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Wednesday, July 31, 2019

अनुभव दर्शन है - अनुभव स्वरूप में जीना.


अनुभव दर्शन का मतलब है - सहअस्तित्व अनुभव में आना.  सहअस्तित्व समझ में आना समझदारी की सम्पूर्णता है.  सहअस्तित्व समझ में आने से विकासक्रम अनुभव में आना, विकास अनुभव में आना, जाग्रति-क्रम अनुभव में आना, जाग्रति अनुभव में आना.  यही अनुभव में आने का वस्तु है.  इसी के साथ नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म और सत्य अनुभव में आता है.  यह स्थिति-सत्य, वस्तुस्थिति सत्य और वस्तुगत सत्य के रूप में पूरा व्याख्या हो जाता है.

इस तरह सहअस्तित्व अनुभव में आने पर "समझदारी" को समझाने का परम्परा बनता है.  परम्परा में अभी तक एक तरफ "यांत्रिकता" को समझाने की बात हुई, दूसरी तरफ "रहस्य" को समझाने की बात हुई.  अभी हम सहअस्तित्व को समझाने के लिए तैयार हुए हैं.  सहअस्तित्व में विकासक्रम, विकास, जाग्रतिक्रम, जाग्रति को समझाने के योग्य हम हुए हैं.  यह अधिकार सम्पन्नता हमारे पास है.  इसके आधार पर मानव को समझदार बनाने की कोशिश कर रहे हैं.  इसमें कुछ दूर तक हम चले हैं, कुछ दूर चलना शेष है.  इस तरह हमारा गति बना है.  इसको पूरा समझा ले जाने के बाद मानव अनुभवमूलक विधि से ही जियेगा.  दूसरा कोई रास्ता नहीं है.  अनुभवगामी पद्दति से यदि हम अध्ययन कराते हैं तो अनुभवमूलक विधि से ही प्रमाणित होना बनता है.

अनुभव दर्शन है - अनुभव स्वरूप में जीना.  जीने का नाम है दर्शन.  बातचीत दर्शन नहीं है.  जीना दर्शन है.  दृश्य के रूप में मानव का "होना" और "जीना" दर्शन का आधार है.  मानव के "होने" के स्वरूप को हम पहचानते ही हैं.  मानव के अनुभव स्वरूप में "जीने" का स्वरूप जाग्रति कहलाया.

अनुभव स्वरूप में जीने के पहले की स्थिति में मनुष्य "समझा हुआ" या "दृष्टा पद" में हो सकता है.  इसको बता नहीं पाता है तो अलग बात है.  इस तरह संभव है विगत में भी लोग हुए हों जो दृष्टा पद में हुए हों, प्रमाण स्वरूप में प्रस्तुत न हो पाए हों.  पहले कोई ज्ञानसंपन्न नहीं हुए - इसका दावा हम नहीं कर सकेंगे.  अभी तक "ज्ञान का प्रमाण" तो नहीं हुआ.  ज्ञान का प्रमाण अभी मध्यस्थ दर्शन ही प्रस्तुत किया.  ज्ञान का प्रमाण मतलब - व्यवस्था, अखंडता, सार्वभौमता, अक्षुण्णता वैभव सम्पन्नता.

प्रश्न: "समाधानात्मक भौतिकवाद" से क्या आशय है?

उत्तर: भौतिक रासायनिक वस्तुएं समाधान के रूप में हैं, समस्या के रूप में नहीं हैं.  हर वस्तु अपने त्व सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदार है.  इसका अर्थ है - नियम, नियंत्रण, संतुलन पूर्वक रहता है. इस तरह भौतिक वस्तुओं को हम व्यवस्था स्वरूप में होना देखते हैं तो हम स्वयं व्यवस्था में होने का प्रेरणा पाते हैं.  उसमे ज्यादा से ज्यादा यौगिक विधि को देख कर प्रेरणा मिलती है.  एक दूसरे से मिलकर गुणात्मक परिवर्तन को कैसे प्रमाणित करें - उसके बारे में हम सोच सकते हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (२००५, रायपुर)

Monday, July 29, 2019

निराकार और साकार



साकार और निराकार की बहुत चर्चाएं हुई हैं.  यह सम्माननीय तर्क भी है, विचार भी है.  इसका समाधान भी उतना ही सम्मान करने योग्य है.  अस्तित्व को यदि समझना है तो यह ध्यान देना आवश्यक है कि साकार और निराकार अलग-अलग होता नहीं है.  हमारा अभी तक का प्राणसंकट रहा है कि साकार और निराकार अलग-अलग है.  हमारे पूर्वज (आदर्शवाद) बताये - साकार अलग चीज़ है, निराकार अलग चीज़ है.  इसको मैंने पाया - "साकार और निराकार सदा-सदा साथ ही रहते हैं."  यदि यह हमें अच्छे से समझ में आता है तो इसमें ९९% समस्याओं का समाधान है.  मैंने इसको लिखा है - "सहअस्तित्व नित्य वर्तमान है.  साकार वस्तु के बिना निराकार वस्तु का पहचान नहीं है, निराकार के बिना साकार वस्तु में ऊर्जा सम्पन्नता का स्त्रोत नहीं है."  इससे ज्यादा क्या शब्दों में लिखा भी जा सकता है?  इससे ज्यादा क्या लिखना भी चाहिए?


