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Sunday, November 30, 2008

विगत की मान्यताओं का विकल्प

व्यापक में प्रकृति प्रेरणा पाने योग्य स्थिति में है। प्रकृति व्यापक में स्वयं स्फूर्त विधि से प्रेरणा पाता ही रहता है। व्यापक ऊर्जा स्वरूप में है। प्रकृति व्यापक में संपृक्त होने के कारण ऊर्जा-संपन्न रहती ही है। इस सम्पृक्त्ता के कारण ही प्रकृति में क्रियाशीलता है। यह क्रियाशीलता पूर्वक ही सह-अस्तित्व सहज नियति-क्रम का प्रकटन है। नियति-क्रम है - विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति।

सह-अस्तित्व को न पहचानने से, जीवन को न पहचानने से, मानवीयता पूर्ण आचरण को न पहचानने से - इसके विपरीत कुछ मान्यताएं रहती हैं। इन मान्यताओं में परस्पर कोई तालमेल न बैठने से मनुष्य-जाति को कोई निश्चित समझदारी हाथ लगा नहीं - जिससे न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित की जा सके, सही कार्य-व्यवहार किया जा सके, सत्य-बोध कराया जा सके। विगत की मान्यताओं से इनको लेकर मानव जाति - ज्ञानी, अज्ञानी, और विज्ञानी - सर्वथा असफल रहे। यह फ़ैसला हम अपने में नहीं कर पाते हैं, तो इस प्रस्ताव के अध्ययन में हम आगे बढ़ नहीं सकते। विगत की किसी मान्यता के साथ इस प्रस्ताव का गुड-गोबर ही करेंगे। गुड-गोबर करेंगे तो न गुड हाथ लगना है, न गोबर!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Saturday, November 29, 2008

चेतना विकास

चेतना-परिवर्तन की परिकल्पना ईश्वर-वादियों ने दिया। भौतिक-वादी ऐसी परिकल्पना भी दे नहीं पाये। भौतिक-वादियों के पास चेतना-परिवर्तन की प्रेरणा देने के लिए कोई अर्हता नहीं है। भौतिक वाद के पास ऐसा कोई माद्दा ही नहीं है, वह बीज ही नहीं है।

चेतना-विकास से मध्यस्थ-दर्शन का क्या आशय है?

चेतना विकास से आशय है - जीव-चेतना से मानव-चेतना में संक्रमित होना। जीव-चेतना का अर्थ है :- प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से विचार करते हुए चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, और मैथुन) और पाँच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) के लिए जीना। मानव-चेतना का अर्थ है - ज्ञान (सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान) और उससे अनुबंधित विवेक और विज्ञान के अनुसार जीना। ज्ञान-विवेक-विज्ञान कुल मिला कर मानव-चेतना का विस्तार है। मध्यस्थ-दर्शन मानव-चेतना में संक्रमित होने के लिए अध्ययन विधि (शिक्षा) को प्रस्तावित करता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

सह-अस्तित्व में प्रकटनशीलता स्वाभाविक है.


सह-अस्तित्व चार अवस्थाओं के रूप में प्रकट होने के लिए तीन प्रकार की क्रियायें हैं - भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया, और जीवन क्रिया। प्राकृतिक रूप में प्रकटन के बाद परम्परा है। मतलब - कोई अवस्था जब प्रकट होती है, तब उसके बने रहने का स्वरूप परम्परा के रूप में स्थापित प्राकृतिक रूप में हो जाता है। इनमें "घटना-बढ़ना" भ्रमित मनुष्य की प्रवृत्ति और कार्य-व्यवहार से होता है।

पदार्थ-अवस्था ही प्राण-अवस्था को यौगिक विधि से प्रकट करता है। यह स्वयं-स्फूर्त विधि से होता है। इसको कोई बाहरी ताकत नहीं करता। विगत (आदर्श-वाद) में बताया था - "यह परमात्मा की करनी है।" मध्यस्थ-दर्शन ने परमात्मा को व्यापक स्वरूप में पहचाना। परमात्मा (व्यापक) का प्रकटन में "करने वाले" के रूप में कोई रोल नहीं है। परमात्मा (व्यापक) जड़-चैतन्य प्रकृति में प्रेरणा के स्वरूप में है ही! जड़ प्रकृति परमात्मा (व्यापक) में भीगे होने से प्रेरित है, जिससे क्रियाशील है। यह प्रेरणा नित्य है। यह प्रेरणा घटता बढ़ता नहीं है। वस्तु की क्रिया से व्यापक में कोई क्षति होता ही नहीं है। व्यापक में प्रेरणा अभी मिला, बाद में नहीं मिला, अभी ज्यादा मिला, बाद में कम मिला - ऐसा कुछ नहीं होता।

परमाणु अंश भी इस तरह ऊर्जा-संपन्न है, और घूर्णन गति के रूप में क्रियाशील है। सभी परमाणु-अंश एक जैसे हैं। परमाणु की प्रजातियों में भेद उनके गठन में समाहित होने वाले परमाणु-अंशों के अनुसार है। सभी तरह के परमाणु-प्रजातियों के प्रकट होने के बाद भौतिक-संसार तृप्त हो जाता है। उसके बाद ही वह यौगिक-क्रिया में प्रवृत्त होता है। भौतिक-क्रिया में तृप्ति के बाद ही यौगिक क्रिया में प्रवृत्ति बन जाती है। फ़िर स्वयं स्फूर्त विधि से यौगिक प्रकटन होता है। यौगिक प्रकटन के लिए समस्त प्रकार के भौतिक-परमाणु सहायक (पूरक) हो जाते हैं। यौगिक प्रकटन के लिए "भूखे" परमाणु भी सहायक हैं, "अजीर्ण" परमाणु भी सहायक हैं। यौगिक विधि से सर्वप्रथम जल ही प्रकट हुआ।

सह-अस्तित्व में प्रकटनशीलता स्वाभाविक है। इसी प्रकटनशीलता के आधार पर प्राण-अवस्था स्थापित हो गयी। प्राण-कोष में निहित प्राण-सूत्रों में उत्तरोत्तर गुणात्मक विकास से नयी रचना विधि का प्रकटन होता है। इसी क्रम में प्राण-अवस्था के सभी झाड़, वनस्पति, औषधि प्रकट होने के बाद प्राणावस्था तृप्त हो गयी। प्राण-अवस्था तृप्त होने के बाद जीव-अवस्था की रचनाएँ शुरू हुई। जीव-अवस्था भुनगी-कीडे (स्वेदज संसार) से शुरू हो कर अंडज और पिंडज दो प्रकार की प्रजातियाँ स्थापित हुई। उनमें से जलचर, भूचर, और नभ-चर तीनो प्रकार के जीव हुए। शाकाहारी जीवों में प्रजनन क्रिया द्वारा multiplication ज्यादा होता है। मांसाहारी जीवों में अपेक्षाकृत कम multiplication होता है। शाकाहारी संसार की संख्या में संतुलन करने के लिए मांसाहारी संसार का प्रकटन हुआ - यह मुझको समझ में आया। जीवावस्था के सभी वंश-परम्पराएं स्थापित होने के बाद मानव-शरीर रचना का प्रकटन हुआ।

मानव-शरीर रचना सर्व-प्रथम किसी जीव से ही प्रारंभ हुआ, उसके बाद मानव-परम्परा शुरू हुई। जल, सघन-वन, सभी प्रकार के जीव-जानवर प्रक ट होने के बाद ही मनुष्य का प्रकटन हुआ। इन्ही के बीच मनुष्य पला। मनुष्य-शरीर के प्रकटन के साथ ही जीवन अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता प्रकट करने की जगह में आ गया। सह-अस्तित्व सहज प्रकटन विधि से इतने सब श्रम के बाद मनुष्य का प्रकटन इस धरती पर हुआ।

मनुष्य ने अपनी कल्पनाशीलता के चलते पहले वनों का संहार करना शुरू किया। विज्ञान युग आने के बाद खनिज-संसार का संहार करना शुरू कर दिया। जबकि - वन और खनिज के संतुलन से ही ऋतु-संतुलन होता है। बिना ऋतु-संतुलन के मनुष्य-जाती का धरती पर बने रहना सम्भव नहीं है। इस बात को आज के संसार के सामने highlite करने की ज़रूरत है। यह जो मैं समझा रहा हूँ - यह waste नहीं जाना चाहिए।

मनुष्य ने अपनी कल्पनाशीलता के प्रयोग से अपनी परिभाषा के अनुरूप मनाकार को साकार करने का काम बहुत अच्छे से कर लिया। मनः-स्वस्थता का खाका वीरान पड़ा रहा। मनुष्य के प्रकट होने से पहले जीव-चेतना जीव-अवस्था द्वारा प्रकट हो चुकी थी। मनुष्य ने पहले जीवों जैसे ही जीने का प्रयत्न किया, फ़िर जीवों से अच्छा जीने का प्रयत्न किया। जीवों से अच्छा जीने के लिए मनुष्य ने जीव-चेतना का ही प्रयोग किया। इससे "अच्छा लगने" तक हम पहुँच गए। "अच्छा होना" इससे बना नहीं। "अच्छा लगने" की दौड़ में सुविधा-संग्रह लक्ष्य बना कर धरती का शोषण किया, और मनुष्य-परस्परता में अपराध किया। इसके चलते चलते धरती ही बीमार हो गयी। अब विकल्प की आवश्यकता आ गयी। उसी अर्थ में मध्यस्थ-दर्शन अध्ययन के लिए प्रस्तुत है। मध्यस्थ-दर्शन (जीवन विद्या) मनुष्य-जाति के लिए जीव-चेतना से मानव-चेतना में संक्रमित होने लिए प्रस्ताव है। मानव चेतना पूर्वक ही मानव-परम्परा धरती पर बनी रह सकती है। और किसी विधि से नहीं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Friday, November 28, 2008

प्रबोधन

प्रबोधन का मतलब है - परिपूर्णता के अर्थ में शब्दों को व्यक्त करना। प्रबोधन का प्रयोजन है - सामने व्यक्ति को बोध होना। बोध होने के बाद वही व्यक्ति जिसको बोध हुआ, अनुभव पूर्वक पुनः प्रबोधित करेगा। इस ढंग से यह multiply होता है। कितने भी multiply होने पर ज्ञान न कम होता है, न ज्यादा। न भाग होता है, न विभाग होता है। जितना हम दूसरों को बोध कराते हैं - हमारा प्रसन्नता उतना ही बढ़ता है। इस प्रसन्नता से और लोगों को बोध कराने का उत्साह बनता है। इससे मनुष्य थकने वाले गुण से मुक्त होता है। सत्य बोध जिनसे हुआ - उनके प्रति कृतज्ञ रहना ही बनता है। उसका return वही है। इससे ज्यादा उसका return होता भी नहीं है।

