ANNOUNCEMENTS



Friday, February 2, 2024

जागृति क्रम में आत्मा की स्थिति


 जागृति क्रम में मनुष्य में सुख की आशा आत्मा और बुद्धि की क्रियाओं के चुप "होने" का फल है.  

आत्मा और बुद्धि की क्रियाओं के "रहने" का प्रमाण नहीं मिला, फलस्वरूप सुख की आशा बना रहा.

प्रश्न: जागृति क्रम में आत्मा (जीवन परमाणु का मध्यांश) गठनपूर्णता को बनाये रखने के अलावा क्या और कुछ करता है?

उत्तर: और क्या करना है?  और करना तो यही है - सुख को प्रकट करना है, अनुभव को प्रकट करना है.  अनुभव के प्रकट होने तक चुप रहता है.

प्रश्न: अध्ययन क्रम में आत्मा की क्या स्थिति है?

उत्तर: उस समय आशा अनुभव को छूने की है.  आत्मा में प्रबोधन को स्वीकारने की स्थिति बनी रहती है.  वह स्वीकारते स्वीकारते अंततोगत्वा आत्मा अनुभव संपन्न हो जाता है.  फिर प्रमाणित करने के क्रम में अनुभवशील हो जाता है.  प्रमाण मनुष्य के साथ ही होता है.  आत्मा में अनुभव से पहले अनुभव की प्यास बना रहता है.  प्रमाणित करने का आधार जब जीवन में स्थिर होता है उससे जीवन में तृप्ति होती है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद (सितम्बर २००९, अमरकंटक)

Thursday, February 1, 2024

अध्ययन का संयोग


सच्चाइयाँ जैसे-जैसे साक्षात्कार होने लगता है अनुभव होने की सम्भावना उदय होने लगता है.  साक्षात्कार होने  के लिए पहले पठन, फिर परिभाषा से अध्ययन।  

प्रश्न: क्या यह कहना सही होगा कि साक्षात्कार होना एक process है - जो एक क्रम से होता है, जिसमें समय लगता है?

उत्तर: हाँ.  अध्ययन विधि से वैसा ही है.  पूरा सहअस्तित्व साक्षात्कार होना है.  सहअस्तित्व में विकासक्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति साक्षात्कार होना है.  यह सब यदि साक्षात्कार पूरा हो गया तो अनुभव उसी वक्त है.

प्रश्न: साक्षात्कार के पहले मानव में उसके लिए प्रेरणा किस स्वरूप में रहता है?  

उत्तर: जीवंत मनुष्य में इसके लिए प्रेरणा तो रहता ही है.  जितना मैं जी पा रहा हूँ, वह पूरा नहीं है - इस जगह में सर्वाधिक लोग आते ही हैं।   जैसे हमको १० रुपया पूरा नहीं पड़ रहा हो और २० रुपया पाने की अपेक्षा हो.  स्वयं में पीड़ा स्वरूप में प्रेरणा रहता है कि यह अधूरा है.  स्वयं में यह प्रेरणा रहने से प्रेरणा पाने का अधिकार बनता है.  बाह्य प्रेरणा से इसके पूरा होने की अपेक्षा बन जाता है.  अधूरेपन की पीड़ा पूरा होने के लिए ही है.  पहले यह प्रच्छन्न रूप में रहता है, अध्ययन का संयोग होने पर प्रकट होने के पश्चात् साक्षात्कार होने लगता है.  अध्ययन करने वाले व्यक्ति और अध्ययन कराने वाले व्यक्ति का संयोग होने पर ऐसा होता है.  अध्ययन कराने वाला व्यक्ति पूर्णता के लिए प्रेरणा स्त्रोत होता है.  पूर्णता है - किया पूर्णता और आचरण पूर्णता।

अध्ययन करने वाला अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करके सत्य को पहचानने का प्रयास करता है.  इस प्रकार सत्य का स्वीकृति क्रम से साक्षात्कार पूर्वक बोध में हो जाता है.  साक्षात्कार, बोध और अनुभव - ये तीन पड़ाव हैं.  इसमें साक्षात्कार तक पुरुषार्थ है, बोध और अनुभव में कोई पुरुषार्थ नहीं है.  साक्षात्कार के लिए पुरुषार्थ ही अध्ययन है.  साक्षात्कार में पहुंचना ही पुरुषार्थ का अंतिम स्वरूप है.  