निराकार और साकार साथ-साथ रहने के आधार पर हम निराकार को भी पहचानते हैं, साकार को भी पहचानते हैं.  यदि ये दोनों साथ-साथ न हों तो दोनों की पहचान नहीं हो सकती.  इसकी गवाही है - साकार को विज्ञानी जो पहचानने गए, पहचान नहीं पाए.  निराकार को ज्ञानी जो पहचानने गए, पहचान नहीं पाए.  इस धरती के ७०० करोड़ आदमी के सामने यह गवाहित हो चुका है.  और इस तरह सिर कूटना हो तो कूट लें!

विज्ञानी साकार को लेकर सत्य को खोजना शुरू किया, ज्ञानी निराकार को लेकर सत्य को खोजना शुरू किया.  दोनों खोजते रह गए, पराभावित हो चुके.  सत्य का अता-पता नहीं चला.  आज तक कोई विज्ञानी यह कहने योग्य नहीं है कि यह सत्य है.  कोई भी ज्ञानी इस धरती पर नहीं है जो सत्य को प्रमाणित करने के योग्य हो.  इस धरती पर तो नहीं है.  यह मैं अपनी जिम्मेदारी से कह रहा हूँ.  इसको मैं अच्छी तरह से जांच चुका हूँ.  मेरे ज्ञान पटल पर गुजर चुका है धरती का मानव.  मेरे चित्रमाला में न आया हो ऐसा कोई घटिया आदमी नहीं, ऐसा कोई बढ़िया आदमी नहीं.  सबको मैं देख चुका हूँ.  समाधि-संयम जो मैंने किया उसका यदि कोई त्राण-प्राण है, तो वह यही है.

ऐसा समीक्षित होने पर मेरे प्रस्तुत होने का ताकत बढ़ी.  इस प्रस्ताव को हम "विकल्प" स्वरूप में रख सकते हैं - यह ताकत बनी.  आज के संसार के सामने "यह विकल्प है" - ऐसा प्रस्तुत कर देना आसान तो नहीं है.  यह महत पुण्य का प्रताप ही है.  इसको मैंने लिखा है - "मानव पुण्य के आधार पर यह घटित हुआ है."  मानव पुण्य इतना विकसित हो चुका है - इसीलिये इस विकल्प के प्रकटन होने की घटना घटित हुई.

निष्कर्ष यह निकला:  अनिश्चित लक्ष्य के लिए की गई साधना करके इस उपलब्धि (मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना) को हम प्रमाणित करेंगे - ऐसा कभी हो ही नहीं सकता.

अनिश्चित लक्ष्य के लिए साधना के लिए मैं कोई उपदेश दे नहीं पाऊंगा.  मैं यह ठोक-बजाऊ विधि से अवश्य कहूँगा - पूरा का पूरा सच्चाई को मैं शब्द स्वरूप में प्रस्तुत किया हूँ, वह आपके लिए सूचना है.  सूचना के आधार पर आपमें जिज्ञासा होता है तो हम आपको अध्ययन करायेंगे.  अध्ययन पूर्वक आपको सत्य बोध करायेंगे.  बोध कराने पर आपमें उसको प्रमाणित करने का तीव्र संकल्प होगा, फलस्वरूप वह अनुभव मूलक विधि से प्रमाणित होगा.  इसको मैं देखा हूँ - यह सभी मनुष्यों के साथ रखी सम्भावना है.  यह सम्भावना ज्ञानी, विज्ञानी, अज्ञानी तीनो में समान रूप से है.  जो जितना confusion में है उसको उतना ज्यादा ध्यान देना होगा.  IIT जैसे सर्वोच्च कहलाने वाले संस्थानों में मैंने देखा - वे जितना पढ़े हैं, उतना उनमे confusion है, निर्णय ले पाने में असमर्थता है.  जितना ज्यादा पढ़ा उनका उतना मानसिक रूप में टुकड़ा बना रहता है.

प्रश्न:  क्या ईश्वर साकार स्वरूप भी है और क्या उसका साक्षात्कार संभव है, जैसा आपको बनारस में साधना के दौरान (समाधि-संयम से पहले) हुआ?

उत्तर: यदि कोई साक्षात्कार हुआ होगा तो वह "साकार" होना ही होगा.  साक्षात्कार प्रकृति का ही होता है.  प्रकृति का आकार बनाना हमारा मानसिक कला है.  वह कला हमारे मन में बनता है और बिगड़ता भी है.  मुझ में वह थोड़ा ज्यादा देर तक रह गया - इसलिए उसको साक्षात्कार माना.  इसमें किसको क्या तकलीफ है?  मनाकार स्थिर होने से उसको हम साक्षात्कार मानते हैं.  मनाकार स्थिर नहीं होने से हम साक्षात्कार नहीं मानते हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (२००५, रायपुर)

Saturday, July 27, 2019

कारण, गुण, गणित स्वरूप में मानव भाषा





गणितात्मक भाषा जोड़ने-घटाने से सम्बंधित है.

गुणात्मक भाषा उपयोगिता और सदुपयोगिता को पहचानने से सम्बंधित है.

कारणात्मक भाषा में प्रयोजनों को सिद्ध करने की विधि आती है.  कारणात्मक भाषा सत्य को इंगित करता है.  सत्य सार्वभौमता में प्रमाणित होता है.

