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Sunday, December 25, 2016

मानव समाज और शिक्षा का महत्त्व


- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन, २०१६, सरदारशहर

शिक्षा और व्यवस्था की अविभाज्यता


- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन, २०१६, सरदारशहर

मानवीय शिक्षा की प्रस्तावना

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन - २०१६, सरदारशहर

Saturday, December 24, 2016

अनुसंधान यात्रा - मानव की धरोहर



- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २०१६, सरदारशहर

Thursday, December 22, 2016

ध्यान

मैंने यह भी निष्कर्ष निकाला है - मैंने जो तपस्या किया या साधना किया, वह विगत में जो यती, सती, संत, तपस्वी किए हैं - उससे "बड़ा" कुछ नहीं है। मैंने कोई "अपूर्व" घोर तपस्या, घोर साधना की हो - ऐसा कुछ नहीं है। सामान्य ढंग से जो मुझ से बन पड़ा, करना बना - उतना ही मैं किया हूँ। जिसमें मुझे लेश मात्र भी कष्ट नहीं हुआ। दुःख नहीं हुआ। अभाव का पीड़ा नहीं हुआ। न कोई प्रताड़ना हुई। क्यों नहीं हुआ? शायद मैं अपने लक्ष्य से सम्मोहित हो गया था। अपने लक्ष्य के प्रति मेरी एकाग्रता में ये सब विलय हो गए या निष्प्रभावी हो गए - ऐसा मैं मानता हूँ।

मैंने जो अनुभवगामी विधि या अध्ययन विधि तैयार की - उसका मेरी साधना-प्रक्रिया से कोई लेन-देन नहीं है। अध्ययन-विधि उस सब को छूता भी नहीं है। संयम के बाद जो मुझे उपलब्धि हुई वह आपके हाथ लग रहा है।

प्रश्न: ध्यान की जो अनेक विधियां प्रचलित हैं, उनका प्रयोग क्या अध्ययन के लिए सहायक है?

उत्तर: वे कोई भी इसको छूती भी नहीं हैं। सारी जो प्रचलित ध्यान और अभ्यास की विधियां हैं - वे व्यक्ति की अहमता को बढ़ाने के लिए ही हैं। या सिद्धि प्राप्त करने के लिए हैं। या ऐसी परिस्थितयां पैदा करने के लिए हैं - जिससे दूसरों का सम्मान प्राप्त हो। उनसे न स्वयं का कोई प्रयोजन सिद्ध होता है, न संसार का कोई उपकार सिद्ध होता है।

समाधि, ध्यान प्रक्रियाओं के बारे में बात करने से अध्ययन में कोई सहयोग नहीं है। उसमें समय को बरबाद न किया जाए। अध्ययन, अध्ययन के बाद बोध, बोध के बाद अनुभव, अनुभव के बाद प्रमाण, प्रमाण के बाद व्यवस्था में जीने की बात सोचा जाए।

आपको दिखता नहीं है - क्योंकि आप ध्यान नहीं दिए। यही इसका उत्तर है। जैसे हम बैठे हैं, हमारे सामने से कई लोग निकल जाते हैं, और हम कई को देख नहीं पाते हैं। क्यों नहीं देख पाते - क्योंकि हमने उस ओर ध्यान नहीं दिया। इसके ऊपर और कोई तर्क नहीं किया जा सकता। न इस पर और कोई चर्चा से कोई उपलब्धि हो सकती है। आप ध्यान देंगे तो आप को दिखेगा। आप ध्यान नहीं देंगे तो आप को नहीं दिखेगा।

जब तक अस्तित्व के स्वरूप को देखने (समझने) की प्राथमिकता स्वयं में नहीं बनती, तब तक हमे उसका अनुभव नहीं होता। इसमें किसी पर आक्षेप नहीं है। न यह किसी की आलोचना है।

अध्ययन के लिए ध्यान देना होता है। अध्ययन पूर्वक अनुभव के बाद ध्यान बना ही रहता है।

 ध्यान देने का मतलब है - बुद्धि के अनुरूप में मन हो जाना, विचार हो जाना, इच्छा हो जाना।

मन जब तक तर्क करने में लगा रहेगा तब तक बुद्धि के अनुरूप होने के लिए नहीं जाएगा।

मन को बुद्धि के अनुरूप होने के लिए जो प्रयास है, अभ्यास है, वही पुरुषार्थ है, वही साधना है, वही अध्ययन है. 

आशा, विचार, इच्छा संयत होने के लिए प्रबल जिज्ञासा, प्राथमिकता पूर्वक अध्ययन ही एक मात्र विधि है.

आत्म-सात करना एक अभ्यास है। यही अध्ययन में ध्यान देने का मतलब है। आत्म-सात होने का मतलब है, जीवन में यह "साध्य" हो जाना। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान - यह जीवन में, से प्रमाणित होना है। यही आत्म-सात होने का मतलब है। धीरे-धीरे आप इसको अभ्यास करेंगे, क्या इस पर मैं विश्वास करूँ?

मैंने आपके सामने अपना अनुभव प्रस्तुत किया। अब आपको अनुभव के लिए अध्ययन करना है, या नहीं करना है - उसमें आपकी स्वतंत्रता है।


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श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Tuesday, December 20, 2016

एक दृष्टान्त



भारतीय परंपरा से हमको संस्कृत जैसी प्रचण्ड भाषा धरोहर स्वरूप में मिल गयी.  इसका एक भाषा-विज्ञान है.  यदि यह भाषा न मिली होती तो इस समझ को सम्प्रेषित करने के लिए नयी भाषा का सृजन करना पड़ता। 

संस्कृत भाषा-विज्ञान के अनुसार व्यत्पत्ति के अनुसार शब्दों की परिभाषा की जाती है.  व्यत्पत्ति का एक उदाहरण : - "धर्म" एक शब्द है जिसकी व्यत्पत्ति धृ धातु से है.  धृ = धारणा।  इस तरह धर्म की परिभाषा हुई - धारण करने वाली क्रिया या धारण होने वाली वस्तु।  धारणा की व्याख्या जो शंकराचार्य जी किये हैं - "जो पहना जा सके, ओढ़ा जा सके, उतारा भी जा सके"   (इसी के समर्थन में भगवदगीता में लिखा है - "सभी धर्मों को छोड़ कर केवल मेरी शरण में आ जाओ!" )  अभी जो धर्मांतरण हो रहा है, इसी व्याख्या के आधार पर हो रहा है.  धर्म को लेकर जो यह बताया गया है इसको आप परिवर्तित करने का प्रयास करके देखो - कठिन है या सुलभ!  अब मध्यस्थ दर्शन से जो धर्म का अर्थ स्पष्ट होता है - "जिससे जिसका विलगीकरण न हो सके, वह उसका धर्म है."  इसके सामने पूर्व में "धर्म" और "धर्म परिवर्तन" को लेकर जो परंपरा में कहा गया है - उसका कुछ मतलब नहीं रह गया.  जबकि भारत को "धर्म परायण" कहा जाता है!!

श्रृंगेरी के जगद्गुरु श्री अभिनव विद्यातीर्थ ८० के दशक में यहाँ अमरकण्टक आये थे.  मैंने जिनको अपना आस्था का केंद्र स्वीकारा था - जगद्गुरु श्री चंद्रशेखर भारती - उन्हीं के वे शिष्य थे.  मैंने उनको अपना परिचय दिया तो वे मुझे पहचान लिए.  मेरे परिवार के लोगों ने ही उनके परमगुरु - श्री सच्चिदानंद शिवाभिनव नरसिम्हा भारती - को वेदान्त पढ़ाया था.  उन्होंने पूछा मैं यहाँ कैसे आ गया, तो मैंने उनको बताया कैसे मैं अपने गुरु के आज्ञा ले कर यहाँ साधना के लिए (१९५० में) आया और कैसे यहाँ आकर समाधि-संयम किया और इस दर्शन को पाया।  उन्होंने पूछा - "जो पाए उसको लिपिबद्ध भी किये हो या केवल उसको बोलते हो?"  मैंने उनको मानव व्यवहार दर्शन की एक प्रति दी.  उन्होंने २४-२७ घंटे बाद मुझे पुनः मिलने को कहा.  पुनः मिलते ही उन्होंने पहले यही कहा - "तुमने महत कार्य किया है."  इस अनुपम वाक्य का प्रयोग उन्होंने किया।  मैंने उनसे कहा - मैंने जो किया उसका आपने मूल्याँकन कर दिया। लेकिन मैंने क्या कर दिया है, क्या मैं आपके मुखारविंद से सुन सकता हूँ?

उन्होंने कहा - "जितने भी धरती पर धर्म-गद्दियाँ हैं, वे धर्म के लक्षणों का शिष्टानुमोदन नाम लेते हैं.  तुमने धर्म को अध्ययन की वस्तु बना दिया।  इसमें तर्क नहीं है.  इसको स्वीकारने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है.  "मानव सुखधर्मी है" - इस प्रतिपादन के साथ आप क्या तर्क करोगे?  सुखधर्मी नहीं है - यही तर्क किया जा सकता है, जो टिकता नहीं है."

मैंने पूछा - "आपके मुखारविंद से ऐसा यदि सुनने में आता है तो क्या मैं यह पूरा दर्शन श्रृंगेरी पीठ को समर्पित कर दूं?  यदि आप इसको महत कार्य कहते हैं - तो इसमें आपकी क्या जिम्मेदारी बनती है?"

उन्होंने उत्तर दिया - "मेरी जिम्मेदारी यही बनता है - विगत में जो कुछ कहा गया है उसकी समीक्षा करें और इसको प्रबोधित करें।  किन्तु मैं जानता हूँ - अभी यदि मैं विगत को झूठ साबित करता हूँ तो यह अनास्था की ओर ले जाता है.  मैं यह भी जानता हूँ कि  मेरी आयु ७० वर्ष से अधिक हो गयी है और ज्यादा दिन मैं शरीर यात्रा में नहीं रहूँगा।  इन सबको जोड़ करके मैं देखता हूँ तो मैं इस जिम्मेदारी को लेकर चलने योग्य नहीं हूँ."

यदि कोई व्यक्ति सच्चा है, ईमानदार है - तो इससे ज्यादा वह क्या बोल सकता है?  फिर वे बोले -

"मेरी आँखों में यह दिखता है - तुम किसी धर्मगद्दी के पास मत जाओ, न किसी राजगद्दी के पास जाओ, न किसी शिक्षा गद्दी के पास जाओ.  तुम सीधे युवापीढ़ी के पास जाओ.  युवापीढ़ी में ही पुण्यशील जीवन इसे समझेंगे!  यह मेरा आशीर्वाद है.  तुम सफल हो कर रहोगे!  समझा हुआ, प्रमाणित हुआ व्यक्ति तुम्हारी आँखों के सामने तुम्हे दिखेगा।"

इससे बड़ा क्या आशीर्वाद होगा?  इससे बड़ा क्या परिपक्व बात होगा?  इससे ज्यादा क्या सटीक बात होगा?

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Tuesday, December 13, 2016

जीवनी क्रम



जीव संसार जीवनी क्रम में है.  इसका प्रमाण है - गाय का बछड़ा गाय जैसा ही आचरण करता है.  वैसा ही वह खाता है, पीता है, दौड़ता है - जैसा पिछली पीढी की गाय का आचरण था.  यही बात बाघ में भी है.  धरती पर बाघ के प्रकटन के समय उसका जो आचरण था, वही आज भी है.  यही बात सभी जीवों के साथ है.  इस प्रकार अनेक प्रकार के जीवों के आचरण स्थापित हुए.  सभी जीवों के आचरण की परंपरा आज भी यथावत है.  जब तक मानव का हस्तक्षेप न हो, इनके आचरण में कोई व्यतिरेक नहीं होता।  मानव के हस्तक्षेप से उनके आचरण में विकृति ही होती है, सुकृति होती नहीं है.  जीवों में संकरीकरण से उनका वंश ही समाप्त हो जाता है.  संकरीकरण एक प्रजाति के जीवों का दूसरी प्रजाति के जीवों के साथ व्यभिचार कराना है - इस बात को ध्यान में लाने की आवश्यकता है.

"जीव संसार जीवनी क्रम में है" - इस बात को मानव ही समझता है, जीव-जानवर इस बात को नहीं समझता।  मानव इसलिए समझता है क्योंकि मानव हर वस्तु  को समझके उसके साथ व्यवहार करना चाहता है.  बिना समझे कोई व्यवहार करना नहीं चाहता है, आज की स्थिति में! 

प्रश्न:  कौनसा जीवन किस जीव प्रजाति के शरीर को चलाने योग्य है, इसके चुनाव की क्या प्रक्रिया होती है?

उत्तर:  हर जीवन का गतिपथ एक पुन्जाकार स्वरूप में होता है.  जीवन का पुन्जाकार अपने में एक 'स्वरूप' है, उस रूप के जीव-शरीर को वह 'अपना' मान लेता है.  पुन्जाकार जीवन की आशा-गति का स्वरूप है.  जीवन शरीर के साथ होने पर उस शरीर को जीवन मान लेता है.  शरीर को चलाते हुए भी जीवन अपने आपको शरीर होना मानता है, जीवन होना मानता नहीं है.  भ्रमित मानव में भी जीवन शरीर को जीवन मानता है, जीवन को जीवन मानता नहीं है.  भ्रम का मतलब इतना ही है. 

