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Sunday, March 18, 2012

अनुभव शिविर

प्रश्न: हर वर्ष जो यह अनुभव शिविर आयोजित किया जाता है, उसका क्या आशय है?

उत्तर: अनुभव शिविर का आशय है - अनुभव मूलक विधि से जिया जाए.  मुख्य बात इतना ही है.  इसी आशय को व्यक्त करने के लिए हर वर्ष अनुभव शिविर का आयोजन किया जाता है.  इस आशय को व्यक्त करें या न करें?  इसके लिए कई लोग सहमत होते हैं, कई लोग सहमत नहीं हो पाते हैं.  ज्यादा लोग शब्द रूप में सहमत हो पाते हैं, कार्य रूप में ज्यादा लोग सहमत नहीं हो पाते हैं.  अधिकाँश लोग इसके पक्षधर हैं यह तो पता चलता है.  प्रमाण होना अभी शेष है.  ऐसी स्थिति में हम अभी हैं.  प्रमाण होने के लिए कई लोग तैयार हो पायेंगे - मेरे अनुसार.  सहमत होगा तो स्वीकार होगा, स्वीकार होगा तो अध्ययन होगा, अध्ययन होगा तो अनुभव होगा, अनुभव होगा तो प्रमाण होगा.  इतनी सीढियां हैं, जिनको पार करना है.  कोई जल्दी नहीं है!  धीरे-धीरे हो, किन्तु सही हो.

प्रश्न: अनुभव मूलक विधि से कैसे जिया जाए?

उत्तर: उसके लिए सत्ता में संपृक्त प्रकृति रूपी सहअस्तित्व को अनुभव करना है.  सहअस्तित्व स्वरूप में अस्तित्व को समझने से विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति अनुभव में आता है.  अनुभव का स्वरूप इतना ही बिंदु रूप में है.  इसको जब व्यक्त करने जाते हैं तो सिन्धु रूप में हो जाते हैं.  अनुभव के साथ अपने निश्चयन को जोड़ करके हम इतने विस्तार हो जाते हैं.  सबको समझाने योग्य हो जाते हैं.  कितना भी समझायें, और समझाने के लिए वस्तु स्वयं में बना ही रहता है.  मैंने अनुभव को समाधि-संयम विधि से पाया, उसको अध्ययन विधि से प्रस्तुत किया.  देखिये अब कैसे हो पाता है.


प्रश्न: यदि मेरे आगे अध्ययन विधि से अनुभव प्राप्त किये हुए कुछ लोग खड़े होते तो शायद मेरा उत्साह और निष्ठा इस मार्ग के प्रति कहीं ज्यादा होता.  

उत्तर: "उस व्यक्ति को अनुभव क्यों नहीं हुआ - इसलिए हमको भी नहीं होगा."  इस विचार को लेकर चलते हैं तो हम फ़ैल जाते हैं, उससे कोई फायदा नहीं है.  फायदा होने वाली बात है - "यदि एक व्यक्ति अनुभव मूलक विधि से जी सकता है, तो मैं भी जी सकता हूँ.  यदि एक व्यक्ति समझा है तो मैं भी समझ सकता हूँ.  यदि एक व्यक्ति प्रमाणित हुआ है, तो मैं भी प्रमाणित हो सकता हूँ."  इस तरह से सोचने से हम आगे बढ़ सकते हैं.  "सभी पहले समझ जाएँ, उसके बाद हम समझेंगे" - यह व्यर्थ की बात है.  जिम्मेदारी को झटकारने का कोई मूल्य नहीं है.  जिम्मेदारी स्वीकारने का मूल्य है.  "एक व्यक्ति समझा है, जिया है, प्रमाणित है - वैसे ही मैं भी समझ सकता हूँ, जी सकता हूँ, प्रमाणित हो सकता हूँ."  इस तर्क से हम पहुँच सकते हैं.

"सामने व्यक्ति सुधरे, तब मैं सुधरूंगा" - यह विचार प्राचीन काल से है.  इसी आधार पर व्यक्तिवाद और समुदायवाद पनपा है.  व्यक्तिवाद और समुदायवाद कहाँ पहुँच गया उसका आप ही मूल्यांकन करिए!


प्रश्न: अध्ययन में अपनी निष्ठा को कैसे बढायें?

