tag:blogger.com,1999:blog-18827210008292012812024-03-19T08:42:54.498+05:30Jeevan Vidya - A Study in Coexistence (जीवन विद्या - सह-अस्तित्व में अध्ययन)This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.comBlogger1229125tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-23658022914984201562024-02-02T12:46:00.006+05:302024-02-02T17:08:15.026+05:30जागृति क्रम में आत्मा की स्थिति <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="301" src="https://www.youtube.com/embed/Y7rQK4tflCc" width="407" youtube-src-id="Y7rQK4tflCc"></iframe></div><br /> जागृति क्रम में मनुष्य में सुख की आशा आत्मा और बुद्धि की क्रियाओं के चुप "होने" का फल है. <p>आत्मा और बुद्धि की क्रियाओं के "रहने" का प्रमाण नहीं मिला, फलस्वरूप सुख की आशा बना रहा.</p><p>प्रश्न: जागृति क्रम में आत्मा (जीवन परमाणु का मध्यांश) गठनपूर्णता को बनाये रखने के अलावा क्या और कुछ करता है?<br /></p><p>उत्तर: और क्या करना है? और करना तो यही है - सुख को प्रकट करना है, अनुभव को प्रकट करना है. अनुभव के प्रकट होने तक चुप रहता है.</p><p>प्रश्न: अध्ययन क्रम में आत्मा की क्या स्थिति है?</p><p>उत्तर: उस समय आशा अनुभव को छूने की है. आत्मा में प्रबोधन को स्वीकारने की स्थिति बनी रहती है. वह स्वीकारते स्वीकारते अंततोगत्वा आत्मा अनुभव संपन्न हो जाता है. फिर प्रमाणित करने के क्रम में अनुभवशील हो जाता है. प्रमाण मनुष्य के साथ ही होता है. आत्मा में अनुभव से पहले अनुभव की प्यास बना रहता है. प्रमाणित करने का आधार जब जीवन में स्थिर होता है उससे जीवन में तृप्ति होती है.</p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद (सितम्बर २००९, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-6059131293937464642024-02-01T13:01:00.004+05:302024-02-01T13:14:42.147+05:30अध्ययन का संयोग <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="289" src="https://www.youtube.com/embed/O-FQIcyQ9Kk" width="391" youtube-src-id="O-FQIcyQ9Kk"></iframe></div><br /><p>सच्चाइयाँ जैसे-जैसे साक्षात्कार होने लगता है अनुभव होने की सम्भावना उदय होने लगता है. साक्षात्कार होने के लिए पहले पठन, फिर परिभाषा से अध्ययन। </p><p><b>प्रश्न: क्या यह कहना सही होगा कि साक्षात्कार होना एक process है - जो एक क्रम से होता है, जिसमें समय लगता है?</b></p><p>उत्तर: हाँ. अध्ययन विधि से वैसा ही है. पूरा सहअस्तित्व साक्षात्कार होना है. सहअस्तित्व में विकासक्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति साक्षात्कार होना है. यह सब यदि साक्षात्कार पूरा हो गया तो अनुभव उसी वक्त है.</p><p><b>प्रश्न: साक्षात्कार के पहले मानव में उसके लिए प्रेरणा किस स्वरूप में रहता है? </b></p><p>उत्तर: जीवंत मनुष्य में इसके लिए प्रेरणा तो रहता ही है. जितना मैं जी पा रहा हूँ, वह पूरा नहीं है - इस जगह में सर्वाधिक लोग आते ही हैं। जैसे हमको १० रुपया पूरा नहीं पड़ रहा हो और २० रुपया पाने की अपेक्षा हो. स्वयं में पीड़ा स्वरूप में प्रेरणा रहता है कि यह अधूरा है. स्वयं में यह प्रेरणा रहने से प्रेरणा पाने का अधिकार बनता है. बाह्य प्रेरणा से इसके पूरा होने की अपेक्षा बन जाता है. अधूरेपन की पीड़ा पूरा होने के लिए ही है. पहले यह प्रच्छन्न रूप में रहता है, अध्ययन का संयोग होने पर प्रकट होने के पश्चात् साक्षात्कार होने लगता है. अध्ययन करने वाले व्यक्ति और अध्ययन कराने वाले व्यक्ति का संयोग होने पर ऐसा होता है. अध्ययन कराने वाला व्यक्ति पूर्णता के लिए प्रेरणा स्त्रोत होता है. पूर्णता है - किया पूर्णता और आचरण पूर्णता।