साक्षात्कार होने से उत्साह होता ही है.  केवल सच्चाई की सूचना मात्र से उत्साह होता है.  जैसे, जीवन विद्या शिविरों में इस प्रस्ताव की सूचना मिलने से लोगों में उत्साह होता है.  इसको आप सभी ने देखा ही होगा।  शिविर एक सूचना है.  सूचना मात्र मिलने से लोग कितना उत्साहित होते हैं!  उत्साह के बाद जिज्ञासा बनता है, इसको अपना स्वत्व कैसे बनाया जाए.  उसमे जाते हैं तो कल्पनाशीलता को प्रयोजन के लिए लगाना पड़ता है, जो अध्ययन के लिए प्रवृत्ति है.  अध्ययन के लिए प्रवृत्ति को क्रियान्वयन करने पर साक्षात्कार, साक्षात्कार पूर्वक अनुभव की सम्भावना उदय, अनुभव के पश्चात् प्रमाण - इतना ही तो process है.

जीव चेतना में भ्रमित स्थिति में कल्पना आशा-विचार-इच्छा की अस्पष्ट गति है.  अध्ययन में कल्पनाशीलता स्पष्ट होने के लिए पहुँच जाता है.  आशा-विचार-इच्छा की स्पष्ट गति ही साक्षात्कार है.  यह अध्ययन विधि से ही होता है.  अनुभव मूलक विधि से अध्ययन कराया जाता है.  

अध्ययन मौन पूर्वक या आँखें मूँद कर होने वाला अभ्यास नहीं है.  इसको मैं दम्भ-पाखण्ड ही मानता हूँ.  मौन से क्या बना?  अपने पाखण्ड को अच्छे ढंग से रखने का तरीका ही तैयार हुआ.  ऐसा मैं हज़ारों सर्वेक्षण करके आया हूँ.  

जीव चेतना में जीने वाला व्यक्ति मानव चेतना में परिवर्तित होगा - यह मेरा आशा है.  जीव चेतना में रहने वाले व्यक्ति के साथ मेरा स्नेह तो नहीं हो सकता।  जीव चेतना से छूटने के लिए जो प्रयत्नशील हैं, उनके साथ स्नेह है.

कल्पनाशीलता का प्रयोजन ज्ञानार्जन है.  उसको छोड़ कर हमने शरीर को जीवन मान लिया - फलस्वरूप उल्टा तरफ चल दिए.  अब उसको सीधा करने का प्रस्ताव आ गया.  यदि इससे अच्छा प्रस्ताव हो तो उसको भी अध्ययन किया जाए.  

कल्पनाशीलता जब कल्पना से साक्षात्कार में परिवर्तित हो गया - वही गुणात्मक परिवर्तन है.  गुणात्मक परिवर्तन का यह पहला घाट है.  दूसरा घाट है अनुभव।  अनुभव पूर्वक कल्पना ही प्रमाण में परिवर्तित हुआ.  कल्पना में प्रमाण समाता नहीं है.  कल्पना प्रमाण में परिवर्तित हो जाता है.  उसी का नाम है - गुणात्मक परिवर्तन।  कल्पना का तृप्ति बिंदु प्रमाण में ही है.  अध्ययन विधि से पारंगत होने के उपरान्त ही प्रमाण है.  पारंगत हुए बिना कौनसा प्रमाण होगा?  