प्रश्न: मृत्यु के समय जब शरीर और जीवन का वियोग होता है तब क्या प्रक्रिया होती है?

उत्तर: जीवों में और मानव में मृत्यु की प्रक्रिया में भेद है. 

जीवों में मृत्यु  घटना:  रोगी/घायल शरीर को जीवन चला नहीं पाता है तो उसे छोड़ देता है. 

मानव में मृत्यु घटना:  शरीर अब चलने योग्य नहीं रहा, इसलिए उसको जीवन छोड़ता है.  मानव शरीर को जीवन जब छोड़ता है तो अपनी शरीर यात्रा का मूल्याँकन करता है.

प्रश्न:   चार विषय और पाँच संवेदनाओं का क्रियाकलाप जीवों में भी दिखता है और मानवों में भी.  फिर जीवों और मानवों में मौलिक भेद क्या है?  (reference)

उत्तर: जीवों में संवेदनाओं के प्रति जागृति नहीं होती।  जीव आहार-निद्रा-भय-मैथुन विषयों को पहचानते हैं और उनको करते हैं.  जीवों में संवेदनाएं चार विषयों के अर्थ में काम करती रहती हैं.

जीवों में "समृद्ध मेधस" होता है, लेकिन मानव में "समृद्धि-पूर्ण मेधस" होता है.  समृद्धि-पूर्ण मेधस के कारण मानव में जीवन द्वारा कल्पनाशीलता प्रकाशित होती है.  जो जीवों से मौलिकतः भिन्न है, जिसके आधार पर मानव ज्ञानावस्था में गण्य है. 

मानव पांच संवेदनाओं को राजी रखने के अर्थ में (या "रुचि" के लिए) चार विषयों के क्रियाकलाप को करता है.  संवेदनाओं के आधार पर मानव ने सर्वप्रथम ज्ञान को स्वीकारना शुरू किया।  मानव में पायी जाने वाली कल्पनाशीलता का यह पहला प्रभाव है.  मानव ने पहले जीवों के जैसा ही जीने का शुरुआत किया।  लेकिन संवेदनाओं को राजी करने के लिए जीने का अभ्यास करते-करते मानव ने जीवों से भिन्न जीना शुरू कर दिया।  इसके चलते मानव द्वारा मनाकार को साकार करना तो हो गया पर मनः स्वस्थता का भाग वीरान पड़ा रहा.   मानव की चेतना का स्तर "जीव चेतना" ही रहा. जीवचेतना में मानव दुखी/समस्याग्रस्त रहता है.  मानवचेतना में मानव सुखी/समाधानित रहता है.

मध्यस्थ दर्शन का अध्ययन मानव के जीवचेतना से मानवचेतना में संक्रमित होने के अर्थ में है. 

- श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Sunday, December 11, 2016

अनेक शरीर यात्राएं !


प्रश्न:  क्या बहुत सारी जीव योनियों से गुजरने के बाद जीवन को मानव शरीर चलाने के लिए मिलता है?

उत्तर: जिसका प्रमाण नहीं, वह बात मुझे करना नहीं!  सप्तधातु से रचित शरीर हो, समृद्ध मेधस हो, और मानव के संकेतों को पहचानता हो - ऐसे जीवों में जीवन होता है. 

प्रश्न:  मानव की मृत्यु के बाद अगली शरीर यात्रा में उस जीवन को मानव शरीर ही मिलता है या कोई जीव शरीर भी मिल सकता है?

उत्तर: शरीर यात्रा समाप्त होने पर जीवन अपना मूल्यांकन करता है.  सुख-दुःख और सुरूप-कुरूप का स्वीकृति करते हुए जीवन शरीर को छोड़ता है.  इस शरीर यात्रा में जैसा रूप (शरीर वंश का आकार) था, वैसा ही रूप या उससे अच्छे रूप के प्रति स्वीकृति के साथ जीवन शरीर को छोड़ता है.  (जो उसकी अगली शरीर यात्रा का कारण बनता है) हर जीवन के साथ ऐसा है. 

प्रश्न:  आप किस प्रमाण के आधार पर कहते हैं कि शरीर यात्रा समाप्त होने पर जीवन अपना मूल्यांकन करता है?

उत्तर: मैंने समाधि को देखा है.  समाधि के समय जीवन शरीर को छोड़ा रहता है.  समाधि होने के पहले जीवन अपनी शरीर यात्रा का मूल्याँकन कर लेता है.  इस आधार पर मैं कहता हूँ कि शरीर छोड़ते समय जीवन अपना मूल्याँकन करता है. 

प्रश्न: शरीर छोड़ते हुए जीवन क्या मूल्याँकन करता है? 

उत्तर: शरीर यात्रा में पहली सांस से आखिरी सांस तक क्या "अच्छा लगा" और क्या "बुरा लगा" उसको जीवन स्वीकारता है.  जीव चेतना में जीते तक जीवन में 'सही' और 'गलत' का मूल्याँकन करने का आधार नहीं रहता है, इसलिए 'अच्छा लगने' और 'बुरा लगने' के आधार पर ही शरीर यात्रा का मूल्याँकन करता है.  शरीर यात्रा में एक सीमा तक ही संवेदनागत सुख या दुःख को भोगा या झेला जा सकता है, क्योंकि शरीर में उसको झेलने की एक सीमा होती है.  जबकि जीवन शरीर यात्रा में उस संवेदनागत सुख या दुःख की सीमा से अधिक का कर्म किया रह सकता है.  दो शरीर यात्राओं के बीच की अवधि में ऐसा जो सुख या दुःख भोगा नहीं गया होता है, उसको जीवन भोग लेता है.  उसको भोग लेने के बाद अगली शरीर यात्रा को आरम्भ करता है. 

प्रश्न:  अगली शरीर यात्रा कहाँ शुरू होगी, इसका कैसे निर्णय होता है?

उत्तर: भ्रम (जीव चेतना) में रहते तक जीवन में सुखी (अच्छा लगना) और दुखी (बुरा लगना) होने के लिए स्वयं का प्रवृत्ति रहता है.  भ्रमित रहते तक जीवन शरीर को ही जीवन मानता है.  जिस वातावरण में वह अपनी (शरीर मूलक) अनुकूलता को मानता है, वैसे वातावरण में शरीर यात्रा शुरू करता है.  दूसरे, अपने बंधु -बांधवों के बीच, फिर उनसे सम्बंधित लोगों में, फिर उस गाँव में, उस देश में, फिर सर्वदेश में.  इस क्रम से अगली शरीर यात्रा के स्थान का कारण बनता है.  पुनः शरीर यात्रा जब मानव परंपरा में शुरू होता है तो सुखी होने के लिए शुरू करता है.  परंपरा में सुखी होने का मार्ग न होने पर पुनः रोते -गाते शरीर यात्रा को अंत करता है.

प्रश्न: यदि मेरी जागृति की ओर गति शुरू हो गयी, लेकिन किसी कारणवश मेरी आकस्मिक मृत्यु हो जाती है तो मेरी अगली शरीर यात्रा कैसी होगी?

उत्तर:  जागृति की ओर शुरू किये हैं तो उनका अगला शरीर यात्रा मानव परंपरा में ही होगा।  जितना इस शरीर यात्रा में जागृति के लिए काम किये थे उससे आगे का प्रवृत्ति हो जाता है.  जिस भी वातावरण में जीवन शरीर यात्रा शुरू करे, उसको भेदते हुए जीवन अपनी अग्रिम गति के लिए जगह बना लेता है.  मेरे साथ भी वैसा ही हुआ! 

पिछली शरीर यात्रा की प्रवृत्ति के अनुसार ही अगली शरीर यात्रा शुरू होती है.  उस प्रवृत्ति का सही पक्ष को लेकर बीज समाप्त नहीं हुआ रहता है.  इस ढंग से जीवन का पीढ़ी दर पीढ़ी अच्छा होने (सुधरने) के लिए एक "सीढ़ी" बनी है.  पीढ़ी दर पीढ़ी अच्छा होने की सीढ़ी पर चढ़ते-चढ़ते आज मानव-जाति चेतना विकास के दरवाजे पर पहुँच गया!  चेतना विकास के अर्थ में यहाँ (मध्यस्थ दर्शन की) चर्चा शुरू हुई.  यदि चेतना विकास के लिए स्वीकृति होती है तो वह मरता नहीं है.  अगली शरीर यात्रा में और पुष्ट होता है.  सभी सकारात्मक स्वीकृतियों का पुष्टि इसी विधि से हुआ है.  अपनी प्रवृत्तियों के अनुरूप परिस्थितियों को पहचानने का गुण हर जीवन में होता है.  जीवन की प्रवृत्ति ही उसका पूर्व संस्कार है. 

प्रश्न: जीवन द्वारा बारम्बार शरीर यात्रा करने का उद्देश्य क्या है?

उत्तर: जीवन जागृति को प्रमाणित करने के उद्देश्य से बारम्बार शरीर यात्रा करता है.  मानव को कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है, जिसके कारण मानव सुखी होने का प्रयास करता है.  जागृति के बिना उसका सुखी होना संभव नहीं है.  सुखी होने के लिए जीवन हर बार शरीर यात्रा आरम्भ करता है.  जब शरीर यात्रा में सुख हासिल नहीं कर पाता तो दुखी होता है.

प्रश्न: जीवन द्वारा जागृति को हासिल करने के लिए क्या उपाय है?  इस अनुसंधान के पहले जागृति को लेकर क्या उपाय था?

उत्तर: परंपरा स्वरूप में जागृति को हासिल करने का स्वरूप अभी तक कुछ नहीं है.  कोई एक व्यक्ति कभी कुछ पा गया हो तो उसको हम जानते नहीं हैं, वह गण्य होता नहीं है.  साधना विधि से जो कल्याण होने का आश्वासन दिया गया था, वह व्यक्ति के साथ ही चला गया.  साधना से उस व्यक्ति को जो उपलब्धि हुई होगी वह मानव परंपरा तक नहीं पहुँच पायी।  हम कुछ व्यक्तियों को पहुँचा हुआ मानते रहे, उनको प्रणाम/सम्मान करते रहे, पर पहुँचे हुए वे व्यक्ति जो पाए होंगे वह मानव परंपरा में आया नहीं।  अब वह व्यक्ति पहुँचा था या नहीं - इसका भी कोई प्रमाण नहीं है. 

अब मध्यस्थ दर्शन का प्रस्ताव मानव जाति के पास आ गया है, जिससे स्वयं में जागृति को पहचान सकते हैं. इसके पहले शिक्षा विधि से जागृति को पहचानने का कोई प्रस्ताव नहीं है. 

मध्यस्थ दर्शन का यह प्रस्ताव वर्तमान में जीने हेतु निष्कर्ष निकालने के लिए है, न कि मरने के बाद क्या होता है - इसको सोचने के लिए!



भ्रमित मानव को जब तक जीने का ज्ञान नहीं होगा तब तक उसको मरने का ज्ञान और मरने के बाद का ज्ञान नहीं हो सकता।  मेरे साथ भी वैसा ही हुआ.  जीना समझ में आने के बाद ही मरने के बाद क्या होता है - यह मुझे स्पष्ट हुआ.  उसके पहले नहीं!  जबकि मैंने प्रकृति में अनुभव किया है.  इससे ज्यादा क्या कहा जाए?

सिलसिला तो यही है - पहले जीना समझ में आये, फिर मरना समझ में आये, फिर मरने के बाद का समझ में आये.  अभी आदमी को न जीने का पता है न मरने का पता है.  जीना ही पता न हो तो मरना कैसे पता होगा? - यह सोचने का मुद्दा है. 

जीने को नियति माना जाए या मरने को?  इसमें आपका क्या कहना है?

जीने की जगह में अभी मानव भ्रमित है क्योंकि शरीर को जीवन मानके चला है.  जीवसंसार में भी वैसे ही जीवन शरीर को जीवन मानके जीने की आशा को व्यक्त करता है.  जीवों के लिए जीवचेतना ठीक है किन्तु मानव ज्ञान-अवस्था का होने के कारण जीव चेतना उसके लिए ठीक नहीं है.  जीव चेतना में जीव दुखी नहीं है, पर मानव का जीव चेतना में दुखी होना बना ही है.  घटना विधि से मानव ने जीवचेतना में जीने का अभ्यास किया है, वहाँ से मानव चेतना में परिवर्तित होना पहला बिंदु है. 

मानव चेतना में परिवर्तित होने पर हम मूल्य-चरित्र-नैतिकता स्वरूप में व्यक्त होना शुरू करते हैं.  इससे पहले मानव दो ही स्वरूप में व्यक्त हुआ - पहला, भक्ति-विरक्ति और दूसरा, सुविधा-संग्रह।  भक्ति-विरक्ति रहस्यमय हो गया, सार्थक नहीं हुआ.  सुविधा-संग्रह किसी को तृप्ति-बिंदु तक पहुंचाता नहीं है, न ही यह सबको मिल सकता है.  इसलिए सुविधा-संग्रह निरर्थक सिद्ध हुआ.  इसके बदले में हो क्या?  इसके बदले में समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना।  समाधान समझदारी से, समृद्धि श्रम से!  इसके लिए शिक्षा विधि काम करेगी, न कि उपदेश विधि। 

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Monday, December 5, 2016

जीवन विद्या शिविर के प्रबोधकों के लिए मार्गदर्शन



जीवन विद्या प्रबोधकों के लिए मार्गदर्शन: अध्ययन बिंदु

- श्री ए नागराज के साथ संवाद (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Thursday, December 1, 2016

दावे की बात



मैं निम्न तीन दावे करता हूँ: -

पहला, मैं अपने सहअस्तित्व में अनुभव किये होने का दावा करता हूँ.

