ANNOUNCEMENTS



Tuesday, January 31, 2017

मानसिकता में सार्वभौम व्यवस्था का मॉडल



मानव संवाद करता ही है.  मानव आपस में संवाद (बातचीत) न करे - ऐसा होता नहीं।  मानव आपस में "विचार" को लेकर कुछ बातचीत करते हैं, "प्रमाणित करने" को लेकर कुछ बातचीत करते हैं, और "जीने" को लेकर कुछ बातचीत करते हैं.  सारा विचार प्रमाणित होने में, और सारा प्रमाण जीने में समाहित हो जाता है. 

प्रश्न: आपका यहाँ "जीने" से क्या आशय है?

उत्तर:  कायिक-वाचिक-मानसिक कृत-कारित-अनुमोदित इन ९ भेदों से मानव जीता है.  इन ९ विधाओं में जीता हुआ एक मानव दूसरे को पहचान सकता है और स्वयं अपना भी मूल्यांकन कर सकता है.  मानसिकता का ही प्रकाशन वाचिक और कायिक स्वरूप में होता है.  कायिक, वाचिक और मानसिक ये तीनो अविभाज्य हैं.  मानव प्रधान रूप से कभी मानसिक, कभी वाचिक और कभी कायिक होता है.  एक प्रधान रूप में रहता है, दो उसके साथ शामिल रहते हैं. 

प्रश्न:  मानव के जीने में कोई बात "मानसिक" स्वरूप में हो पर "कायिक" या "वाचिक" स्वरूप में न हो - क्या यह हो सकता है?

उत्तर:   यह जीव चेतना पर्यन्त होता है.  यही दोहरा व्यक्तित्व का आधार है.  जीवचेतना में ऐसा सोच विचार हो सकता है, जिसको बताने में शर्म आती हो.  फिर उसको छुपाने का प्रयास होता है.  मानवचेतना में जो सोचा उसको न बता सकें, ऐसा कोई विचार ही नहीं आता.  मानव चेतना में विचारने, बोलने और करने में कोई अवरोध नहीं है.  जीव चेतना में अवरोध रहता है. 

प्रश्न:  जीव चेतना में मानव के जीने में इस अवरोध का कारण कैसे बनता है?

उत्तर:  जीव चेतना में मानव जीवों से "अच्छा" जीना चाहता है पर उसकी मानसिकता में "अच्छा" का कोई मॉडल नहीं रहता।  जीव चेतना में जीते हुए मानव का विचार और अपेक्षा गुणात्मक रूप में जीवों से भिन्न नहीं है.  बोलने में मानव अच्छा ही बोलता है लेकिन मानसिकता में अच्छा रहता नहीं है.  यही मजबूरी है.  कितना भी आदमी लीपापोती कर ले, जीव चेतना पर्यन्त ये मजबूरी रहेगा ही!

वचन विधा में मानव अव्यवस्था का पक्षधर नहीं है.  लेकिन उसकी मानसिकता में व्यवस्था का कोई मॉडल नहीं है.  इसी आधार पर ये अवरोध बन गए. 

अभी तक परंपरा मानसिकता में सार्वभौम व्यवस्था का मॉडल देने में असमर्थ रहा.  सार्वभौम व्यवस्था का मॉडल न ईश्वरवादी विधि से मिलता है, न भौतिकवादी विधि से.  सहअस्तित्ववादी विधि से सार्वभौम व्यवस्था का मॉडल आ गया. 

प्रश्न:  मानसिकता में सार्वभौम व्यवस्था का मॉडल क्या है?

उत्तर: पहला - मानवीयता पूर्ण आचरण।  दूसरा - मानवीयता पूर्ण व्यवस्था।  तीसरा - मानवीयता पूर्ण शिक्षा।  और चौथा - मानवीय आचार संहिता रुपी संविधान

आचरण, व्यवस्था, शिक्षा और संविधान - इन चारों आयामो में एक सूत्रता होने पर मानसिकता इसमें बन सकता है.  यही व्यवस्थात्मक मानसिकता या जागृत मानसिकता है.  यह शिक्षा विधि से एक से दूसरे व्यक्ति में अंतरित होता है. 

