क्षमता = वहन क्रिया, योग्यता = प्रकाशन क्रिया, पात्रता = ग्रहण क्रिया
ये तीनों क्रियाएं हरेक एक में समाई हैं.
प्रश्न: तो क्या पत्थर में भी योग्यता (प्रकाशन क्रिया) है?
उत्तर: है, लेकिन उसको समझना मानव को ही है, समझ कर जीना मानव को ही है. यदि आप यह कह कर रुक जाते हैं कि "भौतिक वस्तु प्रकाशमान है" तो वह पर्याप्त नहीं हुआ, क्योंकि उसमे मानव involve नहीं हुआ. ग्रहण, वहन और प्रकाशन में मानव को पारंगत होना है न कि पत्थर को. फिर मानव को ही यह समझ में आता है कि सब में ग्रहण, वहन और प्रकाशन क्रिया है. उनमे यह क्रिया है, पर उसका ज्ञान नहीं है. यदि इसमें mixup कर देते हैं तो हम कुमार्ग पर चल देते हैं. भौतिकवाद इसी जगह तो अपनी मृत्यु पाया है!
प्रश्न: नहीं समझ आया... "भौतिक वस्तुएं प्रकाशमान हैं", इतना भर कहने में क्या दोष है? मानव को इसमें बीच में लाने की क्या ज़रूरत है? भौतिकवाद का कैसे इस जगह मृत्यु हो गया?
उत्तर: पत्थर में sincerity है, मानव में sincerity नहीं है - इस जगह पर है भौतिकवाद. ठीक से समझना इसको! भौतिकवाद के अनुसार यंत्र में sincerity है, मानव में sincerity नहीं है - जबकि मानव सभी यंत्र बनाता है. भौतिकवाद का इसमें मृत्यु नहीं होगा तो और क्या होगा? आदर्शवाद का मृत्यु तब हुआ जब वे बताये - प्रमाण का आधार किताब है, मानव नहीं है.
यहाँ हम कह रहे हैं - "प्रमाण का आधार मानव ही है." किस बात का प्रमाण: - निपुणता, कुशलता, पांडित्य का प्रमाण. ज्ञान, विवेक, विज्ञान का प्रमाण. समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व का प्रमाण. मानव को प्रमाण का आधार बताने के लिए मैंने सारा सारस्वत जोड़ा.
होने का प्रमाण हर वस्तु है. होने-रहने का प्रमाण मानव ही है.
जीव-संसार तक 'होने' की सीमा में ही है. होने-रहने की सीमा में मानव ही है.
जीव-संसार तक "होने" को सही माना है भौतिकवाद. मानव का "होना" भौतिकवाद से qualify नहीं हुआ, "रहना" qualify होना तो दूर की बात है.
प्रश्न: मिट्टी-पत्थर से लेकर जीव संसार तक "होने" को भौतिकवाद में किस आधार पर पहचाना? भौतिकवाद मानव के "होने" को किस प्रकार देखता है?
उत्तर: भौतिकवाद ने अपने उपयोग की commodity के अर्थ में मिट्टी-पत्थर के "होने" को पहचाना. इसी क्रम में बड़े-बड़े पहाड़ों को मैदान बना कर अपनी बहादुरी दिखाया और मान लिया कि मिट्टी-पत्थर को उसने पहचान लिया. उसी तरह जो कुछ भी भौतिकवाद ने पहचाना उसको अपने उपयोग के अर्थ में पहचाना. मानव को भी उसने अपने उपयोग की commodity के अर्थ में पहचानने का प्रयास किया. पैसे के आधार पर मानव के उपयोग को आंकलित किया - यह आदमी हजाररूपये योग्य है, यह लाख रूपये योग्य है, यह करोड़ रूपये योग्य है आदि. इसी क्रम में सारा शिक्षा व्यापार के लिए हो गया. भौतिकवाद मानव को एक commodity के रूप में सोचा. मानव को व्यापार में लगाया. जबकि व्यापार की सीमा में मानव नहीं आता, व्यापार में वस्तु आता है. व्यापार में मानव का मूल्यांकन नहीं होता.
मानव को छोड़ कर मानवेत्तर प्रकृति को समझ गया है, इस तरह अपनी विद्वता बघार रहा है भौतिकवाद. भौतिकवाद का सारा तर्क utility के आधार पर है. उसके अनुसार सर्वोच्च utility है - सीमा सुरक्षा के लिए. जबकि सीमा-सुरक्षा पर सभी अवैध को वैध माना जाता है.