दूसरा, मैं सहअस्तित्व के अनुरूप स्वयं जीने का दावा करता हूँ.

तीसरा, मैं सहअस्तित्व के आनुषंगिक व्यवस्था में भागीदारी करने का दावा करता हूँ.

अभी तक जितने भी लोग मेरे संपर्क में आये - उनमें से एक के साथ भी ऐसा नहीं हुआ कि  मैंने उनकी जिज्ञासा का उत्तर न दिया हो.  सुनने वाला उस उत्तर से तृप्त हुआ हो या नहीं - यह दूसरी बात है.  एक समय तक उस उत्तर से तृप्त न हों, एक समय के बाद तृप्त हों - यह हो सकता है.  ऐसी सर्वतोमुखी समाधान सम्पन्नता हर व्यक्ति के पास होनी चाहिए न?

मैंने सुंदरता के न्यूनतम स्वरूप में जीने का दावा किया है.  संसार के लिए इससे ज्यादा सुन्दर, सबसे सुन्दर जी कर दिखाने का स्थान रखा हुआ है.  यदि आप इस प्रस्ताव को समझते हैं तो आप मुझसे अच्छा ही जियोगे। 

मुझसे आप जो सुनते हो, उसके अर्थ को समझने  का अधिकार आप ही के पास है.  मैं जैसा समझा हूँ, उसको केवल सूचना स्वरूप में आपको प्रस्तुत कर सकता हूँ.  मैं जैसा समझा हूँ, सोचता हूँ, जीता हूँ और करता हूँ - इन चार का भाषाकरण करता हूँ.  इसमें से जो मैं करता हूँ, वह आपको जल्दी पकड़ में आ जाता है.  जो मैं जीता हूँ, उसको समझने के लिए आपको थोड़ा ज्यादा मन लगाना पड़ता है.  जो मैं सोचता हूँ, उसके लिए और ज्यादा।  जो मैं समझता हूँ (अनुभव करता हूँ), उसके लिए और  ज्यादा।  ये चार स्तर हैं मन लगाने के.  अध्ययन में मन लगाना पड़ता है.  यही ध्यान है.  मन लगाने के प्रमाण में ये चारों बात समझ में आती हैं. 

इससे पहले आदर्शवाद और भौतिकवाद जो आया, उसमे निष्कर्ष निकलता है तो निकाल लो.  आदर्शवाद बनाम रहस्य मूलक ईश्वर केंद्रित चिंतन का मतलब है - "कोई मानव समझदार नहीं हो सकता!"  भौतिकवाद बनाम अनिश्चयता अस्थिरता मूलक वस्तु केंद्रित चिंतन का मतलब है - "हर अपराध हर व्यक्ति कर सकता है."  यदि इन दोनों से निष्कर्ष नहीं निकलता है तो इस विकल्प को समझो!  ईमानदारी से समझना पड़ेगा।  इसमें केवल जिज्ञासा व्यक्त करना पर्याप्त नहीं है.  समझना आवश्यक है.

यदि आप मेरे अनुभव करने (समझने), सोचने, जीने और करने को लेकर निर्भ्रम होते हैं तो यह ज्ञान मुझसे आप में अंतरित हो जाएगा।  इन चारों भागों में तदाकार-तदरूप होने की अर्हता हर मानव में है.  इसमें बाधा तब आती है जब कहीं हम हमारे प्रतिकूल लगने वाली किसी बात को नकार देते हैं.  वहीं हम रुक जाते हैं.  यही समझने में अवरोध है.  जीव चेतना से अनुकूलता बैठाने का प्रयास असफल होगा ही, क्योंकि मानव चेतना का कोई भी प्रस्ताव जीवचेतना के अनुकूल नहीं है.  ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ  मानवचेतना जीवचेतना के साथ राजी-गाजी करता हो.  मानवचेतना और जीवचेतना के बीच एक संक्रमण रेखा है.  इस संक्रमण-रेखा के एक तरफ है अपना-पराया की दीवारें और दूसरी तरफ हैं - अपना-पराया की दीवारों से मुक्ति।  इतना ही है.  अपना-पराया के चलते न स्वतंत्रता है, न स्वराज्य है. 

समझना है या नहीं - पहले इसीको निर्णय कर लिया जाए.  यदि समझना है तो यह तदाकार-तद्रूप होने का पूरा मार्ग ठीक है.  यदि नहीं समझना है तो इसका नाम लेने की भी ज़रुरत नहीं है.  मानव जाति जो कर रहा है अभी वही ठीक है.  इस प्रस्ताव में जीव चेतना के साथ राजी गाजी करने का एक भी सूत्र नहीं है.  इसके स्थान पर मानवीयता पूर्वक जीने का प्रस्ताव है. 

यह adjustment की बात नहीं है, replacement की बात है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)


Sunday, November 20, 2016

अध्ययनशील लोगों के बीच मंगल मैत्री का मार्ग



प्रश्न:  अध्ययनशील लोगों के बीच मंगल-मैत्री और समानता का क्या सूत्र होगा?

उत्तर:  ये सभी लोग, जो जीवनविद्या मध्यस्थ दर्शन - सहअस्तित्ववाद के प्रति समर्पित हैं, सर्वशुभ को चाहने वाले हैं और वैसा ही मैं भी हूँ. 

सर्वशुभ विधि से ही अपना-पराया की दीवारें और अपराध-प्रवृत्ति सामाप्त होती हैं - इसीलिये इनके साथ मंगल-मैत्री स्वाभाविक है.  अपना-पराया और अपराध-प्रवृत्ति के चलते मंगल-मैत्री होता नहीं है.  अपना-पराया और अपराध-प्रवृत्ति से मुक्ति ही भ्रम-मुक्ति है.  इस एकात्मता से जुड़ के अध्ययनशील लोग मंगल मैत्री को प्रमाणित कर सकते हैं.  मंगल-मैत्री की आधार-भूमि सर्वशुभ ही है. 

क्या इसमें कोई खोट है?  क्या इसमें कोई व्यक्तिवाद है?  क्या इसको कोई समुदायवाद छू सकता है? 

इस प्रस्ताव को पहले तर्क विधि से सोच लो, फिर कल्पना विधि से इसका शोध कर लो.  तर्क से आगे है कल्पना!  कल्पना विधि से यदि यह पूरा हो जाता है तो इसको समझने के अलावा और कोई रास्ता स्वयं में नहीं है।  तर्क और कल्पना के योग से स्वयं में "अनुमान" बन जाता है.   फिर उस अनुमान के आधार पर आगे कल्पना से प्रमाण तक पहुँचने के लिए अपने में सामर्थ्य बन जाता है. 

इस तरह अध्ययनशील लोगों के बीच मंगलमैत्री का रास्ता हम साफ़-साफ़ देख पाते हैं.  सबके साथ जी सकते हैं, रह सकते हैं, परस्पर शुभकामना व्यक्त कर सकते हैं, एक दूसरे के सर्वशुभ कार्यों के प्रति प्रसन्न और रोमांचित हो सकते हैं.

एक दिन में सारा निर्माण पूरा होता नहीं है, इसमें समय लगता ही है.  मेरा उदाहरण लें तो मैं अभी संसार को मानवचेतना का परिचय कराने के लिए प्रयत्नशील हूँ.  इतने में ही अभी हम असमंजस में हैं जबकि मैं मानव चेतना, देव चेतना और दिव्य चेतना तीनों में पारंगत हूँ.  अभी बहुत ज्यादा पहुँच गए हों ऐसा स्थिति में हम आये नहीं हैं.  आप हमारे बीच संवाद भी मानव चेतना का परिचय कराने के अर्थ में है.  यह बात सही है - लोगों में इस बात की भनक पड़  गयी है, वैचारिक रूप में इसकी स्वीकृति भी कुछ बनी है, कार्य रूप में कुछ प्रयास भी है.  ज्यादा लोगों में इसकी भनक पड़ी  है, कुछ लोग अपनी वैचारिक स्वीकृति को प्रमाणित करने का प्रयास कर रहे हैं.  इस प्रयास क्रम में अनुभव का बिंदु आता ही है.  प्रयास करते समय में "अनुभव" का जिक्र तो ख़त्म नहीं होता।  वह अनुभव का झोंका आता ही है.  अनुभव से जुड़ना पड़ता ही है, समझाने का सम्मान उसके बिना बनता ही नहीं है.  यह पूरा प्रक्रिया ऐसा ही है - कोई एक छोर आपने पकड़ लिया तो पूरा होने की संभावना है. 

प्रश्न:  आपकी बात को हम "समझ के करें" या "कर कर के समझें"?

उत्तर:  समझ के ही करें।  विकल्प को समझ के ही उसको करने (समझाने) का प्रवृत्ति बनता है.  समझ चाहे "मानी हुई" स्वीकृति के स्तर की क्यों न हो, उसके बिना समझाने का प्रयत्न नहीं बनेगा।  स्वीकृति के आधार पर यदि समझाने का प्रयत्न करते हैं तो एक दिन अनुभव तक पहुंचेंगे ही!  जीवन विद्या परिवार के लोग जो जागृति  के लिए प्रयत्न कर रहे हैं, उन परिवारजनों  में मंगलमैत्री के लिए यह एक बहुत बड़ा आधार बन गया है.  यह निर्विवाद है.  इसी विधि से सब जुड़े हैं.  सबके साथ जुड़ने का यही सुगम उपाय है. 

यदि आप इस बात को सोचें तो उससे यही निकलता है कि हमको अपने प्रयास की शुरुआत करने के लिए एक छोर को पकड़ने की आवश्यकता है.  इसको आप "सिद्धांत" भले ही न मानो।  यदि हम इसमें चले जाते हैं कि "पूरा समझे बिना मुँह ही नहीं खोलना है" - तो वह प्रयास बुरा नहीं है, पर यह "दुर्घट प्रयास" है.  सम्मानजनक भाषा में कहें तो यह "परिपक्व प्रयास" है.  इस प्रयास में कोई खोट नहीं है - पर उससे सही बात को संसार के सामने तत्काल प्रकट करने का कोई सूत्र नहीं मिलता।  जबकि दूसरे विधि में हम अपने प्रयास के लिए जो छोर पकड़े हैं उस विश्वास को व्यक्त कर सकते हैं.  उस प्रयास के फलन में अनुभव होने पर हम स्वयं प्रमाण होने के दावे के साथ बोल सकते हैं.  मैं सोचता हूँ, आज नहीं तो कल इस प्रकार सत्यापित करने वाले सैंकड़ों व्यक्ति तैयार हो जाएंगे।  इस जगह आये बिना सब जगह पहुँचने का गति भी नहीं बनेगा। 

मानव को सच्चाई का थोड़ा भी यदि भनक लगता है तो वह अपने को रोक नहीं पाता है.  आदमी को जब यह स्वीकार होता है कि  यह बात सही और शाश्वत है, तो वह उस स्वीकृति को अपने तक रोक नहीं पाता है.  यह बात फैलनी चाहिए, इसी जगह में वह आता है - चाहे उस बात को लेकर वह उसमें अभी पारंगत नहीं हुआ हो!

समझने का जहाँ  छोर पकड़ा, वहीं से उपकार कार्य में जिम्मेदारी-भागीदारी भी शुरू हो जाती है.  जैसे-जैसे लोगों का इसमें रुझान बनता है, स्वयं के अनुभव  तक पहुँचने का रास्ता भी बनता है. 

प्रश्न:   इस तरीके से चलें तो समझदारी पूरा होने तक एक अध्ययन करने वाला किस-किस घाट से गुजरता है?

उत्तर:  सच्चाई के इस प्रस्ताव का "श्रवण" करना एक घाट है.  श्रवण के बाद सर्वशुभ के अर्थ में अपने प्रयास के लिए मूल मुद्दे के रूप में "एक छोर को स्वीकार लेना" दूसरा घाट है.  सच्चाई का "साक्षात्कार कर लेना" तीसरा घाट है.  समझदारी जब पूरा होता है तो वह जीवचेतना से मानव चेतना में संक्रमण स्वरूप में प्रमाणित होता है. 

अध्ययन करने वाले में "स्व-निरीक्षण" चलता रहता है.  जिस प्रयास को मैंने कल्याणकारी स्वीकारा है, क्या उसमें मैं पारंगत हो गया हूँ?  यदि पारंगत नहीं हुआ हूँ तो पारंगत होने के लिए रास्ता क्या है? 

प्रश्न: इसमें गुत्थी यही है - हम पूरा समझ के मुँह खोलें या जितना समझे हैं उतना मुँह खोलते हुए आगे के लिए प्रयास करते रहें।  अभिव्यक्ति में श्रेष्ठता का क्रम क्या है?

उत्तर:  अनुभव मूलक अभिव्यक्ति परम है.
स्वीकृति मूलक अभिव्यक्ति द्वितीय स्तर पर है.
तर्क मूलक अभिव्यक्ति तृतीय स्तर पर है.
कल्पना मूलक अभिव्यक्ति चतुर्थ स्तर पर है.

