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Thursday, July 31, 2008

समझदारी का प्रमाण

किसी आयु के बाद हर व्यक्ति अपने आप को समझदार माना ही रहता है। हर मनुष्य अपने ढंग से अपने को समझदार मानता है। जैसे कोई कहता है - "मैं समझदार हूँ, इसका प्रमाण है - मेरे पास पैसा है "। दूसरा कहता है - "मैं समझदार हूँ, इसका प्रमाण है - मैं इस पद पर हूँ।" तीसरा कहता है - "मैं समझदार हूँ, इसका प्रमाण है - मैं बहुत बलशाली हूँ।" चौथा कहता है - "मैं समझदार हूँ, इसका प्रमाण है - मैं बहुत रूपवान हूँ।" जबकि ज्यादा पैसा, ऊंचा पद, या खूब हट्टा-कट्टा होना, या देखने में सुंदर होना - समझदारी का प्रमाण नहीं है। किसी के पास ज्यादा पैसा हो, वह ज्यादा सुलझा हुआ हो - ऐसा कोई नियम नहीं है। कम पैसा हो, वह ज्यादा सुलझा हो - ऐसा भी कोई नियम नहीं है। वैसा ही पद, बल, और रूप के साथ भी है।

मध्यस्थ-दर्शन से निकला : - समझदारी का प्रमाण है - न्याय पूर्वक जी पाना, धर्म पूर्वक जी पाना, और सत्य पूर्वक जी पाना।

न्याय, धर्म, और सत्य को समझना अध्ययन है। न्याय, धर्म, और सत्य को प्रमाणित करना समझदारी है।

प्रमाणित करने की इच्छा ही न हो - तो अध्ययन कोई क्यों करेगा? अनुभव-प्रमाण की प्रेरणा से ही अध्ययन होता है। प्रमाणित करने की इच्छा से ही अध्ययन होता है।

यथास्थिति को बनाए रखने के लिए, और अध्ययन न करने के लिए जितने हमारे सर में बाल हैं, उतने बहाने हैं। किसी आयु के बाद मनुष्य के बाद सच्चाई से दूर भागने के अनगिनत बहाने बन जाते हैं। साथ ही, किसी आयु के बाद अपने संस्कार-वश ही सच्चाई को शोध करने की भी कुछ लोगों में इच्छा रहती है। वह जो भाग है - उसी के साथ मैं और आप जुड़ रहे हैं। सच्चाई को शोध करने की इच्छा वाले लोग ही मेरे पास आते हैं। नहीं तो कोई आता नहीं है।

फ़िर सत्य के शोध के पक्ष में हमारी चर्चा में निकला - सत्य को शोधा नहीं जाता। सत्य को समझा जाता है। शोधा जाता है - बेवकूफी को। बेवकूफी को छान कर अलग कर दिया जाता है। सत्य को समझा जाता है। सह-अस्तित्व स्वरूपी सत्य हमको सभी को प्राप्त है। प्राप्त वस्तु को क्या शोधा जाए? अभी तक की आवाज था - "सत्य को खोजेंगे!" अब यह आया - सत्य हमको प्राप्त है, उसका हमको अनुभव करना है। व्यापक वस्तु और एक-एक वस्तु साथ-साथ हैं , यह अनुभव में आना।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

ज्ञान की बात

प्रश्न: मध्यस्थ-दर्शन के पहले भी ज्ञान की बात होती रही है, पर वह स्पष्ट क्यों नहीं हुआ?

उत्तर: इसलिए क्योंकि विगत में ज्ञान को मूल में ईश्वर या ब्रह्म का ही स्वरुप माना था। यह ग़लत हो गया। यद्यपि सूक्ष्मतम रूप में यदि विश्लेषण करें- तो तथ्य यह निकलता है की व्यापक वस्तु ही साम्य ऊर्जा है। मध्यस्थ-दर्शन से यह निकला - "साम्य ऊर्जा ही ज्ञान के रूप में मानव परम्परा में प्रमाणित होता है।" साम्य ऊर्जा सम्पन्नता जड़ प्रकृति में भी है, चैतन्य प्रकृति में भी है। चैतन्य प्रकृति में से मानव एक ईकाई है। मानव में इन्द्रियगोचर और ज्ञान-गोचर बात प्रमाणित होती है। ज्ञान की रोशनी में जो समझ आता है - वह ज्ञान व्यापक वस्तु ही है। यह मैंने प्रतिपादित किया है।

प्रश्न: ज्ञान का दृष्टा कौन है?

उत्तर: जीवन। जीवन - जो एक गठन-पूर्ण परमाणु है, वही ज्ञान का दृष्टा है।

विगत में कहा - ईश्वर ही दृष्टा है। वह ग़लत हो गया।

विगत में जो ईश्वर या ब्रह्म को ज्ञान कहा - वह ग़लत नहीं है। लेकिन जो यह कहा - "ब्रह्म से ही जीव जगत पैदा हुआ!" - वह ग़लत हो गया। इस तरह गुड गोबर में घुल गया! मैं इसको अच्छी तरह से देखा हूँ। सारा प्रयास, इतने अच्छे लोगों का प्रयास गुड-गोबर हो गया।

ज्ञान जो व्यापक रूप में रहता है - हर जगह में वह एक ही है। इसी लिए ज्ञान व्यापक है। इसी लिए हर जीवन में जीवन-ज्ञान एक ही है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान हर जीवन में एक ही है। मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान हर जीवन में एक ही है। इस तरह यह साम्य हो गया! यह साम्य-ज्ञान मानव-परम्परा में प्रमाणित होता है।

जबकि विगत में बताया था - ज्ञान अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है। जबकि मैं कह रहा हूँ - ज्ञान प्रमाणित होता है। ज्ञान वचनीय भी है। ज्ञान व्यक्त भी है। विगत में कहा हुआ बात इस तरह निरर्थक हो गया न? दूसरी भाषा में इसे कहें तो - "झूठ बोल दिया!" चाहे इस झूठ को सही मान करके क्यों न बोले हों! इस झूठ से मेरे जैसे कितने लोग आहत हुए, इसका कोई संख्या नहीं है। जबकि मैं कैसे न कैसे बच गया। मेरा इस तरह बच जाना और मध्यस्थ-दर्शन का अनुसंधान सफल हो जाना इस तरह मानव-परम्परा के लिए देन स्वरुप में हो गयी। यह देन स्वरुप में तभी है - जब मानव परम्परा इसको स्वीकारता है।

मेरा जो प्रयास है - वह नगण्य है। मैं इसको अच्छी तरह से estimate कर पा रहा हूँ। मैंने कोई बहुत भारी साहस किया हो - ऐसा मुझको तो लगता नहीं है। सामान्य रूप में ठीक है - कुछ किया! कुछ करने से यह प्रतीक्षा ही नहीं था - यह हो जायेगा! इसको क्या कहें?

अनुभव है इतनी से गोली - पर देखो यह सारे अस्तित्व को ढकता है। सारे अस्तित्व को छूता है। सारे अस्तित्व का परीक्षण करता है। सारे समाधान को पाता है। मानव परम्परा में ज्ञान को प्रमाणित करता है। अनुभव एक सूक्ष्मतम गोली - वह खुलता है तो कहीं तक खुलता ही चला जाता है। अनुभव की महिमा यही है। कितना भी विशाल तक ले जाओ - और विशालता के लिए material शेष रहता ही है। यहाँ ज्ञान अंत हो गया - वह जगह मिलता ही नहीं है। हर जगह में ऐसा लगता है - इससे आगे भी ज्ञान की रोशनी पहुँचती है। यही अनुभव का महिमा है। उत्साहित होने के लिए यह एक बहुत भारी बात है न? हर व्यक्ति को इसकी ज़रूरत महसूस होने के लिए यह एक बहुत ही प्रभावशाली तथ्य है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Wednesday, July 30, 2008

संवाद का मतलब

संवाद का मतलब है - परस्परता में पूर्णता के अर्थ में भाषा को प्रकट करना।

संवाद तर्क नहीं है।

संवाद पूर्णता की ज़रूरत के आधार पर है। पूर्णता के अर्थ में हमको पारंगत होना है या नहीं होना है? इसके उत्तर में - "होना है" यही आपसे कहना बनता है। "नहीं होना है" - यह कहना सबके सामने तो नहीं बनता। भले ही व्यक्तिगत रूप में समझदारी से दूर भागते रहे। जब भागते-भागते थक जाते हैं - तो वापस इस जगह आना ही पड़ता है।

पूर्णता को स्वीकारना ही पड़ता है - यही संवाद का मतलब है। पूर्णता को नकारना बनता नहीं है। पूर्णता को हम नहीं समझे, हम मनमानी पूर्वक भागते रहे - यह सब हो सकता है। किंतु यह घोषित करना नहीं बनता की हमको पूर्णता नहीं चाहिए। मनमानी करके सच्चाई से दूर भागते हैं, तो मानसिक रूप में थकना स्वाभाविक हो जाता है। मानसिक रूप में थकने से ही जीने में गलतियाँ होती हैं।

प्रश्न: मानसिक रूप से थक जाने का क्या स्वरूप है?