मानव जब अपने में सोचता है तो स्वयं को एक commodity होना नहीं स्वीकार पाता. इसीलिये जहाँ आत्मीयता है, वहां व्यापार नहीं होता. जैसे - आप अपनी बेटी के साथ व्यापार नहीं कर सकते, जबकि आप जहाँ नौकरी करते हैं वहां व्यापार से अधिक की कोई बात नहीं है. "सम्बन्ध में आत्मीयता प्राथमिक वस्तु है" - यह कहीं माना ही नहीं गया. जबकि हम सब कुछ करके वहीं व्यय करते हैं जहाँ आत्मीयता पाते हैं. एक चोर चोरी करके लाता है, जहां आत्मीयता पाता है वहाँ उसको खर्च कर देता है. एक डाकू डाका डालके लाता है, जहाँ आत्मीयता पाता है, वहाँ उसको खर्च कर देता है. व्यापारी व्यापार करके लाता है, आत्मीयता की जगह में खर्च कर देता है. आप सोचिये यह कैसे होता है?
भौतिकवाद के चलते आदमी "नीचता" की ओर चल दिया. नीचता की ओर चलने का मतलब है - मानव का अवमूल्यन करके चल दिया. मानव को एक commodity के रूप में "होना" बता दिया. आदर्शवाद ने मानव के "होने" को लेकर कहा - "तुम ईश्वर का ही अंश हो, ईश्वर स्वरूप में समा जाओगे" उसके लिए त्याग, तप, भक्ति, विरक्ति को जोड़ दिया. वह भी प्रमाणित नहीं हुआ.
प्रश्न: आपने कहा - "होने-रहने का प्रमाण मानव ही है". मानव के होने और रहने को और समझाइये.
उत्तर: मानव होता भी है, रहता भी है. जिस तरह गाय का होना सार्वभौमिक है, वैसा अभी मानव के साथ नहीं है. क्योंकि मानव को मानव में एकात्मता का आधार समझ में नहीं आया. मानव में एकात्मता का आधार है - ज्ञान. ज्ञान रूप में हम एक होते हैं, विचार रूप में समाधानित होते हैं, कार्य रूप में अनेक होते हैं. यदि ज्ञान रूप में हम एक नहीं होते तो विचार रूप में समाधान होता नहीं है. ज्ञान के आधार पर विचार में समाधान होता है फिर उसके क्रियान्वयन में मानव के साथ व्यव्हार में न्याय और मानवेत्तर प्रकृति के साथ कार्य में नियम-नियंत्रण-संतुलन प्रमाणित होता है. यह सार्वभौम रूप में मानव के साथ वर्तने वाली प्रक्रिया हो गयी.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
ये तीनों क्रियाएं हरेक एक में समाई हैं.
प्रश्न: तो क्या पत्थर में भी योग्यता (प्रकाशन क्रिया) है?
उत्तर: है, लेकिन उसको समझना मानव को ही है, समझ कर जीना मानव को ही है. यदि आप यह कह कर रुक जाते हैं कि "भौतिक वस्तु प्रकाशमान है" तो वह पर्याप्त नहीं हुआ, क्योंकि उसमे मानव involve नहीं हुआ. ग्रहण, वहन और प्रकाशन में मानव को पारंगत होना है न कि पत्थर को. फिर मानव को ही यह समझ में आता है कि सब में ग्रहण, वहन और प्रकाशन क्रिया है. उनमे यह क्रिया है, पर उसका ज्ञान नहीं है. यदि इसमें mixup कर देते हैं तो हम कुमार्ग पर चल देते हैं. भौतिकवाद इसी जगह तो अपनी मृत्यु पाया है!
प्रश्न: नहीं समझ आया... "भौतिक वस्तुएं प्रकाशमान हैं", इतना भर कहने में क्या दोष है? मानव को इसमें बीच में लाने की क्या ज़रूरत है? भौतिकवाद का कैसे इस जगह मृत्यु हो गया?
उत्तर: पत्थर में sincerity है, मानव में sincerity नहीं है - इस जगह पर है भौतिकवाद. ठीक से समझना इसको! भौतिकवाद के अनुसार यंत्र में sincerity है, मानव में sincerity नहीं है - जबकि मानव सभी यंत्र बनाता है. भौतिकवाद का इसमें मृत्यु नहीं होगा तो और क्या होगा? आदर्शवाद का मृत्यु तब हुआ जब वे बताये - प्रमाण का आधार किताब है, मानव नहीं है.
यहाँ हम कह रहे हैं - "प्रमाण का आधार मानव ही है." किस बात का प्रमाण: - निपुणता, कुशलता, पांडित्य का प्रमाण. ज्ञान, विवेक, विज्ञान का प्रमाण. समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व का प्रमाण. मानव को प्रमाण का आधार बताने के लिए मैंने सारा सारस्वत जोड़ा.
होने का प्रमाण हर वस्तु है. होने-रहने का प्रमाण मानव ही है.