प्रश्न:  मानसिकता का शिक्षा विधि से कैसे एक से दूसरे व्यक्ति में अंतरण होता है?

उत्तर: इस मानसिकता को लेकर पहले वचन के स्तर पर (अध्यापक और विद्यार्थी) एकात्म होते हैं.  फिर वचन के अर्थ में जाते हैं (तो पुनः एकात्म होते हैं), और यह मानसिकता फिर से prove हो जाता है.  फिर उसको व्यवहार में लाने जाते हैं (और पुनः एकात्म होते हैं) तो यह मानसिकता एक बार और prove हो जाता है.  ऐसा हो जाने पर मानसिकता आचरण में आ जाता है.  इस ढंग से अनुभव तक पहुँचने की व्यवस्था बनी हुई है. 

पहले हमको मानसिकता में तैयार होना होगा।  मानसिकता में तैयार होते हैं तो वाचिक और कायिक उसके अनुसार चलता ही है.  इसी लिए मैं कहता हूँ - "विचारम प्रथमो धर्मः आचरण तदनंतरम"  (विचार पहले, आचरण उसके बाद में!)  यह विगत में जो कहे "आचरण प्रथमो धर्मः विचारम तदन्तरम" (आचरण पहले, विचार उसके बाद में!) से बिल्कुल उल्टा हो गया.  दूसरे विगत में कहा था - "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या", जबकि यहाँ कह रहे हैं - "ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत".  इन दोनों मुद्दों पर परंपरा में "परिवर्तन" का सारा सूत्र टिका है.  यह बात यदि हाथ लगती है तो परंपरा में "अखंड समाज - सार्वभौम व्यवस्था" की सूत्र-व्याख्या होगी, जिससे अपराध-मुक्ति और अपने-पराये से मुक्ति होगी। 

मानवीयता पूर्ण आचरण, शिक्षा, व्यवस्था और संविधान की ज़रुरत है या नहीं?  इसके लिए अपने को अर्पण-समर्पण करना है या नहीं? - यह आपके लिए सोचने का मुद्दा है. 

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७)

Saturday, January 21, 2017

प्रतीक प्राप्ति नहीं है



"सर्व धर्म सम भाव" एक आदर्शवादी भाषा है, उसको पाने की उम्मीद में आज भी कुछ लोग लगे हैं.  आधे लोग भाषा में फंसे हैं, आधे पैसे को लेकर फंसे हैं. 

प्रश्न:  पैसे के बिना काम कैसे चलेगा?

उत्तर: मानलो आपके पास एक खोली भर के नोट हों.  तो भी उससे आप एक कप चाय नहीं बना सकते, एक चींटी तक का पेट उससे नहीं भर सकता।  यदि वस्तु नहीं है तो ये नोट या पैसे किसी काम के नहीं हैं.  नोट केवल कागज़ का पुलिंदा है, जिस पर छापा लगा है.  छापाखाने  में छापा लगा देने भर से कागज़ वस्तु में नहीं बदल जाता। 

वस्तु को कोई आदमी ही पैदा करता है.  वस्तु का मूल्य होता है.  नोट पर कुछ संख्या लिखा रहता है.  आज की स्थिति में मूल्यवान वस्तु के बदले में ऐसे संख्या लिखे कागज़ (नोट) को पाकर उत्पादक अपने को धन्य मानता है.  यह बुद्धूबनाओ अभियान है या नहीं? 