</p><p>अध्ययन करने वाला अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करके सत्य को पहचानने का प्रयास करता है. इस प्रकार सत्य का स्वीकृति क्रम से साक्षात्कार पूर्वक बोध में हो जाता है. साक्षात्कार, बोध और अनुभव - ये तीन पड़ाव हैं. इसमें साक्षात्कार तक पुरुषार्थ है, बोध और अनुभव में कोई पुरुषार्थ नहीं है. साक्षात्कार के लिए पुरुषार्थ ही अध्ययन है. साक्षात्कार में पहुंचना ही पुरुषार्थ का अंतिम स्वरूप है. </p><p>साक्षात्कार होने से उत्साह होता ही है. केवल सच्चाई की सूचना मात्र से उत्साह होता है. जैसे, जीवन विद्या शिविरों में इस प्रस्ताव की सूचना मिलने से लोगों में उत्साह होता है. इसको आप सभी ने देखा ही होगा। शिविर एक सूचना है. सूचना मात्र मिलने से लोग कितना उत्साहित होते हैं! उत्साह के बाद जिज्ञासा बनता है, इसको अपना स्वत्व कैसे बनाया जाए. उसमे जाते हैं तो कल्पनाशीलता को प्रयोजन के लिए लगाना पड़ता है, जो अध्ययन के लिए प्रवृत्ति है. अध्ययन के लिए प्रवृत्ति को क्रियान्वयन करने पर साक्षात्कार, साक्षात्कार पूर्वक अनुभव की सम्भावना उदय, अनुभव के पश्चात् प्रमाण - इतना ही तो process है.</p><p>जीव चेतना में भ्रमित स्थिति में कल्पना आशा-विचार-इच्छा की अस्पष्ट गति है. अध्ययन में कल्पनाशीलता स्पष्ट होने के लिए पहुँच जाता है. आशा-विचार-इच्छा की स्पष्ट गति ही साक्षात्कार है. यह अध्ययन विधि से ही होता है. अनुभव मूलक विधि से अध्ययन कराया जाता है. </p><p>अध्ययन मौन पूर्वक या आँखें मूँद कर होने वाला अभ्यास नहीं है. इसको मैं दम्भ-पाखण्ड ही मानता हूँ. मौन से क्या बना? अपने पाखण्ड को अच्छे ढंग से रखने का तरीका ही तैयार हुआ. ऐसा मैं हज़ारों सर्वेक्षण करके आया हूँ. </p><p>जीव चेतना में जीने वाला व्यक्ति मानव चेतना में परिवर्तित होगा - यह मेरा आशा है. जीव चेतना में रहने वाले व्यक्ति के साथ मेरा स्नेह तो नहीं हो सकता। जीव चेतना से छूटने के लिए जो प्रयत्नशील हैं, उनके साथ स्नेह है.</p><p>कल्पनाशीलता का प्रयोजन ज्ञानार्जन है. उसको छोड़ कर हमने शरीर को जीवन मान लिया - फलस्वरूप उल्टा तरफ चल दिए. अब उसको सीधा करने का प्रस्ताव आ गया. यदि इससे अच्छा प्रस्ताव हो तो उसको भी अध्ययन किया जाए. </p><p>कल्पनाशीलता जब कल्पना से साक्षात्कार में परिवर्तित हो गया - वही गुणात्मक परिवर्तन है. गुणात्मक परिवर्तन का यह पहला घाट है. दूसरा घाट है अनुभव। अनुभव पूर्वक कल्पना ही प्रमाण में परिवर्तित हुआ. कल्पना में प्रमाण समाता नहीं है. कल्पना प्रमाण में परिवर्तित हो जाता है. उसी का नाम है - गुणात्मक परिवर्तन। कल्पना का तृप्ति बिंदु प्रमाण में ही है. अध्ययन विधि से पारंगत होने के उपरान्त ही प्रमाण है. पारंगत हुए बिना कौनसा प्रमाण होगा? </p><p>यह एक अच्छा पकड़ तो है! आज के समय में हम जितना भ्रमित हैं, उस सबको एक मुट्ठी में ला देना, उस सारे भ्रम के पुलिंदे को स्वाहा कर देना, इसको क्या कहा जाए? इस ठिकाने पर पहुँचने के लिए मानव में आदिकाल से तड़प तो रहा है. उसको पूरा करने की विधि आ गयी है. इस विधि को अपनाने वाले लोगों की संख्या बढ़ने की आवश्यकता है. उसी के लिए हम प्रयत्नशील है. उसी के लिए जितना हम में ताकत है, उसको लगा रहे हैं.</p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)</p><p> </p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-5263772663862118022023-11-06T10:33:00.003+05:302023-11-06T12:26:28.649+05:30समझना ही प्रधान है, अनुकरण करना दूसरे नंबर पर है. <p>ज्ञान को परम्परा में प्रमाणित होना है, यह आदर्शवाद ने माना ही नहीं. व्यक्ति ज्ञानी हो सकता है, यह माना। इससे लोगों की मान्यता में यह आया कि हर व्यक्ति को पूरा समझने की ज़रुरत नहीं है. एक व्यक्ति समझेगा, बाकी लोग उसका अनुकरण करेंगे। अनुकरण विधि से हम सही हो सकते हैं, समझना बहुत ज़रूरी नहीं है. इसको चाहे आदर्शवाद का उपकार मानो या बर्बादी मानो! जबकि यहाँ हम कह रहे हैं - समझना ही प्रधान है, अनुकरण करना दूसरे नंबर पर है. </p><p><br /></p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-13357526030782489322023-08-27T16:13:00.003+05:302023-08-27T16:13:20.736+05:30समानता