मंगल-मैत्री के बिना प्रबोधन सफल हो ही नहीं सकता। मंगल-मैत्री पूर्वक हम एक दूसरे पर विश्वास कर सकते हैं। सुनने वाले और सुनाने वाले दोनों। वही है संगीत। संगीत विधि से ही सम्प्रेष्णा होता है। सुनाने वाले को यह विश्वास हो कि सुनने वाला ईमानदारी से सुन रहा है - और उसको बोध होगा। सुनने वाले को यह विश्वास हो कि सुनाने वाला ईमानदारी से सुना रहा है - वह स्वयं बोली जा रही बात में पारंगत है, प्रमाण है।

अभी की स्थिति में १२ वी कक्षा के ८०% से अधिक बच्चे पढाने वाले को नालायक मानते हैं। उनसे अपने को श्रेष्ठ मानते हैं। पैसे के आधार पर। "हमने पैसा दिया है - यह पढाएगा!" - ऐसी इनकी सोच है। पढाने वाला स्वयम आत्म-विश्वास से संपन्न नहीं है। इस स्थिति में प्रबोधन की कोई बात ही नहीं है।

बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान

साधना समाधि संयम पूर्वक जो मैंने अध्ययन किया - उसमें सर्वप्रथम सह-अस्तित्व को देखा। देखने का मतलब है समझा। इससे "पैदा होता है और मरता है" - इस विपदा से छूट गए। परिवर्तन होता है, परिणाम होता है - यह पता लगा। रचना की विरचना हो सकती है। मरता कुछ नहीं है। जैसे - शरीर की रचना गर्भाशय में होती है। शरीर की विरचना भी होती है। सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति को सह-अस्तित्व स्वरूप में देखा - यही परम सत्य है। नित्य-वर्तमान यही है। मैंने जो साधना की थी, उसके मूल में जिज्ञासा थी - "सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है?" उसका उत्तर मिला - अस्तित्व में कुछ भी असत्य नहीं है। अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूपी है। सह-अस्तित्व में असत्य की कोई जगह ही नहीं है। "ब्रह्म सत्य - जगत मिथ्या" - जो शास्त्रों में लिखा है, वह ग़लत सिद्ध हो गया। उसकी जगह होना चाहिए - "ब्रह्म सत्य - जगत शाश्वत"।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक )

Tuesday, November 25, 2008

स्वभाव गति में ही अध्ययन होता है.

समझने के क्रम में यथासंभव स्वभाव-गति को बनाए रखें। स्वभाव-गति में ही मंगल-मैत्री होती है। आवेशित-गति में मंगल-मैत्री नहीं होती। बेहोश रहने में भी नहीं होती। तीसरे - चंचलता बने रहने में भी स्वभाव-गति नहीं रहती।

स्वभाव-गति में ही अध्ययन होता है।

मन सुनते समय भटकता है, इधर-उधर भागता है - तब स्वभाव-गति नहीं होती। मन को एक ही समय में तीन जगह रहने का अधिकार है - इसीलिये अध्ययन के लिए मन को एक जगह स्थिर करने की आवश्यकता है। इसी का नाम है - ध्यान। यदि आपने ध्यान दिया तो अस्तित्व में कोई ऐसी चीज नहीं है, जो आपको बोध न हो। अस्तित्व में किसी वस्तु पर बुरका नहीं लगा है। अस्तित्व की सभी वास्तविकताएं सह-अस्तित्व स्वरूप में प्रकट ही हैं। इसीलिये अस्तित्व को समझे हुए आदमी द्वारा दूसरे को बोध कराना सहज है। इसी का नाम "प्रबोधन" है। प्रबोधन को सुनने वाला "स्वभाव-गति" में ही receive करता है। receive करने के बाद यदि कोई बात संतुष्टि नहीं दे पाता है, उस स्थिति में सुनने वाला "जिज्ञासा" करता है - संतुष्ट होने के लिए। इस प्रकार सुनाने वाले और सुनने वाले के बीच मंगल मैत्री पूर्वक सारे बात स्पष्ट हो सकता है। सुनने वाले और सुनाने वाले को वस्तु समान रूप से स्पष्ट हो गयी - तो दोनों के बीच कोई अन्तर नहीं रह गया। इसी को "अनन्यता" या "प्रेम" कहा है।

प्रेम या अनन्यता के बारे में परम्परा में नवधा-भक्ति (नारद भक्ति सूत्र) की बात किया गया है। इसमें ९ सीढियों से गुजरने की बात कहा गया है। कब उन नौ सीढियों को कोई पूरा करेगा, किसी को पता नहीं चला!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Monday, November 24, 2008

समझदारी की घोषणा का मतलब

सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व की वास्तविकताओं को आपने सटीक पहचाना है, इसका प्रमाण आपके जीने में ही आएगा। व्यक्ति के प्रमाणित होने का मतलब - उस व्यक्ति द्वारा अन्य लोगों को समझा देना। प्रमाणित होने का स्वरूप है - समझे हुए को समझाना, सीखे हुए को सिखाना, किए हुए को कराना। समझदारी का और कौनसा प्रमाण हो सकता है - आप बताओ? समझा देना ही समझे होने का प्रमाण होता है।

प्रश्न: आपने अनुसंधान पूर्वक समझा, उसमें पूरा समझने के बाद ही दूसरों को समझाने की बात रहीलेकिन हम जो अध्ययन विधि से चल रहे हैं, उसमें आप कहते हैं - जितना समझे हो, उतना समझाते भी चलोइसको समझाइये

उत्तर: समझाने से अपनी समझ को पूरा करने का उत्साह बनता है। जैसे आपने थोड़ा सा समझा, उसको दूसरे को समझाया - उससे आप में और आगे समझने का उत्साह बनता है। यह खाका ग़लत नहीं है। यह समझने की गति बढाता है। हमें उत्सवित भी रहना है, सच्चाई को समझना भी है, और सच्चाई को प्रमाणित भी करना है। कुछ लोग पूरा समझ के ही समझाना चाहते हैं - वह भी ठीक है। कुछ लोग समझते-समझते समझाना भी चाहते हैं - वह भी ठीक है। लक्ष्य है - समझदारी हो जाए। समझदारी के बिना प्रमाण होता नहीं है। समझदारी के पूरा हुए बिना "जीना" तो बनेगा नहीं। यही कसौटी है। "जीना" बन गया तो समझदारी पूरा हुआ, समझाना बन गया। उसके बाद उत्साहित रहने के अलावा और क्या है - आप बताओ?

इसमें व्यक्तिवाद जोड़ा तो अकड़-बाजी होने लगती है। अकड़-बाजी होती है, तो हम पीछे हो जाते हैं। व्यक्तिवाद जोड़ने से पिछड़ना ही है।

प्रश्न: व्यक्तिवाद के चक्कर से बचने का क्या उपाय है?

उत्तर: स्व-मूल्यांकन को हमेशा ध्यान में रखा जाए। दूसरों को जांचने जाते हैं - तो दिक्कत है। जो स्वयं को पारंगत घोषित किया है, उसे ही जाँचिये। जैसे मैंने अपने को ज्ञान में पारंगत घोषित किया है, आप मुझको जांच ही सकते हैं। मुझको जांचने में किसीको झिझक नहीं होनी चाहिए। मुझको उससे कोई दिक्कत नहीं है।

प्रश्न: समझदारी की घोषणा का क्या मतलब है?

जो स्वयं को समझदार घोषित किया है, उसके परीक्षण से ही अध्ययन करने वाले को अपनी समझ की पुष्टि मिलती है। घोषित किए बिना आपको कोई जांचने जायेगा नहीं।

मैं पहला व्यक्ति हूँ - जिसने स्वयं को समझदारी का प्रमाण घोषित किया। एक आदमी के ऐसे घोषणा किए बिना इस कार्यक्रम में कोई गति हो ही नहीं सकती थी। कितना बड़ा भारी ख़तरा ओढ़ लिया है - आप सोचो!! इसके बावजूद मैं निर्भय हूँ, मुझे कोई आतंक नहीं, कोई शंका नहीं, किसी तरह का प्रतिक्रिया नहीं - क्या बात है यह? क्या चीज है यह? यह एक सोचने का मुद्दा है आप के लिए। मैंने जो समझदारी के प्रमाण होने का जो पहला मील का पत्थर रख कर जो रास्ता शुरू किया - वह ठीक हुआ, ऐसा मैं मानता हूँ।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Sunday, November 23, 2008

अध्ययन सुगम है

अज्ञात को ज्ञात करने की तीव्र इच्छा मुझ में थी। उसके लिए मैंने २० वर्ष समाधि के लिए, और ५ वर्ष संयम के लिए लगाया। संयम-काल में प्रकृति ने अपने एक एक पन्ने को खोलना शुरू किया। जैसा प्रकृति प्रस्तुत हुआ, मैंने वैसा ही अध्ययन किया। आप किताब खोल कर प्रकृति के बारे में पढ़ते हो - (संयम काल में) प्रकृति ने अपने आप को खोल कर मुझ को पढाया। पहले सह-अस्तित्व कैसे है, क्यों है - यह आया। उसके बाद विकास-क्रम कैसे है, क्यों है - यह आया। इसके साथ भौतिक रासायनिक रचना के स्वरूप में शरीर, उसके मूल में प्राण-कोष, प्राण-सूत्र यह सब आ गया। पूरी शरीर रचना के मूल में प्राण-सूत्र हैं। पूरी भौतिक रचनाओं के मूल में अणु-परमाणु हैं। फ़िर विकास (गठन पूर्णता) कैसे है, क्यों है - यह आ गया। जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में जीव भी आ गया। जीने के मूल में जीवन है - यह स्पष्ट हुआ। इस तरह प्रकृति में तीन तरह की क्रियाएं हैं - भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया, और जीवन क्रिया। मैं स्वयं क्यों-कैसे काम कर रहा हूँ - इस जगह पर पहुँचने पर अपने "जीवन" का अध्ययन किया।