उपयोगिता का निर्वाह = न्याय.  सदुपयोगिता का निर्वाह = धर्म (समाधान).  प्रयोजनशीलता का निर्वाह = सत्य.

सहअस्तित्व प्रमाणित होना ही प्रयोजन है.  हमारी भाषा, भाव, मुद्रा, अंगहार, व्यवहार से सहअस्तित्व प्रमाणित होना ही प्रयोजन है.

उपयोगिता व सदुपयोगिता व्यव्हार में या परस्परता में (जीने में) प्रमाणित हो जाता है.  उपयोगिता परिवार में तथा सदुपयोगिता अखंड-समाज में समझ आता है.  सार्वभौमता या प्रयोजनशीलता अनुभवमूलक विधि से ही आता है.  अनुभव के बिना कारणात्मक स्वरूप में प्रयोजन सिद्द नहीं होता.  इसीलिये कारणात्मक भाषा दी जाती है.  कारणात्मक विधि से प्रयोजनशीलता सिद्ध होता है.

गणित आँखों से अधिक है पर समझ से कम है.  समझ को लेकर गुणात्मक और कारणात्मक भाषा है.  गुणात्मक भाषा में उपयोग-सदुपयोग प्रमाणित हो जाते हैं.  उत्पादन (व्यवसाय) और व्यवहार गणितात्मक और गुणात्मक भाषा से सिद्ध हो जाता है.  उसके बाद कारणात्मक भाषा से प्रयोजन सिद्ध होता है.  प्रयोजन सिद्ध होने का मतलब है - परम सत्य स्वरूपी सहअस्तित्व समझ में आना और प्रमाणित होना.

पूरा दर्शन कारणात्मक भाषा में लिखा गया है.  विचार (वाद) और शास्त्र को गुणात्मक भाषा में लिखा गया है.  गुणात्मक भाषा से उपयोग और सदुपयोग का स्वरूप स्पष्ट होता है.  दर्शन से प्रयोजन का स्वरूप स्पष्ट होता है.  इस प्रकार पूरा वांग्मय कारणात्मक और गुणात्मक भाषा में लिखा गया है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)


 - श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

सम-विषमात्मक प्रभाव की सीमा


प्रश्न:  आपने लिखा है - "आत्मा पूर्ण मध्यस्थ व नित्य शांत है, इस पर सम या विषम का आक्रमण सिद्ध नहीं होता है."  इसको स्पष्ट कर दीजिये.

उत्तर: अनुभव करने वाले जीवन के मध्यांश को "आत्मा" नाम दिया है.   उस पर सम-विषमात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है, इसीलिये वह सुरक्षित रहता है.  जब आवश्यकता बनता है तब वह अनुभव में आ जाता है.  अनुभव मानव परम्परा में ही प्रमाणित होता है.

प्रश्न: क्या जीवन के प्रथम परिवेश "बुद्धि" पर सम-विषम का आक्रमण हो सकता है?

उत्तर:  नहीं.  बुद्धि पर भी सम विषम का आक्रमण सिद्ध नहीं है.  चित्त के चिंतन भाग पर भी नहीं.  शरीर मूलक जीते तक चित्रण, तुलन, विश्लेषण, आस्वादन व चयन पर सम-विषम का प्रभाव होता है.

प्रश्न:  आत्मा को आपने "सर्वज्ञ" संज्ञा किस आधार पर दी है?

उत्तर: आत्मा से अधिक जानने वाला कोई वस्तु होता नहीं है.  अनुभव से अधिक जानना कुछ होता नहीं है.  सहअस्तित्व में अनुभव से अधिक जानने की वस्तु नहीं है.  दूसरे किसी विधि से इससे ज्यादा कुछ होता नहीं है - इसलिए ऐसा लिखा है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Friday, July 26, 2019

भ्रांत अवस्था की सीमा

प्रमाणित होने में वरीयता क्रम


प्रश्न: दिव्यमानव एषणा मुक्त विधि से किस प्रकार मानवीयता पूर्ण आचरण का निर्वाह करता है?  क्या मानवीयता पूर्ण आचरण करने के लिए जन बल, धन बल और यश बल की आवश्यकता नहीं है?

उत्तर:  शरीर यात्रा पर्यंत न्याय सहज, समाधान सहज, सत्य सहज निर्वाह करने में एश्नाओं की अनिवार्यता नहीं है.  यह वरीयता की बात है.  सत्य पूर्वक जीने में न्याय और धर्म पूर्वक जीना समाया रहता है.  अनुभव के बाद वरीयता क्रम में जाग्रति का प्रमाण होता है - पहले न्याय, फिर धर्म, फिर सत्य.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Thursday, July 25, 2019

परम्परा ही सहअस्तित्व है. परंपरा ही प्रमाण है. परम्परा ही जाग्रति है.





प्रश्न:  मानव व्यवहार दर्शन में से निम्न सूत्र को समझना चाहते हैं.

"विषय चतुष्टय ही सबीज विचार है.  लोकेषणा और एषणा मुक्ति निर्बीज विचार है.  मानव पद में पुत्रेष्णा और वित्तेष्णा सबीज होते हुए भी मानव न्याय सम्मत समाधान संपन्न होता है.  इसलिए 'मानव' भ्रम बाधा से मुक्त होता है तथा जागृत रहता है.  जाग्रति पूर्ण होना शेष रहता है.  मानव पद को भ्रान्ताभ्रांत भी संज्ञा है.  मानव पद में सबीज विचार का समीक्षा हुआ रहता है."