यह एक अच्छा पकड़ तो है!  आज के समय में हम जितना भ्रमित हैं, उस सबको एक मुट्ठी में ला देना, उस सारे भ्रम के पुलिंदे को स्वाहा कर देना, इसको क्या कहा जाए?  इस ठिकाने पर पहुँचने के लिए मानव में आदिकाल से तड़प तो रहा है.  उसको पूरा करने की विधि आ गयी है.  इस विधि को अपनाने वाले लोगों की संख्या बढ़ने की आवश्यकता है.  उसी के लिए हम प्रयत्नशील है.  उसी के लिए जितना हम में ताकत है, उसको लगा रहे हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)

 

Monday, November 6, 2023

समझना ही प्रधान है, अनुकरण करना दूसरे नंबर पर है.

ज्ञान को परम्परा में प्रमाणित होना है, यह आदर्शवाद ने माना ही नहीं.  व्यक्ति ज्ञानी हो सकता है, यह माना।  इससे लोगों की मान्यता में यह आया कि हर व्यक्ति को पूरा समझने की ज़रुरत नहीं है.  एक व्यक्ति समझेगा, बाकी लोग उसका अनुकरण करेंगे।  अनुकरण विधि से हम सही हो सकते हैं, समझना बहुत ज़रूरी नहीं है.  इसको चाहे आदर्शवाद का उपकार मानो या बर्बादी मानो!  जबकि यहाँ हम कह रहे हैं - समझना ही प्रधान है, अनुकरण करना दूसरे नंबर पर है.  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Sunday, August 27, 2023

समानता का आधार अनुभव मूलक विधि से ही आता है



समानता का आधार अनुभव मूलक विधि से ही आता है, बोलने की विधि से नहीं आता है.  तीन लोग तीन बात बोलते हैं, उससे तीन रास्ते बन जाते हैं, जबकि अनुभव सभी का एक ही होता है.  सहअस्तित्व में ही अनुभव होता है, दूसरा कुछ होता नहीं है.  सहअस्तित्व में अनुभव होने से अनुभव प्रमाण, व्यव्हार प्रमाण और प्रयोग प्रमाण होता है.  मैं सोचता हूँ मनुष्य यदि व्यव्हार प्रमाण में जी जाए तब भी शांति पूर्वक जी सकता है.  व्यव्हार प्रमाण में जीना = स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष, दया पूर्ण कार्य व्यव्हार में जीना।  इसमें से स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष तो इच्छा के आधार पर भी हो जाता है, पर दया पूर्ण कार्य व्यव्हार में जीने के लिए अनुभव करने की आवश्यकता है.  

व्यक्ति में जो अनुभव करने की अर्हता है, क्या उसका हनन किया जा सकता है?  अभी इतना समय तक जो मानव जिया, क्या उसका हनन हुआ?  "गुरु जी अनुभव करेंगे, शिष्यों को अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है" - यह तरीका इसमें नहीं चलता।  इसीलिये ऐसी व्यक्तिवादी बात को गौण कर दिया, समुदायवाद की समीक्षा कर दिया।  व्यक्ति में क्या होना चाहिए, उसको तय कर दिया।

भौतिकवादी विधि से यौन चेतना के लिए सुविधा संग्रह के लिए आदमी फंसा है, और उसका कोई कार्यक्रम नहीं है.  आदर्शवाद में ईश्वर भला करेगा इस आस्था के साथ ईश्वर के भय से लोग त्रस्त होते थे.  स्वर्ग का प्रलोभन और नर्क का भय रहा.  अब वह समाप्त हो गया और सभी अवैध बातों को वैध मानने के लिए मानव तैयार हो गया.  

अब मानवीयता पूर्वक जीने की आवश्यकता बनेगी तो उसमे हम सफल होंगे.  यह आवश्यकता यदि सर्वोच्च प्राथमिकता में आ जाता है तो जल्दी होगा, यदि प्राथमिकता द्वितीय रहती है तो देर से होगा, यदि तृतीय रहती है तो अगले जन्म में होगा!  प्राथमिकता को हर व्यक्ति को अपने में तय करना होगा।  दूसरा कोई कर नहीं सकता।

इस जगह में आने के पहले से हम व्यव्हार को लेकर प्रयत्न किये रहते हैं, लेकिन व्यव्हार पक्ष में ठीक होते हुए भी स्वयं में तृप्ति नहीं रहती है.  तृप्ति के लिए अनुभव होना आवश्यक है.  अनुभव के लिए या तो अध्ययन है या अनुसन्धान है.  अनुसन्धान पूर्वक अनुभव करो या अध्ययन पूर्वक अनुभव करो!