प्रश्न:  कल्पना, तर्क या स्वीकृति मूलक अभिव्यक्ति करने में समय लगाना क्या अपनी शक्तियों का अपव्यय तो नहीं है?

उत्तर: नहीं!  आपकी कल्पना, तर्क या स्वीकृति में सर्वशुभ का क्या स्वरूप आता है, उसको आप कह ही सकते हैं.  उसमें शक्ति का अपव्यय कहाँ हुआ?  आपके पास कल्पना रहता ही है, तर्क रहता ही है, स्वीकृति रहता ही है.  इन तीनो में से कोई भी कड़ी अध्ययन के लिए विरोधी नहीं है.  अध्ययन का अंतिम बिंदु है - अनुभव!  पीछे की तीनों कड़ियाँ अनुभव के लिए सहायक हैं.   आपके पास जो है वह आवंटित न हो, ऐसा कोई व्यवस्था नहीं है.  आप इस ढंग से आवंटित न करें, दूसरे ढंग से करें - यह हो सकता है!  पर आवंटित न करें - यह हो नहीं सकता। 

अभिव्यक्ति का निम्नतम आधार कल्पना है.  हमने अपनी कल्पना में सर्वशुभ को ऐसे पहचाना है, इसको घोषित करने में किसको क्या तकलीफ है?  इसको नकारने का किसी का अधिकार ही नहीं बनता है. 

प्रश्न: हमारी स्थिति तर्क की है, या कल्पना की या स्वीकृति की - इसका मूल्यांकन कौन करेगा?

उत्तर:  अध्ययन करने वाला स्वयं अपनी स्थिति का मूल्यांकन करेगा।  आपकी स्वीकृति हो जाने के बाद आप अपनी कल्पना के दृष्टा हो जाते हो.  आप जब स्वीकृति के स्तर पर हो तो अपनी कल्पना का दावा कर सकते हो.  अनुभव होने के बाद व्यवहार में दावा कर सकते हो.  अपनी स्थिति को भुलावा देते हैं तो संसार का आक्षेप होता है. 

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Saturday, November 19, 2016

पूर्व स्मृतियों की बाधा और उसके लिए उपाय - भाग २



जीव चेतना में जीता हुआ मानव गलतियों में "विवश" हो सकता है पर "गिरफ्त" नहीं हो पाता।  सच्चाई का रास्ता कहीं न कहीं उसमे बना ही रहता है.  सहीपन की अपेक्षा में ही वह गलती करता है.  जागृत मानव उसके सामने "सही के स्वरूप" को प्रमाणों सहित प्रस्तुत करता है.  उस सहीपन को स्वीकारने, अनुभव करने और प्रमाणित करने की कड़ियों के साथ यदि वह सुनता है तो सहीपन उसका स्वत्व बन जाता है.  ऐसा तभी संभव है जब वह पीछे की अपनी स्मृतियों को ताक में रख के सुने।  सही के स्वरूप के रास्ते में जीव चेतना की विवशता को बारम्बार ला लाकर बिछाना उचित होगा या अनुचित होगा?  इस तरह विवशता को आगे लाने से समझने में ज्यादा समय लग जाता है.  सहीपन की चाहत में परिवर्तन होता नहीं है पर विवशता को आगे लाने से विलम्ब हो जाता है.  शीघ्रता से यदि समझना है तो इस उपाय को अपना सकते हैं. 

अच्छाई की तृषा चाहत के रूप में (जीव चेतना में जीते) मानव में बनी हुई है.  इसी को देख कर कहा है - जीव चेतना में जीता हुआ मानव भी ५१% से अधिक अच्छा ही है. अच्छाई को स्वीकारने की जगह में जब आते हैं तो पूर्व स्मृतियाँ परेशान करती हैं.  हमने ऐसा सोचा था, तैसा सोचा था.  ऐसा किया था, तैसा किया था  आदि.  यही सब अवरोध करता है.  समझते तक उन स्मृतियों को रोक कर रखा जाए.  अभी पहले समझ लेते हैं, समझने के बाद यदि तुम्हारी ताकत है तो बने रहोगे, ताकत नहीं है तो उजड़ोगे!  यह वैसा ही है - पत्ते में जब तक ताकत रहता है तब तक तने से चिपका रहता है, जब ताकत समाप्त हो जाता है तो अपने आप गिर जाता है.  हमारे सारे सोच-विचार, कार्य व्यवहार, और उनके फल-परिणाम जीवन के फूल-पत्ते जैसे ही हैं.  समझ स्वत्व होने के उपरान्त जो जीवन के अनुरूप होंगे वे बने रहेंगे, बाकी सब झड़ जाएंगे, ख़त्म बात! 

तरण-तारण विधि यही है, जिसमें एक मानव अनुभवमूलक विधि से दूसरे  को अनुभवगामी  पद्दति से पारंगत बना देता है.

"करो - न करो" - यह उपदेश विधि है.

"हम यह चाहते हैं, आपकी चाहत में इसकी एकरूपता को मिलाते हैं", "हम यह करते हैं, आपको इसका बोध कराते हैं", "हम यह पाए हैं, आपको इसके मिलने का रास्ता बता देते हैं" - यह प्रमाण विधि है. 

भ्रम और जागृति : 

अपने-पराये से मुक्ति और अपराध-मुक्ति ही भ्रम-मुक्ति है.  भ्रम-मुक्ति ही मोक्ष है. जबकि विगत में "मोक्ष" के बारे में लिखा है - जीवन मुक्ति, क्लेश मुक्ति और आवागमन से मुक्ति। 

भ्रम जीवचेतना की सीमा है
जागृति  जीवचेतना से मुक्ति है

जीवचेतना में जीते तक जीवचेतना के सूत्रों की ही व्याख्या होती है.  जिसमे अतृप्ति बना ही है. 
जीवचेतना से मुक्त होने पर मानवचेतना की सूत्र व्याख्या अपने आप से प्रकट होने लगती है. 

मानवचेतना ही मानव का स्वत्व है, इसी में मानव की स्वतंत्रता है, यही मानव का अधिकार है.  मानवचेतना सहज स्वत्व, स्वतंत्रता व अधिकार ही मानवत्व है. मानव अपने ऐश्वर्य (मानवत्व) को छोड़ कर कैसे सुखी हो सकता है? 

भ्रम में जीता हुआ मानव अपने सुखी होने का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाता है, इसलिए उसका जड़ ही हिला रहता है.  भ्रम की सभी स्वीकृतियाँ भय और प्रलोभन के रूप में हैं.  इसके अलावा भ्रम की पहुँच कुछ भी नहीं है.  मानव में कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता होने से उसमें भय और प्रलोभन से वशीभूत होने का भी रास्ता बना.  भ्रम से भय और प्रलोभन की ही सूत्र-व्याख्या है.  जीव चेतना में हम कुछ भी करते हैं उसके मूल में भय और प्रलोभन ही है.  नौकरी और व्यापार के मूल में भय और प्रलोभन है ही.  भय और प्रलोभन को छोड़ के न नौकरी किया जा सकता है, न व्यापार!  भय और प्रलोभन ही विवशता है.  विवशता मानव को स्वीकार नहीं है.  इसी लिए भ्रम में जीते हुए मानव का जड़ हिला रहता है. 


- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)  

Wednesday, November 16, 2016

पूर्व स्मृतियों की बाधा और उसके लिए उपाय - भाग १



"अध्ययन = कल्पनाशीलता का प्रयोग करके शब्द से अर्थ को पहचानना.  अर्थ अस्तित्व में वस्तु है.  वस्तु की पहचान (तुलन में) न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियों के (अनुकरण-अनुसरण पूर्वक) अभ्यास द्वारा है.  यह प्रक्रिया जीवन की साढ़े चार क्रियाओं की सीमा में ही होती है.  इस प्रकार वस्तु की पहचान होने पर जीवन में साक्षात्कार, बोध और अनुभव स्वतः होता है.  अनुभव के बाद बुद्धि में अनुभव-प्रमाण बोध और संकल्प, चित्त में उसका चिंतन-चित्रण होकर वृत्ति में न्याय-धर्म-सत्य विचार, मन में मूल्यों का आस्वादन और संबंधों के चयन द्वारा वह मानव के जीने में प्रमाणित होने के लिए तैयार हो जाता है. "  - यह हमने आप से सुना है.

बाबा जी: सुना है या समझा है?

अभी सुना है!  और यह हमारे स्मरण में है. 

बाबा जी: आपके अनुसार हर स्थिति में हम स्मरण के आधार पर बात करें या अनुभव के आधार पर बात करें?

अनुभव के आधार पर बात करें, हमारी अपेक्षा तो यही है. 

बाबा जी:  सुनने के बाद समझने की जिम्मेदारी आप ही की है.  समझने में आपको कोई कठिनाई होगा तो उसको दूर करने का काम मेरा होगा।

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प्रश्न:  आप अपने तर्क को एक तरीके से प्रस्तुत करते हैं, उसके अनुसार हम अपने को पशुमानव-राक्षसमानव श्रेणी में पाते हैं.  यह कठोर होते हुए भी हमको आहत नहीं करता, बल्कि सही ही लगता है.  आपका अपने तर्क को प्रस्तुत करने का क्या तरीका है?   इस तर्क की सीमा क्या है और इस तर्क के आगे क्या है?

उत्तर:  इस दर्शन में मानव को पाँच कोटियों (प्रजातियों) में पहचाना गया है.  जीवचेतना में दो प्रजाति हैं - पशुमानव और राक्षसमानव।  मानव चेतना, देव चेतना और दिव्य चेतना में एक-एक प्रजाति है.  राक्षस मानव का स्वभाव क्रूरता प्रधान है.  पशुमानव का स्वभाव दीनता प्रधान है.  मानव का स्वभाव धीरता, वीरता, उदारता है.  देव मानव का स्वभाव दया, कृपा, करुणा है.  दिव्य मानव का स्वभाव करुणा है.  ऐसा मैंने प्रस्तुत करके आपके सोचने के लिए (अपना मूल्यांकन करने के लिए) छोड़ दिया है.  इसको आपने "तर्क" कहा.  यह तर्क नहीं (अनुभव मूलक) "विश्लेषण" है. 

प्रश्न:  लेकिन आपकी प्रस्तुति तर्क-सम्मत तो है?   आपके तर्क का सार स्वरूप क्या है?

उत्तर:  हाँ, मेरा विश्लेषण तर्क-सम्मत है.  मैं मानव चेतना  और जीव चेतना को जानता हूँ, उस ज्ञान को मैं जीता हूँ, प्रमाण हूँ - उस आधार पर मैं आपसे पूछता हूँ आपको जीव चेतना में जीने की विधि चाहिए या मानव चेतना में जीने की विधि चाहिए?  इस तरह मैं पहले आपकी "चाहत" को पूछता हूँ.  क्यों ऐसा पूछते हो - तो उसके उत्तर में तर्क है कि जीव चेतना की सीमा में हम अपराध मुक्त नहीं हो सकते।  क्यों अपराध मुक्त नहीं हो सकते - इसके लिए फिर पूरा तर्क है.  अपराध मुक्ति अपने-पराये की दीवारों से मुक्ति जीव चेतना पर्यन्त संभव नहीं है.  अपना-पराया की दीवारों के साथ जीना है या इन दीवारों से मुक्त होकर जीना है - फिर यह मैं पूछता हूँ.  उसको तर्क-सम्मत विधि से प्रस्तुत करता हूँ.  आप जब मानव चेतना के लिए चाहत को व्यक्त करते हो तो उससे सम्बंधित बातों का अध्ययन कराता हूँ.  इसके बाद देव चेतना और दिव्य चेतना की बात करते हैं.  मानव, देव  मानव, दिव्य मानव चेतना स्वरूप में जीना ही अखंड-समाज सार्वभौम व्यवस्था सूत्र-व्याख्या करना है.  इसकी आवश्यकता होगा तो हम इसको करेंगे ही!  विश्लेषण -> चाहत को लेकर प्रश्न  -> चाहत के अनुरूप संबोधन।  यही मेरे तर्क प्रस्तुत करने का सार स्वरूप है. 

प्रश्न:  सुनने वाले की चाहत को पूछना क्यों आवश्यक है? 

उत्तर:  यदि चाहत को नहीं पूछते तो वह पत्थर पर पानी बरसने जैसा है.  पत्थर पर बरसता है तो पत्थर भीगता नहीं है.  मिट्टी पर बरसता है तो मिट्टी भीग जाती है.  इस तरह अध्ययन विधि कोई लदाऊ-फंसाऊ कार्यक्रम नहीं है.  अध्ययन मानव सहज अपेक्षा के अनुरूप है.  चाहत को पूछना प्रौढ़ लोगों के लिए जो शिक्षा से हट चुके हैं, अपने जीने का कार्यक्रम बना चुके हैं, उसमें ढल चुके हैं, जिम्मेवारियाँ स्वीकार चुके हैं.  इससे भिन्न बच्चों में सच्चाई के अलावा कुछ भी चाहत नहीं है.  हर मानव संतान जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य व्यवहार करने का इच्छुक और सत्य वक्ता होता है.  चाहे वह संतान अय्याशी की, कुकर्मी की, दुष्ट की, सज्जन की, पशु मानव की, राक्षस मानव की, देव मानव की, दिव्य मानव की क्यों न हो.  हर मानव संतान यही चाहता है. 

