अधिकार है, जिसको व्यक्त करना क्रम से होता है. मूल्य अनुभूति का कोई क्रम नहीं है. अनुभव में सभी मूल्य समाया है.

प्रश्न: “अनुभव से अधिक उदय ही अनुमान है” – इससे क्या आशय है?

उत्तर: न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक जीना मेरे अनुभव में है. मैं ऐसा जी ही सकता हूँ, साथ में मैं अनुमान करता हूँ – सभी मेरे जैसे न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक जी सकते हैं. इस तरह अनुमान अनुभव से अधिक हुआ या नहीं?


- नवम्बर २००९, अछोटी अध्ययन शिविर के प्रतिभागियों के साथ संवाद पर आधारित.

काल वादी ज्ञान

क्रिया की अवधि का नाम है – काल. जैसे सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक धरती की घुर्णन क्रिया की अवधि को “एक दिन” कहते हैं. क्रिया की अवधि का विभाजन करने का अधिकार मानव के पास आया, कल्पनाशीलता की बदौलत. जैसे एक दिन के २४ विभाजन करके २४ घंटे, १ घंटे के ६० विभाजन करके ६० मिनट, आदि. मानव ने इस विभाजित अवधि में क्रिया को पहचानने का प्रयास किया. “काल की अवधि में क्रिया हो रही है” – ऐसा मान लेते हैं. जबकि क्रिया विभाजित होती नहीं है. क्रिया निरंतर बनी ही रहती है. “काल के अनुसार क्रिया होती है” – मानव ने ऐसा उल्टा सोच लिया. यहीं से बेवकूफी की शुरुआत है. काल की अवधि में क्रिया की गणना करने का प्रयास करना बुद्धूपन हुआ कि नहीं? यही “बुद्धिमत्ता” सारे अनर्थ करने का आधार बना है.

काल की गणना मानव की कल्पनाशीलता द्वारा है. अस्तित्व में “काल” शब्द से इंगित कोई वस्तु नहीं है. हम यह गणना नहीं कर सकते हैं – पदार्थ कब हुआ था? हम यह गणना नहीं कर सकते हैं – जीव कब हुआ था? हम यदि ऐसी कोई गणना करते हैं तो वह हमारी ‘इच्छा’ या ‘कल्पना’ के अनुसार ही होगा, ‘अनुभव’ के आधार पर नहीं होगा. अस्तित्व-धर्म के आधार पर काल की गणना नहीं है. पुष्टि-धर्म के आधार पर काल की गणना नहीं है. वंश अनुरूप जीने की आशा धर्म के आधार पर काल की गणना नहीं है. हम यही कह सकते हैं – मानव से पहले जीव-संसार था, जीव-संसार के पहले वनस्पति-संसार था, वनस्पति-संसार के पहले पदार्थ संसार था – इतनी हम गणना कर सकते हैं.

- नवम्बर २००९, अछोटी अध्ययन शिविर के प्रतिभागियों के साथ संवाद पर आधारित.

मानव का अधिकार

“होने” का नाम है - अस्तित्व. “रहने” का नाम है – अधिकार. अस्तित्व सह-अस्तित्व है. सह-अस्तित्व = व्यापक वस्तु में एक-एक वस्तुएं अविभाज्य वर्तमान हैं. अस्तित्व चार अवस्थाओं के रूप में प्रकट है. पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और ज्ञान-अवस्था के रूप में जो है – वही अस्तित्व है. पदार्थ-अवस्था का “अधिकार” या “रहने” का स्वरूप है – होने को बनाए रखना. प्राण-अवस्था का “अधिकार” है – अस्तित्व सहित पुष्टि. एक से अनेक स्वरूप में अवतरित होने का अधिकार प्राण-अवस्था में है. जीव-अवस्था में वंश के अनुसार रहने का “अधिकार” है. जैसे – गाय का बछड़ा गाय-वंश के अनुसार रहने का अधिकार के साथ ही जन्म लेता है. मानव (ज्ञान-अवस्था) में देखते हैं तो उसके “रहने” का निश्चित स्वरूप या “मानव का अधिकार” तय ही नहीं हुआ! इसका कारण है – मानव का अध्ययन नहीं हुआ. हर मानव अभी अपने अलग स्वरूप में काम करता है. अभी मानव अलग अलग परिस्थितियों में अलग अलग स्वरूप में काम करता है. इस कारण से मानव के निश्चित आचरण का स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पाया. स्पष्ट होने की ज़रूरत है या नहीं?

मानव चेतना के साथ “मानव का आचरण” या “मानव का अधिकार” स्पष्ट होता है. मानवत्व मानव-चेतना के साथ है. मानव चेतना पूर्वक यदि मानव जीता है तो वह भ्रम मुक्त हो सकता है और अपराध मुक्त हो सकता है. मानव चेतना की शिक्षा देने से बच्चों में मानवत्व आ सकता है. “मानव का अधिकार” है – रूप, पद, बल, धन और बुद्धि. इसमें से रूप, पद, बल और धन के अधिकार को मानव उपयोग कर चुका है. इस तरह मानव का आचरण स्पष्ट नहीं हुआ. इसके प्रमाण में नर-नारी में समानता आया नहीं, अमीरी-गरीबी में संतुलन इससे हुआ नहीं. मानव ने बुद्धि के अधिकार का प्रयोग नहीं किया है. बुद्धि के अधिकार का प्रयोग करने का मतलब है - समझदारी पूर्वक जीना. मानव को अधिकार पूर्वक जीने के लिए “समझदारी” का उपार्जन करना आवश्यक है.

- नवम्बर २००९, अछोटी अध्ययन शिविर के प्रतिभागियों के साथ संवाद पर आधारित.