उत्तर:  "अनुभव होना दृष्टा पद है, मानव परंपरा में प्रमाणित करना जाग्रति है"- इस बात को याद रखना.  नहीं तो यह बारम्बार hotch-potch करोगे.

सबीज विचार चार विषय (आहार-निद्रा-भय-मैथुन) और तीन एश्नाओं की सीमा में हैं.  मानव तीन एश्नाओं के साथ मानव चेतना में जीते हुए व्यव्हार में न्याय करता है.  विषयों के साथ न्याय नहीं होता.  न्याय एश्नाओं के साथ ही होता है.  निर्बीज विचार में तीनो एश्नाओं से मुक्ति है.

न्याय और धर्म को प्रमाणित करने के लिए एश्नाओं का होना आवश्यक है.  शरीर छोड़ने के बाद न्याय और धर्म सत्य में विलय हो जाते हैं.  शरीर छोड़ने के बाद जीवन सहअस्तित्व में रहता है. 

मानव तीन एश्नाओं के साथ उपकार करता है. 
देव मानव लोकेष्णा के साथ उपकार करता है.
दिव्यमानव में एषणा मुक्ति होती है, उपकार करना शेष रहता है.

"मानव जाग्रति पूर्ण होना शेष रहता है" - इसका अर्थ है प्रमाणित होना शेष रहता है.  मानव में अनुभव पूरा रहता है, प्रमाणित होना शेष रहता है.

मानव पद को "भ्रान्ताभ्रांत" इसलिए कहा है क्योंकि वह भ्रान्ति और निर्भ्रान्ति दोनों का दृष्टा होता है.  सही और गलत का ज्ञान हुआ रहता है.

"निर्भ्रान्त" वह स्थिति है जब संसार में भ्रान्ति कोई शेष नहीं बचा.  संसार में मानव परम्परा में भ्रम का नहीं रहना ही निर्भ्रांत स्थिति है. 

केवल व्यक्ति में "निर्भ्रांत" का कोई मतलब ही नहीं है.  परम्परा नहीं है तो उसका क्या मतलब है?

अभी भ्रांत परम्परा है.  मान लो मैं समझदारी से संपन्न हो जाता हूँ, लेकिन प्रमाणित नहीं होता हूँ - तो मैं जीवन स्वरूप में रह पाऊंगा, प्रमाण स्वरूप में नहीं रह पाऊंगा.  जीवन स्वरूप में मरने के बाद ही रहना होता है.  जीते-जागते प्रमाण हो गया तो परंपरा होगी.  परम्परा नहीं होगी तो प्रमाण नहीं होगा.

ज्ञान के multiply होने की परंपरा होने में प्रमाण है.  कुछ-एक व्यक्तियों के अनुभव संपन्न हो जाने से भी प्रमाण नहीं है.  परंपरा में प्रमाण है.  यह वैसे ही है जैसे - कोई प्रजाति का जीव धरती पर हुआ, वो चला गया - उसका कोई प्रमाण नहीं है.  उसकी वंश परंपरा बनी तो उसका प्रमाण है.  एक प्रजाति का परमाणु धरती पर प्रकट हुआ और चला गया - तो उसका कोई प्रमाण नहीं है.  उसकी परिणाम परंपरा बनी तो उसका प्रमाण है.

परम्परा ही सहअस्तित्व है.
परंपरा ही प्रमाण है.
परम्परा ही जाग्रति है.

भ्रान्ताभ्रांत परम्परा का मतलब है - मानव चेतना में आ गए.  व्यक्ति का भ्रान्ताभ्रांत होने से प्रमाण नहीं है, उसकी परंपरा होने से प्रमाण है.  व्यक्ति के रूप में कोई भ्रान्ताभ्रांत हो कर चला भी गया तो उसका कोई प्रमाण नहीं है.  उस व्यक्ति को ज्ञान (अनुभव) हुआ, पर वो प्रमाणित नहीं हुआ - यही कहना बनेगा.

भ्रांत, भ्रान्ताभ्रांत और निर्भ्रान्त शब्दों की सार्थकता मानव परंपरा के अर्थ में है, न कि व्यक्ति के.

आज की स्थिति में भ्रांत परम्परा है.  भ्रान्ताभ्रांत परम्परा बनने के लिए हम नीव डाल रहे हैं.  भ्रान्ताभ्रांत परम्परा बन जाता है तब निर्भ्रान्त परम्परा बनेगी.  निर्भ्रान्त परम्परा को दिव्य मानव परंपरा कहा.  उसके बाद परंपरा शाश्वत रहेगी.  मानव पद में संक्रमित होने में ही देर है, उसके बाद देव पद और दिव्य पद पास-पास हैं.  मानव पद (भ्रान्ताभ्रांत) की परंपरा होने पर बहुत से देव मानव हो ही जाते हैं.  देव मानव परम्परा होने पर बहुत से दिव्य मानव हो ही जाते हैं.

दिव्य मानव परम्परा में मानव पद में युवावस्था तक पहुंचेंगे, युवावस्था के बाद देव मानव, दिव्य मानव में परिवर्तित हो जायेंगे. 