ग्रहण करने वाली स्थिति में प्रबोधन ज्यादा कारगर है.  उसके लिए ही सुनने वाले में इसके लिए चाहत को पूछना।  मानव में चाहत सहीपन की ही है.  सहीपन की सूचना पर किसी को ऐतराज नहीं है.  जैसे - आपसे पूछें कि आपको जीव चेतना चाहिए या मानव चेतना, तो आप मानव चेतना ही कहोगे।  दूसरा कुछ कहना बनता ही नहीं है.  जीव चेतना में पशु मानव - राक्षस मानव होते हैं, वह आपको स्वीकार नहीं होगा।  उसके बाद यथास्थिति बताते हैं कि मानव परंपरा अभी तक जीव चेतना में जिया है.  यह यथास्थिति तो प्रत्यक्ष है, इसमें बाकी सब कुछ को भले ही हम ढक लें, किन्तु धरती का बीमार होने को ढक  नहीं पा रहे हैं.  इसको ढका  नहीं जा सकता। फिर मानव में श्रेष्ठता की चाहत के अनुरूप मानव चेतना का प्रबोधन शुरू करते हैं.

प्रश्न:  जो आप मानव चेतना का प्रबोधन करते हैं, उसको स्वीकारने में हमारे एक सीमा के बाद अटक जाने का क्या कारण है? 

उत्तर: अटकने का कारण है - पूर्व स्मृतियाँ।  पूर्व स्मरण आते ही हैं.  मानव चेतना संबंधी प्रबोधन पूर्व स्मृतियों के विपरीत होने पर हम अटक जाते हैं.  पूर्व स्मृतियाँ इसके अनुकूल रहने पर यह आगे बढ़ता है.

प्रश्न:  जीव चेतना में जिए हुए की स्मृतियाँ मानव चेतना के प्रस्ताव के अनुकूल कैसे होंगी?

उत्तर: अपेक्षा रखने में हम क्यों कंजूसी करें।  जीव चेतना में जीते हुए मानव में अपेक्षा मानव चेतना की ही होती है.  संवाद करते समय दुसरे व्यक्ति की सही को लेकर अपेक्षा को स्वीकारने में कहीं भी कंजूसी न करें।   मानव के पास शुभ की ओर जाने का रास्ता चाहे संकीर्ण हो, पर सदा बना है.  इसी की गवाही में हर मानव स्वयं में शुभ की अपेक्षा को होना बताता है. 

अब हम यहाँ जीव चेतना से मानव चेतना में संक्रमित होने की बात कर रहे हैं.  मानव चेतना का कोई भी बात जीव चेतना की किसी भी बात की वकालत नहीं करता - न जीव चेतना के संविधान की, न जीव चेतना की मानसिकता की, न जीव चेतना की शिक्षा की, न जीव चेतना की व्यवस्था की. 

इस आधार पर निष्कर्ष निकाला - यदि मानव चेतना संबंधी बात को समझना शुरू करते हैं तो पीछे की जीव चेतना संबंधी स्मृतियों को थोड़ा देर के लिए रोक रखा जाए.  इसके साथ मिलाने और इसके साथ तौलने का कोशिश न किया जाए.  पूर्व स्मृतियों को आगे लाने से मानव चेतना संबंधी बात को अवगाहन करने में, तोलने में, जीने के ढाँचे-खांचे में बैठाने में हमको तकलीफ होती है.

प्रश्न:  पूर्व स्मरण आते ही हैं, उनको स्थगित करने का क्या उपाय है?

उत्तर: मानव चेतना के प्रस्ताव को उसके श्रवण से उसको समझने, अनुभव करने से लेकर जीने में प्रमाणित करने तक की कड़ियों को जोड़ कर सुनने से वह अपना स्वत्व होता है. 

जिस वस्तु को समझ रहे हैं, उस वस्तु का बोध, उस वस्तु का अनुभव, उस वस्तु का प्रमाण, और उस वस्तु के साथ जीने की कड़ियों को जोड़ कर सुनने से जल्दी समझ हाथ लगती है.  यदि ऐसा नहीं करते तो वस्तु के प्रयोजन से हम नहीं जुड़ते।  सुनते हैं, फिर उसे भूल भी जाते हैं. 

सुना हुआ बात भूल सकता है, समझा हुआ बात भूल नहीं सकता।  यह सिद्धांत है.


- श्री ए नागराज के साथ संवाद, जनवरी २००७, अमरकंटक

Tuesday, November 1, 2016

अनुभव शिविर 2011



अनुसंधान विधि में पहले अनुभव होता है, उसके बाद हम अभिव्यक्त होते हैं.  अध्ययन विधि में अभिव्यक्त होने के क्रम में अनुभव होता है.

- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक

शिक्षा संस्कार योजना

-आंवरी आश्रम १९९७

Sunday, October 30, 2016

जितना समझे हैं, उतना ही करना होता है


समझना और फिर समझ को प्रमाणित करना।  समझने में भले ही २-४ दिन ज्यादा लग जाए, क्या आपत्ति है?

प्रश्न: यह २-४ शरीर यात्राओं की तो बात नहीं है?

उत्तर: नहीं।  इसी शरीर यात्रा में समझना और प्रमाणित होना।  प्रमाणित होने की स्थली भी दो हैं - शिक्षा और व्यवस्था।  शिक्षा और व्यवस्था में इसके प्रमाणित होने के बाद इसकी स्वयं स्फूर्त गति है.

प्रश्न: एक हठ है हमारी - जब तक समझेंगे नहीं, तब तक करने निकलेंगे नहीं!  क्या यह हठ ठीक है?

उत्तर: ऐसा कुछ होता नहीं है.  जितना समझे हैं, उतना ही करना होता है.  उससे ज्यादा करना होता ही नहीं है.  अभी इस दर्शन को लेकर जितना लोग कर रहे हैं, उतना वे समझ चुके हैं.  जितना किये नहीं हैं - उतना समझना शेष होगा या समझ गए होंगे, पर करना शेष होगा।  

शिक्षा में चेतना विकास, मूल्य शिक्षा और तकनीकी का समावेश होना है.  उसमें से चेतना विकास और मूल्य शिक्षा पर सूचना विधि से हम थोड़ा काम किये हैं.  तकनीकी भाग को हम अभी तक छुए नहीं हैं.  सूचना तक पहुँच जाए - इतना काम किये हैं.  मानव चेतना को समझे हैं तभी मानव चेतना को सूचना विधि से प्रस्तुत कर पा रहे हैं.  जिसको लोग स्वीकार रहे हैं.  हमारे समझे होने की गवाही है दूसऱे में उसकी स्वीकृति हो जाना,  यही इसका कसौटी है.

आप लोग जो शुरू किये हो वह और सघन है.  आपकी मंशा है - समग्र समझ में आ जाए, अनुभव हो जाए, उसके बाद प्रमाणित होने के अर्थ में काम किया जाए.  इसमें मैं सहमत हूँ.  इसमें पहाड़ यह है - पीछे का मॉडल बरकरार रहे और यह करतलगत हो जाए, यह संभव नहीं है.  धीरे-धीरे यह समझ में आ जाता है कि पीछे का मॉडल अनावश्यक है.  

जैसे मैं भक्ति-विरक्ति के मॉडल में चला था.  जब मुझे समझ में आया कि भक्ति-विरक्ति सबके लिए मॉडल नहीं है, सबके लिए मॉडल समाधान-समृद्धि है, जो अनुभव मूलक विधि और अनुभवगामी पद्दति द्वारा लोकव्यापीकरण किया जा सकता है, तो मैं समाधान-समृद्धि के मॉडल में परिवर्तित हुआ.  इससे साधना-समाधि बाई-पास हो गया और उससे मिलने वाला फल मानव को अर्पित करना बन गया.  इससे किसको क्या तकलीफ है?

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Monday, October 17, 2016

जीवन ज्ञान

जीवन अपने स्वरूप में एक गठनपूर्ण परमाणु है.  जीवन में दस क्रियाएं हैं.  जीवन में दस क्रियाएं हैं.  जीव संसार में इसमें से केवल एक भाग व्यक्त होता है - मन में आशा.  जीव संसार जीने की आशा को चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) के रूप में व्यक्त करता है.  हर जीव का चार विषयों को व्यक्त करने का तरीका अपने वंश के अनुसार अलग-अलग हो गया.  गाय का तरीका अलग है, बाघ का तरीका अलग है, हाथी का तरीका अलग है.  मानव का जब प्रकटन हुआ तो उसने अपनी कल्पनाशीलता-कर्म स्वतंत्रता के आधार पर जीवों का अनुकरण किया और चार विषयों से ही शुरू किया।  अनुकरण करने की प्रवृत्ति अभी भी बच्चों में दिखाई देती है.  आज मानव अपने इतिहास में वहाँ पहुँच चुका है, जहाँ वह अध्ययन पूर्वक जीवन को समझ सकता है.

प्रश्न: जीवन में ऐसा क्या है जिससे जीवन जीवन का ज्ञान कर लेता है?  जीवन को अध्ययन करने का विधि जीवन में कैसे समाया है?

उत्तर: जीवन में "दृष्टा विधि" और "अनुभव विधि" निहित है.  शरीर और भौतिक-रासायनिक संसार का दृष्टा "मन" है.  मन का दृष्टा "वृत्ति" है.  विचार के अनुसार चयन हुआ या नहीं - इसका मूल्याँकन वृत्ति करता है.  वृत्ति का दृष्टा "चित्त" है.  इच्छा के अनुरूप  विश्लेषण हुआ या नहीं हुआ - इसका मूल्याँकन चित्त करता है.  चित्त का दृष्टा "बुद्धि" है.  अनुभव प्रमाण संकल्प के अनुरूप इच्छाएं (चित्रण) हुई या नहीं - यह मूल्याँकन बुद्धि करता है.  बुद्धि का दृष्टा "आत्मा" है.  अनुभव के अनुरूप बुद्धि में बोध पहुँचा या नहीं - इसका दृष्टा आत्मा है.  यह "दृष्टा विधि" है.  

मन वृत्ति में अनुभूत होता है - अर्थात मन वृत्ति के अनुसार चलता है.  वृत्ति चित्त के अनुसार चलता है - अर्थात चित्त का प्रेरणा वृत्ति स्वीकारता है.  बुद्धि आत्मा में अनुभूत होता है.  आत्मा सहअस्तित्व में अनुभूत होता है.

दृष्टा विधि और अनुभव विधि जीवन में ही बनी है, और कहीं नहीं।  जबकि आदर्शवाद ने कहा है - "ईश्वर दृष्टा, कर्ता और भोक्ता है."  यहाँ सह-अस्तित्ववाद में कह रहे हैं - "ईश्वर में जड़-चैतन्य प्रकृति प्रेरणा पाया है."  ईश्वर प्रेरक है - यह भी कहना बनता नहीं है.  ईश्वर कर्ता-पद में होता ही नहीं।

क्रमशः

श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Sunday, October 16, 2016

शिक्षा के लिए मार्गदर्शन




हर मानव संतान जन्म से ही न्याय का याचक है, सही कार्य-व्यव्हार करने का इच्छुक है और सत्य वक्ता है.  इसकी गवाही में हम हर मानव संतान को अपने अभिभावकों का आज्ञा-पालन और अनुसरण करता देख सकते है.  इसकी आपूर्ति के लिए अभिभावकों में न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित करने की अर्हता होनी चाहिए।  अभिभावकों में यह अर्हता  न होने से बच्चे अनाथ हो जाते हैं.  अभी यह मानते हैं, अभिभावक न होने पर बच्चे "अनाथ" हैं, जबकि यहाँ कह रहे हैं - अभिभावकों में न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित करने की अर्हता न होने से बच्चे "अनाथ" होते हैं.  न्याय प्रदायी क्षमता यदि हर व्यक्ति में पहुँचता है तो हम उग्रवाद, नक्सलवाद आदि अराजकता से मुक्त होंगे।

बच्चों को ऐसे "अनाथ" बनाने का कार्यक्रम अभी पहले अभिभावकों की गोद में होता है, फिर शिक्षण संस्थाओं में होता है.  अभी अभिभावकों और शिक्षण संस्थाओं में ऐसी अर्हता नहीं है कि मानव संतान में न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित करे.  धर्मगद्दी, राज्यगद्दी और शिक्षागद्दी को टटोलें तो उनमें यह अर्हता नहीं है.  यदि शिक्षा में अभी तक न्याय प्रदायी क्षमता को स्थापित करने का स्त्रोत नहीं है तो हमने अब तक मानवीयता का शिक्षा कहाँ से दिया?  अभी तक शिक्षा ने सिवाय अपराध प्रवृत्ति को पैदा करने के क्या किया?