प्रश्न: अब जब अध्ययन विधि स्थापित हो गयी है तो क्या अनुसन्धान विधि का कोई अर्थ बनेगा?

उत्तर: अध्ययन विधि अभी प्रस्ताव स्तर पर है.  जब परम्परा बन गया तब स्थापित होगा.  तब यह generalise होगा.  अतिवाद में हम जा ही नहीं सकते.  अभी भाषा के रूप में स्थापित हुआ है, अनुभव के रूप में  स्थापित होना अभी शेष है.  अनुभव रूप में स्थापित होने से ही प्रमाण होगा.  दूसरा कोई भी रास्ता नहीं है।    बातें हम बहुत सी कर सकते हैं, पर रास्ता तो एक यही है.  अभी जैसे बात करते हैं - शिखर पर पहुँचने के कई रास्ते हैं, किसी से भी पहुँच सकते हैं.  कौन पहुंचा?  पूछने पर कोई प्रमाण मिलता नहीं है.  प्रमाण के बिना मार्ग का कोई अर्थ नहीं है.  प्रमाण परम्परा में आने पर हम दावा कर सकते हैं कि हम समझ गए.  तब तक सुने हैं, सुनाते हैं - इतना ही है.  वेद विचार जैसे श्रुति था - वैसे ही.   वेद विचार को श्रुति ही बताया है, अनुभव नहीं बताया है.  वहां बताते हैं, कोई कोई आप्त-पुरुष होता है जिसको अनुभव होता है.  मानवीय परम्परा का जो यहाँ मध्यस्थ दर्शन में प्रस्ताव कर रहे हैं, वह परंपरा में नहीं है.  व्यक्ति कोई जागृत हुआ हो तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि परम्परा में प्रमाण नहीं है.  सारे वेद विचार में इसका जिक्र नहीं है.  वेद विचार को मैंने पूरा जांच लिया।  मैं इतना ही कर सकता था.  आइंस्टीन, न्यूटन, डार्विन, फ्रायड, मार्क्स आदि को मैंने पढ़ा नहीं है, लेकिन समीक्षा किया है कि ये लाभोन्मादी, भोगोन्मादी, कामोन्मादी विचार हैं.  

जीवन को सच्चाई चाहिए। सच्चाई को सहअस्तित्व स्वरूप में बताया है.  पहले सहअस्तित्व ज्ञान में ही अनुभव होता है, अनुभव के बिना ज्ञान होता नहीं है.  ज्ञान बोलने में बनेगा, पर स्वत्व के रूप में होता नहीं है.  ज्ञान से संतुष्टि होता है कहा जाए, या और किसी चीज़ से?  अरबों रुपया खर्च करके भी ज्ञान से होने वाला संतुष्टि नहीं हो सकता।  

पूरा मानव जाति भ्रम में फंसा है.  सभी अपराधों को वैध मान लिया है.  अब इस प्रस्ताव को सुनने वाले को पश्चात्ताप तो होता है.  कोई उसी जगह से लौट जाता है, कोई जूझ जाता है.  जूझने वालों का यह जीवन विद्या सम्मलेन है!  

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अमरकंटक, सितम्बर २०११)

Friday, August 25, 2023

मानव द्वारा व्यवस्था के अर्थ में जीवों का नियंत्रण

 


मानव को जीव नियंत्रित नहीं कर पाते हैं, मानव उनको नियंत्रित कर सकता है.  मांसाहारी पशुओं की संख्या कितना रखना है,  कितना नहीं रखना है - इसको सोचने का अधिकार मानव के पास है.  जैसे - मच्छरों का नियंत्रण करने के लिए हम कुछ धुआं आदि का उपाय करते हैं, वैसे ही बाघ-भालू के नियंत्रण के लिए भी उपाय होगा, उसका प्रयोग होगा।  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Monday, July 31, 2023

सत्ता का स्वरूप


प्रश्न:  समाधि-संयम पूर्वक आपको सत्ता का स्वरूप कैसा दिखा?