जीव-संसार तक 'होने' की सीमा में ही है. होने-रहने की सीमा में मानव ही है.
जीव-संसार तक "होने" को सही माना है भौतिकवाद. मानव का "होना" भौतिकवाद से qualify नहीं हुआ, "रहना" qualify होना तो दूर की बात है.
प्रश्न: मिट्टी-पत्थर से लेकर जीव संसार तक "होने" को भौतिकवाद में किस आधार पर पहचाना? भौतिकवाद मानव के "होने" को किस प्रकार देखता है?
उत्तर: भौतिकवाद ने अपने उपयोग की commodity के अर्थ में मिट्टी-पत्थर के "होने" को पहचाना. इसी क्रम में बड़े-बड़े पहाड़ों को मैदान बना कर अपनी बहादुरी दिखाया और मान लिया कि मिट्टी-पत्थर को उसने पहचान लिया. उसी तरह जो कुछ भी भौतिकवाद ने पहचाना उसको अपने उपयोग के अर्थ में पहचाना. मानव को भी उसने अपने उपयोग की commodity के अर्थ में पहचानने का प्रयास किया. पैसे के आधार पर मानव के उपयोग को आंकलित किया - यह आदमी हजाररूपये योग्य है, यह लाख रूपये योग्य है, यह करोड़ रूपये योग्य है आदि. इसी क्रम में सारा शिक्षा व्यापार के लिए हो गया. भौतिकवाद मानव को एक commodity के रूप में सोचा. मानव को व्यापार में लगाया. जबकि व्यापार की सीमा में मानव नहीं आता, व्यापार में वस्तु आता है. व्यापार में मानव का मूल्यांकन नहीं होता.
मानव को छोड़ कर मानवेत्तर प्रकृति को समझ गया है, इस तरह अपनी विद्वता बघार रहा है भौतिकवाद. भौतिकवाद का सारा तर्क utility के आधार पर है. उसके अनुसार सर्वोच्च utility है - सीमा सुरक्षा के लिए. जबकि सीमा-सुरक्षा पर सभी अवैध को वैध माना जाता है.
मानव जब अपने में सोचता है तो स्वयं को एक commodity होना नहीं स्वीकार पाता. इसीलिये जहाँ आत्मीयता है, वहां व्यापार नहीं होता. जैसे - आप अपनी बेटी के साथ व्यापार नहीं कर सकते, जबकि आप जहाँ नौकरी करते हैं वहां व्यापार से अधिक की कोई बात नहीं है. "सम्बन्ध में आत्मीयता प्राथमिक वस्तु है" - यह कहीं माना ही नहीं गया. जबकि हम सब कुछ करके वहीं व्यय करते हैं जहाँ आत्मीयता पाते हैं. एक चोर चोरी करके लाता है, जहां आत्मीयता पाता है वहाँ उसको खर्च कर देता है. एक डाकू डाका डालके लाता है, जहाँ आत्मीयता पाता है, वहाँ उसको खर्च कर देता है. व्यापारी व्यापार करके लाता है, आत्मीयता की जगह में खर्च कर देता है. आप सोचिये यह कैसे होता है?
भौतिकवाद के चलते आदमी "नीचता" की ओर चल दिया. नीचता की ओर चलने का मतलब है - मानव का अवमूल्यन करके चल दिया. मानव को एक commodity के रूप में "होना" बता दिया. आदर्शवाद ने मानव के "होने" को लेकर कहा - "तुम ईश्वर का ही अंश हो, ईश्वर स्वरूप में समा जाओगे" उसके लिए त्याग, तप, भक्ति, विरक्ति को जोड़ दिया. वह भी प्रमाणित नहीं हुआ.
प्रश्न: आपने कहा - "होने-रहने का प्रमाण मानव ही है". मानव के होने और रहने को और समझाइये.
उत्तर: मानव होता भी है, रहता भी है. जिस तरह गाय का होना सार्वभौमिक है, वैसा अभी मानव के साथ नहीं है. क्योंकि मानव को मानव में एकात्मता का आधार समझ में नहीं आया. मानव में एकात्मता का आधार है - ज्ञान. ज्ञान रूप में हम एक होते हैं, विचार रूप में समाधानित होते हैं, कार्य रूप में अनेक होते हैं. यदि ज्ञान रूप में हम एक नहीं होते तो विचार रूप में समाधान होता नहीं है. ज्ञान के आधार पर विचार में समाधान होता है फिर उसके क्रियान्वयन में मानव के साथ व्यव्हार में न्याय और मानवेत्तर प्रकृति के साथ कार्य में नियम-नियंत्रण-संतुलन प्रमाणित होता है. यह सार्वभौम रूप में मानव के साथ वर्तने वाली प्रक्रिया हो गयी.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
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