जीवन क्रिया के विस्तार में जाने पर उसके १२२ आचरणों को पहचाना। (जैसे) मन की क्रियाओं को मैंने देखा है। जीवन के मन परिवेश (चौथा परिवेश) में शरीर संवेदना पूर्वक होने वाले अलग-अलग आस्वादनो की पहचान करने वाली क्रियाओं को मैंने पहचाना। इस तरह - जीवन के अध्ययन के साथ मनुष्य का भी अध्ययन हुआ। जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मैंने मानव का अध्ययन किया है। जीवंत शरीर सहित मैंने जीवन का अध्ययन किया। सभी में वैसे ही जीवन है, यह स्वीकारा। इसको "सिन्धु-बिन्दु न्याय" कहा। अकेले जीवन का ही अध्ययन होता, मनुष्य (जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप) का अध्ययन नहीं होता - तो मनुष्य जाति के लिए इस बात का प्रयोजन नहीं निकलता। जीवन का अध्ययन मानव के जीने के अर्थ में ही है।

मैंने जो अध्ययन पूर्वक अनुभव किया वह मेरे अकेले के परिश्रम का फल नहीं है, यह समग्र मानव जाति के पुण्य का फल है - यह मैंने स्वीकार लिया। इसी लिए इसको मानव जाति को पकडाने का दायित्व मैंने स्वीकारा। मैंने जैसा अध्ययन किया वैसा ही उसको शब्दों में रखने का कोशिश किया। शब्द परम्परा के हैं - परिभाषा मैंने दी है।

अभी तक मनुष्य परम्परा में जो कुछ भी अध्ययन के आधार हैं - वे मनुष्य द्वारा ही प्रस्तुत किए गए। उन आधारों से तथ्य तक पहुँचने का कोई रास्ता नहीं मिला। प्रचलित सभी आधारों को छोड़ कर के यह बात है। परम्परा-गत आधारों पर चलने से मानव-जाति न्याय-धर्म-सत्य तक नहीं पहुँचा था, इसीलिये भ्रम-मुक्त और अपराध-मुक्त नहीं हुआ था। इसी लिए यह नया आधार अनुसंधानित हुआ। मैं इस नए आधार का प्रणेता हूँ। आप इसको जांच करके देखिये - पूरा पड़ता है या नहीं? जांचने का अधिकार हर व्यक्ति के पास रखा है।

अध्ययन विधि से पहले यह आपके साक्षात्कार में लाना है। साक्षात्कार हो सकता है, यहाँ तक आप पहुंचे। साक्षात्कार हो गया है - वहां आप को पहुंचना है। उसके बाद अनुभव हो गया है - वहां पहुंचना है। उसके बाद प्रमाण हो गया - वहां पहुंचना है। अध्ययन प्राथमिकता में आता है, तो हम जल्दी पहुँच सकते हैं। अध्ययन यदि द्वितीय-तृतीय प्राथमिकता में रहता है तो हम धीरे-धीरे पहुँचते हैं - इसमें क्या तकलीफ है? प्राथमिकता में जब तक यह नहीं आता है तब तक दूर ही दीखता है। इस बात के अध्ययन में कहीं अहमता बनता नहीं, कहीं कोई विरोध होता नहीं - इससे ज्यादा क्या सुगमता खोजा जाए?

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Tuesday, November 18, 2008

कल्पनाशीलता की महिमा वश ही मनुष्य अस्तित्व में अध्ययन का साहस जुटा पाता है.

नियति सहज विधि से मनुष्य-शरीर रचना धरती पर प्रकट हुई। पदार्थ-अवस्था से प्राण-अवस्था, प्राण-अवस्था से जीव-अवस्था, और जीव-अवस्था से ज्ञान-अवस्था का प्रकटन हुआ। मनुष्य-शरीर रचना ऐसी हुई कि जीवन उसके द्वारा अपनी कल्पनाशीलता को प्रकाशित कर पाया। यदि कल्पनाशीलता नहीं होती तो मनुष्य ज्ञान के लिए प्रयत्न ही नहीं करता। कल्पनाशीलता-कर्म स्वतंत्रता का प्रकाशन ही मनुष्य और जीवों में मूल अन्तर है। कल्पनाशीलता की महिमा वश ही मनुष्य अस्तित्व में अध्ययन का साहस जुटा पाता है।

कल्पनाशीलता का भ्रूण रूप जीवावस्था में जीने की आशा के स्वरुप में है। जीने की आशा के प्रकाशन के रूप में जीव जानवर चयन क्रिया संपादित करते हैं. चयन क्रिया का भ्रूण रूप प्राणावस्था (पेड़ पौधों) में है। अपने लिए आवश्यक रस द्रव्यों को जड़ें चयन कर लेती हैं।

प्राणावस्था की शरीर रचनाएँ मूलतः प्राण-कोशिकाओं से बनी हैं। प्राण-कोशों में प्राण सूत्र हैं। उन प्राण-सूत्रों में रचना-विधि है, जिसके अनुरूप प्राण-कोशाएं रचना कार्य में संलग्न होती हैं। रचना-विधि में गुणात्मक परिवर्तन होने से प्राण-सूत्रों में नयी तथा और समृद्ध रचना-विधि स्वयं-स्फूर्त निकल आती है। जिससे नयी तरह की रचना तैयार होती है। इस तरीके से उत्तरोत्तर विकसित प्राण-अवस्था की रचनाएँ तैयार हो गयी।

प्राणावस्था की शरीर-रचनाओं में से कुछ में चलायमानता होते हुए भी जीवन उनको नहीं चलाता। जैसे - कीडे मकौडे, जौंक, आदि। उन जीवों में जीवन है, जिनमें - (१) सप्त धातुओं से रचित शरीर हो, (२) समृद्ध मेधस हो, (३) जो मनुष्य के संकेतों को पहचानते हों।

शरीर-रचना में विकास क्रम मनुष्य शरीर रचना तक पहुँचा। मनुष्य-शरीर रचना में मेधस पूर्ण समृद्ध हो गया। समृद्धि पूर्ण मेधस द्वारा जीवन मनुष्य शरीर द्वारा कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता को प्रकाशित करने में समर्थ हुआ। इसी कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता के चलते मनुष्य जंगल-युग, शिला-युग, धातु-युग, ग्राम-कबीला युग, राज-युग से चलते चलते आज तक पहुँच गया। इससे मनुष्य अपनी परिभाषा के अनुरूप मनाकार को साकार करने में सफल हो गया। लेकिन मनः स्वस्थता का पक्ष अभी तक वीरान पड़ा रहा।

मनः स्वस्थता के पक्ष को भरने के लिए मनुष्य अनुसंधान करता रहा। इसी अनुसंधान क्रम में आदर्शवाद और भौतिकवाद आए। मध्यस्थ-दर्शन का अनुसंधान भी इसी क्रम में ही हुआ। यह अनुसंधान सफल हो गया। इस अनुसंधान ने मनः स्वस्थता के स्वरूप को पहचान लिया, और जीने में प्रमाणित कर दिया। अनुसंधान को अध्ययन गम्य बनाने के लिए इसको शब्दों में प्रस्तुत किया गया। शब्द कल्पनाशीलता के लिए सहारा हैं - अर्थ तक पहुँचने के लिए। शिक्षा विधि से इस अनुसंधान के लोकव्यापीकरण के लिए प्रयास जारी हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

मानव की परिभाषा

मनाकार को साकार करने वाला, और मनः स्वस्थता की आशा करने वाला - तथा प्रमाणित करने वाला मानव है।

मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है।

मनाकार से अर्थ है - रूप और गुण के अनुसार चित्रण करना। यह कल्पनाशीलता की महिमा है। जीवन में आशा, विचार, और इच्छा का संयुक्त रूप है - कल्पना। कल्पना से ही मनुष्य अपनी योजना, कार्य-योजना बनता है, उनको क्रियान्वित करता है।

मनः स्वस्थता की मनुष्य में सहज-अपेक्षा रहती है। हर मनुष्य सुख चाहता है। सुख की आशा हर मनुष्य में है। सुख की निरंतरता ही मनः स्वस्थता का स्वरूप है। समाधान ही सुख है। हर मनुष्य अध्ययन पूर्वक समाधानित हो सकता है, और सुख की निरंतरता को अपने जीने में प्रमाणित कर सकता है।

सुख की निरंतरता को जीने में प्रमाणित करना ही मनः स्वस्थता का प्रमाण है।

मनाकार को साकार करने में मनुष्य सफल हो चुका है। सामान्य-आकांक्षा (आहार, आवास, अलंकार) और महत्त्वाकांक्षा सम्बंधित वस्तुओं का उपार्जन इसी तरह हुआ।

मध्यस्थ-दर्शन मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने के लिए एक प्रस्ताव है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित।

Monday, November 17, 2008

तत्-सान्निध्य, तदाकार, और तद्रूप

वस्तु का मतलब है - जो अपनी वास्तविकता को प्रकाशित करे। दो तरह की वस्तुएं हैं। इकाइयां या प्रकृति - जिनको हम गिन सकते हैं। और दूसरी व्यापक (Space or emptiness), जिसमें सभी इकाइयाँ डूबी-भीगी-घिरी हैं। इकाइयों की वास्तविकता चार आयामों में है - रूप, गुण, स्व-भाव, और धर्म। व्यापक (शून्य) की वास्तविकता तीन आयामों में है - पारगामियता, पारदर्शिता, और व्यापकता। व्यापक में संपृक्त प्रकृति ही अस्तित्व समग्र है। मध्यस्थ-दर्शन अस्तित्व के अध्ययन का प्रस्ताव है।

प्रस्ताव शब्दों में है। शब्द का अर्थ होता है। अर्थ के मूल में अस्तित्व में वस्तु होता है। अध्ययन पूर्वक वस्तु का अर्थ व्यक्ति को बोध हो जाता है।

तत्-सान्निध्य - कोई भी वस्तु सान्निध्य (पास में होना) में ही दिखता है। शब्द से इंगित वस्तु का सान्निध्य हो जाना = तत्-सान्निध्य। जैसे - "यह खाली स्थली ही व्यापक वस्तु है", इस तरह अंगुली-न्यास हो जाना व्यापक का तत्-सान्निध्य है। "यह वस्तु पदार्थावस्था है", इस तरह अंगुली-न्यास हो जाना ही पदार्थावस्था से तत्-सान्निध्य है।

तदाकार - वस्तु पर ध्यान देने से वस्तु के आकार में जब हमारा ज्ञान होता है, तब हम वस्तु को समझे। यही तदाकार का मतलब है। तदाकार विधि से हम एक एक वस्तु को पहचानते हैं। अध्ययन विधि से जीवन एक-एक वस्तु में तदाकार होता है। प्रकृति की इकाइयों के साथ तदाकार होने का मतलब उनके रूप, गुण, स्व-भाव, और धर्म को समझना। रूप और गुण के साथ मनाकार होता है। स्व-भाव और धर्म का बोध और अनुभव होता है। व्यापक वस्तु का केवल अनुभव होता है।

तद्रूप - व्यापक और ज्ञान में भेद समाप्त हो जाना ही तद्रूप है। "व्यापक वस्तु ही जीवन में ज्ञान है" - यही अनुभव में आता है।

तदाकार विधि से अध्ययन के पूर्ण होने पर जीवन तद्रूपता में स्वयं को पाता हैतद्रूपता में ही प्रमाण है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

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अनुभव को बताया जा सकता है

Wednesday, November 12, 2008

समृद्धि पूर्वक जीने का तरीका समझदारी से ही आता है.