नोट अपने में कोई तृप्ति देने वाला वस्तु नहीं है.  संग्रह करें तब भी नहीं, खर्च करें तब भी नहीं।  नोट का संग्रह कभी तृप्ति-बिंदु तक पहुँचता नहीं है.  नोट खर्च हो जाएँ तो उजड़ गए जैसा लगता है.  नोट से कैसे तृप्ति पाया जाए?  वस्तु से ही तृप्ति मिलती है.  वस्तु से ही हम समृद्ध होते हैं, नोट से हम समृद्ध नहीं होते। 

प्रश्न:  तो हम नोट पैदा करने के लिए भागीदारी करें या वस्तु पैदा करने के लिए भागीदारी करें?

उतर: अभी सर्वोच्च बुद्धिमत्ता वाले सभी लोग नोट पैदा करने में लगे हैं.  सारा नौकरी और व्यापार का प्रपंच नोट पैदा करने के लिए बना है.  कोई वस्तु पैदा कर भी रहा है तो उसका उद्देश्य नोट पैदा करना ही है. 

इसीलिये सूत्र दिया - "प्रतीक प्राप्ति नहीं है, उपमा उपलब्धि नहीं है."

कभी कभी मैं सोचता हूँ परिस्थितियों ने मानव को बिलकुल अंधा कर दिया है.  मुद्रा (पैसे) के चक्कर में उत्पादक को घृणास्पद और उपभोक्ता को पूजास्पद माना जाता है.  उत्पादक, व्यापारी और उपभोक्ता - इनके लेन-देन में लाभ-हानि का चक्कर है.  उत्पादक लाभ में है या हानि में?  व्यापारी लाभ में है या हानि में?  उपभोक्ता लाभ में है या हानि में?  इसको देखने पर पता चलता है - व्यापारी ही फायदे में है!  नौकरी क्या है?  व्यापार को घोड़ा बना के सवारी करना नौकरी है.  इस तरह नहले पर दहला लगते लगते हम कहाँ पहुँच गए?  ऐसे में मानव न्याय के पास आ रहा है या न्याय से दूर भाग रहा है.   इस मुद्दे पर सोचने पर लगता है - मानव न्याय से कोसों दूर भाग चुका है. 

यह एक छोटा सा निरीक्षण का स्वरूप है.  थोड़ा सा हम ध्यान दें तो यह सब हमको समझ में आता है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Saturday, January 7, 2017

मूल बात की भाषा को न बदला जाए



प्रश्न:  हम आपको कैसे सुनें?  किस तरह आपसे अपनी जिज्ञासा व्यक्त करें?  कैसे आपकी बात का मनन करें ताकि उसको हम पूर्णतया सही-सही ग्रहण कर सकें और किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकें?

उत्तर: जीने में इसको प्रमाणित करना चाहते हैं, तभी यह जिज्ञासा बनता है.  सुनने का तरीका, सोचने का तरीका, सोचने में कहीं रुकें तो प्रश्न करने का तरीका, प्रश्न के उत्तर को पुनः अपने विचार में ले जाने का तरीका, अंततोगत्वा निश्चयन तक पहुँचने का तरीका - ये सब इसमें शामिल है.  यह संवाद की अच्छी पृष्ठ-भूमि है, इस पर हमें ध्यान देने की ज़रूरत है. 

इसमें पहली बात है जो सुनते हैं उसी को सुनें, उसमें मिलावट करने का प्रयत्न न करें।  भाषा को न बदलें।  भाषा से इंगित होने वाली वस्तु को न बदलें।  अभी लोगों पर इस बात की गहरी मान्यता है कि "जिससे बात करनी है, उसी की भाषा में हमको बात करना पड़ेगा।"  जबकि उस भाषा के चलते ही वह सुविधा-संग्रह के चंगुल में पहुँचा है.  सुविधा-संग्रह को पूरा करने के उद्देश्य से ही उस सारी भाषा का प्रयोग है, जबकि वास्तविकता यह है कि सुविधा-संग्रह लक्ष्य पूरा होता नहीं है.  इस संसार में सुविधा-संग्रह से मुक्त कोई भाषा ही नहीं है.  चाहे १० शब्दों वाली भाषा हो या १० करोड़ शब्दों वाली भाषा हो.  इस बात को सम्प्रेषित करने के लिए भाषा को बदलना होगा (ऐसा मैंने निर्णय किया).  जिस भाषा से अर्थ बोध होता हो वह भाषा सही है.  जिस भाषा में अर्थ बोध ही नहीं होना है, सुविधा-संग्रह का चक्कर ही बना रहना है, उस भाषा में इसको बता के भी क्या होगा?  ज्ञानी, विज्ञानी, अज्ञानी तीन जात में सारे आदमी हैं.  ये तीनों जात के आदमी सुविधा-संग्रह के चक्कर में पड़े हैं. 