अपने द्वारा किए गए विश्लेषण से ही निकले प्रश्न-चिन्ह में स्वयं ही फंस जाना। इसको "कुंठा" नाम भी दिया जा सकता है। कुंठित होना, रास्ता बंद हो जाना, रास्ता ठीक नहीं लगना - इनमे से किसी मॉडल में हम गलती करने के रास्ते में आ जाते हैं। अपने ग़लत विश्लेषण को छोड़ कर के स्वयं में सहीपन की प्यास को पहचानना ही सहअस्तित्ववाद के लिए जुड़ने का तरीका है। इस प्यास को हरेक व्यक्ति बुझाना चाहता ही है। सकारात्मक बात के लिए हर व्यक्ति के पास में जगह बनी हुई है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

समाधान

समाधान वह चीज़ है जिसके आने के बाद प्रश्न का कोई मतलब ही नहीं रह जाता।

जहाँ समाधान नहीं है - वहीं प्रश्न है।

गलती में अनेक प्रश्न हैं - हर गलती अपने तरीके की है।
सही में एक ही उत्तर - अनंत प्रश्नों का एक ही उत्तर है।

हर गलती एक प्रश्न-चिन्ह बनता है।

मध्यस्थ-दर्शन एक प्रश्न-मुक्ति अभियान है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Sunday, July 27, 2008

अनुभव के बाद अस्तित्व से दूरी शून्य हो जाती है.

व्यापक वस्तु ही जड़ प्रकृति में मूल ऊर्जा के रूप में है। व्यापक ही चैतन्य प्रकृति में ज्ञान के रूप में है। चैतन्य प्रकृति में जीव-संसार भी है। जीव-संसार में चार विषयों का ज्ञान प्रमाणित होता है। मानव में चार विषयों के साथ, पाँच संवेदनाओं का भी ज्ञान हुआ। जीव-चेतना की सीमा में मानव इतना ही कर पाया। इसका प्रमाण है - मनाकार का साकार होना। मनः स्वस्थता का वीरान रहना। जीव-चेतना में मनः स्वस्थता का खाका भरा नहीं है। वहां कोई दूब उगा नहीं है। उस मैदान को भरना है, हरा-भरा करना है। यह कैसे होगा? मानव-लक्ष्य पूरा होने से मनः स्वस्थता प्रमाणित होती है। मनः स्वस्थता जीवन में सुख, शान्ति, संतोष, और आनंद है। अखंड समाज/राष्ट्र के रूप में समाधान-समृद्धि-अभय-सहस्तित्व है। यदि हम मानव-लक्ष्य के साथ जीते हैं, प्रमाणित करते हैं - उसमें दूरी क्या है? पास क्या है? दूरी और पास रासायनिक भौतिक वस्तुओं की सीमा में स्पष्ट होती है। जीवन के साथ जीवन की गति है। कल्पनाशीलता को यदि आंकलित किया जाए - तो कोई दूरी है ही नहीं। दूरी का कोई मतलब ही नही है। केवल कल्पना को जोड़ने से यह हुआ। उसके बाद अनुभव जोड़ने से दूरी शुन्य हो गयी। चारों अवस्थाओं के साथ दूरी शुन्य हो जाता है। शून्य दूरी को हम प्रमाणित कर पाते हैं - इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा?

इसको अच्छी तरह से हृदयंगम करने से फ़िर अध्ययन में आपको कहीं अटकना नहीं है। हम जो लिखे हैं - वह आपको समझ में आएगा। समझ में आ गया तो निर्णय लेने की ताकत आती है। निर्णय लेने की ताकत आने के बाद आप कुछ करोगे ही करोगे! निर्णय लेने के बाद क्या बात है? कहाँ रुकेंगे? नहीं रुक सकते! निर्णय लेने के बाद रुकने की जगह नहीं है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

वैदिक विचार की विसंगति, अनुसंधान, और विकल्प

हमारे घर-गाँव में केवल वेद, उपनिषद्, दर्शन, शास्त्र के अलावा कोई ध्वनि मुझे सुनने को नहीं मिला। इसी oven में मैं भी पका। पलने में जो सुना - तो यही सुना। यदि गर्भ-वास में सुना हो - तो भी यही सुना। उसके बाद तो यही सुना है। वैदिक विचार से ज्यादा सत्य के पक्ष में झुलसा हुआ परम्परा और कोई नहीं है। सत्य के पक्ष में झुलसते ही गए। झुलसने का भाषा मैंने ऐसे प्रयोग किया - हमारे अकेले परिवार में १००० वर्ष से यह किंवदंती है - हर पीढी में १-२ सन्यासी होता ही रहा। सन्यासी के लिए वे लिखे हैं - वैदिक ब्राह्मण हो, शिष्ट परिवार के हों, वेदान्त संपन्न हों - उनको मोक्ष का अधिकार होना लिखा है। ऐसा मैंने भी सुना। ऐसे लिखे हुए के आधार पर हमारा परिवार स्वयं को एक श्रोतिय वैदिक परम्परा का मानता रहा। मेरे परिवार में बड़े भाई तक ऐसी ही स्वीकृति थी। मेरी भी स्वीकृति इसी पक्ष में थी। ऐसी स्वीकृति मुझ में ३० वर्ष की आयु तक रहा। ३० वर्ष आयु के बाद मैं शोध में लग गया।

प्रश्न: बाबा, आप जो इसमें कहते हैं आपके गाँव में वेद-ध्वनि ही थी। क्या कभी इस पर कोई वाद-विवाद भी होता था? या केवल ध्वनि ही थी?

सब होता था। संवादों का तो भरमार था। हर दिन शाम के समय एक संवाद होता ही रहा। ३० घर का गाँव - कभी इस घर में, तो कभी उस घर में संवाद होता ही रहा। उसके साथ संगीत... उसके साथ नृत्य... कोई चीज़ छुटा नहीं था वहाँ... आज तक सबसे ज्यादा जिसका मान्यता होता है - कोई चीज वहाँ छूटा नहीं था वहाँ। उन सभी चीजों के मूल में वही वेदान्त ही था। वेदान्त की अन्तिम भाषा है - "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या"! जगत कहाँ से आया - पूछने पर कहा - ब्रह्म से आया! सत्य से मिथ्या आ गया! ख़त्म हो गयी बात। यही मेरे प्राण संकट का कारण हुआ - सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है? इसको कैसे पचाया जाए? आज के तर्क-संगत विधि से सोचने वाले मष्तिष्क में इसको कैसे बोध कराया जाए?

१९५० में जब भारत का संविधान तैयार हुआ - तब उसमें मुझे "राष्ट्रीयता" और "राष्ट्रीय चरित्र" का कोई स्वरुप निकलता नहीं दिखा। तब मैंने एक हज़ार वेद-मूर्तियों को एकत्रित किया। वेद-मूर्तियों को एकत्रित करना मैन्डकों को एकत्रित करने के बराबर ही है। मैंने उनसे विनती किया - एक लाइन तो लिख कर दे दो राष्ट्रीयता को ले कर (वैदिक ज्ञान के आधार पर)। वे लोग एक लाइन लिख कर नहीं दे पाये। फ़िर काहे के लिए ४०-४० वर्ष वेद को पढ़ते रहते हैं? किस प्रयोजन के लिए? केवल सम्मान पाने के लिए!? सम्मान तो हर लफाडु प्राप्त कर लेता है!

प्रश्न: इसका मतलब पूरी वैदिक परम्परा में कभी तर्क जुटा ही नहीं?

वही है! यही पूरी बात nutshell में है। इतनी ही बात है। पाप इतना ही हुआ। उपदेश विधि से ही सारा बात-चीत, उपदेश विधि से ही सारा संवाद, उपदेश विधि से ही सारा स्वीकृति! यह हम सुनते ही रहे। अब कुल मिला कर आपने जो trace किया - वही है! तर्क का प्रयोग नहीं हुआ। तर्क का प्रयोग न होने से शोध समाप्त हो गयी। रूढी रह गयी। अब उसमें (वैदिक परम्परा को लेकर ) रोने के अलावा क्या चीज है? हम लोग पूरा जिए हैं इसे! इसका कोई दूसरा रास्ता नहीं है - रोने के अलावा। अब उस जगह से मैंने शुरू किया। इतने हजारों वर्षों की पुराण बताते हैं - और रोने की जगह में पहुँचते हैं हम। कैसे किया जाए? क्या किया जाए? कैसे हल निकाला जाए? इस अरण्य में मैं खो गया।