हम जब पूरा समझ जाते हैं, तब हमको अपने में समृद्धि पूर्वक जीने का तरीका समझदारी से आ ही जाता है। उससे परिवार-जनों की संतुष्टि हो जाती है, इसलिए हम अच्छे काम करने में लग सकते हैं। यह बात हर व्यक्ति की पकड़ में आ सकता है। मेरे पकड़ में यह आ सकता है, तो बाकी लोगों के पकड़ में यह कैसे नहीं आएगा? समाधि-संयम के बाद मैंने ५५ वर्ष की आयु में जहाँ से शुरू किया - आज आप सभी उससे अच्छे ही हैं। यह आप के लिए एक प्रेरणा हो सकती है।

विरक्ति विधि से मैं साधना में रहा। उससे जो अभाव हुए - उनसे मैं पीड़ित नहीं हुआ। शास्त्रों में लिखा भी है - पीड़ित न होना ही पात्रता है। अभाव से मैं पीड़ित नहीं हुआ - मतलब अभाव पर विजय हो गया। साधना के सम्बन्ध में जो शास्त्रों में लिखा है, वह अपूर्व है, कल्पनातीत विधि से लिखा है! साधना के फल में जो मुझे मिला - वह पता लगा कि यह अकेले की सम्पदा नहीं है। यह तो मानव-जाती की सम्पदा है। इसको मानव-जाती को अर्पित करना चाहिए। यह स्वीकारने के बाद मैंने यह पाया - अभी तक जो मैं विरक्ति मॉडल में जो चला, वह तो कोई मॉडल नहीं है। सही मॉडल समाधान-समृद्धि ही है। समाधान अनुभव पूर्वक मेरे पास हो गया था, समृद्धि का कृषि-गोपालन और आयुर्वेद से जुगाड़ कर लिया।

वस्तु (अनुभव) प्राप्त हो जाना एक बात है, उसको प्रमाणित कर देना अलग बात है। अनुभव प्राप्त होने के बाद उसको प्रमाणित करने के लिए उसको लोकव्यापीकरण करने के लिए मॉडल चाहिए। मानव कैसे रहेगा, परिवार कैसे रहेगा, सम्पूर्ण मानव कैसे रहेगा, शिक्षा कैसे रहेगा, संविधान कैसे रहेगा, आचरण कैसा रहेगा - हर बात के जवाब की आवश्यकता है। यह न कम है, न ज्यादा है।

उसके बाद यह आया - जहाँ पाये, वहाँ के लोगों को इसे समझाओगे, या कहीं दूर जा कर समझाओगे। न्याय तो यही है - जहाँ पाये, वहीं के लोगों को समझा दो। इसमें मेरा सहमती बन गया। इसलिए समृद्धि को प्रमाणित करने की निष्ठां बनी। जनता के पैसे की मेरी कोई अपेक्षा नहीं रही। समाधान-अधिकार में परमुखापेक्षा (दूसरे के दान की उम्मीद) स्वीकृत नहीं होता। समस्या से ग्रसित मनुष्य ही परमुखापेक्षा करता है।

मनुष्य जाती में आज तक शुभ से जीने की अपेक्षा तो रही, पर शुभ का मॉडल नहीं रहा। अब वह मॉडल आ गया है। स्वयं तृप्त होने के बाद उसको प्रमाणित करने करने की बात रहती है। multiply करने में बहुत से लोग शुभ का स्वागत करने के लिए बैठे हैं। बहुत से लोग शुभ को लेकर शंका करने के लिए भी बैठे हैं। इन दो चैनल में आपको आदमी मिलेगा ही। जो जिस चैनल में जाना चाहता है, जाए। इसमें कोई जबरदस्ती नहीं है। जिसकी पहले ज़रूरत है, वह पहले आएगा - जिसकी ज़रूरत उसके बाद बनती है, वह उसके बाद आएगा। यह एक प्रस्ताव है, आवश्यकता के अनुसार ही यह स्वीकार होगा।

हर व्यक्ति समझदार होने योग्य है।
हर व्यक्ति सुखी होना चाहता है।
समझे बिना कोई सुखी होता नहीं है।
सुखी होने की चाहना जिसकी प्राथमिकता में पहले आता है, वह जल्दी समझेगा। जिसकी प्राथमिकता में बाद में आता है, वह बाद में समझेगा।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

निश्चयता से ही स्वतंत्रता है।

भ्रमित व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है, लेकिन फल भोगने में परतंत्र है
जागृत व्यक्ति कर्म करने में भी स्वतन्त्र है, और फल भोगने में भी स्वतन्त्र है

भ्रमित व्यक्ति कर्म-फल के प्रति निश्चित नहीं होता है, इसलिए वह फल भोगने में परतंत्र है। जागृति के बाद हर कर्म निश्चित है और उसका फल भी निश्चित है। जागृत व्यक्ति कर्म-फल के प्रति निश्चित है - इसलिए स्वतन्त्र है।

निश्चयता से ही स्वतंत्रता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

सही और ग़लत

हम मानव सही में एक हैं, गलती में अनेक हैं।

गलती की ओर हमारा प्रवृत्ति जब तक है तब तक हम अपनी गलतियों का फल भोगते ही हैं।

जिस क्षण से सही की ओर प्रवृत्ति हो जाती है, उसी क्षण से गलतियों का प्रभाव हम पर ख़त्म हो जाता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

प्रमाण के बिना परम्परा नहीं है।

हर मनुष्य कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के अधिकार से संपन्न है। उस आधार पर मनुष्य स्वाभाविक रूप में सुखी होना चाहता है। जागृति के बिना सुखी होना बनता नहीं है। तो सुखी होने के लिए जीवन बार-बार शरीर-यात्रा आरम्भ करता है। जब शरीर-यात्रा में यह प्रयोजन प्रमाणित नहीं होता तो दुखी होता है।

अब आपके सामने स्वयं की जागृति को पहचानने के लिए एक प्रस्ताव आ गया है। इसके पहले अभी तक कोई प्रस्ताव नहीं है जो शिक्षा विधि से आया हो। इससे पहले विगत में कहा था - "साधना विधि से कल्याण होता है।" - वह व्यक्ति के साथ ही चला गया। साधना विधि से जो भी उपलब्धि हुआ - वह मानव परम्परा को नहीं पहुँचा। कोई व्यक्ति भी पहुँचा था या नहीं - इसका भी कोई प्रमाण नहीं हुआ। हम मानते रहे - वह बात अलग है।

जागृति के लिए पुरुषार्थ ( पुरुषार्थ = जागृति के लिए हम जो भी प्रयास करते हैं। )
जागृति के बाद परमार्थ (परमार्थ = जीने में प्रमाण प्रस्तुत करना। )

प्रमाण के बिना परम्परा नहीं है। मूल्यांकन का आधार प्रमाणित होना ही है।

जागृति मनुष्य को प्राप्त करना अभी शेष है - इस कमी को मानव हर शरीर यात्रा पर्यंत महसूस किया रहता है कि असफल रहे। उसका कारण है - मनुष्य परम्परा में जागृति का न रहना। इसलिए मानव-परम्परा में जागृति के स्त्रोत को जोड़ने की आवश्यकता है। इसका मतलब जागृति को - आचरण में, व्यवस्था में, संविधान में, और शिक्षा में विधि को स्थापित किया जाए। इन चारों जगह पर परम्परा बनने के स्वरूप में बना दिया जाए। उसी के अर्थ में मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद का प्रस्ताव है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

सार्थकता के प्रति समर्पण

ईश्वरवाद ने मनुष्य को पापी, अज्ञानी, स्वार्थी बता कर मानव का अवमूल्यन किया। पापी को तारने, अज्ञानी को ज्ञानी बनाने, और स्वार्थी को परमार्थी बनाने की भक्ति-विरक्ति की अभ्यास विधियां प्रस्तावित की। इस तरह कोई पापी तरने का, कोई अज्ञानी ज्ञानी होने का, कोई स्वार्थी परमार्थी होने का प्रमाण नहीं मिला।

भौतिकवाद ने मनुष्य को एक भौतिक-रासायनिक रचना बताते हुए मानव का निर्मुल्यन किया। मनुष्य को संवेदनाओं की कठपुतली के रूप में पहचाना। संवेदनाओं को राजी रखने के लिए सुविधा-संग्रह को मनुष्य का लक्ष्य बताया। सुविधा-संग्रह सभी को नहीं मिल सकता - इसलिए संघर्ष और शोषण अनिवार्य हो गया। जिसके चलते धरती बीमार हो गयी।

ये दोनों बात सार रूप में समझ आने के बाद आदमी को पूछने की ज़रूरत है - सार्थकता क्या है? सार्थकता के प्रति स्वयं में समर्पण होने की आवश्यकता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

नियम, नियंत्रण, संतुलन

चारों अवस्थाओं में नियम, नियंत्रण, संतुलन प्रकाशित है।

पदार्थावस्था में उनके गठन के अनुसार आचरण ही नियम है।
परिणाम-अनुशंगियता ही नियंत्रण है।
पूरकता-उपयोगिता ही संतुलन है।

प्राणावस्था में उनका सारक-मारक आचरण ही नियम है।
बीजानुशंगियता ही नियंत्रण है।
पूरकता-उपयोगिता ही संतुलन है।

जीवावस्था में उनका क्रूर-अक्रूर आचरण ही नियम है।
वंशानुशंगियता ही नियंत्रण है।
उनमें (जीने की) आशा से उनकी पूरकता-उपयोगिता ही संतुलन है।

ज्ञानावस्था (मानव) में न्याय ही नियम है।
धर्म ही नियंत्रण है। मानव समाधान (सुख) पूर्वक ही नियंत्रित रहना देखा जाता है। समाधान = सुख = मानव धर्म।
सह-अस्तित्व स्वरूपी सत्य ही संतुलन है। संतुलन ही प्रमाण (self realization) है।