मानव चेतना सहज परंपरा में विषय-चतुष्टय में से आहार, निद्रा और मैथुन शरीर परम्परा के लिए बने रहते हैं, लेकिन भय मुक्ति हो जाती है.

(भ्रान्ताभ्रांत) मानव परंपरा में समाधान-समृद्धि प्रमाणित होती है.
देव मानव परम्परा में समाधान-समृद्धि-अभय प्रमाणित होता है.
(निर्भ्रान्त) दिव्य मानव परम्परा में समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व प्रमाणित होता है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)






'ज्यादा समझा" - "कम समझा" का झंझट



मनुष्येत्तर प्रकृति में चेतना को प्रकाशित करने वाला जीव संसार है.  वन्शानुशंगी विधि से जीव संसार में जीवनी क्रम को प्रमाणित किया.  जैसे जीवों में जीवनी क्रम है, वैसे मानव में जाग्रति क्रम है.  कोई "ज्यादा समझा" है, कोई "कम समझा" -  यह झंझट आदिकाल से है.  समझदारी को लेकर अनुसंधान होने पर अब जाकर यह स्पष्ट हुआ कि "ज्यादा समझा" - "कम समझा" कुछ होता नहीं है.  "समझा" या "नहीं समझा" होता है.  यहाँ पहुंच गए हम!  ज्ञान की कोई मात्रा तो होती नहीं है.  ज्ञान हुआ या नहीं हुआ - इतनी ही बात है.

अनुभव में ज्ञान हो जाता है, उसको प्रमाणित करना क्रमशः होता है.  अभी जैसे मैं ही हूँ, सम्पूर्ण अस्तित्व को अध्ययन किया हूँ, अनुभव किया हूँ, स्वयं प्रमाणित हूँ - लेकिन समझाने/प्रमाणित करने में क्रम ही है.  पहले न्याय प्रमाणित होगा, न्याय प्रमाणित होने के बाद धर्म प्रमाणित होगा, धर्म प्रमाणित होने के बाद ही सत्य प्रमाणित होगा.

प्रश्न: तो अभी आप क्या प्रमाणित कर रहे हैं?

उत्तर: न्याय और धर्म को प्रमाणित कर रहे हैं.  अभी सत्य प्रमाणित करने का जगह ही नहीं बना है.  कालान्तर में बन जाएगा तो प्रमाणित होगा.  सत्य प्रमाणित होना मतलब सहअस्तित्व प्रमाणित होना, मतलब व्यवस्था प्रमाणित होना.  सत्य प्रमाणित होने के पहले अखंड समाज सूत्र-व्याख्या होना होगा.  धर्म (समाधान) अखंड-समाज सूत्र व्याख्या का आधार है.  समाधान को मैं प्रमाणित करता हूँ - यह मैं घोषित कर चुका हूँ.  यही प्रश्न मुक्ति अभियान है.  मुझे अपने परिवार के सदस्यों के साथ न्याय करने में कोई परेशानी नहीं है.

प्रश्न:  लेकिन दोनों पक्षों के समझदार हुए बिना "उभय तृप्ति" कहाँ हुई?

उत्तर: उभय तृप्ति तो दोनों के समझदार होने पर ही है.  मैं न्याय पूर्वक जीता हूँ, उससे मुझे स्वयं में तृप्ति है.  मेरे ऐसे जीने के प्रमाण में दोनों को तृप्ति मिलनी है, उसके लिए मैं प्रयत्नशील हूँ.  ऐसे कुछ सम्बन्ध हो चुके हैं, कुछ होना शेष है.  इसमें क्या तकलीफ है?  वह सब सही है, इसमें कोई परेशानी नहीं है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

अनुभव एक साथ ही होता है, प्रमाणित होना क्रम से होता है



प्रश्न:  आपने अनुभव दर्शन में लिखा है - "दिव्यमानव को ब्रह्मानुभूति, देवमानव को ब्रह्म प्रतीति, मानवीयता पूर्ण मानव को ब्रह्म का आभास और अमानव को भी ब्रह्म का भास होता है."

इससे ऐसा आशय जा रहा है कि मानव पद में अनुभव सम्पन्नता नहीं है, केवल आभास ही है.  जबकि आपने कई स्थानों पर स्पष्ट किया है कि अनुभव सम्पन्नता के बाद ही मानव पद है.  इसको स्पष्ट कीजिये.

उत्तर: व्यापक वस्तु (ब्रह्म) के प्रमाणित होने के सम्बन्ध में यह लिखा है.  अनुभव में पूरा ज्ञान रहता है, वह क्रम से प्रमाणित होता है.  भास, आभास, प्रतीति और अनुभूति - प्रमाणित होने के ये चार स्तर हैं.

अमानव (पशु मानव, राक्षस मानव) में भी ब्रह्म का भास होना पाया जाता है.  भास प्रमाणित नहीं होता.  भास में प्रमाणित होने की आशा रहती है.  न्याय की आशा सबके पास है.

मानव चेतना युक्त मानव में ब्रह्म-आभास न्याय स्वरूप में प्रमाणित होता है.

देव चेतना युक्त मानव में ब्रह्म-प्रतीति समाधान (धर्म) स्वरूप में प्रमाणित होता है.

दिव्य चेतना युक्त मानव में ब्रह्म-अनुभूति सत्य (सहअस्तित्व) स्वरूप में प्रमाणित होता है.