उस समय में मैं हर दिन ८ घंटे काम करके एक हज़ार बजने वाला रुपया प्राप्त करता था। आज के दिन में उसका कीमत एक लाख रुपया तो होगा। (अपने गुरु की आज्ञा लेकर मैंने समाधि के लिए फ़िर जाने का निश्चय किया। मेरी पत्नी ने मेरे साथ चलने के लिए अपना मत दिया। मैंने अपनी श्रीमती से पूछा - यह बजने वाला पैसा जंगल में मिलेगा नहीं। मैं जंगल में कोई कंद-मूल लेने गया, और मुझे कोई बाघ खा गया - तो तुम क्या करोगी जंगल में मेरे साथ जा कर? वे बोली - तुम्हारा गणित ठीक नहीं है! तुमको पहले बाघ खायेगा, या मुझको खायेगा - कैसे बताओगे? कौनसे नक्षत्र से बताओगे? कौनसे विधि से बताओगे? उसके बाद मैंने कहा - अब जो होगा, सो होगा! माता जी की वह बात ने मुझको वहाँ से यहाँ तक पहुंचाया। माता जी यदि नहीं होते - मेरा साधना पूरा होता - मैं विश्वास नहीं करता। जबकि शास्त्रों में लिखा है - गृहस्थ व्यक्ति साधना नहीं कर सकता। उनको समाधि नहीं होगा - यह लिखा है। संन्यास के बाद ही साधना-समाधि की बात लिखा है। श्रवण-मनन-निधिध्यासन की बात लिखा है, साधन-चतुष्टय सम्पन्नता के बाद। इसको मैं पढ़ा हूँ। कितना प्राण-संकट के साथ मैं निकला, कितना भयंकर कीता-पत्थर काँटा के बीच मैं गुजरा - और उसमें से कैसे निकल गए, इस बीच में यंत्रणा मुझको हुआ नहीं। सबसे भारी ख्याति कहो, उपलब्धि कहो - इस बीच में एक भी क्षण हम यंत्रणा से ग्रसित नहीं हुए। अभाव-ग्रस्त नहीं हुए। अभाव का पीड़ा हमको नहीं हुआ, यंत्रणा का अनुभव नहीं हुआ। जबकि कल के लिए चाय की व्यवस्था न रखते हुए जिए हैं। इससे ज्यादा असंग्रह को क्या बताया जाए?

यहाँ आने से पहले - मुझे विज्ञान विधि से तर्क ठीक है, यह स्वीकृत रहा। और वेद-वेदान्त का "मोक्ष" शब्द मुझको स्वीकृत रहा। मोक्ष तो होना चाहिए - पर मोक्ष सब कुछ को छोड़ कर होना चाहिए - यह मेरा स्वीकृति नहीं हुई। विरक्ति छोड बिना हो नहीं सकती। विरक्ति-विधि बिना साधना हो नहीं सकती। यह तो शास्त्रों में भी लिखा हुआ है। इसी आधार पर मैंने अपने आप को साधना के लिए setup किया। हर अवस्था में चल के देखा। चलकर यही हुआ - यंत्रणा हमको पहुँचा नहीं। दो-चार हाथ दूर से ही चला गया। समस्या हमको छुआ नहीं। संसार का तर्क हमको परास्त नहीं कर पाया। यह सब उपकार नियति-विधि से ही होती रही। इसके अलावा मैं कहाँ thanks pay करूँ - बताओ?

इस ढंग से चल कर के जो अंत में निकला - उसको मैंने मानव का पुण्य माना। अपनी साधना का फल मैंने नहीं माना। इसीलिये निर्णय किया - मानव को इसे पकडाया जाए। पकडाने में ही सारा चक्कर है - पापड बेल रहे हैं! आप सभी जो मेरे साथ इस टेबल पर बैठे हो - आप सभी के साथ ऐसा ही है। "हमारा विचार" कह कर अपनी बात रखते हो - तो मैं क्या तुमको बताऊँ? "आपका विचार" क्या हुआ? मानव का विचार यह है! देव-मानव का विचार यह है! दिव्य-मानव का विचार यह है! पशु-मानव का विचार यह है! राक्षस-मानव का विचार यह है! इन पाँच विचार शैलियों को पढ़ लो! यदि इच्छा हो तो! नहीं इच्छा हो तो बिल्कुल कृपा करो! यह जो विचारों को demarcate करने का अधिकार (मुझमें) आया - उसको अद्भुत मानो! यह चेतना विधि से किया - जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना के अनुसार विचार हैं। अब उसमें आप कहते हो - तुम्हारा भाषा कठिन है! कैसे मैं इसका व्याख्या करू, बड़ा मुश्किल है! केवल आपका सम्मान करने के अलावा हम कुछ कर नहीं पाते हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अमरकंटक, अगस्त २००६)

मनुष्य परस्परता में प्रतिबिम्बन का कार्य-रूप

अभी आप और मैं आमने-सामने बैठे हैं। आपका प्रतिबिम्ब मुझ पर है और मेरा प्रतिबिम्ब आप पर है। अभी आप और मैं परस्पर पहचान करने में सार्थक हैं। आप मुझको मेरे आकार-आयतन से पहचान रहे हैं - और अध्ययन प्रक्रिया द्वारा मेरा मन, विचार, कार्य, और प्रयोजन आप तक पहुँच रहा है। वैसे ही मुझको भी आपके बारे में हो रहा है। पहचान प्रक्रिया में इस तरह हम सोच-विचार तक पहुँच गए। सोच-विचार के आधार पर तो हम जीते ही हैं। हम दोनों क्या सोच-विचार कर रहे हैं - यह एक दूसरे को समझ आ रहा है। यह आपके और मेरे बीच पहचान का सेतु हुआ।

प्रश्न: जब मैं Bangalore चला जाता हूँ, तो इस प्रतिबिम्बन प्रक्रिया का क्या होता है?

जब आप bangalore चले जाते हैं, तो यह सब मेरी स्मृति में रहता ही है। आपका प्रतिबिम्बन मेरी स्मृति में रहता है, और मेरा प्रतिबिम्बन आपकी स्मृति में रहता है। उस स्मृति को हम समय-समय पर उपयोग करते हैं। अभी जैसे कई लोगों के साथ अपनी पहचान की स्मृतियों को आपको मैंने बताया। एक डाकू से लेकर, एक शंकराचार्य तक की स्मृतियों को मैंने आपको बताया है। बंगलोर जाने के बाद जब आपके साथ मेरी फ़ोन पर बात होती है, तो पीछे वाली सारी स्मृतियाँ आ जाती हैं। उसके continuation में मैं आपकी बात सुनता हूँ। जो मैं सुनता हूँ, वह पुनः स्मृति में जाता है। आप बताईये इसमें missed-pulse कहाँ है? सम्बन्ध में काटने की जगह ही नहीं है। इसको काटने वाली कोई वस्तु ही नहीं है अस्तित्व में। यही सम्बन्ध का मतलब है। सम्बन्ध में दूरी कोई बाधा नहीं है। पास में आने से बहुत कुछ सफल हो गए, ऐसा भी नहीं है। पास में भी सम्बन्ध का निर्वाह है, दूर में भी सम्बन्ध का निर्वाह है। "दूर" का कोई मतलब ही नहीं है।

जड़ वस्तु पर प्रतिबिम्बन ससम्मुखता के साथ ही रहता है। अपारदर्शक वस्तु बीच में होने पर प्रतिबिम्बन अपारदर्शक वस्तु पर हो जाता है।

प्रश्न: telepathy क्या कोई वास्तविकता है?

वास्तविकता के अलावा और क्या है? अभी आप और हम शब्द भाषा के द्वारा telepathy ही तो कर रहे हैं। body language के द्वारा भी telepathy है। हमारे सोच-विचार के साथ भी telepathy है। सोच-विचार फैलता ही है। फैलने के आधार पर एक दूसरे को छूता ही है। छू लिया तो telepathy! अभी जो मैं साधना किया, फलस्वरूप अस्तित्व में अध्ययन किया - अस्तित्व अपने में एक telepathy ही हुआ मेरे लिए। अस्तित्व को कितना दूर और कितना पास माना जाए - आप ही बताओ? अभी मैं जो अध्ययन किया हूँ - उसको कितना दूर माना जाए - कितना पास माना जाए, आप ही बताओ? इसमें दूर-पास का भाषा ही नहीं बनता। इसमें इतना ही कहना बनता है - अस्तित्व को मैं देखा हूँ। अस्तित्व को मैं समझा हूँ। समझ में आ गया तो दूरी क्या है, और पास क्या है? नहीं समझ में आया - तो दूरी क्या है, पास क्या है? जैसे यदि मैं आपको समझा नहीं हूँ - तो इसमें पास क्या हुआ, दूर क्या हुआ? हम आप को समझ गए - तब दूर क्या और पास क्या? समझ दूरी-पास से मुक्त है। एक और दूसरी ईकाई के बीच में दूर-पास है। ईकाई को ज्ञान विधि से पहचान लिया तो उसके बाद उसके साथ दूरी-पास ख़त्म हो गया। यह telepathy नहीं तो और क्या है? फार्मूला है यह! ज्ञान विधि से सम्बन्ध रखें तो telepathy पूरा सच्चाई है। इस तरह जब मानव जब जागृत परम्परा स्थापित कर लेता है, तब बहुत सारे यंत्रों की भी जरूरत नहीं पड़ती। हमारी इच्छा आप को छू लेता है, आप में वैसा ही इच्छा साकार हो जाता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

परस्पर पहचान होना प्रकाशन का मतलब है.