का आधार अनुभव मूलक विधि से ही आता है <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/ye0JL5JZokg" width="320" youtube-src-id="ye0JL5JZokg"></iframe></div><br /><p><br /></p><p>समानता का आधार अनुभव मूलक विधि से ही आता है, बोलने की विधि से नहीं आता है. तीन लोग तीन बात बोलते हैं, उससे तीन रास्ते बन जाते हैं, जबकि अनुभव सभी का एक ही होता है. सहअस्तित्व में ही अनुभव होता है, दूसरा कुछ होता नहीं है. सहअस्तित्व में अनुभव होने से अनुभव प्रमाण, व्यव्हार प्रमाण और प्रयोग प्रमाण होता है. मैं सोचता हूँ मनुष्य यदि व्यव्हार प्रमाण में जी जाए तब भी शांति पूर्वक जी सकता है. व्यव्हार प्रमाण में जीना = स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष, दया पूर्ण कार्य व्यव्हार में जीना। इसमें से स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष तो इच्छा के आधार पर भी हो जाता है, पर दया पूर्ण कार्य व्यव्हार में जीने के लिए अनुभव करने की आवश्यकता है. </p><p>व्यक्ति में जो अनुभव करने की अर्हता है, क्या उसका हनन किया जा सकता है? अभी इतना समय तक जो मानव जिया, क्या उसका हनन हुआ? "गुरु जी अनुभव करेंगे, शिष्यों को अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है" - यह तरीका इसमें नहीं चलता। इसीलिये ऐसी व्यक्तिवादी बात को गौण कर दिया, समुदायवाद की समीक्षा कर दिया। व्यक्ति में क्या होना चाहिए, उसको तय कर दिया।</p><p>भौतिकवादी विधि से यौन चेतना के लिए सुविधा संग्रह के लिए आदमी फंसा है, और उसका कोई कार्यक्रम नहीं है. आदर्शवाद में ईश्वर भला करेगा इस आस्था के साथ ईश्वर के भय से लोग त्रस्त होते थे. स्वर्ग का प्रलोभन और नर्क का भय रहा. अब वह समाप्त हो गया और सभी अवैध बातों को वैध मानने के लिए मानव तैयार हो गया. </p><p>अब मानवीयता पूर्वक जीने की आवश्यकता बनेगी तो उसमे हम सफल होंगे. यह आवश्यकता यदि सर्वोच्च प्राथमिकता में आ जाता है तो जल्दी होगा, यदि प्राथमिकता द्वितीय रहती है तो देर से होगा, यदि तृतीय रहती है तो अगले जन्म में होगा! प्राथमिकता को हर व्यक्ति को अपने में तय करना होगा। दूसरा कोई कर नहीं सकता।</p><p>इस जगह में आने के पहले से हम व्यव्हार को लेकर प्रयत्न किये रहते हैं, लेकिन व्यव्हार पक्ष में ठीक होते हुए भी स्वयं में तृप्ति नहीं रहती है. तृप्ति के लिए अनुभव होना आवश्यक है. अनुभव के लिए या तो अध्ययन है या अनुसन्धान है. अनुसन्धान पूर्वक अनुभव करो या अध्ययन पूर्वक अनुभव करो!</p><p><b>प्रश्न: अब जब अध्ययन विधि स्थापित हो गयी है तो क्या अनुसन्धान विधि का कोई अर्थ बनेगा?</b></p><p>उत्तर: अध्ययन विधि अभी प्रस्ताव स्तर पर है. जब परम्परा बन गया तब स्थापित होगा. तब यह generalise होगा. अतिवाद में हम जा ही नहीं सकते. अभी भाषा के रूप में स्थापित हुआ है, अनुभव के रूप में स्थापित होना अभी शेष है. अनुभव रूप में स्थापित होने से ही प्रमाण होगा. दूसरा कोई भी रास्ता नहीं है। बातें हम बहुत सी कर सकते हैं, पर रास्ता तो एक यही है. अभी जैसे बात करते हैं - शिखर पर पहुँचने के कई रास्ते हैं, किसी से भी पहुँच सकते हैं. कौन पहुंचा? पूछने पर कोई प्रमाण मिलता नहीं है. प्रमाण के बिना मार्ग का कोई अर्थ नहीं है. प्रमाण परम्परा में आने पर हम दावा कर सकते हैं कि हम समझ गए. तब तक सुने हैं, सुनाते हैं - इतना ही है. वेद विचार जैसे श्रुति था - वैसे ही. वेद विचार को श्रुति ही बताया है, अनुभव नहीं बताया है. वहां बताते हैं, कोई कोई आप्त-पुरुष होता है जिसको अनुभव होता है. मानवीय परम्परा का जो यहाँ मध्यस्थ दर्शन में प्रस्ताव कर रहे हैं, वह परंपरा में नहीं है. व्यक्ति कोई जागृत हुआ हो तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि परम्परा में प्रमाण नहीं है. सारे वेद विचार में इसका जिक्र नहीं है. वेद विचार को मैंने पूरा जांच लिया। मैं इतना ही कर सकता था. आइंस्टीन, न्यूटन, डार्विन, फ्रायड, मार्क्स