न्याय के बारे में मैंने सूचना दिया है - संबंधों का पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन और उभय तृप्ति।

संबंधों में मानव रहता ही है.  गर्भ में रहता है तो भी सम्बन्ध है.  गोद में रहता है तो भी सम्बन्ध है.  उसके बाद दरवाजे पर आता है तो भी सम्बन्ध है.  सड़क पर जाता है तो भी सम्बन्ध है.  हर स्थान पर सम्बन्ध के बिना मानव नहीं है.  हर सम्बन्ध के प्रयोजन को पहचानना।  जैसे धरती पर पैर रखें तो धरती के प्रयोजन की पहचान।  माँ की गोद में बैठे हुए माँ के प्रयोजन की पहचान होना।  पिता के संरक्षण में पिता के प्रयोजन की पहचान होना।  भाई के प्रयोजन को पहचानना।  बहन के प्रयोजन को पहचानना।  बंधुओं के प्रयोजन को पहचानना।  उसके बाद जीव संसार, वनस्पति संसार और पदार्थ संसार के प्रयोजन को पहचानना।  इस प्रकार चारों अवस्थाओं के प्रयोजनों को पहचानना और उसके अनुसार संबंधों का निर्वाह - यह न्याय है.  इस प्रकार से जीने योग्य मानव संतान को तैयार करना जरूरी है या नहीं?

इसके लिए अभिभावकों को योग्य बनाने की योजना को "लोक शिक्षा योजना" नाम दिया।  इसके लिए जो केंद्र हैं (जैसे - अभ्युदय संस्थान) वहाँ इस बात को समझाने और समझे हुए को जीने में लाने के लिए अभ्यास करने का प्रावधान है.  जीने में ही समझे होने का प्रमाण मिलता है.  जीने से पहले समझ रहे हैं, यही प्रमाण है.  चारों अवस्थाओं के प्रयोजनों को समझना और उनके साथ संबंधों का निर्वाह होना।  संबंधों के निर्वाह में मूल्य होते ही हैं.  मूल्य निर्वाह होने पर मानव संबंधों में उभय तृप्ति और मनुष्येत्तर संबंधों में संतुलन प्रमाणित होता है.  न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित होने के लिए मानव संतान का अपनी पिछली पीढी के प्रति अनुग्रह भाव होना चाहिए।

ऐसी शिक्षा के लिए "समझदारी" एक मात्र स्त्रोत है.  समझदारी है - सहअस्तित्व रूपी परम सत्य का ज्ञान।  सहअस्तित्व रूपी परम सत्य समझ में आने पर सहअस्तित्व में जीने की इच्छा उदय होती है.  ज्ञान सूत्र रूप में रहता है.  सूत्रों की व्याख्या होने से विवेचना होती है कि ऐसे जीने में मेरा शुभ है और सर्वशुभ भी है, जो "विवेक" है.  यह कर्म-अभ्यास और व्यवहार-अभ्यास स्वरूप में "विज्ञान" है.  यदि हम विज्ञान को इस प्रकार पहचानते हैं तो अभी जो विज्ञान के नाम पर है - उसकी समीक्षा हो जाती है.  प्रचलित विज्ञान का जो ज्ञान भाग है - वह ठीक नहीं है, नियति विरोधी है.  नियति-सम्मत विज्ञान के नियमो को कर्म-दर्शन में लिखा है.  दसवीं कक्षा तक सभी उन नियमो का अध्ययन कराया जाए ताकि बारहवीं कक्षा तक सभी तकनीकी नियम पूरे हो जाएँ।  बारहवीं कक्षा के बाद बच्चों को कर्माभ्यास में जोड़ा जाए.  हरेक विद्यार्थी को २० से २५ प्रकार की आजीविका विधियों से अवगत और अभ्यास कराया जाए.  चारों अवस्थाओं के साथ अपने सम्बन्ध को समझते हुए जीने में न्याय को प्रमाणित करने की क्षमता को स्थापित किया जाए.  उसके बाद कहाँ चिंता है?

इस बुनियादी काम में कुछ लोगों के ज्यादा योगदान की आवश्यकता होगी, यह सच है.  जिनमें वह पुण्यशीलता है वे स्वयंस्फूर्त इसको करेंगे।  उसी विधि से यह सब काम चल रहा है.  मेरे हिसाब से सभी मानव पुण्यशील हैं, किसी को पापशील मैं मानता ही नहीं।  जब जागृति की ओर मानव कदम रखता है तो श्राप, ताप और पाप तीनो समाप्त हो जाते हैं.  जबकि आदर्शवाद में बताया गया है कि इन तीनों से मानव त्रस्त रहता है.  इससे मुक्ति पाने के लिए महापुरुषों का शरण, ईश्वर का शरण और ज्ञान का शरण ही उपाय है.  इसको वहाँ तरण-तारण कहा गया है.  जबकि आदर्शवादी विधि से ये तीनों रहस्य में हैं.  रहस्यमय होने के कारण ही इनका परंपरा बना नहीं।  जबकि सहअस्तित्ववादी विधि में बताया - ज्ञान रहस्य नहीं है, नित्य वर्तमान है.   ज्ञान को अनुभव मूलक विधि से प्रमाणित किया जाता है.  श्रवण/सूचना विधि से ज्ञान का अनुमान होता है और अनुभव मूलक विधि से इसका प्रमाण होता है.  "नियम", "नियंत्रण", "संतुलन", "न्याय", "धर्म" और "सत्य" सूत्रों का अध्ययन होना, फिर इनके अनुरूप जीने के लिए प्रवृत्त होना, फिर परिवार में समाधान-समृद्धि को प्रमाणित करना हर समझदार व्यक्ति का दायित्व है.

अध्ययन-क्रम में न्याय-धर्म-सत्य का प्रिय-हित-लाभ की तुलना में अधिक श्रेष्ठ होना स्वीकार हो जाता है.  इस प्रकार तुलन में स्वीकार होने पर अस्तित्व सहज न्याय-धर्म-सत्य चित्त में साक्षात्कार हो जाता है.  इस जगह का नाम है - अध्ययन।  जब तक यह साक्षात्कार नहीं होता तब तक हम अध्ययन के क्रम में ही हैं.  साक्षात्कार होने पर उसका बोध उसी क्षण होता ही है.  उसका अनुभव होता है.  फलस्वरूप समाधान-समृद्धि स्वरूप में जीने का प्रमाण मानव परंपरा में प्रवाहित होता है.  समाधान-समृद्धि संपन्न परिवार-जन सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी कर सकते हैं.  यदि यह डिजाईन आपको अधिक श्रेष्ठ स्वीकार होता है तो परिवर्तन निश्चित है.  यदि इस डिजाईन से मानव जाति का उद्धार होने का मार्ग समझ आता है तो इसके लिए हमें स्वयं को समर्पित करना चाहिए।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Saturday, October 15, 2016

निष्कर्ष


 
 
  • अध्ययन विधि से जागृत होना सबके वश का है.  दूसरा विधि साधना-संयम है, जिसको करना सबके वश का नहीं है.  सबके वश की जो बात न हो वह "विशेष" होगा ही.  विशेष छाती का पीपल होगा ही! 
  • स्वयं प्रमाणित स्वरूप में जिए बिना अध्ययन कराने जाएंगे तो आपकी बात को कोई मानने वाला नहीं है.  विद्यार्थी को वही संतुष्ट कर पायेगा को अनुभव मूलक विधि से जीता हो और अध्ययन कराता हो. 
  • व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण जड़-चैतन्य वस्तु को क्रिया करता हुआ, एक दूसरे के साथ उपयोगिता-पूरकता विधि से रहता हुआ मैंने अनुभव किया।  व्यवस्था के रूप में भी मानव-परस्परता में पूरकता-उपयोगिता तय हो जाता है.  इस तरह सह-अस्तित्व मानव परस्परता में समाधान स्वरूप में प्रमाणित होता है.  समाधान पूर्वक मानव धरती पर सदा-सदा जी सकते हैं.  मानव समस्या-ग्रस्त रहते तक धरती को परेशान करेगा ही. 
  • नियति का मानव को यही सन्देश है - "सुधर जाओ, नहीं तो मिट जाओ!"  तीसरा कोई रास्ता नहीं है.
  • सही तरीके से हम जो कुछ भी करते हैं, उसका प्रभाव विशाल होता है.  भ्रम पूर्वक हम कुछ भी करें, उसका प्रभाव संकीर्ण होता है. 
  • भय और प्रलोभन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.  प्रलोभन है तो भय है ही.  भय है तो प्रलोभन है ही.  भयभीत मानव आश्वासन का प्रलोभन चाहने लगता है.  प्रलोभन में डूबा मानव भय से पीड़ित होने लगता है.  यह भय और प्रलोभनवादी कार्यक्रम आदमी करता क्यों है?  सुख-शान्ति पूर्वक जीने के लिए.  
 
एक व्यक्ति के प्रयोग से यह धरती नहीं सुधरेगी, इसमें पूरी मानव जाति  को भागीदारी करनी पड़ेगी।  इसका क्रम निम्न प्रकार से रहेगा:
 
पहले, अपराध प्रवृत्ति से मुक्ति 
 
दूसरे, अपराध कार्यों से मुक्ति 
 
उसके बाद तीसरे, प्रदूषण को कम करने के लिए ऊर्जा-संतुलन के प्रयास।  अपराधिक विधि से ऊर्जा प्राप्त करने के तरीकों को बंद करना और वैकल्पिक विधि से ऊर्जा प्राप्त करने के तरीकों को स्थापित करना।  यदि यह हो पाता है तो अनुभव मूलक विधि से जीने का प्रयोजन सिद्ध होगा।
 
 
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
 
 

सहअस्तित्व में प्रकटनशीलता


मैंने जो साधना, समाधि, संयम पूर्वक अध्ययन किया, उसमें  सर्वप्रथम सह-अस्तित्व को देखा (मतलब समझा)।  सत्ता में संपृक्त प्रकृति स्वरूप में मैंने सह-अस्तित्व को पहचाना।  सहअस्तित्व स्वरूप में जड़-चैतन्य प्रकृति को जो देखा - यही "परम सत्य" है, "नित्य वर्तमान" यही है.  उससे यह स्पष्ट हो गया कि जगत शाश्वत है - इसमें कुछ पैदा नहीं होता है, न कुछ मरता है.  जगत में 'परिवर्तन' होता है और 'परिणाम' होता है - यह पता चल गया.  (जड़-जगत में मात्रात्मक परिवर्तन के साथ गुणात्मक परिवर्तन होता है और उसमें गठनशील परमाणुओं के रूप में परिणाम की अवधियां हैं.  चैतन्य जगत में केवल गुणात्मक परिवर्तन होता है और उसमे गठनपूर्ण परमाणु के रूप में 'परिणाम का अमरत्व' है.)  जड़-जगत में रचना-विरचना होती है, नाश कुछ नहीं होता।  (चैतन्य-प्रकृति में नाश भी नहीं होता और रचना-विरचना भी नहीं होती)

 प्रश्न: सत्ता में संपृक्त जड़ चैतन्य प्रकृति किस प्रकार से चार अवस्थाओं को प्रकट करती है?
उत्तर: सहअस्तित्व में प्रकटनशीलता स्वाभाविक है.  सहअस्तित्व के चार अवस्थाओं के रूप में प्रकट होने के लिए प्रकृति में तीन प्रकार की क्रियाएं हैं - भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया और जीवन क्रिया।  इन तीनों क्रियाओं का एक दूसरे से जोड़-जुगाड़ से चार अवस्थाएं बनते हैं.  यदि इनके आपस में जुड़ने से कुछ रह गया तो चार अवस्थाएं प्रकट नहीं होता।  इस प्रकटन को "करने वाला" कोई नहीं है।  यह प्रकटन स्वयंस्फूर्त होता है, किसी बाहरी हस्तक्षेप के कारण नहीं होता। 

प्रश्न:  चार अवस्थाओं के प्रकटन में सत्ता का क्या रोल है? 

उत्तर: सत्ता या परमात्मा का "करने वाले" के रूप में कोई रोल नहीं है.  सत्ता जड़-चैतन्य प्रकृति में प्रेरणा स्वरूप में प्राप्त है. परमात्मा में भीगे रहने से जड़ प्रकृति में क्रिया करने के लिए प्रेरणा है.  यह प्रेरणा न कभी बढ़ता है न घटता है. 

प्रश्न:  प्रकृति की क्रियाशीलता से सत्ता (व्यापक वस्तु) पर क्या प्रभाव पड़ता है या सत्ता में क्या अंतर आता है? 

उत्तर: प्रकृति की क्रियाशीलता से व्यापक वस्तु में कोई क्षति (घटना-बढ़ना) होता ही नहीं है.  व्यापक वस्तु में भीगे होने से प्रकृति को क्रिया की प्रेरणा सदा मिलता रहता है.  अभी मिला, बाद में नहीं मिला - ऐसा कुछ होता नहीं है.  यह प्रेरणा हर छोटे से छोटे वस्तु से लेकर बड़े से बड़े वस्तु तक समान स्वरूप में है.  परमाणु अंश में भी क्रियाशीलता देखी जाती है. 

प्रश्न: इस प्रकटन क्रम में क्या कोई व्यतिरेक हो सकता है?
उत्तर: सहअस्तित्व के प्राकृतिक स्वरूप में कोई भी प्रकटन होने के बाद उसकी "परंपरा" है.  इसमें व्यतिरेक केवल भ्रमित-मानव की प्रवृत्ति और कार्य-व्यवहार से होता है.  भ्रमित मानव को छोड़ कर विखंडन प्रवृत्ति किसी में नहीं है.  भ्रमित मानव यदि परमाणु अंश का भी टुकड़ा कर दे, तो भी हरेक टुकड़ा घूर्णन गति करता रहता है, और एक दूसरे  से जुड़के वे टुकड़े पुनः परमाणु अंश हो जाते हैं.  परमाणु अंश का स्वरूप सभी प्रजातियों के परमाणुओं में समान है.  समानता की शुरुआत परमाणु अंश से है. 