हर वस्तु के सभी ओर उसका प्रतिबिम्ब रहता है। क्योंकि हर वस्तु सीमित होता है। सीमित होने के आधार पर ही "एक" के रूप में गण्य होता है। इस ढंग से हरेक का प्रतिबिम्ब उसके सभी ओर होता है। इसका प्रमाण एक दूसरे को पहचानना ही है। उसके बाद गणित करना भी प्रमाण है। जैसे - हमारे सामने यह धान का ढेर है। धान का ढेर हमारे ऊपर प्रतिबिंबित रहता ही है। एक एक धान को मैं गिन भी सकता हूँ। उसके बाद किसी नाप से इसको नाप कर गणना भी कर सकता हूँ। किसी तराजू में तोल कर भी गणना कर सकता हूँ। यदि यह प्रतिबिंबित नहीं होता तो मैं गणना कैसे करता? परस्पर पहचान होना ही गणना करने का आधार है। परस्पर पहचान होना ही सम्बन्ध को पहचानने का आधार है। उसके साथ फ़िर कार्य-व्यवहार करने का आधार भी प्रतिबिम्बन ही है। प्रतिबिम्बन न हो तो हम अपने कार्य-व्यवहार का निश्चयन कर ही नहीं सकते। जैसे - अभी यह धूलि ऊपर से गिरा, उसको मैं हाथ से ऐसे हटा दिया। यदि धूलि को मैं नहीं पहचानता होता तो मैं ऐसा नहीं कर सकता था। यह प्राकृतिक नियम है।

इस तरह - परस्पर पहचान होना प्रकाशन का मतलब है।

हर वस्तु प्रतिबिम्बन के रूप में प्रकाशमान है। हरेक एक सभी ओर से दीखता है, उनका होना समझ में आता है। "होना" समझ में आना ही बिम्ब के साथ सम्बन्ध का पहचान और उसके साथ कार्य-व्यवहार का निश्चयन है। इस तरह एक दूसरे को पहचानने की व्यवस्था प्राकृतिक रूप में बना ही है।

प्रतिबिम्बन पूर्वक हम क्या चाहते हैं? हम चाहते हैं - वस्तु क्यों है, और कैसा है? यह स्पष्ट होना। जैसे यह किताब है - तो या तो इसमें कुछ लिखा होगा, या यह कुछ लिखने योग्य होगा। लिखने योग्य हो, या लिखा हो - उसको हम "किताब" कहते हैं। लिखने योग्य हो - तो हम लिखना शुरू कर देते हैं। लिखा हो - तो हम पढ़ना शुरू कर देते हैं। इस तरह इस किताब का मेरे लिए उपयोग सिद्ध हो गया। इसी प्रकार हम हरेक वस्तु को लेकर अध्ययन कर सकते हैं।

आगे सोचने पर - यह प्रतिबिम्बन कहाँ रुकता है? इसका उत्तर है - अपारदर्शक वस्तु पर रुकता है। जैसे यह दीवार है - मेरा प्रतिबिम्बन उस दीवार तक ही है। दीवार के पार मेरा प्रतिबिम्बन नहीं है। इसका मतलब है - किसी सीमित जगह पर एक इकाई सभी ओर दिखाई देती है। जैसे इस खोली में वह आग रखा है - इसको सभी ओर से देखो तो यह दिखाई देता है। दीवार के उस पार चले जाओगे तो यह दिखता नहीं है। इसके लिए कोई प्रयोगशाला बनाने की ज़रूरत नहीं है।

उसी प्रकार सूर्य का प्रकाश भी है। सूर्य का प्रतिबिम्ब धरती के एक ओर रहता ही है। वह कभी छूटता नहीं है। जबकि प्रचलित-विज्ञान कहता है - "सूर्य का प्रकाश गतिमान है, ८ मिनट में धरती तक पहुँचता है।" जबकि सूर्य का प्रकाश कोई भी क्षण, कोई भी पल, किसी भी विधि से धरती से छुटा नहीं है। विज्ञानी कितने अच्छे आदमी हैं - सोच लो! क्या यह कंपकंपी पैदा करने वाली चीज नहीं है? ये कहते हैं - "प्रकाश आ रहा है"। कहाँ से आ रहा है? कैसे आ रहा है? ऐसे कहने का जिम्मेदार कौन है? कैसे फंसाया आदमी जात को? क्या यह अपराधिक है या नहीं? जबकि इस सब को पढ़ कर आप सब अपने आप को विद्वान मानते हो। इसका क्या किया जाए? कैसे किया जाए? हर व्यक्ति इसका निराकरण नहीं कर पाता है। हर व्यक्ति के बल-बूते का यह रोग नहीं है। इसीलिये जी-जान लगाने वाले किसी आदमी की ज़रूरत पड़ता ही है। अभी विज्ञान के झूठ के पुलिंदे को पढ़ कर हम अपने को विद्वान मान लेते हैं। उस झूठ के आधार पर हम गलती के अलावा कुछ करेंगे नहीं।

व्यापार भी एक गलती का पुलिंदा है।  नौकरी भी एक गलती का पुलिंदा है।  कितना खतरनाक बात आपके सामने आ रहा है - आप देख लो!  एक तरफ़ ७०० करोड़ आदमी हैं व्यापार और नौकरी के लिए।  दूसरी तरफ़ एक आदमी यह प्रस्तुत करता है। एक आदमी! अभी आपके सामने मैंने जो विश्लेषण प्रस्तुत किया - वह सही है या ग़लत? आप और हम यह परामर्श कर रहे हैं - क्या यह विश्लेषण ग़लत है?

प्रतिबिम्बन का सही स्वरुप न समझने के कारण विज्ञान ने यह ग़लत निष्कर्ष निकाल लिया - "प्रकाश ही प्रतिबिम्बन का कारण है।" ऐसा निष्कर्ष निकाल लिए - "प्रकाश गतिशील है, इसलिए सबका प्रतिबिम्बन होता है।" जबकि हर वस्तु अपने में प्रकाशित रहता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद के आधार पर (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Saturday, July 26, 2008

प्रमाण और जिज्ञासा के संयोग में अध्ययन होता है.

अनुभव मूलक विधि से जिए बिना कोई अध्ययन करवा नहीं सकता। अध्ययन प्रमाण और जिज्ञासा के संयोग में होता है। प्रमाण जीने में ही होता है। प्रमाण का स्वरुप है - समाधान और समृद्धि पूर्वक जीना।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित

Friday, July 25, 2008

प्रचलित विज्ञान का ज्ञान पक्ष ग़लत है, तकनीकी पक्ष ठीक है.

प्रचलित विज्ञान का तरीका है:

(१) वैज्ञानिक अपनी कल्पना से नियम की अवधारणा प्रस्तुत करता है।
(२) यंत्र से उस अवधारणा का परीक्षण करता है।
(३) यदि यंत्र उस परीक्षण को सही ठहराता है - तो उस नियम को सही मानता है।
(४) इस तरह जो नियम को सही माना - उसको अन्तिम-सत्य नहीं मानता है।
(५) इस तरह और नियम बनाने तथा और यंत्र बनाने की जगह बनी रहती है।
(६) यंत्र सामरिक विधि (युद्ध आदि) से पहले तैयार होता है, फ़िर प्रोद्योगिकी और व्यापार विधि से लोकव्यापीकरण होता है।

इस तरह प्रचलित विज्ञान विधि से मनुष्य समाधान तक पहुँच नहीं सकता।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जून २००८, बंगलोर २००८)

Monday, July 21, 2008

पूरा समझना

समझना पूरा होता है, आधा अधूरा नहीं। अधूरे में समाधानित होते ही नहीं हैं। पूरा समझने के बाद ही प्रमाणित होने की बात आती है। प्रमाणित होना क्रम से होता है। प्रमाणित होने का क्रम है - समाधान, समृद्धि, अभय, और सह-अस्तित्व।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जून २००८, बंगलोर)

जीने का डिजाईन

अभी तक मनुष्य जैसे भी जिया - चाहे आर्थिक विधा में, चाहे धार्मिक विधा में, चाहे राजनीति विधा में - उससे जो जीने के मॉडल निकले - वे मध्यस्थ-दर्शन के प्रमाणित होने के लिए अनुकूल नहीं हैं। इसी लिए इसको "विकल्प" नाम दिया है। इसको जीने का मॉडल समाधान-समृद्धि है।

यह प्रस्ताव अपने में पूरा है। इसको समझने का अधिकार सबका समान है। समझदारी से समाधान होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित, (जून २००८, बंगलोर)

समाधान के बिना समृद्धि का कल्पना भी नहीं किया जा सकता

मध्यस्थ-दर्शन ने मानव-लक्ष्य को समाधान, समृद्धि, अभय, और सह-अस्तित्व के रूप में पहचाना है। हर मानव का यही लक्ष्य है। समाधान के लिए अध्ययन विधि प्रस्तावित की है।

समाधान, समृद्धि, अभय, और सहअस्तित्व क्रम से मानव द्वारा प्रमाणित होते हैं। सह-अस्तित्व पहले हो जाए, समाधान बाद में हो जाए यह हो नहीं सकता। समृद्धि पहले हो जाए - समाधान बाद में हो जाए यह हो नहीं सकता।