तो मूल बात की भाषा को न बदला जाए, उससे इंगित वस्तु को न बदला जाए.  वस्तु (वास्तविकता) स्थिर है.  यदि भाषा के साथ तोड़-मरोड़ करते हैं तो अर्थ बदल जाएगा, अर्थ बदला तो उससे वस्तु इंगित नहीं होगा। 

मैंने जब इस बात को रखा तो कुछ लोगों ने कहा - "आप ऐसा कहोगे तो हम कुछ भी अपना नहीं कर पाएंगे?"

मैंने उनसे पूछा - इस भाषा को छोड़ के, कुछ और भाषा जोड़के आप क्या कर लोगे?  सिवाय संसार को भय-प्रलोभन और सुविधा-संग्रह की ओर दौड़ाने के आप क्या कर लोगे?  मूल बात की भाषा को बदलोगे तो आपका कथन वही सुविधा-संग्रह में ही जाएगा।  धीरे-धीरे उनको समझ में आ गया कि जो कहा जा रहा है उसको उसी के अनुसार सुना जाए, समझा जाए और जी के प्रमाणित किया जाए.  जी के प्रमाणित करने में कमी मिले तो इसको बदला जाए.  जिए बिना कैसे इसको बदलोगे?  इसको जिए नहीं हैं, पहले से ही इसमें परिवर्तन करने लगें तो वह आपकी अपनी व्याख्या होगी, मूल बात नहीं होगी। 

परिवर्तन के साथ घमंड होता ही है.  मूल बात का reference point छूट गया फिर.  reference point छोड़ के हम संसार को सच्चाई बताने गए तो सवाल आएगा ही - इसका आधार क्या है?  स्वयं अनुभव हुआ नहीं है तो क्या हालत होगी? 

या तो इस घोषणा के साथ शुरू करो कि मैं अनुभव-संपन्न हूँ, प्रमाण हूँ.  नहीं तो reference point से शुरू करो.  अनुभव यदि हो भी गया तो किस आधार पर हुआ - यह प्रश्न आएगा।  उसके उत्तर में जाएंगे तो मूल बात का reference ही आएगा।

- श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Thursday, January 5, 2017

अनुभव की कसौटी



प्रश्न:  मैं जो यह सोच रहा हूँ कि मैं भी अनुभव कर सकता हूँ, कहीं यह अत्याशा तो नहीं है?

उत्तर:  हर जीवन में अनुभव करने वाला अंग (आत्मा) समाहित है ही.  उसको आपको बनाना नहीं है, केवल प्रयोग करना है.

प्रश्न:  आपकी बात की पूरी सूचना मिल चुकी है, ऐसा लगता है.  इसको स्वीकारना है, यह भी निश्चित है.  लेकिन अनुभव को लेकर बात करते हैं तो कुछ कहना नहीं बनता।

उत्तर:  सूचना ग्रहण होने और इस प्रस्ताव के अनुरूप जीने का निश्चयन होने के बाद ही अनुभव होता है.  यही क्रम है.  हम बेसिलसिले में नहीं हैं, सिलसिले में हैं.  अनुभव होके रहेगा क्योंकि जीवन की प्यास है अनुभव!