उत्तर: समाधि की स्थिति में मुझे गहरे पानी में आँख खोलने पर जैसे प्रकाश दिखता है, वैसा दिखता रहा.  समाधि में मुझे सत्ता ही दिखता रहा, यह संयम में स्पष्ट हो गया.  संयम में पता चला कि मैं समाधि में सत्ता को ही देख रहा था.  समाधि के आधार पर ही संयम में अध्ययन करना बना.

प्रश्न: समाधि में जैसा आपको दिखता रहा, हमको वैसा दिखता नहीं है.  इसका क्या कारण है?

उत्तर: समाधि की स्थिति में जीवन शरीर को छोड़ा रहता है.  सशरीर जब आप देखते हैं तो आँख से वह स्वरूप आपको दिखता नहीं है. 

प्रश्न: अध्ययन विधि में शरीर के साथ सत्ता का स्वरूप हमको कैसा दिखेगा?  

उत्तर: इन्द्रियगोचर विधि और ज्ञानगोचर विधि दोनों मानव में है.  सत्ता ज्ञानगोचर वस्तु है.  ज्ञानगोचर विधि से आपको सत्ता का स्वरूप समझ में आएगा.  ज्ञानगोचर विधि से सत्ता का स्वरूप मुझे संयम में समझ में आया.  ज्ञानगोचर विधि से ही सत्ता का स्वरूप आपको अध्ययन पूर्वक समझ में आएगा।

प्रश्न: समाधि की स्थिति को आप इन्द्रियगोचर कहेंगे या ज्ञानगोचर कहेंगे?

उत्तर: वह इन्द्रियगोचर भी नहीं है, ज्ञानगोचर भी नहीं है.  समाधि एक घटना है.  जैसे, हथोड़े से किसी पत्थर को हमने तोडना शुरू किया।  १०० चोटों तक टूटा नहीं, १०१ वीं चोट में टूट गया.  १०० चोटों में टूटने की घटना का कारण बनता रहा, १०१वीं चोट में टूटने की घटना आंकलित हो गया.  वैसे ही समाधि घटना की पृष्ठभूमि साधना से बनी, समाधि घटना में आशा-विचार-इच्छा का चुप होना आंकलित हो गया.  उस में कोई ज्ञान नहीं हुआ.  संयम काल में समाधि का मूल्यांकन हुआ.  संयम काल में सत्ता में अनंत प्रकृति डूबा-भीगा-घिरा स्वरूप में देख लिया।

प्रश्न: सत्ता ही ऊर्जा है, सत्ता ही ज्ञान है - यह निष्कर्ष कैसे निकाला?

उत्तर: भौतिक रासायनिक वस्तु में अपनी कोई ताकत नहीं है, ताकत सत्ता है.  हर वस्तु क्रियाशील है, अतः ऊर्जा संपन्न है.  अगर वस्तु में अपनी अलग ताकत होती तो वह सत्ता से अलग भी पाया जाता।  कोई जगह ऐसी है भी नहीं, जहाँ सत्ता न हो.  

ऊर्जा से बाहर वस्तु जा नहीं सकता, ऊर्जा के बिना वस्तु रह नहीं सकता.  इस आधार पर कहा - वस्तु ऊर्जा संपन्न है.  