आदि को मैंने पढ़ा नहीं है, लेकिन समीक्षा किया है कि ये लाभोन्मादी, भोगोन्मादी, कामोन्मादी विचार हैं. </p><p>जीवन को सच्चाई चाहिए। सच्चाई को सहअस्तित्व स्वरूप में बताया है. पहले सहअस्तित्व ज्ञान में ही अनुभव होता है, अनुभव के बिना ज्ञान होता नहीं है. ज्ञान बोलने में बनेगा, पर स्वत्व के रूप में होता नहीं है. ज्ञान से संतुष्टि होता है कहा जाए, या और किसी चीज़ से? अरबों रुपया खर्च करके भी ज्ञान से होने वाला संतुष्टि नहीं हो सकता। </p><p>पूरा मानव जाति भ्रम में फंसा है. सभी अपराधों को वैध मान लिया है. अब इस प्रस्ताव को सुनने वाले को पश्चात्ताप तो होता है. कोई उसी जगह से लौट जाता है, कोई जूझ जाता है. जूझने वालों का यह जीवन विद्या सम्मलेन है! </p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अमरकंटक, सितम्बर २०११)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-21170553307004706342023-08-25T10:56:00.007+05:302023-08-27T14:01:17.486+05:30मानव द्वारा व्यवस्था के अर्थ में जीवों का नियंत्रण <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/_1oGcOt57qU" width="320" youtube-src-id="_1oGcOt57qU"></iframe></div><br /><p></p><p>मानव को जीव नियंत्रित नहीं कर पाते हैं, मानव उनको नियंत्रित कर सकता है. मांसाहारी पशुओं की संख्या कितना रखना है, कितना नहीं रखना है - इसको सोचने का अधिकार मानव के पास है. जैसे - मच्छरों का नियंत्रण करने के लिए हम कुछ धुआं आदि का उपाय करते हैं, वैसे ही बाघ-भालू के नियंत्रण के लिए भी उपाय होगा, उसका प्रयोग होगा। </p><p><br /></p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-18777546337411875102023-07-31T12:45:00.003+05:302023-07-31T17:30:00.448+05:30 सत्ता का स्वरूप <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/K7KNzk3uX0k" width="320" youtube-src-id="K7KNzk3uX0k"></iframe></div><p><br /></p><p><b>प्रश्न: समाधि-संयम पूर्वक आपको सत्ता का स्वरूप कैसा दिखा?</b></p><p>उत्तर: समाधि की स्थिति में मुझे गहरे पानी में आँख खोलने पर जैसे प्रकाश दिखता है, वैसा दिखता रहा. समाधि में मुझे सत्ता ही दिखता रहा, यह संयम में स्पष्ट हो गया. संयम में पता चला कि मैं समाधि में सत्ता को ही देख रहा था. समाधि के आधार पर ही संयम में अध्ययन करना बना.</p><p><b>प्रश्न: समाधि में जैसा आपको दिखता रहा, हमको वैसा दिखता नहीं है. इसका क्या कारण है?</b></p><p>उत्तर: समाधि की स्थिति में जीवन शरीर को छोड़ा रहता है. सशरीर जब आप देखते हैं तो आँख से वह स्वरूप आपको दिखता नहीं है. </p><p><b>प्रश्न: अध्ययन विधि में शरीर के साथ सत्ता का स्वरूप हमको कैसा दिखेगा? </b></p><p>उत्तर: इन्द्रियगोचर विधि और ज्ञानगोचर विधि दोनों मानव में है. सत्ता ज्ञानगोचर वस्तु है. ज्ञानगोचर विधि से आपको सत्ता का स्वरूप समझ में आएगा. ज्ञानगोचर विधि से सत्ता का स्वरूप मुझे संयम में समझ में आया. ज्ञानगोचर विधि से ही सत्ता का स्वरूप आपको अध्ययन पूर्वक समझ में आएगा।</p><p><b>प्रश्न: समाधि की स्थिति को आप इन्द्रियगोचर कहेंगे या ज्ञानगोचर कहेंगे?</b></p><p>उत्तर: वह इन्द्रियगोचर भी नहीं है, ज्ञानगोचर भी नहीं है. समाधि एक घटना है. जैसे, हथोड़े से किसी पत्थर को हमने तोडना शुरू किया। १०० चोटों तक टूटा नहीं, १०१ वीं चोट में टूट गया. १०० चोटों में टूटने की घटना का कारण बनता रहा, १०१वीं चोट में टूटने की घटना आंकलित हो गया. वैसे ही समाधि घटना की पृष्ठभूमि साधना से बनी, समाधि घटना में आशा-विचार-इच्छा का चुप होना आंकलित हो गया. उस में कोई ज्ञान नहीं हुआ. संयम काल में समाधि का मूल्यांकन हुआ. संयम काल में सत्ता में अनंत प्रकृति डूबा-भीगा-घिरा स्वरूप में देख लिया।</p><p><b>प्रश्न: सत्ता ही ऊर्जा है, सत्ता ही ज्ञान है - यह निष्कर्ष कैसे निकाला?