गणित न्याय, धर्म, सत्य, नियम, नियंत्रण, और संतुलन को छूता भी नहीं है। अभी विज्ञानी गणित की मदद से यंत्र के लिए जो डिजाईन बनाता है, जिससे यंत्र बार बार वही करता रहता है - उसको नियम कह देता है। जबकि वह नियम नहीं है। सभी नियम प्राकृतिक हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

विकल्प को समझना

पहले से हम कुछ खाका बनाए रहते हैं, उसके साथ इस प्रस्ताव को जोड़-तोड़ करने का प्रयास करते हैं। जितना जुड़ पाता है, उसको हम स्वीकार करते हैं। जो जुड़ नहीं पाता है, उस पर शंका करते हैं। वहीं अटक जाते हैं। जबकि जीव-चेतना और मानव-चेतना के बीच जोड़-तोड़ करने का कोई स्थान ही नहीं है। जीव-चेतना के स्थान पर मानव-चेतना को अपनाने की बात है। यही विकल्प का मतलब है।

एक बात को तो हमको निर्मम रूप में स्वीकार करना पड़ेगा कि हमको जागृति पूर्वक ही जीना है।

समझदारी होने तक सभी स्वतन्त्र हैं अपने मन की करने के लिए। समझदारी के लिए व्यक्ति का चाहत जब प्रबल होता है - तभी अध्ययन की तरफ़ आते हैं। समझदार होने पर, समझदारी के साथ जीने के लिए ईमानदारी स्वयं-स्फूर्त होती है। जिम्मेदारी स्वीकार होती है। भागीदारी के रूप में प्रमाणित होती है। ऐसा होना सभी की अपेक्षा है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Tuesday, November 11, 2008

अनुभव को बताया जा सकता है.

दर्शन स्थिति-गति है। स्थिति में अनुभव है। गति में विचार आ गया। अनुभव के स्वरूप को स्पष्ट कर पाना - यह दर्शन है। अनुभव की अभिव्यक्ति, सम्प्रेश्ना, और प्रकाशन के साथ चित्रण रहता ही है। अनुभव बीज रूप में रहता है, सम्पेश्ना कवच रूप में रहती है।

अनुभव सम्पन्नता के बाद आत्मा में जो बीज रूप में अनुभव है - वह मनुष्य की परस्परता में संप्रेषित होता है। "यह अनुभव का मुद्दा है" - यह अंगुली-न्यास होता है। जैसे - व्यापक वस्तु आपको बोध कराने के लिए मुझको संप्रेषित होना ही पड़ेगा। व्यापक वस्तु का अपने चित्त में चित्रण करने के लिए मेरे पास अनुभव है। व्यापक वस्तु की महिमा करने जाता हूँ - तो उसको अपने चित्त में चिंतन करने का माद्दा मेरे पास है। जैसे - पारगामियता और पारदर्शिता का चिंतन करने का माद्दा मेरे पास है। व्यापक अनुभव का मुद्दा है।

मैं व्यापक वस्तु के बारे में बोलता हूँ, आप सुनते हैं। सुनने से व्यापक वस्तु के बारे में आप जाते हैं। व्यापक वस्तु की पारगामियता और पारदर्शिता को जब मैं स्पष्ट करता हूँ तो वह आपके मन में पहुँचता है, विचार में पहुँचता है, चित्रण में पहुँचता है। इस का साक्षात्कार आपमें तुलन पूर्वक होता है, जिसके स्वीकृत होने पर आप में बोध और अनुभव हो ही जाता है। इस तरह व्यापक आपके अनुभव में आ गया।

अनुभव को बताया जा सकता है। अनुभव को बताने का प्रयोजन है - मानव-परम्परा को जागृत करना।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

अच्छा लगना, अच्छा होना नहीं है.

"अच्छा लगना" प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से व्यक्तिवाद की ओर ले जाता है। मुझ को यह अच्छा लगता है, आपको कोई दूसरा ही चीज अच्छा लगता है। इससे कोई रास्ता नहीं निकलता। अच्छा होने की ही परम्परा होगी, अच्छा लगने की परम्परा नहीं होगी। अभी सारे ७०० करोड़ आदमियों का पग "अच्छा लगने" की जगह पर ही चल पाया है। "अच्छा होने" को लेकर एक पग रखने की जगह भी नहीं बना। जबकि मानव परम्परा को धरती पर हुए हजारों वर्ष बीत चुके हैं। कितना मार्मिक बात है - आप ही सोच लो!

मनुष्य जैसे बौखला गया है। क्या बोलने से अच्छा लगेगा, इस जगह में आ गया है। ज्यादा लोगों को जो बोलने से अच्छा लगता है, वह बोल देता है। "अच्छा होना" तो हवा में है।

समझदारी पूर्वक समाधान संपन्न होने से ही अच्छे होने की शुरुआत है। उसका प्रस्ताव आपके सामने अध्ययन के लिए आ चुका है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

शुभकामना का कार्य रूप

प्रश्न: हम दूसरे के लिए जो शुभ कामनाएं करते हैं, उससे क्या कुछ होता भी है?

उत्तर: हमारी शुभ-कामना सामने व्यक्ति के पुण्य से ही फलित होती है। पुण्य का मतलब है - कायिक, वाचिक, मानसिक रूप से मानव जो न्याय करता है, समाधान को प्रस्तुत करता है, उससे है। शुभ-कामना सामने व्यक्ति को शुभ करने के लिए उत्साहित करने के अर्थ में है। उससे ज्यादा कुछ नहीं। शुभ-कामना इस तरह से शुभ के लिए प्रेरणा देने के रूप में है। इसका स्वाभाविक रूप इतना ही है। यदि इसमें थोड़ा भी कुछ और होता तो - अस्तित्व की स्वयं-स्फूर्तता के नियम का हनन होता! प्रकृति में इसके अलावा और कोई व्यवस्था ही नहीं है। श्राप और अनुग्रह के चक्कर में संसार कितना परेशान हुआ - यह अपने आप में एक इतिहास है!

शुभ-कामना होता है - यह सही है।
शुभ घटित होता है - यह भी सही है।
शुभ के लिए मानव प्यासे हैं - यह भी सही है।

अब यहाँ कह रहे हैं - समझदारी के आधार पर कार्य-व्यवहार करने से ही शुभ घटित होता है।

इस ढंग से यह बात सामान्य हो गयी। समझदारी को अध्याव्सायिक (अध्ययन या शिक्षा) विधि से प्रमाणित करने की आवश्यकता थी - उसमें मैं सफल हो गया! इस बात का लोकव्यापीकरण भले ही धीरे-धीरे हो - लेकिन इतने में तो मैं सफल हो गया। अध्ययन विधि से आदमी समझदार हो सकता है - इस जगह में तो मैं आ गया हूँ।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

पिछली पीढी के प्रति कृतज्ञता और सम्मान का आधार क्या हो?

प्रश्न: अपनी पिछली पीढी (माता-पिता आदि) के प्रति कृतज्ञता और सम्मान का ठोस आधार क्या हो?

उत्तर: हमारे माता-पिता ने हमको यह शरीर दिया (जन्म दिया) - इस अर्थ में हम उनके प्रति कृतज्ञ हो सकते हैं। दूसरे - वे जैसे भी रहे हों, हमारे अच्छे होने के लिए वे सदा आशा बनाए रखे - इसके लिए हम उनके प्रति कृतज्ञ हो सकते हैं। ये दोनों मौलिक बातें हैं। ये टलने वाली बातें नहीं हैं। तीसरे - बचपन में वे हमारी सेवा किए हैं, उसके लिए हम उनके प्रति कृतज्ञ हैं।

इन तीन बिन्दुओं को क्या मिटाया जा सकता है? इनके लिए केवल कृतज्ञ ही हुआ जा सकता है। इस तरह हमको पिछली पीढी के प्रति कृतज्ञ होने का स्त्रोत मिल गया।

सम्मान करने के बारे में - हमारे अभिभावक हमारा शुभ ही चाहते रहे हैं, उन्होंने मेरा अशुभ नहीं चाहा है, इस आधार पर हम उनका सम्मान कर सकते हैं। इसमें किसको क्या तकलीफ है?

बुजुर्गों को हम सिखाने-समझाने की बात स्वप्न में भी न सोचा जाए! हमसे कोई बुजुर्ग सीखेगा नहीं। हमारे पिताजी हमसे तो सीखने वाले नहीं हैं। पिताजी का हम सम्मान कर सकते हैं, वे हमारा शुभ चाहते रहे - इस आधार पर।

अभी आज की शिक्षा प्राप्त बच्चों का सोच ऐसा जाता है - हमारे बुजुर्गों ने अपने व्यसन के अर्थ में संतान को पैदा किया! यहाँ ले गए। "आधुनिक" विज्ञान संसार ने हमको यहाँ ला कर खड़ा कर दिया है। इसमें क्या न्याय होगा - आप बताओ? बहुत कष्ट-दायक बात है न यह? ऐसे कष्ट-दायक कसौटी पर जाने के बाद हमारा जगह कहाँ है? क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए? इस मानसिकता से सोचने पर बुजुर्गों की सेवा करने के स्थान पर उनसे घृणा करना बनता है। जबकि सह-अस्तित्व वादी विधि से कैसे आसानी से कृतज्ञता और सम्मान मूल्यों के अर्थ में अपने बुजुर्गों की सेवा करने का रास्ता निकल जाता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Sunday, November 9, 2008

जीवन ज्ञान

जीवन अपने स्वरूप में एक गठन-पूर्ण परमाणु है - जिसमें चार परिवेश और एक मध्यांश होता है। जिस को मैंने अच्छे तरह से देखा है। जीवन परमाणु भार बंधन और अणु-बंधन से मुक्त है - यह समझ में आता है। जीवन-ज्ञान का यह पहला भाग है।

दूसरा भाग है - जीवन ही दृष्टा, कर्ता, और भोक्ता है। मानव जीवन और शरीर का संयुक्त रूप है। अनुभव पूर्वक जीवन दृष्टा पद में होता है। कर्ता और भोक्ता मानव है। अनुभव का प्रमाण मानव-पद में होता है। शरीर गर्भाशय में रचित होता है। जीवन अस्तित्व में रहता ही है।



क्रमशः

Friday, November 7, 2008

कल्पनाशीलता के प्रयोग से ज्ञान तक पहुँचने का का रास्ता है.