ऊर्जा का प्यास वस्तु को है, वस्तु का प्यास ऊर्जा को है.  इस तरह वस्तु और ऊर्जा की नित्य सामरस्यता बन गयी, जिसको हम 'सहअस्तित्व' नाम दे रहे हैं.  न वस्तु सत्ता को छोड़ सकता है, न सत्ता वस्तु को छोड़ सकती है - सहअस्तित्व इसका नाम दिया है.  सत्ता का प्यास वस्तु को है, क्योंकि वस्तु को क्रिया करने के लिए ऊर्जा चाहिए।  वस्तु का प्यास सत्ता को है, क्योंकि सत्ता को प्रकट होने के लिए वस्तु चाहिए। 

वस्तु सत्ता में समाया है, सत्ता स्थितिपूर्ण यथावत संतुष्ट है.  सत्ता में कोई चाहत नहीं है.  चाहत वस्तु में होता है, चाहत ऊर्जा में नहीं है.  चाहत एक निश्चित दायरे में होता है.  निश्चित दायरे में नहीं है तो चाहत कहाँ है?  सत्ता सर्वत्र होने के आधार पर उसमे किसी इकाई विशेष का नाश करने (या उद्धार करने) का कोई स्वरूप नहीं बनता।  (भौतिक रासायनिक) वस्तु कहीं भी जाए, उसको रहना सत्ता में ही है.  ज्ञान भी वैसा ही है.  मनुष्य ज्ञान के बिना रह नहीं सकता, भौतिक-रासायनिक (जड़) वस्तु ऊर्जा के बिना रह नहीं सकता।  

जड़ प्रकृति मूल ऊर्जा के बिना रह नहीं सकता।  कार्य ऊर्जा के कारण स्वरूप में मूल ऊर्जा (सत्ता) है.  

मूल ऊर्जा के बिना जड़ प्रकृति कार्य कर ही नहीं सकता।  उसी प्रकार चैतन्य चेतना के बिना कार्य कर ही नहीं सकता।  चैतन्य प्रकृति का मानव जीव चेतना को अपना कर दुखी रहता है, दुखी करता है.  मानव चेतना को अपना कर सुखी रहता है, सुखी करता है. 

चैतन्यता को हर व्यक्ति अपने में जांच सकता है, उसके आधार पर जड़ में ऊर्जा सम्पन्नता को पहचानने का उसको एक स्टेप मिल जाता है.  

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

Thursday, July 27, 2023

विरक्ति विधि से साधना


प्रश्न: साधना काल में आप उत्पादन भी करते थे, क्या उसे समृद्धि के साथ जीना कहेंगे?  

उत्तर: उस समय कृषि भर कर लेते थे, जिससे पराधीनता न हो.  समृद्धि का उस समय कल्पना ही नहीं था.  उस समय ऐसा होता था - जो पैदा किया, उसको बाँट दिया, कुछ रखना ही नहीं!

प्रश्न: आप परिवार के साथ भक्ति-विरक्ति की साधना किये।  परिवार साथ में होते हुए विरक्ति भाव में कैसे रहे?  

उत्तर: साधना में निष्ठा थी, उससे अपने आप विरक्ति होती है.  परिवार मेरी सेवा करता रहा, मैं विरक्ति में रहा.  माता जी सेवा की, तभी मैं साधना कर पाया।  मेरी स्वीकृति यही है.  आप बताओ, कितने साधकों को यह प्राप्त होगा?  इतना आसान game नहीं है!

आज भी साधना करने वालों का संसार सम्मान करता ही है.  लेकिन साधना से जो फल अपेक्षित है, वह साधना करने वालों से संसार को मिला नहीं।  इस धरती की आयु में पहली बार मैंने साधना से मिलने वाले फल को संसार को प्रस्तुत किया है.  साधना के फल को मैंने रहस्य में नहीं रखा.  रहस्य के लिए मैंने शुरुआत ही नहीं किया था, न भय के लिए किया था, न प्रलोभन के लिए किया था.  भय और प्रलोभन से प्रताड़ित हुए बिना रहस्य बनता ही नहीं है, मेरे अनुसार!  अब प्रयोग करके देखना है, सबके साथ ऐसा ही होता है या नहीं।  तर्कसंगतता तो यही है.  

मैं प्रमाणित हूँ, इतना पर्याप्त नहीं है.  मैं प्रमाणित तभी हूँ, जब मैं दूसरे को समझा पाया।  इस तरह एक से दूसरे व्यक्ति के प्रमाणित होने का क्रम है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित, अप्रैल २०१०, अमरकंटक