व्यक्ति के स्तर पर समाधान प्रमाणित होता है। समाधान प्रमाणित होने का मतलब है - हर क्यों और कैसे का उत्तर स्वयं में से निर्गमित होने लगना। अनुभव हो जाना = समझदारी = समाधान सम्पन्नता। समझदारी के लिए ध्यान देना होता है। अनुभव के बाद ध्यान बना ही रहता है।
परिवार के स्तर पर समृद्धि प्रमाणित होती है। आवश्यकताओं का ध्रुवीकरण परिवार में ही सम्भव है। निश्चित आवश्यकता के लिए कितना और कैसे उत्पादन करना है, यह निश्चित किया जा सकता है। अनिश्चित आवश्यकताओं के लिए उत्पादन कितना करना है, यह निश्चित नहीं हो पाता। समाधान के बिना समृद्धि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। श्रम से समृद्धि होती है।
सम्पूर्ण मानव-जाति के स्तर पर अभय प्रमाणित होता है। जब तक सम्पूर्ण धरती पर सभी मानवीयता पूर्वक नहीं जीते - तब तक अभय प्रमाणित नहीं हुआ। मध्यस्थ-दर्शन के लोकव्यापीकरण का सूत्र है - समाधान और समृद्धि। समाधान-समृद्धि प्रमाण के बिना इस प्रस्ताव का लोकव्यापीकरण नहीं हो सकता। लोकव्यापीकरण शिक्षा विधि से होगा।
चारों अवस्थाओं के साथ सहअस्तित्व प्रमाणित होता है। चारों अवस्थाओं की निरंतरता "रहने" के रूप में प्रमाणित होना ही सहअस्तित्व प्रमाण है। इसके पहले मनुष्य को समाधान, समृद्धि, और अभय को प्रमाणित करना होगा।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जून २००८, बंगलोर)

Friday, July 11, 2008

अध्ययन और साक्षात्कार

अध्ययन में साक्षात्कार के लिए आशा, विचार, इच्छा, और प्रयत्न रहता है। साक्षात्कार हुआ या नहीं, हाथ लगा या नहीं - उसका सत्यापन आप ही करोगे। पाने के लिए जो वस्तु है उसको मैं आपको बोल कर, लिख कर आप के सामने वांग्मय के रूप में प्रस्तुत किया हूँ। वह मेरे लिए भले ही अनुभव हो, पर आपके लिए वह सूचना ही है। वह आपके अनुभव में आने पर ही प्रमाण है।

आप इस प्रस्तुति से पहले तर्क-विधि से संतुष्ट होते हैं। तर्क तात्विकता को छूता है। तात्विकता को पाने के लिए अध्ययन है। अध्ययन विधि से संतुष्ट होने का मतलब है - सहअस्तित्व साक्षात्कार, बोध, और अनुभव होना। फलतः प्रमाण होना। जीने के लिए तत्पर होने पर प्रमाणित होने की आवश्यकता आती है। बिना जिये समझ का प्रमाण नहीं है।

अध्ययन में ध्यान देने की ज़रूरत है। "हमको समझना है" - जब यह वरीयता में आता है, तब ध्यान लगता है। "हमको समझना नहीं है, केवल पढ़ना है" - जब ऐसा रहता है, तब ध्यान नहीं लगता। समझना हर व्यक्ति का अधिकार है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जून २००८, बंगलोर)

कारण गुण गणित

कारण-गुण-गणित तीनो मिला कर ही मानव-भाषा है।

विज्ञान ने गणितात्मक भाषा को अपनाया - गुण और कारण को छोड़ दिया। बिना कारण और गुण के जब गणित को पकड़ने गए, तो विखंडन विधि को अपना लिए, वस्तु-मूलक गणित को छोड़ दिए।

भक्ति-वाद गुणात्मक भाषा को अपनाया - कारण और गणित को छोड़ दिया।

अध्यात्मवाद कारणात्मक भाषा को अपनाया - गुण और गणित को छोड़ दिया।

इस तरह विज्ञान (भौतिकवाद), भक्ति-वाद, और अध्यात्मवाद तीनो एक पैर पर खड़े हैं। जबकि कारण-गुण-गणित तीनो से मानव को वस्तु-बोध होता है।

कारण विधि - ज्ञान
गुण विधि - सोच-विचार (समाधान)
गणित विधि - गणना

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जून २००८, बंगलोर)

Wednesday, July 9, 2008

अस्तित्व में मानव

अस्तित्व में तीन तरह की क्रियाएं हैं - (१) भौतिक क्रिया , (२) रासायनिक क्रिया, (३) जीवन क्रिया। इनके अलावा कोई चौथी प्रकार की क्रिया अस्तित्व में नहीं है। इन तीनो क्रियाओं के योग-संयोग से अस्तित्व में चार अवस्थाओं का प्रकटन हुआ। मानव ज्ञान-अवस्था में गण्य हुआ। क्योंकि इसी अवस्था में जीवन के जागृत होने की व्यवस्था है। इसका कारण है - मानव शरीर रचना इस प्रकार से हुआ कि उससे जीवन अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को प्रकाशित कर सकता है।

मानव की मध्यस्थता तभी प्रमाणित हो सकती है - जब वह अपने कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के तृप्ति-बिन्दु को पहचान ले। कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिन्दु ज्ञान में है। कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति-बिन्दु स्वयं-स्फूर्त विधि से स्वराज्य-व्यवस्था में भागीदारी करना है। स्वराज्य-व्यवस्था में भागीदारी करना कोई आरोपण नहीं है - "स्वयं स्फूर्त" है। ऐसा नहीं है - हम आपको दस रूपया दे दिया, तो आप व्यवस्था में भागीदारी करेंगे। यह स्वयं-स्फूर्त होना होगा। उसके लिए समझदारी स्वयं में ध्रुव होना अनिवार्य है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जून २००८, बंगलोर)

Tuesday, July 8, 2008

धर्म और स्वभाव

अस्तित्व-धर्म चारों अवस्थाओं में साम्य रूप से है। पदार्थावस्था अस्तित्व-धर्मी है। प्राणावस्था अस्तित्व सहित पुष्टि-धर्मी है।  जीवावस्था अस्तित्व पुष्टि सहित आशा-धर्मी है। ज्ञानावस्था अस्तित्व, पुष्टि, आशा सहित सुख-धर्मी है। धर्म "स्व" है - किसी भी ईकाई को उसके धर्म (स्व) से अलग नहीं किया जा सकता। स्वभाव "त्व" है - या मौलिकता है। किसी भी ईकाई का स्वभाव उसके "स्व" का सह-अस्तित्व में प्रकाशन है। जैसे - प्राणावस्था 'अस्तित्व सहित पुष्टि' धर्म का सहअस्तित्व में अपनी पूरकता और उपयोगिता का जिस प्रकार प्रकाशन करती है, वही प्राणावस्था का स्वभाव है।

स्वभाव अवस्थाओं में बदलता गया है। नियति क्रम में मानव का प्रकटन हुआ। मानव जीवों के जैसे जीने गया - तो मानव का स्वभाव प्रमाणित नहीं हुआ। इतना ही slip हुआ है।

बाकी अवस्थाएं नियति-क्रम में अपने प्रकटन होने मात्र से अपने आप अपने स्वभाव को प्रमाणित करती गयी। मनुष्य के साथ ऐसा नहीं हुआ - क्योंकि मनुष्य अस्तित्व को सही-सही समझने पर ही अपने स्वभाव को प्रमाणित कर सकता है। मनुष्य के धरती पर प्रकट होने से ही उसका 'स्व' तो सुख ही रहा - जिसकी वजह से वह अनेक तरीकों से सुख को खोजने की निरंतर कोशिश करता रहा। ये कोशिशें दो श्रेणियों में रही - पहली, भक्ति-विरक्ति (आदर्शवाद), दूसरी - सुविधा-संग्रह (भौतिकवाद)। लेकिन ये दोनों कोशिशें सफल नहीं हो पायीं - क्योंकि इन दोनों विधियों से अस्तित्व का अध्ययन नहीं हो पाया। इसी लिए मध्यस्थ-दर्शन का अनुसंधान भावी हो गया - जिससे अस्तित्व का सही-सही अध्ययन मानव को सुलभ हो गया। इसका अध्ययन करके मानव अपने स्वभाव को प्रमाणित कर सकता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जून २००८, बंगलोर)

मध्यस्थ-क्रिया का स्वरुप

मध्यस्थ-क्रिया वह है - जो सम और विषम से अप्रभावित रहता है, और सम और विषम क्रियाओं को संतुलित बना कर रखता है। इसके दो स्वरुप हैं।

(१) परमाणु में संतुलन

परमाणु में संतुलन बनाए रखने की जो बात है - वह उसके मध्यांश (nucleus) द्वारा है। यह परिवेशीय अंशों को निश्चित अच्छी दूरी में स्थित करने के रूप में होता है।

(२) चारों अवस्थाओं में परस्पर संतुलन

इसके केन्द्र में मानव ही है। चारों अवस्थाओं को संतुलित बना कर रखना - यही मानव के ज्ञान-अवस्था में प्रतिष्ठा का वैभव है। मानव जब तक भ्रमित है - तब तक चारों अवस्थाओं के संतुलित रह पाने का कोई स्वरुप ही नहीं निकल सकता। मानव जाति भ्रम-वश मध्यस्थता के इस स्वरुप को प्रमाणित नहीं कर पाया, उल्टे अपराध में ग्रसित हो गया। भ्रम-वश मानव ने मानव का शोषण किया, और बाकी तीनो अवस्थाओं का शोषण किया - जिससे ही यह धरती बीमार हुई है। मध्यस्थता के इस स्वरुप को प्रमाणित करना मानव की ही जिम्मेदारी है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के द्वारा संवाद पर आधारित (जून २००८, बंगलोर)

अध्ययन काल

प्रश्न: अध्ययन काल में मुझ में उत्साह और उत्सव का क्या आधार हो?