कल्पनाशीलता प्रकृति-प्रदत्त है। कल्पनाशीलता जीवन से मानव-शरीर द्वारा प्रकट है। कल्पनाशीलता मूलतः साम्य ऊर्जा (व्यापक) ही है। कल्पनाशीलता क्रिया नहीं है, वह ऊर्जा ही है। कल्पनाशीलता घटता बढ़ता नहीं है। यही कल्पनाशीलता जीवन में गुणात्मक विकास पूर्वक ज्ञान-सम्पन्नता तक पहुंचता है।

कल्पना ही ज्ञान तक पहुँचने का रास्ता है। कल्पना नहीं है तो ज्ञान तक पहुँचने का कोई रास्ता ही नहीं है। कल्पनाशीलता के प्रयोग से सह-अस्तित्व स्वरूपी सत्य को समझना ही ज्ञान के लिए रास्ता है। इसके लिए ध्यान देना होता है। ध्यान देना मतलब मन को लगाना। हम जो चयन और आस्वादन करते हैं - उस वस्तु का नाम है मन। ये दो क्रिया करने वाले मन को अनुभव के पक्ष में लगाने को ध्यान देना कहा। मन जब लगता है, तब विचार और इच्छा भी उसके साथ रहते ही हैं। मन किस बात में लगाना है - इसकी प्राथमिकता इच्छा में ही तय होती है। जिस इच्छा को हम प्राथमिक स्वीकारते हैं - उसी के लिए काम करते हैं। अनुभव की आवश्यकता जब तीर्वतम इच्छा के स्तर पर पहुँच जाती है - तब मन लगता ही है। मन लगता है तो अध्ययन होता ही है।

मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है। मानव में कल्पनाशीलता जीवन से है, शरीर से नहीं है। कल्पनाशीलता ही जीवन में ज्ञान-सम्पन्नता का भ्रूण स्वरूप है। कल्पनाशीलता जीवन की ताकत है। यही कल्पनाशीलता गुणात्मक विकास विधि से ज्ञान-सम्पन्नता तक पहुँचता है। सह-अस्तित्व स्वरूपी सत्य की समझ ही ज्ञान है। तात्विक रूप में ज्ञान व्यापक ही है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २००८, भोपाल )

अध्ययन विधि से बुद्धि में बोध होता है.

लिखना सूचना है। पढ़ना शब्द है।
शब्द का स्मरण अध्ययन नहीं है।
शब्द के अर्थ को समझना अध्ययन है।

शब्द का अर्थ हमारा स्वीकृति होता है - यह स्मरण नहीं है। स्वीकृति बुद्धि में बोध रूप में होता है। शब्द का अर्थ जब बुद्धि में आता है - तब हम समझे हैं। शब्द का अर्थ बुद्धि में ही स्वीकृत होता है - उसके पहले भी नहीं, उसके बाद भी नहीं।

अर्थ को समझने के बाद बुद्धि में ही उसको प्रमाणित करने की प्रवृत्ति होती है। बुद्धि में जब सह-अस्तित्व बोध होता है - तब आत्मा में स्वयं की प्रव्रत्ति रहती है - अस्तित्व में अनुभव करने की। बुद्धि में बोध होने पर आत्मा का अस्तित्व में अनुभव करना भावी है। उसके लिए कोई training की ज़रूरत नहीं है। जीवन का मध्यांश अनुभव के योग्य रहता ही है - इसलिए बुद्धि में बोध के बाद आत्मा अनुभव करता ही है।

बुद्धि में बोध होने के लिए सर्वसुलभ विधि अध्ययन-विधि ही है। अध्ययन के लिए मन को लगा देना ही अभ्यास है।

अनुभव के फलस्वरूप प्रमाण बोध बुद्धि में होता है। इस अनुभव-मूलक प्रमाण बोध को प्रमाणित करने के क्रम में चित्त में चित्रण, वृत्ति में न्याय-धर्म-सत्य के अर्थ में तुलन/विश्लेषण, और मन उसी के अनुरूप आस्वादन-चयन के रूप में प्रमाणित हो जाता है। इस ढंग से जीवन अनुभव के बाद जीवन अनुभव के साथ तदाकार हो जाता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

विरक्ति-वाद और आसक्तिवाद का विकल्प

जागृति के पहले मन शरीर के तद्रूप होकर शरीर का दृष्टा बना रहता है। शरीर को ही जीवन माना रहता है। उसी के अनुरूप प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से तुलन करता है। न्याय-धर्म-सत्य छुटा रहता है। प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से तुलन के आधार पर ही विश्लेषण और चित्रण हो जाता है। यही भौतिकवाद है - जो जीव-चेतना में जीना है। ऐसे में भी जीवों से अधिक अच्छा जीने की कल्पनाएँ बनती हैं। इन्ही कल्पनाओं के चलते निकले - विरक्तिवाद और आसक्तिवाद।

विरक्ति से क्या मिल गया? - यह मानव परम्परा को आज तक पता नहीं चला।

आसक्तिवाद से भोग-अतिभोग में गए, और धरती बीमार हो गयी।

मध्यस्थ-दर्शन विरक्ति-वाद और आसक्तिवाद दोनों का विकल्प है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

प्रामाणिकता के आधार पर ही न्याय, धर्म, और सत्य है.

प्रामाणिकता के आधार पर ही न्याय है, धर्म है, सत्य है। अनुभव के कोई gradations नहीं हैं। अनुभव पूरा ही होता है। अनुभव में परिवर्तन नहीं है। जब कभी न्याय समझ में आता है - धर्म और सत्य भी समझ में आते हैं। धर्म और सत्य के बिना न्याय प्रमाणित होता नहीं है। सत्य की रोशनी में ही धर्म प्रकाशित होता है, न्याय प्रकाशित होता है, सत्य तो स्वयं प्रकाशित है ही।

मानव चेतना विधि से हम तीन ईश्नाओं के साथ जीते हैं - तब हम न्याय प्रधान विधि से जीते हैं। साथ ही धर्म और सत्य को प्रकाशित करते रहते हैं। उपकार करते रहते हैं। प्रधान रूप में तीन ईश्नायें ही रहती हैं। तीनो ईश्नाओं को लेकर के उपकार करते हैं।

उसके बाद देव-मानव पद में वित्तेष्णा और पुत्तेष्णा को गौण करके लोकेश्ना को लेकर चलते हैं। इस प्रकार देव-मानव धर्म-प्रधान विधि से न्याय और सत्य को प्रमाणित करता है। सत्य प्रमाणित करने का मतलब है - उपकार करना।

दिव्य-मानव उपकार प्रधान विधि से धर्म और न्याय को प्रमाणित करता है।

मानव-जाती का उद्धार (तरन-तारण) इसी विधि से है। इससे किसको क्या तकलीफ है?

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Thursday, November 6, 2008

तर्क का प्रयोजन

प्रश्न: तर्क क्या है? तर्क का प्रयोजन क्या है?

उत्तर: तर्क का मतलब है - क्यों और कैसे का उत्तर दे पाना। ऐसा तर्क एक प्रेरणा है। तर्क-सम्मत अभिव्यक्ति वस्तु तक पहुंचाने का एक bridge है। तर्क स्वयं में कोई वस्तु नहीं है।

अभी आदमी-जात तर्क के लिए तर्क करता है। क्यों-कैसे पूछने को तर्क मान लिया है - पर ऐसा होता नहीं है। इस चंगुल से छूटने की आवश्यकता है।

तर्क-संगति चित्रण तक जाता है। चिंतन में जाता नहीं है। चिंतन में कोई तर्क नहीं है। बोध में कोई तर्क नहीं है। अनुभव में कोई तर्क नहीं है। अनुभव प्रमाण में कोई तर्क नहीं है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (भोपाल, अक्टूबर २००८)

सत्ता ही ज्ञान है.

प्रश्न: "सत्ता ही ज्ञान है" - इस प्रतिपादन को कैसे समझें?

उत्तर: ऊर्जा-सम्पन्नता प्राकृतिक है। ऊर्जा-सम्पन्नता वश सभी जड़ (भौतिक-रासायनिक) और चैतन्य (जीवन) इकाइयाँ क्रियाशील हैं।

कल्पना जीवन-क्रिया है। जीवन क्रियाशील है, मतलब जीवन ऊर्जा संपन्न है। जीवन भी सत्ता में डूबा, भीगा, घिरा है। सत्ता ही ज्ञान है - जिसकी सम्पन्नता वश जीवन (गठन-पूर्ण परमाणु) कल्पना करता है।

आप कल्पना करते हो या नहीं? कैसे करते हो? - यह इसका उत्तर है। इसको समझने के लिए आप अपने स्वयं की गवाही को मानो। यह मूल बात है। यह समझ में नहीं आता है, तो आगे कुछ भी समझ में नहीं आएगा।

प्रश्न: इसको फ़िर से समझाइये!

उत्तर: ऊर्जा-सम्पन्नता के बिना कुछ काम नहीं करता। ऊर्जा-सम्पन्नता है ही सब में। मनुष्येत्तर प्रकृति में यह ऊर्जा क्रियाशीलता के रूप में है। मनुष्य प्रकृति में यह ज्ञान-शीलता के रूप में है। ज्ञान-शीलता का प्राथमिक रूप कल्पनाशीलता है। उसी से ही मनुष्य काम करता है। अब आप काम करने को देख पाते हो, काम के मूल में जो ऊर्जा (ज्ञान) है, उसको नहीं देख पा रहे हो! वह दर्शन आप में तैयार हो, ऐसी मैं कामना करता हूँ।

प्रश्न: कैसे तैयार होगा? क्या करें जिससे मुझ में वह दर्शन तैयार होगा?

उत्तर: क्रियाशीलता के मूल में ऊर्जा-सम्पन्नता है, इस विधि से परामर्श करते जाते हैं, तो वह जो जाता है। अनुभव में यही समझ में आता है। अनुभव का जो नारा लगा रहे हैं - उसमें यही समझ में आता है। अनुभव के लिए ध्यान दें। (इस प्रस्ताव के) हरेक शब्द से सूचना (information) है। शब्द का अर्थ होता है। अर्थ के मूल में जो वस्तु होता है, वह समझ में आना अनुभव है। अनुभव के आधार पर प्रमाण है। प्रमाण के आधार पर सारे संसार को समझाना बनता है। प्रमाण के बिना समझाना नहीं बनता। हमें स्वयं प्रमाण स्वरूप होना होगा, तभी हमको दूसरे को अध्ययन कराने का अधिकार है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (भोपाल, अक्टूबर २००८)

Wednesday, November 5, 2008

सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है?