</b></p><p>उत्तर: भौतिक रासायनिक वस्तु में अपनी कोई ताकत नहीं है, ताकत सत्ता है. हर वस्तु क्रियाशील है, अतः ऊर्जा संपन्न है. अगर वस्तु में अपनी अलग ताकत होती तो वह सत्ता से अलग भी पाया जाता। कोई जगह ऐसी है भी नहीं, जहाँ सत्ता न हो. </p><p>ऊर्जा से बाहर वस्तु जा नहीं सकता, ऊर्जा के बिना वस्तु रह नहीं सकता. इस आधार पर कहा - वस्तु ऊर्जा संपन्न है. </p><p>ऊर्जा का प्यास वस्तु को है, वस्तु का प्यास ऊर्जा को है. इस तरह वस्तु और ऊर्जा की नित्य सामरस्यता बन गयी, जिसको हम 'सहअस्तित्व' नाम दे रहे हैं. न वस्तु सत्ता को छोड़ सकता है, न सत्ता वस्तु को छोड़ सकती है - सहअस्तित्व इसका नाम दिया है. सत्ता का प्यास वस्तु को है, क्योंकि वस्तु को क्रिया करने के लिए ऊर्जा चाहिए। वस्तु का प्यास सत्ता को है, क्योंकि सत्ता को प्रकट होने के लिए वस्तु चाहिए। </p><p>वस्तु सत्ता में समाया है, सत्ता स्थितिपूर्ण यथावत संतुष्ट है. सत्ता में कोई चाहत नहीं है. चाहत वस्तु में होता है, चाहत ऊर्जा में नहीं है. चाहत एक निश्चित दायरे में होता है. निश्चित दायरे में नहीं है तो चाहत कहाँ है? सत्ता सर्वत्र होने के आधार पर उसमे किसी इकाई विशेष का नाश करने (या उद्धार करने) का कोई स्वरूप नहीं बनता। (भौतिक रासायनिक) वस्तु कहीं भी जाए, उसको रहना सत्ता में ही है. ज्ञान भी वैसा ही है. मनुष्य ज्ञान के बिना रह नहीं सकता, भौतिक-रासायनिक (जड़) वस्तु ऊर्जा के बिना रह नहीं सकता। </p><p>जड़ प्रकृति मूल ऊर्जा के बिना रह नहीं सकता। कार्य ऊर्जा के कारण स्वरूप में मूल ऊर्जा (सत्ता) है. </p><p>मूल ऊर्जा के बिना जड़ प्रकृति कार्य कर ही नहीं सकता। उसी प्रकार चैतन्य चेतना के बिना कार्य कर ही नहीं सकता। चैतन्य प्रकृति का मानव जीव चेतना को अपना कर दुखी रहता है, दुखी करता है. मानव चेतना को अपना कर सुखी रहता है, सुखी करता है. </p><p>चैतन्यता को हर व्यक्ति अपने में जांच सकता है, उसके आधार पर जड़ में ऊर्जा सम्पन्नता को पहचानने का उसको एक स्टेप मिल जाता है. </p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-68798373627144406562023-07-27T12:02:00.007+05:302023-07-31T10:45:43.412+05:30विरक्ति विधि से साधना <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/6e-_lfYg1EI" width="320" youtube-src-id="6e-_lfYg1EI"></iframe></div><p><br /></p><p><b>प्रश्न: साधना काल में आप उत्पादन भी करते थे, क्या उसे समृद्धि के साथ जीना कहेंगे? </b></p><p>उत्तर: उस समय कृषि भर कर लेते थे, जिससे पराधीनता न हो. समृद्धि का उस समय कल्पना ही नहीं था. उस समय ऐसा होता था - जो पैदा किया, उसको बाँट दिया, कुछ रखना ही नहीं!</p><p><b>प्रश्न: आप परिवार के साथ भक्ति-विरक्ति की साधना किये। परिवार साथ में होते हुए विरक्ति भाव में कैसे रहे? </b></p><p>उत्तर: साधना में निष्ठा थी, उससे अपने आप विरक्ति होती है. परिवार मेरी सेवा करता रहा, मैं विरक्ति में रहा. माता जी सेवा की, तभी मैं साधना कर पाया। मेरी स्वीकृति यही है. आप बताओ, कितने साधकों को यह प्राप्त होगा? इतना आसान game नहीं है!</p><p>आज भी साधना करने वालों का संसार सम्मान करता ही है. लेकिन साधना से जो फल अपेक्षित है, वह साधना करने वालों से संसार को मिला नहीं। इस धरती की आयु में पहली बार मैंने साधना से मिलने वाले फल को संसार को प्रस्तुत किया है. साधना के फल को मैंने रहस्य में नहीं रखा. रहस्य के लिए मैंने शुरुआत ही नहीं किया था, न भय के लिए किया था, न प्रलोभन के लिए किया था. भय और प्रलोभन से प्रताड़ित हुए बिना रहस्य बनता ही नहीं है, मेरे अनुसार! अब प्रयोग करके देखना है, सबके साथ ऐसा ही होता है या नहीं। तर्कसंगतता तो यही है. </p><p>मैं प्रमाणित हूँ, इतना पर्याप्त नहीं है. मैं प्रमाणित तभी हूँ, जब मैं दूसरे को समझा पाया। इस तरह एक से दूसरे व्यक्ति के प्रमाणित होने का क्रम है.