उत्तर: अध्ययन-काल में जब मैं इस बात में पक्का हो जाऊं कि "मैं समझ सकता हूँ!" - तो वही मेरे उत्साह और उत्सव का ठोस आधार बन जाता है। जब मैं यह मान लेता हूँ कि "मैं नहीं समझ सकता!" - तो वह मेरे निरुत्साह और निराशा का स्वरुप बन जाता है। यह स्थिति जब तक अध्ययन पूरा नहीं हुआ - तब तक है।

अध्ययन पूरा होने के बाद स्वयं में अनुभव-प्रमाण ही उत्साह और उत्सव का नित्य आधार होता है।

प्रश्न: अध्ययन कराने के लिए स्त्रोत व्यक्ति को कैसे पहचाना जाए?

उत्तर: अध्ययन का स्त्रोत अस्तित्व है - जो सबके लिए समान है। उसके बाद "स्त्रोत व्यक्ति" की बात है। समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व को जो प्रमाणित किया है, वही अध्ययन कराने के लिए स्त्रोत व्यक्ति है। इसके पहले स्त्रोत व्यक्ति होता नहीं - चाहे कुछ भी कर लो! सह-अस्तित्व के ढाँचे में ही कुछ ऐसा है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जून २००८, बंगलोर)

Monday, July 7, 2008

पैसे के आवंटन से किसी को संतुष्टि नहीं है.

पैसे के चक्कर से किसी एक व्यक्ति को भी संतुष्टि नहीं मिली। पैसे का संग्रह करने जाते हैं - तो और संग्रह करने की जगह बना ही रहता है। पैसे को बांटने (दान आदि) करने जाते हैं - तो और बांटने की जगह रखा ही रहता है। पैसे को गाड़ने जाते हैं - तो और गाड़ने की जगह बना ही रहता है। इससे संतुष्टि की जगह तो कभी किसी को मिलती नहीं है। इसके तृप्ति-बिन्दु की कोई जगह ही नहीं है। इसके तृप्ति-बिन्दु की कोई दिशा भी नहीं है। स्वयं हम पैसे से संतुष्ट हो नहीं सकते। पैसे को बांटने से भी संतुष्ट नहीं हो सकते। ज्यादा पैसे इकट्ठा कर लिए - उससे कोई समझदार हो गया हो, यह प्रमाणित नहीं हुआ। कुछ भी पैसे नहीं रख कर, घर-बार बेच कर कोई समझदार हो गया हो, यह भी प्रमाणित नहीं हुआ। ज्यादा-कम लगा ही रहता है। न ज्यादा में तृप्ति है, न कम में तृप्ति है, न ही बीच की किसी स्थिति में। पैसे के चक्कर में लक्ष्य सुविधा-संग्रह ही बनता है। सुविधा-संग्रह का कोई तृप्ति-बिन्दु नहीं है। कितना भी कर लो - और चाहिए, यह बना ही रहता है। पैसे के चक्कर में मनुष्य की संतुष्टि का कोई निश्चित स्वरुप निकल ही नहीं सकता - इस बात पर हम एक निश्चय पर पहुँच सकते हैं।

मध्यस्थ-दर्शन से मनुष्य के संतुष्टि का स्वरुप निकला - समाधान-समृद्धि। समाधान-समृद्धि एक निश्चित लक्ष्य है। समाधान-समृद्धि सर्व-मानव के लिए तृप्ति-बिन्दु है। समाधान-समृद्धि सब को मिल सकता है। समाधान से पहले समृद्धि होता नहीं। समाधान के लिए अध्ययन है। समाधान का मतलब है - आध्यात्मिक, वैचारिक, व्यवहारिक, और भौतिक सभी मुद्दों पर पूरी तरह सुलझा होना। समाधान आधा-अधूरा नहीं होता। समाधान-संपन्न परिवार अपनी आवश्यकताओं का निश्चयन कर सकता है। आवश्यकताओं का निर्धारण समाधान-संपन्न परिवार में ही सम्भव है। निश्चित आवश्यकताओं के लिए उत्पादन-कार्य को निश्चित किया जा सकता है। आवश्यकता से अधिक उत्पादन करके समृद्धि का अनुभव किया जा सकता है।

दो समाधान-समृद्धि संपन्न परिवारों में किसी भी मुद्दे पर खींच-तान हो ही नहीं सकती। पैसे के चक्कर में खींच-तान के अलावा कुछ हो नहीं सकता।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जून २००८, बंगलोर)

स्वयं को कैसे जांचें?

प्रश्न: अध्ययन में स्वयं को जांचने की बात रहती है। स्वयं को हम कैसे जांचें?


उत्तर: यह तीन बिन्दुओं में होता है।

(१) क्या यह प्रस्ताव मुझसे जुड़ा है या नहीं? क्या इसको मैं समझा हूँ या नहीं?

(२) क्या इस प्रस्ताव को प्रमाणित करने के लिए मैं सहमत हूँ या नहीं?

(३) क्या इस प्रस्ताव को मैं प्रमाणित कर पा रहा हूँ या नहीं? प्रस्ताव के अनुसार आचरण कर रहा हूँ कि नहीं?

जैसे - सह-अस्तित्व का प्रस्ताव। क्या मुझे सह-अस्तित्व समझ में आया? मैं सह-अस्तित्व से कैसे जुड़ा हूँ? - यह अपने को जांचने का पहला मुद्दा है। दूसरा - क्या मैं सह-अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए सहमत हूँ? तीसरा - मैं सह-अस्तित्व के प्रस्ताव को कहाँ तक प्रमाणित कर पा रहा हूँ?

दूसरा उदाहरण : - संतान के साथ सम्बन्ध। क्या मुझे संतान के साथ सम्बन्ध समझ में आया? मैं अपनी संतान के साथ कैसे सम्बंधित हूँ? दूसरा - क्या मैं अपनी संतान के साथ सम्बन्ध को प्रमाणित करने के लिए सहमत हूँ? तीसरा - क्या मैं अपनी संतान के साथ सम्बन्ध को प्रमाणित कर पा रहा हूँ?

स्वयं को जांचने से ही अध्ययन सफल होता है। मध्यस्थ-दर्शन से स्वयं को जांचने का एक ठोस आधार मिल गया है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित। (बंगलोर, जून २००८)

Sunday, July 6, 2008

काल की पहचान

काल = क्रिया की अवधि।

गणितात्मक भाषा को जब प्रयोगशाला में लाये - तब क्रिया के आधार पर काल को पहचानना शुरू किया। तकलीफ तब शुरू हुई जब हमने विखंडन विधि से गणित करना शुरू किया। एक वस्तु को विखण्डित करते-करते इसके एक भाग के साथ कितना "काल" हुआ, यह जब गिनने लगे - तब काल का मूल concept पीछे छूट गया। इसके रहते जो कुछ भी निष्कर्ष निकालते चले गए - वे सब ग़लत होते चले गए।

जैसे - मानव को जब पहचानने जाते हैं, और यदि मानव को हम किसी काल-खंड में पहचानने का प्रयास करते हैं - और काल-खंड को छोटा, और छोटा करते चले जाते हैं, तो मानव स्वयं एक निरंतर क्रिया है - यह पकड़ में नहीं आता। मानव को पहचानने का आधार "क्रिया की अवधि" नहीं है। जिस क्रिया के आधार पर काल को पहचाना था - जैसे धरती का सूरज के चारों तरफ़ चक्कर लगाना - वह भी अपने में निरंतर है। क्रिया को भुलावा देना - अस्तित्व को भुलावा देना है। काल-खंड को शून्य करके किसी क्रिया की समग्रता को पहचानने का कोई तरीका ही नहीं बचता। वस्तु को छोड़ देते हैं, गणित को पकड़ लेते हैं। अस्तित्व को भुलावा देकर जो भी निष्कर्ष निकालते हैं - वे अपराधिक ही होते हैं। गणित लिखने में आता है - उससे कोई वस्तु मिलता नहीं है। सारी विज्ञान की दौड़ गणित के साथ जुडी है।

काल-खंड के आधार पर कोई दर्शन नहीं होता। काल नित्य वर्तमान है। वर्तमान को शून्य करके हमारी गति पहचानने की कोई जगह ही नहीं है। वर्तमान को शून्य करके जो भी निष्कर्ष निकालते हैं - सब निराधार होते हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक )

क्यों और कैसे का उत्तर

समाधान = क्यों और कैसे का उत्तर

अस्तित्व ही समझने की वस्तु है। हर वस्तु क्यों है, और कैसे है - यह समझ में आ जाना ही समाधान है। मनुष्य ही समझने वाली ईकाई है।