यही चेतना में वरीयता या श्रेष्ठता का मतलब है.  दिव्यचेतना में समानता ही होता है.  ज्ञान में अनुभव एक साथ ही होता है, प्रमाणित होना क्रम से होता है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Wednesday, July 24, 2019

समग्र वस्तु का क्रमिक साक्षात्कार

प्रश्न: "साक्षात्कार क्रमिक होता है.  एक-एक वास्तविकता का साक्षात्कार होता है" - ऐसा आपने बताया है.  साथ ही आप यह भी कहते हैं - "समझ का भाग-विभाग नहीं होता.  दो ही स्थितियां हैं - समझे या नहीं समझे."  जब समझने की प्रक्रिया क्रमिक है तो समझ की उपलब्धि क्रमिक कैसे नहीं है?

उत्तर: सहअस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व समझने की समग्र वस्तु है.  अस्तित्व व्यापक में अनंत एक-एक समाये हुए होने के स्वरूप में है.  एक-एक का अध्ययन करते हुए अस्तित्व को टुकड़ों में माना जाए या एक समग्र वस्तु माना जाए?  अस्तित्व एक "समग्र वस्तु" है.

व्यापक वस्तु को छोड़ कर कोई अध्ययन नहीं है.  व्यापक वस्तु में एक-एक का अध्ययन है.  एक-एक वस्तु को चार अवस्थाओं में पहचाना.  इनमे सिन्धु-बिंदु न्याय को पहचाना.  एक वस्तु का अध्ययन होने से उस अवस्था की सारी वस्तुओं का अध्ययन हो जाता है.  चारों अवस्थाओं का स्वभाव-धर्म अलग-अलग बताया.

एक-एक का गणना होता है.  एक-एक वस्तु व्यापक में अविभाज्य है.  एक-एक वस्तु अलग-अलग होता है, उसकी अलग-अलग पहचान है, इसलिए उनका अलग-अलग अध्ययन भी है.  व्यापक वस्तु का अनुभव होता है.  व्यापक वस्तु का अनुभव होता है तो "समझे".  उससे पहले "नहीं समझे".

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)



Monday, July 22, 2019

वातावरण

हमने प्रतिपादित किया है: - "इकाई + वातावरण = इकाई सम्पूर्ण"

जैसे: - एक झाड का जो क्रियाकलाप रहता है उसके अनुसार झाड़ का वातावरण है.

पदार्थ के क्रियाकलाप के अनुसार पदार्थ का वातावरण है.

जीव के क्रियाकलाप के अनुसार जीव का वातावरण है.  जीव का क्रियाकलाप जीने की आशा के अनुसार है.

मनुष्य का वातावरण ही उसके सोच-विचार के अनुसार होता है.  बाकी सब में उनके कार्य करने से उनका वातावरण बनता है.  मनुष्य कार्यकलाप नहीं करता, ऐसा नहीं है.  मनुष्य का कार्यकलाप उसके सोच-विचार के अनुसार होता है.  आदिकाल से अब तक ऐसा ही है. 

आपके सोच-विचार से आपका वातावरण बना है.  सोच-विचार का स्त्रोत जीवन है - यह हम मध्यस्थ दर्शन में घोषणा किये हैं.  आपका सोच-विचार ही आपके वातावरण को बनाया है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

रहस्य मुक्ति



प्रश्न:  अकस्मात् घटनाओं के रूप में कई लोग ऐसा सत्यापन किये हैं कि उन्होंने शरीर से अलग कुछ होता है, उसको देखा है.  उसको भूत-प्रेत-आत्मा आदि नाम लेकर कुछ बताते हैं.  अपने आप के शरीर से भिन्न होने की पहचान कुछ तंत्र/अभ्यास विधियों में कराई जाती है - आप के अनुसार वह क्या है?  साक्षात्कार है या कोरी कल्पना है?

उत्तर: साक्षात्कार है - यदि यह आगे पूरी समझ से जुड़ता है.  यदि आगे समझ से नहीं जुड़ता है तो रहस्य है, कोरी कल्पना है.

प्रश्न:  आदि शंकराचार्य के बारे में कहते हैं वे अपने शरीर को एक अवधि तक छोड़ दिए फिर वापस आ गए.  इसको आप क्या कहेंगे?  

उत्तर: शरीर से अलग हो जाना फिर वापस जीने लगना एक बात है, पर वह जीवन के स्वरूप का अध्ययन हो जाना नहीं है.  शंकराचार्य ये जो किये इससे जीवन और शरीर अलग-अलग वास्तविकताएं हैं - यह कहाँ सिद्ध कर पाए?  जीवन को जानते ही नहीं रहे.  वो जितना किये उसको बताया जाए, उसको अपने मन मुताबिक़ रबड़ जैसे खींचा न जाए!

उस परंपरा में शरीर से अलग "जीव" होता है - बताया गया है.  "जीव" के ह्रदय में "आत्मा" रहता है, जो ब्रह्म का अंश है - ऐसा बताया है.  जीव-कल्याण के लिए आत्म-ज्ञान चाहिए - ऐसा बताये.  आत्म-ज्ञान की महिमा वश ऐसे घटना होता है - ऐसा मान लिए.  अब आप उसका इस दर्शन के प्रस्ताव के साथ घोटाला करना चाहते हैं!  उससे कुछ निकलना नहीं है.