वेदान्त में ब्रह्म को प्रतिपादित किया - ब्रह्म सत्य है, ज्ञान है, अनंत है। ब्रह्म को व्यापक, सर्वत्र एक सा विद्यमान - ऐसा माना। ब्रह्म मनुष्य के पास ज्ञान रूप में आता है, यह सूत्र दिया। साथ ही यह बताया - ब्रह्म से ही जीव-जगत पैदा हुआ। जगत पैदा होने की बात एक पूरा उपनिषद् में ही लिखा है। उसके बाद यह बताया - माया की ब्रह्म पर परछाई पड़ने से असंख्य जीवों की उत्पत्ति हो गयी। उसके बाद तीसरे लाइन में लिखा - "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या"!

"सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है?" - यह मेरा प्रश्न था।

तत्कालीन रमन मह्रिषी ने मुझे बताया, इसका उत्तर समाधि में ही मिल सकता है। उसके आधार पर हम अमरकंटक चले आए, साधना किया, और समाधि होने पर यह पाया - उसमें ज्ञान नहीं हुआ! उसके बाद संयम करने पर सह-अस्तित्व स्वरूप में अस्तित्व को देखा। उसको हम लोगों के सम्मुख रखना चाहते हैं - उसमें विरोध का विजय होता है। हर व्यक्ति को समझदार बनाने से विरोध का विजय होता है। यह शिक्षा-संस्कार पूर्वक होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (भोपाल, अक्टूबर २००८)

ईश्नाएं और उपकार

मानव चेतना में तीनो ईश्नाओं के साथ मनुष्य जीता है। ये तीन ईश्नायें हैं: -

(१) पुत्तेष्णा
(२) वित्तेष्णा
(३) लोकेषणा

पुत्तेष्णा = जन बल कामना ( मानव परम्परा के धरती पर बने रहने के लिए वंश-वृद्धि के लिए कामना पुत्तेष्णा है।)
वित्तेष्णा = धन बल कामना ( परिवार के समृद्धि पूर्वक जीने के लिए प्राकृतिक सम्पदा पर श्रम नियोजन से धन की कामना वित्तेष्णा है।)
लोकेषणा = यश बल कामना ( अपने अच्छे कार्यों के लिए लोगों में अपनी पहचान के लिए कामना लोकेषणा है। )

मानव परम्परा को ज्ञान-संपन्न बनाना ही उपकार है। दूसरे शब्दों में समझे हुए को समझाना, सीखे हुए को सिखाना, और किए हुए को कराना ही उपकार है।

मानव चेतना में तीन ईश्नाओं के साथ मनुष्य उपकार करता है। देव-चेतना में लोकेषणा के साथ उपकार करता है। दिव्य-चेतना में केवल उपकार करता है।

ईश्नाओं के बिना मानव-परम्परा कैसे होगा? मानव-परम्परा के बने रहने के लिए पुत्तेष्णा, वित्तेष्णा, और लोकेषणा आवश्यक हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (भोपाल, अक्टूबर २००८)

मानव धर्म एक, समाधान अनेक

प्रश्न: "मानव धर्म एक, समाधान अनेक" का क्या अर्थ है?

उत्तर: समाधान सर्वतोमुखी होता है - क्योंकि मनुष्य एक बहुमुखी अभिव्यक्ति है। सभी दिशाओं में समाधान चाहिए। इसलिए समाधान अनेक है। सभी समाधान जीवन में सुख से जुड़े हैं । जीवन में सुख एक ही है,
जो मानव धर्म है। इसलिए मानव धर्म एक, समाधान अनेक ।

सुख का अनुभव करने वाले जीवन द्वारा समाधान जीने में प्रमाणित होता है।

- स्त्रोत: मध्यस्थ-दर्शन।

Tuesday, November 4, 2008

सत्ता में सम्पृक्त्ता वश प्रकृति क्रियाशील है।

प्रकृति क्रिया है। प्रकृति सत्ता में संपृक्त है। सत्ता क्रिया नहीं है। सत्ता व्यापक है, पारगामी है, और पारदर्शी है। सत्ता ही जड़ प्रकृति के लिए मूल ऊर्जा है। यही चैतन्य प्रकृति के लिए ज्ञान है।

सत्ता में सम्पृक्त्ता वश ही जड़ और चैतन्य प्रकृति क्रियाशील है। सभी क्रियाओं का आधार सत्ता ही है।

जैसे -नियम कोई क्रिया नहीं है। पदार्थ-अवस्था नियम-सम्पन्नता से क्रियाशील (आचरण-शील) है। "नियम" शब्द व्यापक को ही इंगित करता है।

ज्ञान कोई क्रिया नहीं है। जागृत-मनुष्य ज्ञान-सम्पन्नता से क्रियाशील (आचरण-शील) है। "ज्ञान" शब्द व्यापक को ही इंगित करता है।

मैं क्रियाशील हूँ, सब कुछ क्रियाशील है - यह प्राकृतिक है। मैं कैसे क्रियाशील हूँ? सब कुछ कैसे क्रियाशील है? - यह मनुष्य को समझने की आवश्यकता है। यह समझ में आना = सत्ता में प्रकृति की सम्पृक्त्ता समझ में आना = अस्तित्व में व्यवस्था का सूत्र समझ में आना = स्वयम का व्यवस्था में होने, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने का स्वरूप समझ में आना।

प्रश्न: हमको तो व्यापक एक खाली स्थान दीखता है, इससे ज्यादा नहीं! यह खाली स्थान "ऊर्जा" है, इस बात को कैसे समझें?

उत्तर: व्यापक में हम भीगे हैं, डूबे हैं, घिरे हैं - इस तरफ़ आदमी ने सोचा ही नहीं है! हम चारों तरफ़ से व्यापक से घिरे हैं, इस बात से प्रमाण आता है - हम इसमें डूबे हैं। इसके बाद मनुष्य में कल्पनाशीलता है। कल्पनाशीलता केवल मनुष्य में ही है। कल्पनाशीलता के आधार पर ही हम "ज्ञान" तक पहुँचते हैं। व्यापक ही ज्ञान है।

इस प्रस्ताव को जब जीने में परीक्षण करने जाते हैं, तब यह स्वीकार हो जाता है।

प्रश्न: परीक्षण कैसे करें?

उत्तर: इस समझ से जीना ही इसका परीक्षण है। आपके जीवन में ज्ञान (व्यापक) कल्पनाशीलता के रूप में है ही। आपके शरीर में व्यापक ऊर्जा-सम्पन्नता के रूप में है ही। इसी को अनुभव करने की बात है। स्वयं का निरीक्षण-परीक्षण करने से ही अनुभव होगा।

कल्पनाशीलता के आधार पर ही हम ज्ञान तक पहुँचते हैं। हर मनुष्य में कल्पनाशीलता प्राकृतिक विधि से एक अधिकार है। उस अधिकार को अध्ययन के लिए प्रयोग करने की बात है।

समझदारी से समाधान, और श्रम से समृद्धि प्रमाणित होती है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (भोपाल, अक्टूबर २००८)

Sunday, November 2, 2008

सत्ता में संपृक्त प्रकृति

व्यापक, शून्य, Space जो इकाइयों के बीच खाली स्थली के रूप में दीखता है - यह क्या है? यह कुछ भी नहीं है! - यह कहना नहीं बनता! यहाँ यह बता रहे हैं - यह व्यापक साम्य ऊर्जा है। प्रकृति की सभी इकाइयां इसमें संपृक्त (डूबी, भीगी, और घिरी) हैं। व्यापक स्वयं में क्रिया न होते हुए भी, सभी क्रियाओं का आधार है। यह सह-अस्तित्व का मूल स्वरूप है। यह मूल बात समझ में आने पर ही सह-अस्तित्व का पूरा वैभव समझ में आता है।

इकाइयों का वैभव ही मध्यस्थता है। वैभव की ही परम्परा बनती है। जैसे - दो अंश का परमाणु का एक निश्चित आचरण है। सभी दो अंश के परमाणुओं का वैसा ही निश्चित आचरण है। यही दो अंश के परमाणु का वैभव है। वैसे ही नीम के, आम के झाड़ का आचरण निश्चित है। भालू, बाघ, और गाय का आचरण निश्चित है। मनुष्य का आचरण निश्चित होना अभी बाकी है। यही मुख्य मुद्दा है। मनुष्य का निश्चित आचरण समझदारी के बिना आएगा नहीं।

इकाइयां क्रियाशील हैं - यह समझ में आता ही है। साम्य ऊर्जा अपने में कोई क्रिया करता नहीं है। जैसे ज्ञान, विवेक, विज्ञान हैं - ये अपने आप में कोई क्रिया नहीं हैं। ज्ञान को execute करना क्रिया है। ज्ञान को पूरा execute ज्ञान-अवस्था का मानव ही कर सकता है। ज्ञान जो है - वह तेरह digits में समाया है। चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) का ज्ञान, पाँच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) का ज्ञान, तीन ईश्नाओं का ज्ञान (पुत्तेष्णा, वित्तेष्णा, लोकेश्ना) और उपकार का ज्ञान।

इसमें से चार विषयों का ज्ञान जीव-जानवर भी प्रकाशित करते हैं। उनमें विषयों का ज्ञान है - तभी तो उसको प्रकाशित करते हैं। जीव जानवर पाँच संवेदनाओं का उपयोग करते हैं, इन चार विषयों में जीने के लिए। मनुष्य जब धरती पर प्रकट हुआ - तो उसमें सुख की चाहत जन्म-जात रही। संवेदनाओं में मनुष्य को सुख भासा। मनुष्य ने कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता वश पाँच संवेदनाओं को राजी रखने के लिए सारा करतूत शुरू किया। इसी क्रम में आहार, आवास, अलंकार को लेकर जीव जानवरों से बिल्कुल भिन्न जीना शुरू कर दिया। साथ में दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, और दूर-गमन के तमाम साधनों को प्राप्त कर लिया। इसी क्रम में मनुष्य ने अपने को जीव-जानवरों से ज्यादा अच्छा मान लिया! पर ऐसा मानने से मनुष्य का अच्छा-पन कोई प्रमाणित नही हुआ। ज्ञान के बाकी चार भाग अज्ञात रहने के कारण मनुष्य ने धरती के साथ अपराध किया, बाकी तीनो अवस्थाओं के साथ असंतुलन किया, और मनुष्य जाती के साथ भी अन्याय किया। यह सब के चलते ऐसी स्थिति में पहुँच गए की आज धरती ही बीमार हो गयी।