उत्तर: प्राथमिकता विधि से.  अध्ययन करना है, यह प्राथमिक हो जाए तो आप अध्ययन करेंगे.  और कुछ यदि  प्राथमिकता में है, तो उसी को आप करते रहोगे.  यदि आपको अध्ययन नहीं करना है, और कुछ भाड़ झोंकना है - तो भाड़ ही झोंकिये!  इससे किसको क्या तकलीफ है?  भाड़ झोंको, अध्ययन करो, या साधना करो - ये ही तीन रास्ते हैं आदमी के पास.


प्रश्न:  आपके प्रस्ताव के अनुसार मानव या तो "भ्रमित" है या "जागृत" है.  भ्रम और जागृति के बीच क्या है?

उत्तर:  भ्रम और जागृति के बीच कड़ी है - अध्ययन.  या फिर है - अनुसंधान.  जो करना है, वही कर लो!  भ्रम = समस्या.  जागृति = समाधान.  समाधान चाहिए या नहीं?  समाधान प्राप्त करने के लिए दो ही विधियाँ हैं - विकल्पात्मक अध्ययन अथवा अनुसन्धान.  सामान्य रूप में अध्ययन विधि सुगम है, अनुसंधान विधि कठिन है.


प्रश्न:  आपने अनुसंधान के लिए जो प्रयास शुरू किया था, उस समय मानव जाति की क्या स्थिति थी?

उत्तर: मैंने जब शुरू किया तब भी आदमी उलझा हुआ ही था.  कई लोगों ने मेरी जिज्ञासा को उचित माना, कई लोगों ने उचित नहीं माना.  जिन्होंने उचित नहीं माना उनको मैंने नकारा नहीं, जिन्होंने उचित माना उनको धन्यवाद देते हुए मैं यहाँ चले आया.  इस अनुसंधान में मैं सफल हो गया.  अब मैंने जो पाया उसको नीच से नीच आदमी, दुष्ट से दुष्ट आदमी भी नकारता नहीं है.

- श्री ए नागराज के उद्बोधन पर आधारित (जनवरी २०१२, अमरकंटक) 

Friday, March 16, 2012

मूल्यांकन और समीक्षा

परीक्षण, निरीक्षण और सर्वेक्षण के आधार पर मूल्यांकन होता है.  परीक्षण का मतलब है - वस्तु कैसा है?  निरीक्षण का मतलब है - प्रयोजन क्या है?  सर्वेक्षण का मतलब है - कितना है?

किसी भी वस्तु का परीक्षण किये बिना उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता.  वैसे ही स्वयं का और सामने व्यक्ति का परीक्षण किये बिना हम उसका मूल्यांकन नहीं कर सकते.  स्वयं का परीक्षण करने के बाद ही स्वयं का मूल्यांकन हो पाता है.   वैसा ही दूसरे व्यक्ति के साथ भी है.

स्व-निरीक्षण में अपनी उपयोगिता और प्रयोजन को समझने की बात है.  प्रयोजन ही पूरकता है.  अपनी उपयोगिता और पूरकता (प्रयोजन) को समझे बिना हम दूसरों को क्या समझायेंगे?  यदि प्रयोजन नहीं है तो आडम्बर है.  यदि आडम्बर है तो संसार के लिए हानिप्रद है.

प्रश्न:  मूल्यांकन और समीक्षा में क्या अंतर है?

उत्तर: अनावश्यकता (पूरकता-उपयोगिता के विपरीत कार्य-कलाप) की समीक्षा होती है, आवश्यकता (पूरकता-उपयोगिता सहज कार्य-कलाप) का मूल्यांकन होता है.  अनावश्यकता की समीक्षा नहीं होगी तो अनावश्यकता कम कैसे होगा?  आवश्यकता का मूल्यांकन नहीं होगा तो सही के लिए उत्साहित कैसे होंगे?  मूल्यांकन और समीक्षा दोनों होना आवश्यक है.  आवश्यकता को लेकर प्रोत्साहित कर दिया, गलती को छुपा दिया - यह महान अपराध है.  थोडा भी गलती हो तो उसको उजागर करना चाहिए.  उजागर करने का मतलब - जिसने गलती किया, उसको अवगत कराना.  दूसरे की गलती का प्रचार करने का कोई फायदा नहीं है.