आदि शंकराचार्य के समय तक जीवन की कोई अवधारणा नहीं है.  अध्यात्मवाद में "जीव" और "आत्मा" की अवधारणा है.  भौतिकवाद में उस सब को नहीं मानते हैं, उसको निरर्थक कहते हैं.  अध्यात्मवादी भौतिकवादियों को नास्तिक कहते हैं.

प्रश्न:  तो आदि शंकराचार्य के साथ यह जो घटा, उसको "साक्षात्कार" माना जाए या नहीं?

उत्तर: किसका साक्षात्कार माने?  घटना तो अस्तित्व में होता ही रहता है.  शंकराचार्य के पहले भी होता रहा, किन्तु वे "जीवन" को कहाँ पहचाने?

प्रश्न:  मान लिया वे पूरे को नहीं समझ पाए, पर आंशिक तो...

उत्तर: तो आप कह रहे हैं, वे "आंशिक" समझ गए!  यह अतिवाद है.  समझे हैं, या नहीं समझे हैं - यही होता है.  वे क्या "आंशिक" समझे, आप वही बता दो!  यहीं हम अतिवाद करते हैं. 

पहले जो बताया गया है, उसमे "जीव" का जिक्र है, "जीव" के ह्रदय में "आत्मा" का जिक्र है.  यह मैं भी पढ़ा हूँ.  भौतिकवादियों को इससे लेन-देन नहीं है, उनको केवल शरीर से मतलब है.  भौतिकवादियों ने प्रतिपादित किया - "रचना के आधार पर चेतना निष्पन्न होता है"  अध्यात्मवादियों ने ब्रह्म को चेतना बताया, उसी को ज्ञान बताया, उसी से पदार्थ पैदा हुआ - यह बताया.  ये दोनों श्वेत-पत्र सिद्ध हो गया है.  इन दोनों को अजमाने पर पता चला कि ये दोनों झूठ बोल रहे हैं.  श्वेत-पत्र का मतलब है - झूठ को सच बताना. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Thursday, July 18, 2019

मनः स्वस्थता का स्वरूप

प्रकृति ने मानव को प्रकटित कर दिया, कल्पनाशीलता-कर्म स्वतंत्रता सहित!  मानव शरीर रचना ऐसा हुआ कि जीवन उससे कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता को प्रकाशित कर सके.  कर्म स्वतंत्रता के प्रयोग से मानव ने मनाकार को साकार करने का काम पूरा कर लिया.  मनः स्वस्थता का भाग वीरान पड़ा रहा.  उसको पूरा किया जाए!  मनः स्वस्थता न होने का कारण है - संवेदनाओं का अनियंत्रित रहना.  संवेदनाएं नियंत्रित रहने के लिए संज्ञानशीलता ही एक मात्र शरण है.

मनः स्वस्थता न होने का दर्द आदर्शवाद व्यक्त किया है, पर मनः स्वस्थता प्रमाणित करने का काम आदर्शवाद कर नहीं पाया.  कोई भी मूल्य आदर्शवादी विधि से परंपरा में प्रमाणित नहीं हुआ.  आदर्शवादी विधि में परिवार को छोड़ कर विरक्ति में जाने की बात रही.  भक्ति-विरक्ति परिवार के साथ अविश्वास को स्थापित करके गया, उसके बाद क्या उसका बात करना है?

दूसरी ओर भौतिकवाद संसार को राक्षस बनके भक्षण करके जीने की बात ही किया.  उसमे संसार के साथ विश्वास कहाँ है?  इतना ही है मूल सूत्र.

साक्षात्कार के बारे में आदर्शवाद में कहा गया, किन्तु वह परंपरा में प्रमाणित नहीं हुआ.  "साक्षात्कार" शब्द आदर्शवाद ने दिया किन्तु वह व्यव्हार में प्रमाण परंपरा नहीं हुआ.  इतना ही बात है.

साक्षात्कार का अर्हता जीवन में रहता है किन्तु परम्परा में प्रमाण नहीं है.  मानव ने अभी तक भौतिक संसार का साक्षात्कार किया है और कल्पनाशीलता का साक्षात्कार किया है - किन्तु मूल्यों का साक्षात्कार किया नहीं है.  मूल्यों का साक्षात्कार करने का प्रमाण अभी तक मानव परंपरा में हुआ नहीं.  कल्पनाशीलता का साक्षात्कार हुआ है - तभी तो मनाकार को साकार कर पाया है और मानव आप जहाँ है वहां पहुंचा है.  मनः स्वस्थता का अभिलाषा मानव में बना ही है.  मनः स्वस्थता का स्त्रोत मानव को ही बनना था, वह नहीं बना.  मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने का स्त्रोत मानव ही है.  मनः स्वस्थता को अभी तक मानव परम्परा में या तो सुविधा-संग्रह से जोड़ लिया गया या भक्ति-विरक्ति से जोड़ लिया गया.  सहअस्तित्ववाद में मनः स्वस्थता के मानव परंपरा में स्वरूप को समाधान-समृद्धि होना समझाया गया है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

परिवर्तन के लिए हम जहाँ हैं वहाँ से विकासोनुम्खता को पहचानना होगा

परिवर्तन के लिए हम जहाँ हैं वहाँ से विकासोनुम्खता को पहचानना होगा.  हम बर्बाद करते रहे और विकास की बात करते रहे तो वह श्वेत पत्र (सफ़ेद झूठ) हो गया कि नहीं?  अभी सर्वोपरि विद्वान ऐसा ही कर रहे हैं.  यह एक दुखदायी स्थिति है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ सम्वाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Wednesday, July 17, 2019

साक्षात्कार के लिए गति


प्रश्न: साक्षात्कार के लिए अपनी गति कैसे बनाई जाए?