</p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित, अप्रैल २०१०, अमरकंटक </p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-69165844711302415852023-07-13T12:25:00.000+05:302023-07-13T12:25:06.663+05:30जिज्ञासा और स्पष्टीकरण - भाग 3<p><b> प्रश्न: आपने मानव व्यवहार दर्शन में लिखा है - "आत्मबोध ही आध्यात्मिक उपलब्धि है". अध्यात्म को </b><b>कृपया</b><b> समझाइये।</b></p><p>उत्तर: आत्मा का आधार स्वरूप ही अध्यात्म है. यह आधार स्वरूप है - अनुभव. अनुभव बोध हो जाना ही अध्यात्म का मतलब है. बुजुर्गों ने जो "अध्यात्म" शब्द दिया था, उसका मतलब यह है. </p><p>साक्षात्कार हुआ, अवधारणा हुआ, अनुभव हुआ, फिर प्रमाण बोध हुआ, तो धारणा हो गया. धारणा होना ही अध्यात्म है. </p><p>आत्मा का आधार है सत्ता. सत्ता में अभिभूत होना, सत्ता में सम्पृक्त होने का अनुभव होना ही अध्यात्म है. सत्ता में भीगा होने का अनुभव होना ही अध्यात्म है, यही ज्ञान है. यह ज्ञान अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है - ऐसा विगत में बताया था. हमने उसे व्यक्त और वचनीय बता दिया।</p><p>अनुभव मूलक विधि से प्रमाणों का बोध हो जाना ही अध्यात्म है. यही धारणा है. यही सुख का स्वरूप है. धारणा = धर्म, जो बताया था, वह यही है. अनुभव हर मानव में प्रमाणित होने वाली चीज है. </p><p><b>प्रश्न: इसके आगे आपने लिखा है - "अंतर्नियामन प्रक्रिया द्वारा ही आत्मबोध होता है, जो ध्यान देने की चरम उपलब्धि है. यह ही जागृति है. ऐसे आत्म बोध (अनुभव बोध) संपन्न मानव की जागृत मानव संज्ञा है तथा यही प्रमाण रूप में मानव, देवमानव, दिव्य मानव होना पाया जाता है." अंतर्नियामन प्रक्रिया और ध्यान को कृपया समझाइये। </b> </p><p>उत्तर: यह अध्ययन विधि से ही होगी. ध्यान देना बुद्धि में ही होता है. ध्यान देना अनुभव के लिए ही होता है, और सब बात के लिए ध्यान चित्त, वृत्ति और मन द्वारा ही हो जाता है. अनुभव के लिए ध्यान बुद्धि ही देता है. अनुभव का बोध होना बुद्धि की प्यास है. इस आधार पर बुद्धि ध्यान देता है. इसी आधार पर अध्ययन होता है. चारों अवस्थाओं का रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का अध्ययन। इसके लिए चार सूत्र दिया - विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति। </p><p>अंतर्नियामन का मतलब है - मन वृत्ति के अनुरूप हो जाना, वृत्ति चित्त के अनुरूप हो जाना, चित्त बुद्धि के अनुरूप हो जाना, बुद्धि आत्मा के अनुरूप हो जाना। इस विधि से ध्यान देना समझ में आता है. अभी शरीर के अनुरूप मन को बनाते हैं, मन के अनुरूप विचार को बनाते हैं, विचार के अनुरूप चित्त को बनाते हैं - इससे अंतर्नियामन होता नहीं है. </p><p>अध्ययन विधि में सहअस्तित्व के अनुसार साक्षात्कार के लिए जीवन शक्तियों का अंतर्नियोजन होने लगता है. अंतर्नियोजन के बिना साक्षात्कार कैसे होगा? अंतर्नियोजन होने पर अध्ययन शुरू होता है. जीवन की सम्पूर्ण क्रियाएं क्रियाशील होने के लिए अंतर्नियोजन। ध्यान देने का मतलब शक्तियों का अंतर्नियोजन ही है. </p><p>अनुभव की रौशनी और अधिष्ठान के साक्षी में अध्ययन होता है. साक्षात्कार पूर्वक अवधारणाएं बनती हैं, उसके बाद अनुभव होता है. अनुभव-प्रमाण स्वयं में सुख स्वरूप है. अनुभव प्रमाण समाधान स्वरूप में ही प्रकट होता है. अनुभव होने के बाद उसकी निरंतरता है. यह फिर कम होता ही नहीं है. इसके बाद एक का अनेक में परिवर्तित होना या अनुभव का multiplication शुरू हो जाता है. यही उपकार है. उपाय पूर्वक करना ही उपकार है. अनुभव प्रमाण ही उपाय है. और कोई उपाय नहीं है. अनुभव मूलक बोध = धारणा। धारणा के अनुरूप होने के लिए अभ्यास है. स्वयं में तृप्त होना, दूसरे को अनुभव कराना - यही उपाय है. </p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-74644457050480944042023-07-13T10:56:00.008+05:302023-07-13T10:56:49.288+05:30जिज्ञासा और स्पष्टीकरण - भाग 2<p><b> प्रश्न: मानव व्यव्हार दर्शन में आपने लिखा है - "बुद्धि में प्राप्त अवधारणायें क्रम से विचार और क्रिया में व्यक्त होती हैं, और क्रिया से प्राप्त विचार पुनः अवधारणा में स्थित होते हैं. अवधारणा में तब तक परिवर्तन होता रहेगा, जब तक वह धारणा के अनुरूप न हो जाये।" इसको कृपया स्पष्ट कर दीजिये।