हर वस्तु प्रकाशमान है। इसका मतलब हर वस्तु अपने आप को व्यक्त करती है। यह व्यक्त करने का स्वरुप है - रूप, गुण, स्व-भाव, और धर्म। इन चारों dimensions को मिला कर वस्तु की पूरी व्याख्या सम्भव है।

रूप और गुण मनुष्य को इन्द्रियों से भी समझ में आते हैं। इन्ही के आधार पर मनुष्य ने बाकी तीनो अवस्थाओं की वस्तुओं का उपयोग किया। किंतु स्व-भाव और धर्म समझ में नहीं आने के कारण - मानव का इन अवस्थाओं के साथ पूरक होना, या उपकारी होना नहीं बन पाया। यहीं कमी रह गया। इसीसे imbalance हुआ। प्रकृति ने मानव को तभी project किया, जब बाकी तीनो अवस्थाओं के द्वारा परिस्थितियां मानव के अनुकूल बन गयी थी। मानव से धरती की जो आवश्यकता थी, उसका मानव ने निर्वाह नहीं किया। जिससे धरती स्वयं बीमार हो कर मानव को बता दी। अब मानव को धरती पर रहना है - तो उसको स्व-भाव और धर्म को समझना ही पड़ेगा।

किसी भी ईकाई का स्व-भाव उसके सह-अस्तित्व सहज प्रयोजन को स्पष्ट करता है। कोई भी ईकाई अस्तित्व में "क्यों" है? - इस प्रश्न का उत्तर उसके स्व-भाव को पहचानने से मिलता है। स्व-भाव ही वस्तु का मूल्य है - या मौलिकता है। जब मनुष्य किसी ईकाई के स्व-भाव को पहचान लेता है - तब उसके साथ कैसे निर्वाह करना है, यह उसको स्पष्ट हो जाता है।

किसी भी ईकाई का धर्म उसके "होने" को स्पष्ट करता है। कोई भी ईकाई अस्तित्व में "कैसे" है? - इस प्रश्न का उत्तर उसके धर्म को पहचानने से मिलता है। सह-अस्तित्व में प्रकटन विधि है। इसी प्रकटन क्रम में चारों अवस्थाएं क्रम से प्रकट हुई हैं। धर्म शाश्वतीयता के अर्थ में है। धर्म को प्रमाणित करने के अर्थ में स्व-भाव है।

अस्तित्व में सभी इकाइयों के "होने" की गवाही मानव ही देता है। मानव ही दृष्टा है। "होने" का ही दर्शन है। "होने" को समझने के बाद ही मानव जागृति को "रहने" के रूप में चारों अवस्थाओं के साथ प्रमाणित करता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जून २००८, बंगलोर)

साक्षात्कार

अस्तित्व में प्रकृति चार अवस्थाओं के रूप में अपनी वास्तविकताओं को प्रकट की है। इस प्रकटन में कुछ भाग मनुष्य को इन्द्रियगोचर है, तथा कुछ भाग ज्ञान-गोचर है। रूप तथा सम-विषम गुण इन्द्रियगोचर है - मतलब यह मनुष्य को अपनी इन्द्रियों से समझ आता है। मध्यस्थ-गुण, स्व-भाव और धर्म ज्ञान-गोचर है - मतलब यह मनुष्य को ज्ञान पूर्वक ही समझ में आता है।

ज्ञानगोचर पक्ष स्पष्ट होना ही साक्षात्कार है। दूसरे शब्दों में वस्तुओं का सह-अस्तित्व में प्रयोजन स्पष्ट होना ही साक्षात्कार है। अध्ययन पूर्वक साक्षात्कार होता है। साक्षात्कार हुआ - मतलब अध्ययन हुआ। साक्षात्कार नहीं हुआ - मतलब अध्ययन नहीं हुआ।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जून २००८, बंगलोर)

सुख की चाहत

शरीर को जीवन मानने पर जीवन की ४.५ क्रियाएं प्रकट हो ज़ाती हैं। मनुष्य में ४.५ क्रियाएं क्रियाशील हैं - इसके प्रमाण में सुख की चाहत प्रकट हो गयी। यह चाहत बाकी ५.५ क्रियाओं के चालित हुए बिना पूरा होता नहीं है।

प्रश्न: "मैं सुख चाहता हूँ।" - क्या इस तथ्य का मेरी बुद्धि में मुझे "बोध" पहले से ही रहता है?

उत्तर: नहीं। इसमें बोध की कोई बात नहीं है। यह "चाहत" है - जो मन में जीने की आशा का ही स्वरुप है। मन में यह आशा ही वृत्ति में विचार, और चित्त में इच्छा तक पहुँचता है। आशा, विचार, और इच्छा में सबसे ज्यादा potential इच्छा में है। इच्छा के आधार पर ही आगे अध्ययन की व्यवस्था रखी है।

प्रश्न: "सुख की चाहत" मनुष्य में कैसे आया?

उत्तर: मनुष्य ने चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, और मैथुन) और पाँच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) में सुख को खोजने का अजस्र प्रयास किया - जिसमें वह असफल रहा। यहाँ असफल होने पर ही "सुख की चाहत" बनी।

मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान द्वारा इस चाहत के पूरा होने का रास्ता मिल गया। यह रास्ता अनुभव-गामी विधि या अध्ययन विधि है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जून २००८, बंगलोर)

Saturday, July 5, 2008

भ्रमित-मानव की परिभाषा

भ्रमित मानव की परिभाषा है -

न्याय का याचक बने रहना, और गलती करने के अधिकार का प्रयोग करते रहना।


भ्रमित मनुष्य को गलती करने का अधिकार है। इसकी गवाही है - भ्रमित मनुष्य गलती करता है। यह जो धरती बीमार हुई है, इसके मूल में भ्रमित मनुष्य ही है। भ्रमित मनुष्य की गलतियों से ही यह धरती बीमार हुई है।

भ्रमित मनुष्य को न्याय करने का अधिकार नहीं रहता है। इसकी गवाही है - भ्रमित-मनुष्य अपने संबंधों में मूल्यों (जैसे विश्वास, सम्मान, स्नेह आदि ) को प्रमाणित नहीं कर पाता है। भ्रमित मनुष्य को भी मूल्यों की आवश्यकता है - इसी लिए भ्रमित-मनुष्य न्याय का याचक बना रहता है।

पूरी मानव परम्परा ही भ्रमित होने के कारण गलतियाँ बढ़ती गईं। अपराध बढ़ता गया। अब जब धरती ही बीमार हो गयी - तो उसकी दवाई खोजने के लिए भ्रमित-मनुष्य का ध्यान गया है। यह दवाई आदर्श-वाद और भौतिकवाद दोनों विचारधाराओं से नहीं निकल के आ सकती। इन दोनों विचार-धाराओं पर चले हुए लोगों ने मिल कर इस धरती को बीमार किया है। इन दोनों विचार-धाराओं का विकल्प चाहिए। वह विकल्प मध्यस्थ-दर्शन है। मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वादी विचारधारा को लेकर आया है। इस विचार में प्रसक्त होने पर, इसको अपना स्वत्व बनाने का निश्चयन होता है। ऐसा निश्चयन होने पर उसके लिए अध्ययन करने पर यह अपना स्वत्व बन जाता है। समझदारी स्वत्व बनने पर जागृति ही प्रमाणित होती है, न्याय ही प्रमाणित होता है, धर्म ही प्रमाणित होता है, सत्य ही प्रमाणित होता है।

श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Friday, July 4, 2008

तृप्ति की अपेक्षा और तृप्ति का प्रमाण

सर्व-मानव में तृप्ति की अपेक्षा है।

भक्ति-विरक्ति विधि से तृप्ति का प्रमाण नहीं मिला। सुविधा-संग्रह विधि से भी तृप्ति का प्रमाण नहीं मिला।

प्रश्न: तृप्ति के लिए क्या किया जाए?

उत्तर: स्वयं में विश्वास संपन्न हुआ जाए।

यह उत्तर मध्यस्थ-दर्शन के अनुसन्धान से निकला।

स्वयं में विश्वास शिक्षा (अध्ययन) विधि से आएगा, उपदेश विधि से आएगा नहीं। घटना विधि से आएगा नहीं। मेरे तृप्त हो जाने मात्र से सभी तृप्त हो जायेंगे - ऐसा होता नहीं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६)

कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति-बिन्दु

साधना, अभ्यास, समाधि, संयम विधि से मैंने मानव की कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के तृप्ति-बिन्दु को पहचाना है।

दो स्थितियां हम अपने सामने देख सकते हैं :
(१) धरती का बीमार होना।
(२) व्यापार का शोषण-ग्रस्त होना (लाभ-उन्मादिता)

मानव के पास जो स्वत्व के रूप में जो कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है - जब तक उसके तृप्ति-बिन्दु को हम नहीं पहचानेंगे, तब तक इन दोनों स्थितियों का दवाई नहीं बन सकता।