इसलिए मनुष्य को ज्ञान के बाकी चार पक्षों को पहचानने की आवश्यकता है। यदि धरती पर बने रहना है तो! इसी के लिए मध्यस्थ-दर्शन का विकल्प प्रस्तुत है। जरूरत है, तो अपनाएगा आदमी जात!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

क्रियाशीलता और आचरण-शीलता

सत्ता में संपृक्त होने से हर इकाई क्रियाशील है। बिना ऊर्जा के क्रियाशीलता हो नहीं सकती। सत्ता ही वह ऊर्जा है जिसमें एक-एक संपृक्त होने के कारण क्रियाशील है। हर इकाई की क्रियाशीलता ही उसके निश्चित आचरण के रूप में प्रकट होती है। जैसे दो अंश का परमाणु अपने में क्रियाशील है, और वह अपने निश्चित आचरण को प्रकट करता है। वैसे ही एक झाड़ भी अपने में क्रियाशील है, और वह अपने निश्चित आचरण को प्रकट करता है। मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है। मनुष्य क्रियाशील तो है, पर आचरण-शील नहीं है - मतलब अभी तक मनुष्य अपने निश्चित आचरण को प्रकट नहीं किया है। अब इसको कैसे सुधार जाए? निर्विरोध पूर्वक कैसे किसको सुधारा जाए? विरोध पूर्वक कोई सुधार होता नहीं है। दमन पूर्वक भी कोई सुधार होता नहीं है। विरोध का विरोध और विरोध का दमन आदमी करके देख चुका है, इससे कोई सुधार होता नहीं है। यहाँ हम कह रहे हैं - विरोध का विजय। यह एक साधारण बात है। इसमें विशेष नाम की कोई चीज नहीं है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (भोपाल, अक्टूबर २००८)

समाधान और समस्या

हर व्यक्ति अपनी समझदारी के आधार पर सोच-विचार बनाता है। उस सोच-विचार के आधार पर योजना बनाता है। उस योजना के आधार पर कार्य-योजना बनाता है। उस कार्य-योजना के क्रियान्वयन पर फल-परिणाम होता है। वह फल-परिणाम समझदारी के अनुरूप हो गया, मतलब समाधान हो गया। यदि उसके विपरीत जाता है, तो समस्या हो गया।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (भोपाल, अक्टूबर २००८)

अस्तित्व में प्रकटन है, उत्पत्ति नहीं

अस्तित्व स्थिर है - उसमें कोई घट-बढ़ नहीं है। कोई चीज नया नहीं बन रहा है। अस्तित्व में प्रकटन है, उत्पत्ति नहीं है। जैसे- पदार्थावस्था में प्राणावस्था को प्रकट करने (project करने) की बात समाई ही रहती है। अस्तित्व के प्रकटन क्रम में परिवर्तन (गुणात्मक और मात्रात्मक) है - लेकिन कोई उत्पत्ति (creation) या विनाश (annihilation or disappearance) नहीं है। अस्तित्व "होना" और "रहना" है। "होना" प्राकृतिक है। "रहना" प्रकटन है। प्रकटन सह-अस्तित्व में विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति के स्वरूप में है।

यह इस धरती की ही बात नहीं है, अनंत धरतियों पर ऐसा ही है।

पदार्थ-अवस्था में ही एक जलने वाला वस्तु (hydrogen), और एक जलाने वाला वस्तु (oxygen) - ये दोनों मिल कर यौगिक विधि से प्यास बुझाने वाली वस्तु (पानी) को प्रोजेक्ट कर दिए। कैसे इस सह-अस्तित्व सहज प्राकृतिक गवाही (natural evidence) को छुपाया जाए, कैसे इसको प्रकट करने में शरमाया जाए?

मध्यस्थ-दर्शन प्राकृतिक गवाहियों का ही अध्ययन है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (भोपाल, अक्टूबर २००८)

भार-बंधन और अणु-बंधन

प्रश्न: भार-बंधन और अणु-बंधन क्या है?

उत्तर: परमाणुओं, अणुओं, और उनसे रचित रचनाओं में जो संगठित होने की बात जो है - वही भार-बंधन है। साम्य-सत्ता (व्यापक) में संपृक्त रहने से परमाणु-अंशों में चुम्बकीय बल सम्पन्नता रहती है। इसी के कारण उनमें एक दूसरे के साथ जुड़ने वाला गुण है, जिसको "भार-बंधन" कहा है। अनेक परमाणुओं के भार-बंधन पूर्वक एक अणु के रूप में संगठित होने से "अणु बंधन" है। अणु-बंधन से सारी प्राकृतिक रचनाएँ हैं - जैसे मिट्टी, पत्थर, मणि, और धातु। ये सभी रचनाएँ व्यवस्था के अर्थ में हैं।

जड़ जगत में भार-बंधन और अणु-बंधन की उपयोगिता है। जीवन गठन-पूर्ण परमाणु है, इसलिए वह इस बंधन को नकारता है। जीवन सामयिक रूप में (शरीर यात्रा के दौरान) जड़ जगत की उपयोगिता को स्वीकारता है, और स्वयं भी उसके लिए पूरक होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (भोपाल, अक्टूबर २००८)

Saturday, November 1, 2008

भ्रमित मनुष्य में जीवन की स्थिति

प्रश्न: आपने लिखा है - "मैं निर्भ्रमित अवस्था में आत्मा हूँ, और भ्रमित अवस्था में अंहकार हूँ", उसका क्या मतलब है?

उत्तर: भ्रमित अवस्था में शरीर को ही "मैं" माने रहते हैं। जागृत होने पर जीवन को "मैं" के रूप में जानते और मानते हैं। जीवन एक गठन-पूर्ण परमाणु है। जिसका मध्यांश आत्मा है।

प्रश्न: भ्रमित-मनुष्य में मध्यांश (आत्मा) और बुद्धि का क्या रोल होता है?

उत्तर: भ्रमित मनुष्य में मध्यांश (आत्मा) का कोई रोल ही नहीं है। भ्रमित मनुष्य में मध्यांश "होने" के रूप में है, "रहने" के रूप में नहीं! "होना" प्राकृतिक-विधि से हो गया। "रहना" - जागृति-विधि से होता है। बुद्धि के साथ भी वैसे ही है। चित्त में न्याय-धर्म-सत्य तुलन दृष्टियों के साथ भी वैसे ही है। जीवन में कल्पनाशीलता- कर्म-स्वतंत्रता वश भ्रमित स्थिति में भी ज्ञान का अपेक्षा बना रहता है।

प्रश्न: कोई आदमी गलती करता है, उसको फ़िर बुरा लगता है - यह कैसे होता है?

उत्तर: कल्पनाशीलता के कारण।  हम अच्छा होना चाह रहे हैं, पर अच्छा हो नहीं पा रहे हैं - इसलिए होता है ऐसा।

प्रश्न: "अच्छा होना चाहने" की बात कहाँ से आ गयी?

उत्तर: अच्छा होना चाहने की बात हर मनुष्य में है। अच्छे होने की कल्पना जीवन की ४.५ क्रिया में ही हो जाती है। हम अपने घर-परिवार, गाँव, देश के लोगों से अच्छा होना चाहते ही हैं। यह ४.५ क्रिया में हुई कल्पना ही है। यह अच्छा होना चाहना ही आगे अध्ययन का आधार है।

प्रश्न: अध्ययनरत मनुष्य के साथ बुद्धि और आत्मा की क्या स्थिति है?

उत्तर: अध्ययन-काल में साक्षात्कार पूर्वक बुद्धि सहीपन को स्वीकारता है। अनुभव में पहुँच के, आत्मा और बुद्धि ही प्रमाण रूप में प्रकट होती है।

प्रश्न: अध्ययन होने से पहले बुद्धि और आत्मा में क्या कोई क्रिया नहीं है?

उत्तर: बुद्धि में बोध होने का प्यास बना रहता है.  आत्मा में अनुभव होने का प्यास बना रहता है.  उसी तरह वृत्ति में न्याय-धर्म-सत्य के तुलन का प्यास बना रहता है.  यह प्यास वृत्ति में है तभी तो मानव आगे आगे सोच ही रहा है.
न्याय-धर्म-सत्य तुलन में आ जाए.  उसके आधार पर चेतना विकास मूल्य शिक्षा ध्रुवीकरण हो जाए, उसके आधार पर मूल्यों का आस्वादन हो जाए - इसके लिए इसको प्रस्तुत किया है.  साढ़े पाँच क्रिया जो दबी थी वे प्रमाणित हो जाएँ - इतना ही तो बात है.  प्रिय, हित, लाभ के अलावा और कुछ हो सकता है यह कल्पना में ही रह गया था, अध्ययन में नहीं आया था.

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (भोपाल, अक्टूबर २००८)

मध्यस्थ क्रिया का मतलब

अस्तित्व में हर क्रिया (वास्तविकता) के तीन stages हैं - पैदा होना (उद्भव), बने रहना (विभव), और विलय होना (प्रलय)। यह हर क्रिया के साथ है। जैसे - कोई धान पैदा होता है, बना रहता है कुछ समय तक, फ़िर खाद बन जाता है। कोई जीव पैदा होता है, कुछ समय तक जीता है, फ़िर मर भी जाता है। कोई मनुष्य भी पैदा होता है, कुछ समय तक जीता है, फ़िर मर भी जाता है।

इन तीन stages में "बने रहने" के stage में वस्तु की उपयोगिता (purpose) है। "बने रहने" का स्वरुप ही वस्तु का "आचरण" है। वस्तु के बने रहने में ही उसका वैभव है, जिसकी "परम्परा" होती है। वही मध्यस्थ है। वस्तु की उपयोगिता सिद्ध होना ही उसकी "मध्यस्थता" है। पैदा होना (उद्भव) stage उपयोगिता "के लिए" हैं। विलय हो जाने के बाद वह उपयोगिता नहीं रहा।

मध्यस्थ-दर्शन का मतलब है - अस्तित्व में वस्तुओं की उपयोगिता (purpose) को समझना। मनुष्य ही यह समझता है। समझने पर ही मनुष्य अस्तित्व में स्वयं की उपयोगिता को सिद्ध कर पाता है। मनुष्य की उपयोगिता या वैभव सिद्ध होती है - मानव परम्परा में। मानव परम्परा के आधार-स्तम्भ हैं - आचरण, शिक्षा, विधि (संविधान), और व्यवस्था।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (भोपाल, अक्टूबर २००८)