प्रश्न: "जागृति निश्चित है" यह तो ठीक है, पर कब कोई व्यक्ति अनुभव तक पहुंचेगा - इसकी कोई समय सीमा है या नहीं?

उत्तर: भ्रमित संसार में कितने समय में कौन जागृत होगा इसकी समय सीमा नहीं है.  भ्रमित परंपरा जागृत हो सकता है - यहाँ हम आ गए हैं.  इसमें एक व्यक्ति अनुभव संपन्न हुआ - प्रमाणित हुआ.  उसके बाद दो व्यक्ति हुए, प्रमाणित हुए. फिर २००० का होना और फिर सम्पूर्ण मानव जाति का जागृत होना शेष है.

प्रश्न:  मुझे कभी-कभी यह लगता है, यह मेरे वश का रोग है भी या नहीं?  यदि मुझे अनुभव हो ही नहीं सकता तो मैं इसके अध्ययन में क्यों अपना सिर डालूँ?

उत्तर:  आपका यह पूछना जायज है.  इस बात की उपयोगिता को किस कसौटी पे तौला जाए?  इसको "रूप" के साथ जोड़ के तौलोगे तो यह व्यर्थ लगेगा।  इसको "बल" के साथ जोड़ के देखोगे तो यह व्यर्थ लगेगा।  इसको "धन" के साथ जोड़ के देखोगे तो यह व्यर्थ लगेगा।  इसको "पद" के साथ जोड़ के देखोगे तो यह व्यर्थ लगेगा।  इसको "बुद्धि" के साथ जोड़ के देखोगे तो यह सार्थक लगेगा।  यह केवल "लगने" की बात मैं कर रहा हूँ.  रूप, बल, धन और पद के आधार पर मानव चेतना प्रमाणित नहीं होती।  बुद्धि के आधार पर ही मानव चेतना प्रकट होती है.  बुद्धि का प्रकाशन प्रमाण के आधार पर ही होता है.  प्रमाण अनुभव के आधार पर ही होता है.  अनुभव अध्ययन विधि से ही होगा।  दूसरी विधि से होगा नहीं।  दूसरी विधि है - साधना, समाधि, संयम.  उसके लिए लेकिन आप अनुभव का मुद्दा ही नहीं बना पाएंगे।  इस सब बात पर चर्चा तो होना चाहिए, मेरे अनुसार!

प्रश्न: इतना तो मुझे भास् होता है कि आपके पास कोई अनमोल सम्पदा है, जो मेरे पास नहीं है.....

उत्तर:  इतना ही नहीं यह सम्पदा अभी प्रचलित परंपरा में भी उपलब्ध नहीं है.  इसके बाद यह बात आती है - क्या यह सम्पदा एक से दूसरे में हस्तांतरित हो सकती है या नहीं?  इसमें अभी तक जितना हम चले हैं, उसमें आपको क्या लगता है - यह हस्तांतरित हो सकती है या नहीं? 

जितना अभी तक चले हैं, उससे यह तो लगता है कि आपकी बात हस्तांतरित होती है.

मुख्य बात इतना ही है.  आपके प्रमाणित होने पर ही यह बात आपमें हस्तांतरित होगा।  एक ही सीढ़ी बचा है.  आपको यदि इस बात को हस्तांतरित करने वाला बनना है तो आपको अनुभव करना ही होगा, जीना ही होगा।  ये दो ही बात है.  इससे कम में काम नहीं चलेगा, इससे ज्यादा की जरूरत नहीं है.  मैं यह मानता हूँ इस बात का प्रकटन मानव के सौभाग्य से हुआ है.  मानव का सौभाग्य होगा तो इसे स्वीकारेगा।  मानव को धरती पर बने रहना है तो परिवर्तन निश्चित है.  मानव को धरती पर रहना नहीं है तो जो वह कर रहा है, वही ठीक है.

- श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित जनवरी २००७, अमरकंटक