प्रश्न:  पदार्थावस्था के परमाणु अंश से शुरू करते हुए ज्ञान-अवस्था के मानव तक के प्रकटन क्रम को समझाइये?

उत्तर: अनेक संख्यात्मक परमाणु अंशों के योग से अनेक प्रजातियों के परमाणु हुए.  ऐसे भौतिक परमाणु जितने प्रजाति के होने हैं, वे सब होने के बाद भौतिक संसार तृप्त हो जाता है.  इस तृप्ति के फलस्वरूप उन परमाणुओं में यौगिक क्रिया करने की प्रवृत्ति बन जाती है.   स्वयंस्फूर्त विधि से यौगिक होते हैं.  यौगिक के प्रकटन में सम्पूर्ण प्रजातियों के परमाणु (भूखे और अजीर्ण) पूरक हो जाते हैं, सहायक हो जाते हैं.  सहअस्तित्व में प्रकटनशीलता का यह पहला घाट है. 

यौगिक विधि में सर्वप्रथम जल का प्रकटन हुआ.  यौगिक विधि द्वारा ही धरती पर प्राणावस्था का प्रकटन हुआ.  प्राणावस्था में जितना प्रजाति का भी झाड़, पौधा, औषधि, वनस्पति सब कुछ होना था, उतना होने के बाद जब प्राणावस्था  तृप्त हो गयी तब जीवावस्था के शरीरों की शुरुआत हुई.  जीवावस्था में भुनगी-कीड़ा से चलकर पक्षियों तक, पक्षियों से चल के पशुओं तक जलचर, थलचर, नभचर जीवों का प्रकटन हुआ, जिसमें अंडज और पिण्डज दोनों विधियों से शरीर रचना का होना स्पष्ट हुआ.  जीवावस्था में अनेक प्रकार के जीवों का प्रकटन हुआ जो उनकी आहार पद्दति के अनुसार दो वर्गों में - शाकाहारी और मांसाहारी हुए.  इनमे शाकाहारी जीवों में मांसाहारी जीवों  की अपेक्षा प्रजनन क्रिया अधिक होना देखा गया.  शाकाहारी जीव संसार के संख्या में संतुलन के अर्थ में माँसाहारी जीवों का प्रकटन हुआ - यह मुझे समझ में आया.  जीवावस्था के सभी वंश परंपराएं स्थापित होने के बाद मानव शरीर रचना प्रकट हुई.  मानव शरीर रचना पहले किसी जीव शरीर में ही तैयार हुआ, उसके बाद मानव शरीर परंपरा शुरू हुई,  हर प्रकटन में ऐसा ही है - अगला स्वरूप का भ्रूण पिछले में तैयार होता है, और अगला स्वरूप पिछले से भिन्न हो जाता है.  जैसे - ४ पत्ती वाले पौधे से ५० पत्ती वाले पौधे का प्रकटन हो जाता है.  प्राणकोशाओं  के प्राणसूत्रों में निहित रचना विधि में परिवर्तन होने के आधार पर यह होता है.  यह प्रकटन उत्सव, खुशहाली, प्रसन्नता, संतुलन, और नियंत्रण के आधार पर होता है.  मानव के प्रकटन से पहले धरती पर सघन वन, पर्याप्त जल, औषधि और सम्पूर्ण प्रकार के जीव संसार तैयार हो चुका  था.  इन्ही के बीच मानव पला.  इस तरह सहअस्तित्व सहज प्रकटन विधि से घोर प्रयास और घोर प्रक्रिया पूर्वक मानव का धरती पर प्रकटन हुआ.

प्रश्न: तो मानव में परेशानी कैसे और कब से शुरू हुई?

उत्तर:  मानव में परेशानी शुरू हुई भ्रम से!   भ्रम कहाँ से आया?  - जीवचेतना से.  मानव शरीर रचना में यह विशेषता आयी कि जीवन अपनी कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता को प्रकाशित कर सके.  मानव के प्रकटन से पहले जीव संसार प्रकट हो चुका था, इसलिए मानव ने अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करते हुए जीवों का अनुकरण किया, पहले जीवों के जैसा जीने का प्रयत्न किया फिर जीवों से अच्छा जीने का प्रयत्न किया।   इसके लिए जीवचेतना का ही प्रयोग किया। 

मानव ने अपने प्रकटन के साथ ही (भ्रम वश) प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ना शुरू किया।  पहले कृषि के लिए वन का संहार करना शुरू किया।  फिर विज्ञान आने के बाद खनिज का शोषण शुरू कर दिया।  वन और खनिज के संतुलन से ही ऋतु  संतुलन है. ऋतु  संतुलन के बिना मानव सुखी नहीं हो सकता।  मानव शरीर के लिए आवश्यक आहार पैदा नहीं हो सकता।  यह जो मैं बता रहा हूँ इसके महत्त्व को कैसे उजागर करोगे, सोचना!  यह वृथा नहीं जाना चाहिए!

मानव ने अपनी कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता का प्रयोग करते हुए मनाकार  को साकार करने का काम आवश्यकता से अधिक कर दिया, जबकि मनःस्वस्थता का भाग वीरान पड़ा रहा.  मनाकार को साकार करने में अतिवाद किया है यह धरती के बीमार होने से गवाहित हो गया है.  धरती के बीमार होने पर अब हम पुनर्विचार कर रहे हैं - ऐसा कैसे हो गया?  इसका उत्तर यही निकलता है - मानव के जीव चेतना में जीने से ऐसा हुआ. 

प्रश्न:  आपके अनुसंधान के मूल में जो जिज्ञासा थी - "सत्य से मिथ्या कैसे पैदा हुआ?" - उसका क्या उत्तर मिला?

उत्तर:  असत्य पैदा नहीं हुआ है.  अस्तित्व में कुछ भी असत्य नहीं है.  सहअस्तित्व रुपी अस्तित्व में असत्य का कोई स्थान ही नहीं है.  इसका मतलब, शास्त्रों में जो 'ब्रह्म सत्य - जगत मिथ्या' लिखा है - यह गलत हो गया.  इसकी जगह होना चाहिए - "ब्रह्म सत्य - जगत शाश्वत'.  इस तरह वेद विचार से मिली मूल स्वीकृति ही बदल गयी.   

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित  (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Saturday, August 20, 2016

The Minimum Beautiful


Shree A. Nagraj (1920-2016), who we used to affectionately call “Baba”, breathed his last on the morning of March 5th 2016 at his home in Amarkantak, surrounded by his disciples and family members.

I still get a lump in my throat when I recount my first meeting with Baba ji, at Amarkantak in November 2004.  I was accompanied by my wife Priyanka and our four-year-old daughter Gunjan.  He was resting on a divan in that quaint little dharmashala opposite Narmada Temple.  I mumbled my introduction, adding how happy I was seeing him in person.  He said – “Humans have been trying to find trust ever since they appeared on this Earth.  I discovered something through sadhana by which I have become rooted in trust, and I can teach you that.”  Something shattered inside me upon hearing this, and I wept silently as he continued with his narration.  I had found my teacher.  I surrendered to his purpose, his vision, and his program even without understanding a word of what he was saying that day.  There was no point in shedding tears over a shattered ego any more, I decided.  The rest of my story is about my trials of grasping what he had to teach.

There is no mystery in existence, he would say. Existence is orderly and harmonious as coexistence, and it can be studied, understood, and realized, and it is upon the realization that humans can evidence this knowledge in their living.  Knowledge is the calling of every human.  Every human has a thirst for knowledge, which can only be quenched through meaningful education.  He presented himself as living evidence, and that was his authenticity.  He taught about the orderliness and purpose in existence with this authenticity.  He gave logical reasoning to explain his realization in existence.  He said realization can be described in words.  He goes on to say that realization is the only thing that is worth describing.  What else do you want to use words for?  It soon became apparent that logic was not enough to grasp what he had to say.  Then what?  What do I have that can grasp what he is saying, to which I feel so profoundly attracted?  “Use your imagination” – Pat came the answer!  Imagination is what distinguishes we humans from animals.  Imagination is the prior form of knowledge.  Imagination can expand and resonate with reality, which results in its satisfaction and transformation.  Thus far in human history, humans used imagination only for materializing ideas.  Now use imagination for its own satisfaction.  There is no need to still the imagination through some meditation or chanting.  Nor is there any point in letting it lose for fancies.  Imagination can be guided by the use of definitions.  The definition is the set of words that indicate a reality in existence.  One who has realization (or the teacher) defines the realities and guides the imagination of the seeker (or the student) triggering a progression towards awakening.  Language is from tradition, but definitions are mine!  - He would claim.  Each human has the potential of awakening the latent faculties of their consciousness, by way of education or study.  It is simplicity itself.


This simplicity can be deceptive!  For it’s not that you listen to the definitions once and become awakened in the same instant!  Why not!?  The reason is, he said, this proposal is an alternative to whatever has been thought and done in human history thus far.  Humankind has thought and done only on the lines of Idealism and Materialism – which could not be adequate for satisfying their imagination or free will.  “My presentation is a new reference for human thinking.” – He clarified his stand and remained firm on it until his last breath.  You don’t understand it until you suspend your prior notions and pay full attention to what is being said here.  You need to pay attention to study, the teacher commanded!  Upon realization, attentiveness becomes natural.  But how does one let go of one’s prior notions or hang-ups?  If my previous notions are whatever has been thought and done in human history until now, then isn’t that all who I am?  He would counter – “No.. There is more to humans than these incorrect and incomplete notions, which are nothing but delusion.  Humans have a natural expectation of orderliness and harmony, which is their thirst for knowledge.  Study and practice under the guidance of a teacher instills understanding which results in one’s getting over those incorrect notions.”  The study is not a lonely pursuit.  It is an alive process; it is an affirmative process, with the active involvement of both teacher and student, which results in the student’s accomplishing integrity in thought, word and deed – like the teacher.  The process of study results in building an integral view of existence as an orderliness in a student – thereupon realization becomes imperative, which forms the basis of living with authenticity, as humaneness.  Humaneness, he said, is the dharma of all humans.  All humans are of one race.  In this way, he defined what it is to be a human - taking a position that there is nothing higher and nothing more dignified than human existence - as human-centric contemplation based on realization in existence, and thereby he postulated and demonstrated universal humane conduct - comprising of values, character and ethics - calling it "Madhyasth Darshan".

There was a sense of urgency in his appeals.  He would hold human delusion as the root cause of Earth’s condition. This delusion, he believed, led to climate change, global warming, pollution, terrorism, and fragmentation in society.  He was unsparing with his pointed critiques of both Vedic thought and Science, seeking no allegiance to rebels of these thoughts either, while very precisely acknowledging their contribution to humankind’s journey towards its awakening.  He said what he had to say, with his own definitions, and lived true to his own words.

Study, he used to say, is an “un-wounding process”.  You don’t need to do any excesses or exhibit bravado for doing this study, like leaving job or practising an austere life of renunciation or becoming an ascetic nomad.  Understand first, Do after that.  Take your family along.  Fulfill your responsibilities.  His message is about leading an integral life that is universal and therefore inclusive. You don’t need to “build” relationships.  You need to “recognize” the purpose of relationships in which you already are.  The world is not an illusion.  It is real. It is permanent.  It has stability.  It has definiteness.  Study is a natural and incremental progression to transition from animal consciousness to human consciousness.  There is no overlap between animal consciousness and human consciousness.  These are two planes of being.  All statuses of animal consciousness have a path of incremental progression to awakening or human consciousness.  Much to the chagrin of many of his followers, he wouldn’t give any toe-space between the two levels of consciousness, or concede any width to this transition, or allow anyone to do any kind of alteration or adulteration to make his message more palatable to crowds!  The transition in consciousness, he would say, is irreversible.  There is no way of forgetting that which you have understood.

The next generation is always ahead of the previous generations!   He used to say – "My model of living out this understanding is the minimum beautiful!  That which I understood through sadhana, you can understand through study.  Once you have understood, your imagination will further it and result in ever more beautiful expressions of this understanding!  Mine is only the minimum beautiful!”

He didn’t make anyone heir to his legacy but only offered his discovery as a gift to whole humankind.  While he declared himself to have understood existence and being a living evidence of understanding, he denied being a certifying authority for understanding of others.  He taught us, supported us while we practised walking in his footsteps, then encouraged us to take responsibility for ourselves and do a self declaration of awakening the way he did.

 What next…  Should we all go home now, as the class is over and the teacher is gone?  Or complete our education by walking resolutely on the path the teacher has shown?  I am for taking things to closure.  So is Priyanka, my wife.  So are many others…  What about you?

Rakesh Gupta

Sunday, July 24, 2016

अनुभव प्रमाण



जीवन में दसों क्रियाओं के क्रियाशील हुए बिना "प्रमाण" नहीं होगा।

न्याय-अन्याय से अध्ययन शुरू करते हैं.  जीव चेतना में (जीते हुए मानव को) अन्याय स्वीकार हुआ रहता है.  मानव चेतना में (जीता हुआ मानव) न्याय को स्पष्ट कर सकता है.  तुलनात्मक विधि से न्याय-अन्याय को स्पष्ट करते हुए न्याय में विश्वास दिलाता है. 