अभी हम factories में जो products तैयार करते हैं, उनको लाभ के आधार पर ही market में बेचते हैं। अभी तक भौतिकवादी विधि से यही माना गया - "केवल सक्षम व्यक्ति को ही जीने का अधिकार है।" अक्षम व्यक्ति को जीने का अधिकार नहीं है - ऐसा भौतिकवादी सोच से निकलता है। सक्षम और अक्षम को इस विधि से पहचानने गए तो यह निकला : ज्यादा पैसा = ज्यादा सक्षम। कम पैसा = अक्षम। इस ढंग से ज्यादा-कम वाला स्थिति बना ही रहेगा। इस तरह कितने लोगों को अक्षम कह कर मारा जाए, काटा जाए, अलग किया जाए, और कितने लोगों को धरती पर रहने दिया जाए? इस तरह की दुष्ट प्रवृत्ति बनती है। इसी प्रवृत्ति के आधार पर हर देश ने अपना border-security बनाया। इसके आधार पर ही धरती का शोषण हुआ - और धरती बीमार हो गयी। यह इसीलिये हुआ - क्योंकि कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति-बिन्दु मानव-जाती को हाथ नहीं लगा। यह बात मानव परम्परा में नहीं है, अध्ययन में आज तक नहीं है, शिक्षा में आज तक नहीं है, संविधान में आज तक नहीं है, न ही व्यवस्था में है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के तृप्ति-बिन्दु के प्रमाणित होने की गवाही इस धरती के किसी देश में आज तक नहीं है।

कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के तृप्ति-बिन्दु को हमें identify करना होगा। उससे पहले मानव-जाती अपराध-प्रवृत्ति से मुक्त नहीं हो सकता। मानव के साथ किया हुआ अपराध भी अंततोगत्वा धरती के साथ ही जुड़ता है - सूक्ष्म विधि से सोचें तो हमको यह पता चलता है।

मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान से निकला - सह-अस्तित्व में अनुभव ही मनुष्य की कल्पनाशीलता का तृप्ति बिन्दु है। जागृति को प्रमाणित करना ही कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति-बिन्दु है। सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक इस तृप्ति-बिन्दु तक पहुँचा जा सकता है। इसके अलावा इस तृप्ति-बिन्दु तक पहुँचने का और कोई रास्ता नहीं है। इस तरह कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के तृप्ति-बिन्दु को पहचानने का प्रमाण है - अपराध-मुक्ति।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६)

नाप-तौल, और आवश्यकता का निश्चयन

विज्ञान से नाप-तौल करने के तरीके मिले। micro और macro दोनों levels पर। इन नाप-तौलों से कोई संतुष्टि का बिन्दु मिला नहीं। और छोटा या और बड़ा नाप सकते हैं - यह हमेशा शेष रहता है। कितना भी छोटा नाप लें, और छोटा नाप सकते हैं - यह कल्पना जाती ही है। कितना भी बड़ा नाप लें, और बड़ा नाप सकते हैं - यह कल्पना जाती ही है। कितना नापोगे? कहाँ तक नापोगे? हम जितना नापते हैं - उससे और अधिक नापने की अपेक्षा या अर्हता हम में बना ही रहता है।

नापना और तौलना हम आवश्यकता के अनुसार ही कर पायेंगे। नापना-तौलना हम अपनी आशा या अपेक्षा के अनुसार कर नहीं पायेंगे। जीवन शक्तियां अक्षय हैं - इसलिए हमारी आशा और अपेक्षा अक्षय हैं। आशा या अपेक्षा के अर्थ में आवश्यकता को मिलाना असंभव है। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही हम उत्पादन-कार्य करते हैं। इस प्रकार - हम अपनी आशा और अपेक्षा के अर्थ में अपने उत्पादन-कार्य को निश्चित कर ही नहीं सकते।

कार्य का निश्चयन तभी हो सकता है - जब हम अपनी आवश्यकताओं का निश्चयन कर पाएं। निश्चित आवश्यकताओं के लिए क्या और कितना उत्पादन-कार्य करना है - यह आसानी से तय किया जा सकता है। अध्ययन पूर्वक समाधान को हम प्राप्त कर लेते हैं। समाधान निश्चित है और सर्वतोमुखी है। इसलिए समाधान पूर्वक हम अपनी आवश्यकताओं का निश्चयन कर सकते हैं। आवश्यकताओं का निश्चयन समाधान के पहले हो नहीं सकता - क्योंकि जीवन में आशा और अपेक्षा को संयत करने का आधार समाधान से ही आता है।

आवश्यकताओं का निश्चयन परिवार की सीमा में ही सम्भव है - अकेले में नहीं। परिवार ही उत्पादन-कार्य की मूल ईकाई है। परिवार में आवश्यकता के निश्चयन से श्रम-नियोजन पूर्वक आवश्यकता अधिक उत्पादन करके समृद्धि को प्रमाणित किया जाता है। समाधान-समृद्धि संपन्न परिवार ही व्यवस्था में भागीदारी करने के योग्य होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६)

जिज्ञासा, पात्रता, और अभिव्यक्ति

जितना तुम जिज्ञासा करते हो, उतने को ले जाने की धारक-वाहकता (पात्रता) तुम्हारे पास रहता है। जब तुमको उसका उत्तर मिल जाता है - तो वह तुम्हारे व्यवहार में प्रमाणित होने की श्रृंख्ला बन जाती है।

जिज्ञासा पात्रता का एक अनुमान है। पात्रता है - तभी जिज्ञासा करते हो।  जिज्ञासा के अनुरूप समझने के बाद ही आपकी पात्रता प्रमाणित होती है। यह बात हर व्यक्ति के साथ है। जितना हम जिज्ञासा करते हैं - उसके उत्तर को लेकर चलने का अधिकार हम में बना रहता है।

जिज्ञासा कोई आवेश नहीं है। मौलिक जिज्ञासा आवेश नहीं हो पाती। आवेश के लिए कोई संघर्ष-बिन्दु चाहिए। जिज्ञासा के उत्तर में अभिव्यक्ति होती है - अनुभव संपन्न व्यक्ति के द्वारा। अभिव्यक्ति स्वयं-स्फूर्त होती है - आवेश दूसरे के कारण से होता है। आपकी जिज्ञासा का उत्तर करते हुए मुझ पर कोई दबाव या आवेश नहीं है। आवेश विधि से सच्चाई का पता नहीं लग पाता। हम सच्चाई के बिन्दु से slip हो जाते हैं।

जिज्ञासा और अभिव्यक्ति में आवेश नहीं होता। इसीलिये इनमें संगीतमयता होने की अपेक्षा रहती है। यह मंगल-मैत्री का अनुपम सूत्र है। यह मंगल-मैत्री का सूत्र दूर दूर तक फ़ैल जाता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित। (अगस्त २००६)

होना और रहना

"होना" अस्तित्व में प्रकटन विधि से है। अस्तित्व प्रयोजनशील है - इसलिए इसमें उत्ततोत्तर विकास-क्रम और जागृति-क्रम का क्रमिक-प्रकटन भावी है। इसी क्रम में - पदार्थावस्था समृद्ध होने पर प्राण-अवस्था प्रकट हुई, प्राण-अवस्था समृद्ध होने के बाद जीव-अवस्था प्रकट हुई, जीव-अवस्था समृद्ध होने पर ज्ञान-अवस्था (मनुष्य जाती) प्रकट हुई। "होने" को चारों अवस्थाएं प्रमाणित करते ही रहते हैं। मानव में ही "होने" और "रहने" दोनों को प्रमाणित करने की बात रहती है। "होने" के अर्थ में अस्तित्व में सारा प्रकटन विकास-क्रम, विकास, और जागृति-क्रम के स्वरुप में हुआ है। "रहने" का विकास मानव को ही करना है।

"होना" सभी अवस्थाओं का कर्तव्य है! अस्तित्व में हर ईकाई नियति-क्रम में अपने प्रकटन के अनुसार अपने "होने" को प्रकटन करने के लिए बाध्य है।

"रहना" मानव के जागृत होने पर ही प्रमाणित होता है। "रहने" का दृष्टा मानव ही है।

"होने" के प्रकटन क्रम में मनुष्य जाती इस धरती पर प्रकट हुई। मनुष्य के प्रकटन हेतु पिछली सभी अवस्थाएं संतुलन में रही। मनुष्य स्वयं असंतुलित होने के कारण पिछली सभी अवस्थाओं के साथ हस्तक्षेप किया - जिससे वे सभी विकृत हुए। जागृत-मानव के साथ ही मनुष्येत्तर प्रकृति के संतुलित रहने की व्यवस्था है। मानव को छोड़ कर मनुष्येत्तर प्रकृति के संतुलन का कोई अर्थ भी नहीं है। मानव से कम में संतुलन की सम्पूर्णता होती ही नहीं है। पिछली अवस्थाओं के संतुलन का प्रयोजन मानव को ही project करना था। मानव अपने प्रयोजन और इनके प्रयोजन को अब तक नहीं पहचाना - इसलिए जितना कुकर्म करना था, सब कर दिया।

प्रयोजन का स्वरुप चारों अवस्थाओं के साथ ही स्पष्ट होता है। "होने" और "रहने" का स्वरुप मानव जागृति-पूर्वक चारों अवस्थाओं के साथ सह-अस्तित्व के स्वरुप में प्रमाणित करता है। जागृति अस्तित्व का प्रयोजन है। मानव ही जागृति के प्रमाण को प्रस्तुत करता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (बंगलोर, जून २००८)