प्रश्न: मानव व्यवहार दर्शन में से निम्न सूत्र को समझना चाहते हैं.
"विषय चतुष्टय ही सबीज विचार है. लोकेषणा और एषणा मुक्ति निर्बीज विचार है. मानव पद में पुत्रेष्णा और वित्तेष्णा सबीज होते हुए भी मानव न्याय सम्मत समाधान संपन्न होता है. इसलिए 'मानव' भ्रम बाधा से मुक्त होता है तथा जागृत रहता है. जाग्रति पूर्ण होना शेष रहता है. मानव पद को भ्रान्ताभ्रांत भी संज्ञा है. मानव पद में सबीज विचार का समीक्षा हुआ रहता है."
उत्तर: "अनुभव होना दृष्टा पद है, मानव परंपरा में प्रमाणित करना जाग्रति है"- इस बात को याद रखना. नहीं तो यह बारम्बार hotch-potch करोगे.
सबीज विचार चार विषय (आहार-निद्रा-भय-मैथुन) और तीन एश्नाओं की सीमा में हैं. मानव तीन एश्नाओं के साथ मानव चेतना में जीते हुए व्यव्हार में न्याय करता है. विषयों के साथ न्याय नहीं होता. न्याय एश्नाओं के साथ ही होता है. निर्बीज विचार में तीनो एश्नाओं से मुक्ति है.
न्याय और धर्म को प्रमाणित करने के लिए एश्नाओं का होना आवश्यक है. शरीर छोड़ने के बाद न्याय और धर्म सत्य में विलय हो जाते हैं. शरीर छोड़ने के बाद जीवन सहअस्तित्व में रहता है.
मानव तीन एश्नाओं के साथ उपकार करता है.
देव मानव लोकेष्णा के साथ उपकार करता है.
दिव्यमानव में एषणा मुक्ति होती है, उपकार करना शेष रहता है.
"मानव जाग्रति पूर्ण होना शेष रहता है" - इसका अर्थ है प्रमाणित होना शेष रहता है. मानव में अनुभव पूरा रहता है, प्रमाणित होना शेष रहता है.
मानव पद को "भ्रान्ताभ्रांत" इसलिए कहा है क्योंकि वह भ्रान्ति और निर्भ्रान्ति दोनों का दृष्टा होता है. सही और गलत का ज्ञान हुआ रहता है.
"निर्भ्रान्त" वह स्थिति है जब संसार में भ्रान्ति कोई शेष नहीं बचा. संसार में मानव परम्परा में भ्रम का नहीं रहना ही निर्भ्रांत स्थिति है.
केवल व्यक्ति में "निर्भ्रांत" का कोई मतलब ही नहीं है. परम्परा नहीं है तो उसका क्या मतलब है?
अभी भ्रांत परम्परा है. मान लो मैं समझदारी से संपन्न हो जाता हूँ, लेकिन प्रमाणित नहीं होता हूँ - तो मैं जीवन स्वरूप में रह पाऊंगा, प्रमाण स्वरूप में नहीं रह पाऊंगा. जीवन स्वरूप में मरने के बाद ही रहना होता है. जीते-जागते प्रमाण हो गया तो परंपरा होगी. परम्परा नहीं होगी तो प्रमाण नहीं होगा.
ज्ञान के multiply होने की परंपरा होने में प्रमाण है. कुछ-एक व्यक्तियों के अनुभव संपन्न हो जाने से भी प्रमाण नहीं है. परंपरा में प्रमाण है. यह वैसे ही है जैसे - कोई प्रजाति का जीव धरती पर हुआ, वो चला गया - उसका कोई प्रमाण नहीं है. उसकी वंश परंपरा बनी तो उसका प्रमाण है. एक प्रजाति का परमाणु धरती पर प्रकट हुआ और चला गया - तो उसका कोई प्रमाण नहीं है. उसकी परिणाम परंपरा बनी तो उसका प्रमाण है.
परम्परा ही सहअस्तित्व है.
परंपरा ही प्रमाण है.
परम्परा ही जाग्रति है.