</b></p><p>उत्तर: यहाँ "बुद्धि में प्राप्त धारणायें" होना चाहिए। इसको ऐसे पढ़िए - बुद्धि में प्राप्त धारणायें क्रम से विचार और क्रिया में व्यक्त होती हैं, और क्रिया से प्राप्त विचार पुनः अवधारणा में स्थित होते हैं. अवधारणा में तब तक परिवर्तन होता रहेगा, जब तक वह धारणा के अनुरूप न हो जाये।</p><p>अनुभव मूलक विधि से "धारणा" होता है. अनुभवगामी पद्दति से साक्षात्कार पूर्वक "अवधारणा" होता है. अवधारणा पूर्वक अनुभव होता है, फिर अनुभव मूलक विधि से धारणा होता है. साक्षात्कार पूर्वक बुद्धि में होने वाली स्वीकृतियों का नाम है अवधारणा। अवधारणा पूरी होने पर तुरंत अनुभव होता है, उसका बोध बुद्धि में जो होता है, उसका नाम है धारणा। धारणा ही धर्म है. अनुभव मूलक बोध ही धारणा है. वही धर्म है, वही समाधान है. </p><p>इस तरह बुद्धि में अनुभव मूलक विधि से प्राप्त धारणा, धारणा के आधार पर सभी विचार और कार्य व्यव्हार, और उनके फल-परिणाम, पुनः फल-परिणाम का विचार, विचार का साक्षात्कार होकर अवधारणा, पुनः अनुभव, और पुनः उसका प्रमाण. इस प्रकार यह जागृत जीवन चक्र चलता है और अनुभव पुष्ट होता रहता है. अनुभव का प्रमाणित होना ही अनुभव का पुष्ट होना है. इस तरह बुद्धि में प्रमाणित होने का जो संकल्प हुआ था, वह पूरा होता गया. यह जब पूरा तृप्त हो जाता है तब दिव्य मानवीयता का संक्रमण है. यह तीन चरण में पूरा होता है. मानव चेतना पर्यन्त एषणात्रय सहित उपकार, उसके बाद देव चेतना में लोकेषणा सहित उपकार, फिर दिव्य चेतना में एषणाओं से मुक्त हो कर उपकार. </p><p>अनुभव मूलक विधि से जो धारणा होती है, जब तक पूरा कार्य-व्यव्हार उसके अनुरूप नहीं हो जाता, तब तक अवधारणा में परिवर्तन होता रहता है. जब तक परिवर्तन होता रहता है, तब तक मानव चेतना है, जहाँ एषणाओं सहित उपकार है. अवधारणा में परिवर्तन से मुक्ति की शुरुआत देवचेतना से हो गयी, जहाँ लोकेषणा सहित उपकार है. दिव्यचेतना में यह पूरा हो गया, जहाँ लोकेषणा भी समाप्त हो गयी, केवल उपकार शेष रहा. </p><p>उपकार है - सत्य बोध कराना। और कुछ भी नहीं है. </p><p>अवधारणा में परिवर्तन = धारणा के अनुरूप अपने सारे विचार, कार्य, व्यवहार का शोध होते रहना. यही 'स्वनिरीक्षण' है. दृष्टा पद में होना ही स्वनिरीक्षण का तात्पर्य है. दृष्टा पद में अनुभव स्थिर है. फलतः अनुभव की रौशनी में हर क्षण, हर कार्य व्यव्हार का शोध होने लगता है. </p><p>अनुभव की रौशनी में अध्ययन करना, अनुभव होने के पश्चात हर कार्य व्यव्हार का शोध करना। इस तरह मानव का 'सही' होना बनता है. </p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-87476489089583282172023-07-13T09:35:00.005+05:302023-07-13T10:25:58.168+05:30जिज्ञासा और स्पष्टीकरण - भाग १ <p><b> प्रश्न: आपने मानव व्यवहार दर्शन में लिखा है - "बुद्धि में पूर्ण बोध होने के साथ साथ ही आत्मा में पूर्ण अनुभव होना पाया जाता है, फलस्वरूप अनुभव प्रमाणित होना सहज है." क्या बुद्धि में "अपूर्ण बोध" और आत्मा में "अपूर्ण अनुभव" भी होता है?</b></p><p>उत्तर: बोध और अनुभव पूर्ण ही होता है. बोध और अनुभव अपूर्ण कभी होता ही नहीं है. </p><p><b>प्रश्न: मानव व्यव्हार दर्शन में ही एक और जगह आपने लिखा है - "अध्ययन के मूल में चैतन्य का प्रभाव होना अनिवार्य है. इसी के अनुपात में अपूर्ण बोध, अल्प बोध, सुबोध एवं पूर्ण बोध हैं. इनके ही प्रभेद से मनुष्य में श्रेणियाँ हैं."</b></p><p>उत्तर: अध्ययन विधि से अवधारणा बनने के क्रम में बुद्धि चित्त का मूल्यांकन करती है कि यह अपूर्ण है या अल्प है. आत्मा और बुद्धि के साक्षी में ही अध्ययन होता है. पूरा होने के पहले यह अपूर्ण है, बुद्धि को चित्त में इस अपूर्णता का पता चलता है. इसी को "अपूर्ण बोध" कहा. "अल्प बोध" मतलब कुछ ठीक हुआ. सुबोध के बाद पूर्ण बोध होता है. </p><p><b>प्रश्न: आपने लिखा है - "जिसका चैतन्य पक्ष जितना जागृत है, उसके पूर्ण होने और प्रमाणित होने की उतनी ही सम्भावना है" इससे क्या आशय है?