प्रश्न: आपने समाधानात्मक भौतिकवाद में प्रतिपादित किया है - "अस्तित्व में प्रत्येक एक अपने त्व सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदार है". "त्व" से क्या आशय है?
उत्तर: यदि भारत में कोई लोहा है तो कोई दूसरे देश में रहने वाला भी उसके लोहा ही होने में विश्वास करता है. भारत में रहने वाला भी उस लोहे को लोहा ही होने में विश्वास करता है. तो लोहे में "लोहत्व" होता है - इसमें मानव को संदेह नहीं है.
कुत्ता लन्दन में भी है, भारत में भी है. भारत वालों को लन्दन वाले कुत्ते का कुत्ता ही होना स्वीकारने में विश्वास है. लन्दन में रहने वालों के भारत वाले कुत्ते का कुत्ता ही होना स्वीकारने में विश्वास है. कुत्ते में "श्वानत्व" होता है - इसमें मानव को संदेह नहीं है.
अब भारत में मानव हैं, कोई दूसरा देश वाला उनके "मानव" होना स्वीकारने में विश्वास नहीं करता. न भारत वाला दूसरे देश में रहने वालों के "मानव" होना स्वीकारने में विश्वास करता है. इसका प्रमाण इतिहास में हुई मारकाट ही है.
हमारे अपने देश में ही एक आदमी दूसरे आदमी के साथ अभी तक कितना विश्वास कर पाया है?
इससे ज्यादा दुखद है जब परिवार में विश्वास की स्थिति को देखते हैं. परिवार में कितना विश्वास कर पाए? इसको लेकर सभी में कहीं न कहीं घायल होने का स्थिति बना ही है.
कुल मिला कर - मानव के त्व (या मानवत्व) की पहचान नहीं हुई.
मानव-मानव के बीच विश्वासार्जन अनुभव मूलक विधि से ही होगा.
जब हम स्वयं में विश्वास कर पाते हैं तो परिवार में विश्वास होगा. परिवार में विश्वास कर पाते हैं तो अडोस-पड़ोस में विश्वास होगा. अडोस-पड़ोस में विश्वास कर पाते हैं तो देश-धरती में विश्वास होगा. ऐसा विधि बनी हुई है.
मानव-मानव के बीच विश्वास के लिए "मानवत्व" एक महासेतु है. इसके आधार पर हम एक दूसरे को पहचान सकते हैं, विश्वास कर सकते हैं, व्यव्हार कर सकते हैं, व्यवसाय कर सकते हैं, अखंड समाज स्वरूप में सम्पूर्ण मानव जाति को पहचान सकते हैं, व्यवस्था में जी सकते हैं और उसके अनुसार सूत्र-व्याख्या को प्रस्तुत कर सकते हैं. यह समाधानात्मक भौतिकवाद का मतलब है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (२००५, रायपुर)
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