मनुष्येत्तर प्रकृति में चेतना को प्रकाशित करने वाला जीव संसार है. वन्शानुशंगी विधि से जीव संसार में जीवनी क्रम को प्रमाणित किया. जैसे जीवों में जीवनी क्रम है, वैसे मानव में जाग्रति क्रम है. कोई "ज्यादा समझा" है, कोई "कम समझा" - यह झंझट आदिकाल से है. समझदारी को लेकर अनुसंधान होने पर अब जाकर यह स्पष्ट हुआ कि "ज्यादा समझा" - "कम समझा" कुछ होता नहीं है. "समझा" या "नहीं समझा" होता है. यहाँ पहुंच गए हम! ज्ञान की कोई मात्रा तो होती नहीं है. ज्ञान हुआ या नहीं हुआ - इतनी ही बात है.
अनुभव में ज्ञान हो जाता है, उसको प्रमाणित करना क्रमशः होता है. अभी जैसे मैं ही हूँ, सम्पूर्ण अस्तित्व को अध्ययन किया हूँ, अनुभव किया हूँ, स्वयं प्रमाणित हूँ - लेकिन समझाने/प्रमाणित करने में क्रम ही है. पहले न्याय प्रमाणित होगा, न्याय प्रमाणित होने के बाद धर्म प्रमाणित होगा, धर्म प्रमाणित होने के बाद ही सत्य प्रमाणित होगा.
प्रश्न: तो अभी आप क्या प्रमाणित कर रहे हैं?
उत्तर: न्याय और धर्म को प्रमाणित कर रहे हैं. अभी सत्य प्रमाणित करने का जगह ही नहीं बना है. कालान्तर में बन जाएगा तो प्रमाणित होगा. सत्य प्रमाणित होना मतलब सहअस्तित्व प्रमाणित होना, मतलब व्यवस्था प्रमाणित होना. सत्य प्रमाणित होने के पहले अखंड समाज सूत्र-व्याख्या होना होगा. धर्म (समाधान) अखंड-समाज सूत्र व्याख्या का आधार है. समाधान को मैं प्रमाणित करता हूँ - यह मैं घोषित कर चुका हूँ. यही प्रश्न मुक्ति अभियान है. मुझे अपने परिवार के सदस्यों के साथ न्याय करने में कोई परेशानी नहीं है.
प्रश्न: लेकिन दोनों पक्षों के समझदार हुए बिना "उभय तृप्ति" कहाँ हुई?
उत्तर: उभय तृप्ति तो दोनों के समझदार होने पर ही है. मैं न्याय पूर्वक जीता हूँ, उससे मुझे स्वयं में तृप्ति है. मेरे ऐसे जीने के प्रमाण में दोनों को तृप्ति मिलनी है, उसके लिए मैं प्रयत्नशील हूँ. ऐसे कुछ सम्बन्ध हो चुके हैं, कुछ होना शेष है. इसमें क्या तकलीफ है? वह सब सही है, इसमें कोई परेशानी नहीं है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
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