संबंधों का संबोधन जो हमारे पास पहले से है ही, उन संबंधों में प्रयोजन की पहचान और स्वीकृति कराते हैं.  नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म और सत्य के स्वरूप का हर सम्बन्ध में अध्ययन करा देते हैं.  संबंधों में ही जीना है.   यदि जीवन शरीर के साथ भी नहीं है तो भी उन्हीं संबंधों  में प्रेरणा देना होता है. 

(जीव चेतना में) शरीर मूलक विधि से संबोधनों के आधार पर परस्पर प्रेरणा देना होता है.  (मानव चेतना में) अनुभव मूलक विधि में संबंधों के प्रयोजनों के आधार पर परस्पर प्रेरणा देना होता है.  इस ढंग से जीने के कार्यक्रम में जीवन की दसों क्रियायें क्रियाशील हो जाती हैं. 

अध्ययन क्रम में साक्षात्कार होना एक क्रिया है.  साक्षात्कार के अनुसार बोध होना एक क्रिया है.  बोध के अनुसार अनुभव होना एक क्रिया है.  अनुभव के अनुसार (आत्मा में) प्रमाण होना एक क्रिया है.  बुद्धि में प्रमाण बोध होना एक क्रिया है.  प्रमाण बोध के अनुसार संकल्प होना एक क्रिया है.  यह साढ़े पाँच क्रिया हुई.  ऐसा होने पर चित्त में चिंतन के आधार पर चित्रण होना शुरू होता है.  उस चित्रण को दर्शन, वाद, शास्त्र स्वरूप में मैंने प्रस्तुत किया है. 

सारा वांग्मय चित्रण है, सूचना है.  अनुभव प्रमाण को चिंतन में लाकर चित्रण करने का काम मैंने पूरा कर दिया है.  तुलन में पहले (जीव चेतना में) जो हम न्याय-धर्म-सत्य को तौल नहीं पाते थे उसको तौलने योग्य हम हो गए. 

पठन साक्षात्कार की पृष्ठभूमि है.  साक्षात्कार होते तक अध्ययन है.  जीवन में तदाकार होने का गुण है - इसलिए साक्षात्कार होने पर वस्तु से जीवन तदाकार होना शुरू कर देता है.  तद्रूप-तदाकार विधि से जीवन में साढ़े चार क्रिया से साढ़े पाँच क्रिया जुड़ जाने पर पूरा जीवन अनुभव से भर जाता है. 

- दिसंबर २००८, अमरकंटक 

जीवन मूलक जीने का प्रस्ताव



मानव ने अपने इतिहास में आज तक शरीर मूलक जी कर देख लिया है.  यह जीवन मूलक जीने का प्रस्ताव है.  इसके लिए अनुभव मूलक विधि को मानव परंपरा में प्रमाणित होने की आवश्यकता है.  अनुभव मूलक विधि से मानव में न्याय प्रकट होता है, समाधान प्रकट होता है, नियम प्रकट होता है, नियंत्रण प्रकट होता है, संतुलन प्रकट होता है.  परम सत्य अनुभव में रहता है, जिसके आधार पर यह सब प्रकट होता है.  अनुभव से बड़ा "कामधेनु" क्या होता होगा? 

यह कार्यक्रम अनुभव मूलक विधि से जो समझदारी है उसको अनुभवगामी पद्दति से दूसरे को समझदार बनाने का है.  समझ पूर्वक ही अनुभव होता है. 

अध्ययन विधि से सत्य बोध हो जाता है.  सत्य बोध होने के बाद ही अनुभव होगा।  उसके पहले कभी अनुभव नहीं होगा।  सत्य बोध के अलावा सारा भड़ास ही है.  अनौचित्यता को बुद्धि नकारता है, वह अनुभव में जाता नहीं है. 

पदार्थ का नाश नहीं होता है, व्यापक वस्तु में परिवर्तन नहीं होता है.  व्यापक वस्तु अपने में कोई मात्रा नहीं है, उसके गुणों में कोई परिवर्तन नहीं होता।  व्यापक वस्तु के तीन आयाम हैं - व्यापकता, पारगामीयता और पारदर्शीयता। 

प्रश्न: समाधि में आपको कैसा लगता रहा?

उत्तर: गहरे पानी में डूब के आँखें खोलने पर जैसा लगता है, वैसा लगता रहा.  उसको मैंने 'आकाश' नाम दिया।  आकाश की पहले हम व्याख्या नहीं कर पाते थे.  संयम में स्पष्ट हुआ कि "अवकाश ही आकाश है".  इकाइयों के परस्परता में जो अवकाश है, वही आकाश है. सब जगह यही है.

समाधि काल में यह स्वीकृति थी कि "मैं हूँ" और "मेरी आशा, विचार, इच्छा चुप हो गयी हैं, उसका मैं दृष्टा हूँ". 

प्रश्न:  समाधि के बाद शरीर अध्यास होने पर क्या हुआ?

उत्तर: मैंने पाया मेरा वर्तमान से कोई विरोध नहीं रहा, और मुझे भूतकाल की कोई पीड़ा और भविष्य की कोई चिंता नहीं रही.  समाधि से मैं यहाँ तक पहुंचा, संयम में बाकी सब दर्शन का स्वरूप आ गया.

प्रश्न:  संयम के दौरान क्या होता था?

उत्तर:  इन्तजार करना, निरीक्षण करना और जो निरीक्षण किया उसके प्रति तीव्र संकल्पित होना।  यह निरीक्षण समाधि  और मेरी तीव्र जिज्ञासा के आधार पर हुआ. 

मैंने जो समाधि-संयम से इस ज्ञान को पाया, वह अँधेरे में हाथ मारने जैसा रहा.  अध्ययन विधि में वैसा नहीं है.  अर्थ साक्षात्कार होने तक तर्क-संगत विधि से अध्ययन है.  अर्थ साक्षात्कार होने के बाद बोध होना और अनुभव होना स्वाभाविक है.  इसमें तर्क नहीं पहुँचता।  अनुभव के बाद अनुभव बोध होने पर हम सब बातों को तर्क संगत विधि से व्यक्त करने योग्य हो गए.  तर्क का पहुँच अस्तित्व में वस्तु साक्षात्कार होने तक है. 

जैसे - पानी एक शब्द है.  पानी अस्तित्व में एक वस्तु है.  पानी को हम तर्कसंगत विधि से मानव को संबोधित करते हैं - इससे प्यास बुझती है, कपडा धुलता है, शरीर धुलता है, आदि.  आगे अध्ययन में तात्विक रूप में पानी एक जलने वाली वस्तु और एक जलाने वाली वस्तु के योग पूर्वक है - यह स्पष्ट करते हैं.  इसमें क्या तकलीफ है?  यदि तकलीफ नहीं है तो इसको स्वीकारो!  जिसमें तकलीफ नहीं है, वह स्वीकार होता ही है.  जिसमें तकलीफ है, वह स्वीकार होता नहीं है.  यहाँ प्रस्ताव में तकलीफ है - जीव चेतना से मानव चेतना में अंतरित होना।  जीवचेतना में जीने को सुविधाजनक मान लिया है, उसको गौण मानना तकलीफ देता है. 


- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित - दिसंबर २००८, अमरकंटक

न्याय की अपेक्षा



जीव चेतना में जीते तक न्याय की अपेक्षा तक बनता है, पर न्याय होता नहीं है.

- दिसंबर २००८, अमरकंटक


Tuesday, July 19, 2016

वैदिक विचार पर प्रश्न चिन्ह




आदर्शवाद के अनुसार मानव का अध्ययन नहीं है, न भौतिकवाद के अनुसार है.  भौतिकवाद ने मानव के स्वरूप की व्याख्या कामोन्मादी मनोविज्ञान, भोगोन्मादी समाजशास्त्र और लाभोन्मादी अर्थशास्त्र के रूप में किया।  आदर्शवाद ने मानव के कल्याण को रहस्य मूलक विधि से मोक्ष और स्वर्ग में बता दिया।  इसके बाद किससे बात करना शेष है, आप ही बताओ।  यह निष्कर्ष मैं २४ वर्ष की आयु में निकाल चुका था.  ऐसे में मैं किससे बात करता?

उस समय रमण महृषि के शिष्य काव्यकंठ गणपति शास्त्री मेरे पिताजी के काफी निकटवर्ती थे.  इस आधार पर हमारे परिवार में रमण महर्षि का बहुत सम्मान करते थे.  इसीलिए मैंने रमण महृषि से यह पूछा नहीं कि आपको समाधि हुआ है या नहीं?  जबकि मेरे पास यह पूछने का पूरा अधिकार था.   यह नहीं पूछना मेरे लिए वरदान हो गया.  यदि मेरा आस्था टूटता तो मैं यहाँ साधना करने के लिए नहीं आ पाता।  शास्त्रों में समाधि के लिए कहा है, और महापुरुषों का उसमें सहमति है -  इतनी आस्था को ले करके अब जो परिणाम होगा, सो होगा, यह सोच के मैं यहाँ आया.  ज्यादा से  ज्यादा क्या होगा - शरीर पात होगा!  दूसरा शरीर मिल जाएगा, क्या आपत्ति है?  इस दृढ़ निश्चय से मेरे जीवन में एक बहुत भारी उद्देश्य बन गया, उसमें निष्ठा बन गयी, उसके अनुसार साधना करना भी बन गया, और साधना का फल भी मिल गया.  साधना का फल मानव जाति के लिए उपकार का आधार बन गया.  यहाँ साधना के लिए आने से पहले मैंने थोड़े ही सोचा था कि मैं मानव जाति के लिए संविधान लिखूंगा या मुझे कोई दर्शन मिलेगा!  आप ही बताओ - मुझको उस समय कहाँ पता था?

जब वेद विचार ही प्रश्न चिन्ह में आ गया - जिसमे इतने बड़े भारी समर्पण के साथ लोग लगे हैं, उसके बाद क्या बचता है?  वेद तीन खण्ड में है - कर्म, उपासना और ज्ञान।  वेद का सार बात है - उपनिषद।  १०८ उपनिषद हैं।  उनका सार बात है - वेदान्त।  वेदान्त जब प्रश्न चिन्ह में आ गया, तीनों वेद जब प्रश्न चिन्ह में आ गया - तो फिर क्या बात करना है?  प्रश्न बना - सत्य से मिथ्या कैसे पैदा हो गया?  मैंने अपने परिवार जनों से पूछा - "बकरी से बकरी पैदा होता है, नीम के बीज से नीम ही उगता है.  ये कैसा ब्रह्म है, जो मिथ्या को पैदा किया?  मिले तो उसको जूता मारा जाए!"  मुझसे ज्यादा बागी कोई होगा?  ऐसे भद्दे तरीके से उस समय मेरे बोलने पर मेरी हत्या भी हो सकती थी.  मेरी हत्या इसी लिए नहीं हुई - मेरे मामा के कारण!  मेरे मामा ऐसे प्रचण्ड विद्वान थे, जिनके सामने सभी नतमस्तक थे.  उन्हीं से मैंने वेदान्त पढ़ा था.  वेदान्त को पूरा पढ़ने के बाद मेरे परीक्षण में उन्होंने कहा - "तुम वेदांत को ठीक समझे हो".  मैंने उनसे तीन बार यह बुलवाया।  फिर मैंने उनसे पूछा - तुम्हारा गुरु दक्षिणा क्या देना है.  उन्होंने कहा - तुम समझ गए, यही मेरा दक्षिणा है.  ऐसे उऋण होने के बाद मैंने उनसे अपनी बात बताने की अनुमति माँगी।  उन्होंने अनुमति दी तो मैंने उनको कहा - "ये जो तुम्हारा वेदान्त है - निरर्थक है, जूते के नीचे रखने के योग्य भी नहीं है!  सत्यम् ज्ञानम् अनन्तम् ब्रह्मम् से उत्पन्न जीव जगत मिथ्या कैसे है?  - तुम बताओगे?"  मेरे ऐसे वचन सुन के वे रोने लगे.  ऐसे भट्टी से मैं निकल के आया हूँ.  सेंतमेंत का मंथन नहीं है ये!  कुछ चुका कर ही यह मंथन हुआ है.  कोई मुझे पैसा चाहिए था, कोई ख्याति चाहिए था, कोई सम्मान चाहिए था - ऐसा कुछ भी आरोप नहीं लगा सकते।  स्वयं को चुकाया है, तब यह मंथन हुआ है.

उस समय यदि भारत के संविधान में राष्ट्रीय चरित्र का स्वरूप उद्घाटित हो जाता तो मैं यहाँ साधना करने नहीं आता!  राष्ट्र के हित में मैं कुछ काम करता।  मेरा माद्दा ऐसा ही रहा था.  पर जब राष्ट्र का चरित्र ही स्पष्ट न हो तो किस के लिए काम करें?  इसलिए उस प्रसंग को तिलांजलि दे दिया।  चींटी भी जी ही लेता है, हाथी भी जी ही लेता है - मैं भी जी लूँगा कैसे भी.  यहाँ अमरकंटक आ करके पत्ते आदि को खाके साधना करने लगा.  यहाँ के लोग मुझे ऐसे जीने नहीं दिए.  तो कृषि करके अपनी रोटी की व्यवस्था कर दिया, कुछ बचा तो कन्या-भोजन करा दिया।  ऐसे मैं चला हूँ.

-दिसंबर २००८, अमरकंटक