उत्तर: संबंधों का प्रयोजनों को पहचानने के बाद गति बनेगी.  संबंधों का प्रयोजन यदि समझ नहीं आया तो हमारा गति कैसे होगा?  उसके लिए अध्ययन ही एक मात्र रास्ता है.  इसमें मनमानी लगता नहीं है.  प्रयोजन के साथ जुड़ने पर गति होता ही है.

निष्ठा पूर्वक परिवार में निर्वाह होने से अग्रिम गति होता है.  समझदार परिवार में संबंधों का निर्वाह होता है.  फिर शेष संसार के साथ हम संबंधों का निर्वाह करते हैं, जबकि वहाँ से वो नहीं करते हैं -  ऐसे में हमारा संबंधों के निर्वाह में विचलित नहीं होना ही हमारी समझदारी का प्रमाण है.  सामने वाला समझता नहीं है - इसलिए हम उनका तिरस्कार कर दें, उपेक्षा कर दें - यह हमारी समझ का प्रदर्शन नहीं है.  उसकी जगह इसको ऐसे देखना - हम समझा नहीं पा रहे हैं, समझाने का नया तरीका हमको शोध करना है.  कोई समझता नहीं है तो उसको कंडम (condemn) नहीं करना है.  अस्तित्व में कंडम करने वाली कोई वस्तु नहीं है.  सभी वस्तुएं एक दूसरे से जुड़ी हैं.  हमारे ज्ञान में कमी रहती है, इसलिए हम दूसरे को कंडम करते हैं.  ज्ञान में कमी दुरुस्त हो गया तो अपने सम्प्रेष्णा के तरीकों को बदलना, तो हम समझाने में सफल हो जाते हैं.  यह मैं स्वयं करता  हूँ.  मेरे पास तो सभी प्रकार के लोग आते ही हैं.
 
समझने के बाद संसार से कोई शिकायत नहीं रहता.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Wednesday, July 3, 2019

हर समझ अनुभव के साक्षी में ही स्वीकृत होता है



प्रश्न: "हर समझ अनुभव के साक्षी में ही स्वीकृत होता है" - आपके इस कथन का क्या आशय है?

उत्तर: मानव में जो कुछ भी समझ के रूप में स्वीकृत होता है - वह अनुभव के साक्षी में ही होता है.  अनुभव के साक्षी का अर्थ है - अनुभव होने वाला है या अनुभव हो गया है.  एक व्यक्ति को अनुभव हो गया है, एक को अनुभव होगा - इस विधि से परंपरा होती है.  जब कोई अनुभव मूलक विधि से व्यक्त होता है तो वह दूसरे में अनुभव की रोशनी में ही स्वीकार होता है.

प्रश्न: दूसरे में "अनुभव की रोशनी" का क्या अर्थ है?

उत्तर: पहले में अनुभव रहता है, दूसरे में अनुमान रहता है.  अनुमान अपने में रोशनी है.  अनुभव रोशनी है ही.  अनुमान और अनुभव में coherence अध्ययन विधि से आता है.  आपको मेरा जीना देख के अनुमान होता है कि मैं अनुभव मूलक विधि से व्यक्त हो रहा हूँ.  जब आप स्वयं उसके योग्य हो जाते हैं तो आप स्वयं प्रमाण हो जाते हो.  इस ढंग से न्याय-धर्म-सत्य सम्मत परम्परा की सम्भावना उदय हुई.

अभी तक की परंपरा में कहा गया था - ज्ञान अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है.  उसके विकल्प में यहाँ हम कह रहे हैं - ज्ञान व्यक्त है, वचनीय है, अनुभवगम्य है.  ज्ञान वचन पूर्वक व्यक्त होता है, जो दूसरे में अनुमान पूर्वक स्वीकार होता है, अनुभव में आता है, फिर पुनः प्रमाणित होता है.

अनुभव में शब्द पहुँचता नहीं है.  साक्षात्कार तक ही शब्द है.  अनुभव जब होता है - उसमे शब्द नहीं है.  अनुभव को लेकिन शब्द से समझाया जा सकता है.  अनुभव के अर्थ में हम शब्दों का प्रयोग कर स्सकते हैं.  अनुभव मध्यस्थ क्रिया है.  मध्यस्थ क्रिया सबको संतुलित बना कर रखने वाली क्रिया है, इसी प्रकार शब्द को भी संतुलित बना दिया.  शब्द/भाषा संतुलित बनाने पर हम संसार में समझदारी के अर्थ में सम्प्रेष्णा करते हैं.  ऐसे अनुभव सकारात्मक सम्प्रेष्णा के लिए आधार बन गया.  यह अक्षय स्त्रोत है, जो कभी समाप्त नहीं होता - इसलिए ज्ञान व्यापार, धर्म व्यापार होता नहीं है.

-श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)