प्रश्न: हम जब दूसरे का मूल्यांकन करें तो यदि हम केवल उसके 'सही' को बताएं, उसकी 'गलती' को न बताएं - तो इसमें क्या परेशानी है?

उत्तर:  गलती करने वाला अपनी गलती को भी 'सही' माने रहता है.  इसलिए आप यदि केवल उसके 'सही' को बताते हैं तो वह मान लेता है कि वह जो कुछ भी कर रहा है (जो उसके हिसाब से 'सही' है) उसको आप प्रोत्साहन कर रहे हैं.  अब आप इस तरह कितना भी सिर कूट लो, क्या परिवर्तन आएगा उससे उसमें?  उसकी गलती का सुधार होगा कैसे?  ऐसा हो रहा है या नहीं?  इसलिए दूसरे का मूल्यांकन करते हुए उसकी गलती को उसे अवगत करायें, फिर सही को भी उसे बताएं.

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २०१२, अमरकंटक) 

Wednesday, March 14, 2012

स्वीकृति

न्याय-धर्म-सत्य के साथ प्रिय-हित-लाभ को तोलना नहीं बनता.  न्याय-धर्म-सत्य में प्रिय-हित-लाभ का विलय होता है.  प्रिय-हित-लाभ के विलय होने तक अध्ययन है.  जब विलय हो जाता है तब अनुभव है.

अनुभव के पहले न्याय-धर्म-सत्य भाषा के रूप में रहता है, लेकिन जीना प्रिय-हित-लाभ में ही बना रहता है.  "न्याय-धर्म-सत्य ठीक है" - ऐसा भाषा के रूप में आ जाता है, पर वह "स्वीकृति" नहीं है.  स्वीकृति प्रिय-हित-लाभ की ही रहती है.  सूचना हो जाना स्वीकृति नहीं है.


अभी लोग अपनी अनुकूलता (अच्छा लगने) के अनुसार समझने की इच्छा व्यक्त करते हैं.  सच्चाई को समझने की इच्छा का रंग ही कुछ और होता है!  अपनी अनुकूलता के अनुसार समझने की इच्छा से प्रयास करते हैं तो एक व्यक्ति कुछ समझ लेता है, दूसरा व्यक्ति कुछ और समझ लेता है.  सच्चाई जैसा है - वैसा समझने का प्रयास करते हैं तो आप जैसा समझते हैं, वैसा ही मैं भी समझता हूँ.  सच्चाई अच्छा लगने और बुरा लगने की जगह में नहीं है.

"मुझे जीव-चेतना में नहीं जीना है, मानव-चेतना में ही जीना है" - जब यह निश्चय होता है, तब सच्चाई को समझने की इच्छा से प्रयास होता है.  मानव ने अभी तक जीवों से अच्छा जीना चाहा है, कुछ मायनों में जीवों से अच्छा जिया भी है, पर जीव-चेतना को छोड़ा नहीं है.  इसी जगह में मानव-जाति कराह रहा है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २०१२, अमरकंटक)  

ज्ञानगोचर

ज्ञान व्यापक वस्तु है.  ज्ञान के आधार पर ही चेतना है.  जीव-चेतना में मानव शरीर को जीवन मान करके जीता है - जिससे मानव टूटता है.  वही मानव जीवन को समझता है.  जीवन में ही ज्ञान होता है.  ज्ञानगोचर-विधि से ही जीवन समझ में आता है, सत्य समझ में आता है, सह-अस्तित्व समझ में आता है.  कार्य विधि से यह समझ में नहीं आता है.  ज्ञानगोचर विधि से ही जीवन को समझा जाए, सह-अस्तित्व को समझा जाए, विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति को समझा जाए.  फिर जिया जाए - ठसके से!

प्रश्न: ज्ञानगोचर से क्या आशय है?

उत्तर: जो संवेदनाओं के पकड़ में न आये, पर फिर भी समझ में आये - वह ज्ञानगोचर है.  ज्ञान समझ में आता है, चक्षु में नहीं आता.  जैसे किसी वस्तु में भार है, वह समझ में आता है - पर वह दिखाई नहीं देता है.  भार इस तरह ज्ञानगोचर है.  यहीं से शुरुआत है.

- बाबा श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २०१२, अमरकंटक)