भ्रान्ताभ्रांत परम्परा का मतलब है - मानव चेतना में आ गए. व्यक्ति का भ्रान्ताभ्रांत होने से प्रमाण नहीं है, उसकी परंपरा होने से प्रमाण है. व्यक्ति के रूप में कोई भ्रान्ताभ्रांत हो कर चला भी गया तो उसका कोई प्रमाण नहीं है. उस व्यक्ति को ज्ञान (अनुभव) हुआ, पर वो प्रमाणित नहीं हुआ - यही कहना बनेगा.
भ्रांत, भ्रान्ताभ्रांत और निर्भ्रान्त शब्दों की सार्थकता मानव परंपरा के अर्थ में है, न कि व्यक्ति के.
आज की स्थिति में भ्रांत परम्परा है. भ्रान्ताभ्रांत परम्परा बनने के लिए हम नीव डाल रहे हैं. भ्रान्ताभ्रांत परम्परा बन जाता है तब निर्भ्रान्त परम्परा बनेगी. निर्भ्रान्त परम्परा को दिव्य मानव परंपरा कहा. उसके बाद परंपरा शाश्वत रहेगी. मानव पद में संक्रमित होने में ही देर है, उसके बाद देव पद और दिव्य पद पास-पास हैं. मानव पद (भ्रान्ताभ्रांत) की परंपरा होने पर बहुत से देव मानव हो ही जाते हैं. देव मानव परम्परा होने पर बहुत से दिव्य मानव हो ही जाते हैं.
दिव्य मानव परम्परा में मानव पद में युवावस्था तक पहुंचेंगे, युवावस्था के बाद देव मानव, दिव्य मानव में परिवर्तित हो जायेंगे.
मानव चेतना सहज परंपरा में विषय-चतुष्टय में से आहार, निद्रा और मैथुन शरीर परम्परा के लिए बने रहते हैं, लेकिन भय मुक्ति हो जाती है.
(भ्रान्ताभ्रांत) मानव परंपरा में समाधान-समृद्धि प्रमाणित होती है.
देव मानव परम्परा में समाधान-समृद्धि-अभय प्रमाणित होता है.
(निर्भ्रान्त) दिव्य मानव परम्परा में समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व प्रमाणित होता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
"विषय चतुष्टय ही सबीज विचार है. लोकेषणा और एषणा मुक्ति निर्बीज विचार है. मानव पद में पुत्रेष्णा और वित्तेष्णा सबीज होते हुए भी मानव न्याय सम्मत समाधान संपन्न होता है. इसलिए 'मानव' भ्रम बाधा से मुक्त होता है तथा जागृत रहता है. जाग्रति पूर्ण होना शेष रहता है. मानव पद को भ्रान्ताभ्रांत भी संज्ञा है. मानव पद में सबीज विचार का समीक्षा हुआ रहता है."
उत्तर: "अनुभव होना दृष्टा पद है, मानव परंपरा में प्रमाणित करना जाग्रति है"- इस बात को याद रखना. नहीं तो यह बारम्बार hotch-potch करोगे.
सबीज विचार चार विषय (आहार-निद्रा-भय-मैथुन) और तीन एश्नाओं की सीमा में हैं. मानव तीन एश्नाओं के साथ मानव चेतना में जीते हुए व्यव्हार में न्याय करता है. विषयों के साथ न्याय नहीं होता. न्याय एश्नाओं के साथ ही होता है. निर्बीज विचार में तीनो एश्नाओं से मुक्ति है.
न्याय और धर्म को प्रमाणित करने के लिए एश्नाओं का होना आवश्यक है. शरीर छोड़ने के बाद न्याय और धर्म सत्य में विलय हो जाते हैं. शरीर छोड़ने के बाद जीवन सहअस्तित्व में रहता है.
मानव तीन एश्नाओं के साथ उपकार करता है.
देव मानव लोकेष्णा के साथ उपकार करता है.
दिव्यमानव में एषणा मुक्ति होती है, उपकार करना शेष रहता है.
"मानव जाग्रति पूर्ण होना शेष रहता है" - इसका अर्थ है प्रमाणित होना शेष रहता है. मानव में अनुभव पूरा रहता है, प्रमाणित होना शेष रहता है.
