विगत के किसी भी प्रस्ताव में मध्यस्थ दर्शन का मिलावट करने से किसी का फायदा होने वाला नहीं है. विगत का इतना समीक्षा हो सकता है - "शुभ चाहते रहे, शुभ प्रमाणित नहीं हुआ." प्रमाणित होने के लिए मध्यस्थ दर्शन का प्रस्ताव है. इतना ही बात है. प्रमाणित होने में जो तकलीफ है उसको ठीक किया जाए.
हमारे उपनिषदों में सर्व्शुभ को चाहते रहे, पर प्रमाणित नहीं हो पाए, स्पष्ट नहीं कर पाए. उसी को हम स्पष्ट कर रहे हैं, प्रमाणित कर रहे हैं. विज्ञान ने शुभ चाहा, शुभ को प्रमाणित नहीं कर पाया - हम उसको प्रमाणित कर रहे हैं. इसमें किसको क्या तकलीफ है?
वेद-उपनिषदों में जो कहा वह किस प्रयोजन के लिए है - उसको वे स्पष्ट नहीं कर पाए. उसकी जगह भक्ति-विरक्ति, स्वर्ग-नर्क, मोक्ष की तरफ ले गए. इसके लिए उन्होंने भय और प्रलोभन का विधि अपनाया.
मध्यस्थ दर्शन में हमने भय और प्रलोभन दोनों को त्याग दिया. भक्ति को यहाँ भी बताया गया है - भय मुक्ति के रूप में, भ्रम मुक्ति के रूप में. भय और प्रलोभन से मुक्ति = भक्ति. १२२ आचरणों में से भक्ति भी एक आचरण है. पहला आचरण वही लिखा है. जहां विगत में ईष्ट देवता के साथ तदाकार-तद्रूप होने की बात की गयी थी, यहाँ सच्चाई के साथ तदाकार-तद्रूप होने की बात कही गयी है. इस बात के लिए हरेक मनुष्य इच्छुक है. इसीलिए मानव-मानव में अनन्यता और व्यक्ति में भय-मुक्ति होती है.
विगत में शब्दों को जिन अर्थों में प्रयुक्त किया गया है, उस सबको भिन्न अर्थों में यहाँ परिभाषित किया गया है. विगत की परिभाषाओं में हम जाते नहीं हैं. उसमे हम पार भी नहीं पायेंगे. मनपसंद परिभाषाओं को हम त्याग दिए, वस्तु की परिभाषा में हम टिक गए. रहस्य मूलक चिंतन में मनमानी करने की जगह बन गयी, उसी में सारा अपराध जमा है. कहना कुछ, करना कुछ, जीना कोसों दूर! यहाँ जीने को प्रमाण माना है, बाकी को प्रमाण माना नहीं है. जीने का डिजाईन है - समाधान समृद्धि. लोहार की सुटाई इतना ही है!
विगत की बातों में अंतर्विरोध है. उसी बात को एक जगह "हाँ" कहा है, दूसरी जगह पर "ना" कहा है. उसी सोच पर बने संविधान में एक ही बात को एक जगह सकारा है, दूसरी जगह नकारा है. छोटी से छोटी बात में, बड़ी से बड़ी बात में अंतर्विरोध है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित
हमारे उपनिषदों में सर्व्शुभ को चाहते रहे, पर प्रमाणित नहीं हो पाए, स्पष्ट नहीं कर पाए. उसी को हम स्पष्ट कर रहे हैं, प्रमाणित कर रहे हैं. विज्ञान ने शुभ चाहा, शुभ को प्रमाणित नहीं कर पाया - हम उसको प्रमाणित कर रहे हैं. इसमें किसको क्या तकलीफ है?
वेद-उपनिषदों में जो कहा वह किस प्रयोजन के लिए है - उसको वे स्पष्ट नहीं कर पाए. उसकी जगह भक्ति-विरक्ति, स्वर्ग-नर्क, मोक्ष की तरफ ले गए. इसके लिए उन्होंने भय और प्रलोभन का विधि अपनाया.
मध्यस्थ दर्शन में हमने भय और प्रलोभन दोनों को त्याग दिया. भक्ति को यहाँ भी बताया गया है - भय मुक्ति के रूप में, भ्रम मुक्ति के रूप में. भय और प्रलोभन से मुक्ति = भक्ति. १२२ आचरणों में से भक्ति भी एक आचरण है. पहला आचरण वही लिखा है. जहां विगत में ईष्ट देवता के साथ तदाकार-तद्रूप होने की बात की गयी थी, यहाँ सच्चाई के साथ तदाकार-तद्रूप होने की बात कही गयी है. इस बात के लिए हरेक मनुष्य इच्छुक है. इसीलिए मानव-मानव में अनन्यता और व्यक्ति में भय-मुक्ति होती है.
विगत में शब्दों को जिन अर्थों में प्रयुक्त किया गया है, उस सबको भिन्न अर्थों में यहाँ परिभाषित किया गया है. विगत की परिभाषाओं में हम जाते नहीं हैं. उसमे हम पार भी नहीं पायेंगे. मनपसंद परिभाषाओं को हम त्याग दिए, वस्तु की परिभाषा में हम टिक गए. रहस्य मूलक चिंतन में मनमानी करने की जगह बन गयी, उसी में सारा अपराध जमा है. कहना कुछ, करना कुछ, जीना कोसों दूर! यहाँ जीने को प्रमाण माना है, बाकी को प्रमाण माना नहीं है. जीने का डिजाईन है - समाधान समृद्धि. लोहार की सुटाई इतना ही है!
विगत की बातों में अंतर्विरोध है. उसी बात को एक जगह "हाँ" कहा है, दूसरी जगह पर "ना" कहा है. उसी सोच पर बने संविधान में एक ही बात को एक जगह सकारा है, दूसरी जगह नकारा है. छोटी से छोटी बात में, बड़ी से बड़ी बात में अंतर्विरोध है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित
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