मानव पद को "भ्रान्ताभ्रांत" इसलिए कहा है क्योंकि वह भ्रान्ति और निर्भ्रान्ति दोनों का दृष्टा होता है. सही और गलत का ज्ञान हुआ रहता है.
"निर्भ्रान्त" वह स्थिति है जब संसार में भ्रान्ति कोई शेष नहीं बचा. संसार में मानव परम्परा में भ्रम का नहीं रहना ही निर्भ्रांत स्थिति है.
केवल व्यक्ति में "निर्भ्रांत" का कोई मतलब ही नहीं है. परम्परा नहीं है तो उसका क्या मतलब है?
अभी भ्रांत परम्परा है. मान लो मैं समझदारी से संपन्न हो जाता हूँ, लेकिन प्रमाणित नहीं होता हूँ - तो मैं जीवन स्वरूप में रह पाऊंगा, प्रमाण स्वरूप में नहीं रह पाऊंगा. जीवन स्वरूप में मरने के बाद ही रहना होता है. जीते-जागते प्रमाण हो गया तो परंपरा होगी. परम्परा नहीं होगी तो प्रमाण नहीं होगा.
ज्ञान के multiply होने की परंपरा होने में प्रमाण है. कुछ-एक व्यक्तियों के अनुभव संपन्न हो जाने से भी प्रमाण नहीं है. परंपरा में प्रमाण है. यह वैसे ही है जैसे - कोई प्रजाति का जीव धरती पर हुआ, वो चला गया - उसका कोई प्रमाण नहीं है. उसकी वंश परंपरा बनी तो उसका प्रमाण है. एक प्रजाति का परमाणु धरती पर प्रकट हुआ और चला गया - तो उसका कोई प्रमाण नहीं है. उसकी परिणाम परंपरा बनी तो उसका प्रमाण है.
परम्परा ही सहअस्तित्व है.
परंपरा ही प्रमाण है.
परम्परा ही जाग्रति है.
भ्रान्ताभ्रांत परम्परा का मतलब है - मानव चेतना में आ गए. व्यक्ति का भ्रान्ताभ्रांत होने से प्रमाण नहीं है, उसकी परंपरा होने से प्रमाण है. व्यक्ति के रूप में कोई भ्रान्ताभ्रांत हो कर चला भी गया तो उसका कोई प्रमाण नहीं है. उस व्यक्ति को ज्ञान (अनुभव) हुआ, पर वो प्रमाणित नहीं हुआ - यही कहना बनेगा.
भ्रांत, भ्रान्ताभ्रांत और निर्भ्रान्त शब्दों की सार्थकता मानव परंपरा के अर्थ में है, न कि व्यक्ति के.
आज की स्थिति में भ्रांत परम्परा है. भ्रान्ताभ्रांत परम्परा बनने के लिए हम नीव डाल रहे हैं. भ्रान्ताभ्रांत परम्परा बन जाता है तब निर्भ्रान्त परम्परा बनेगी. निर्भ्रान्त परम्परा को दिव्य मानव परंपरा कहा. उसके बाद परंपरा शाश्वत रहेगी. मानव पद में संक्रमित होने में ही देर है, उसके बाद देव पद और दिव्य पद पास-पास हैं. मानव पद (भ्रान्ताभ्रांत) की परंपरा होने पर बहुत से देव मानव हो ही जाते हैं. देव मानव परम्परा होने पर बहुत से दिव्य मानव हो ही जाते हैं.
दिव्य मानव परम्परा में मानव पद में युवावस्था तक पहुंचेंगे, युवावस्था के बाद देव मानव, दिव्य मानव में परिवर्तित हो जायेंगे.
मानव चेतना सहज परंपरा में विषय-चतुष्टय में से आहार, निद्रा और मैथुन शरीर परम्परा के लिए बने रहते हैं, लेकिन भय मुक्ति हो जाती है.
(भ्रान्ताभ्रांत) मानव परंपरा में समाधान-समृद्धि प्रमाणित होती है.
देव मानव परम्परा में समाधान-समृद्धि-अभय प्रमाणित होता है.
(निर्भ्रान्त) दिव्य मानव परम्परा में समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व प्रमाणित होता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
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