</b></p><p>उत्तर: अभी मानव भ्रम में है. सारा संसार जागृति की ओर ही है. भ्रम में रहते हुए भी जागृति की कतार में है. इसमें "चैतन्य पक्ष जितना जागृत है" से आशय है, कितना तीव्रता से जागृति के लिए प्रवृत्त है. जागृति भौतिक-रासायनिक वस्तु से शुरू होता है, चैतन्य वस्तु तक पहुँचता है. </p><p>अभी सत्यता के लिए लोग जितना प्यासे हैं, पहले नहीं थे. पहले सत्यता के लिए चर्चाएं आज्ञापालन के रूप में रहा, अनुभव के रूप में नहीं रहा. विज्ञान ने तर्क को जोड़ा तो अनुभव की आवश्यकता आ गयी. </p><p><b>प्रश्न: मानव व्यव्हार दर्शन में एक जगह आपने पशु मानव को अल्प जागृत, राक्षस मानव को अर्ध जागृत, मानव को जागृत, देवमानव दिव्यमानव को पूर्ण जागृत कहा है. अनुभव दर्शन में मानव को अर्ध जागृत, देव मानव को जागृत और दिव्य मानव को पूर्ण जागृत कहा है. इसमें से कौनसा ले कर चलें?</b></p><p>उत्तर: मानव व्यवहार दर्शन में जो आया है, वह सही है. अनुभव दर्शन में अगले संस्करण में वही आना है. </p><p>अर्ध जागृत से आशय है - भौतिक रासायनिक वस्तुओं के प्रति जागृत। इसी आधार पर मनाकार को साकार कर पाया। फिर अनुभव के आधार पर मानव जागृत है. प्रमाण के आधार पर देवमानव, दिव्यमानव पूर्ण जागृत हैं. </p><p>मानव जागृत ही रहता है, पर मानव पद में प्रमाण पूरा नहीं होता है. मानव में प्रमाण अधूरा होता है, इसीलिये अनुभव दर्शन में मानव को "अर्ध जागृत" मैंने लिखा था. </p><p>अनुभव पूरे अस्तित्व में होता है, उसका दृष्टा पद नाम है. दृष्टा पद में अनुभव पूरा रहता है, प्रमाण होने पर जागृति होती है. प्रमाण की पूर्णता जागृति पूर्णता है, जो दिव्य चेतना है. मानव में इसकी तुलना में प्रमाण अधूरा रहता है, जिसमें तीनों एषणाओं के साथ जीते हुए उपकार करता है. देवमानव लोकेषणा के साथ उपकार करता है. दिव्य मानव तीनों एषणाओं से मुक्त उपकार करता है. </p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-47328391112680384842023-07-08T12:14:00.003+05:302023-07-08T17:41:27.070+05:30ब्रह्म के आभास, प्रतीति और अनुभूति का प्रमाण<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="299" src="https://www.youtube.com/embed/5JhSBj70InU" width="360" youtube-src-id="5JhSBj70InU"></iframe></div><br /><b> प्रश्न: आपने अनुभव दर्शन में लिखा है - "दिव्य मानव को ब्रह्मानुभूति, देवमानव को ब्रह्म प्रतीति, मानवीयता पूर्ण मानव को ब्रह्म का आभास, अमानव में भी ब्रह्म का भास होता है." इसको समझाइये. </b><p>उत्तर: व्यापक वस्तु का पशुमानव-राक्षसमानव में भी भास होना पाया जाता है. किन्तु भास का प्रमाण नहीं होता, आशा होता है. मानव चेतना संपन्न मानव में ब्रह्म का आभास न्याय स्वरूप में प्रमाणित होता है. देव चेतना संपन्न मानव में ब्रह्म का प्रतीति धर्म (समाधान) स्वरूप में प्रमाणित होता है. दिव्य चेतना संपन्न मानव में ब्रह्म में अनुभव सहअस्तित्व स्वरूप में प्रमाणित होता है. </p><p>इसके पहले आपको बताया था, अनुभव में पूरा ज्ञान रहता है वह क्रम से प्रमाणित होता है. इस तरह अनुभव के उपरान्त मानव चेतना में 'आभास' प्रमाणित होता है. देवचेतना में 'प्रतीति' प्रमाणित होता है. दिव्यचेतना में 'अनुभूति' प्रमाणित होता है. </p><p>जीवों में जीवनी-क्रम है. मानव में जागृति-क्रम है. जागृतिक्रम में "ज्यादा समझे - कम समझे" का झंझट आदिकाल से है. धीरे-धीरे चलते-चलते समझदारी के शोध की बात आ गयी. अब जा करके (मध्यस्थ दर्शन के अनुसन्धान पूर्वक) यह बात स्पष्ट हुई. इससे पता चला, ज्यादा समझा-कम समझा कुछ होता नहीं है. समझा या नहीं समझा यही होता है. ज्ञान हुआ, नहीं हुआ - यही होता है. अनुभव में ज्ञान हो जाता है, फिर प्रमाणित होना क्रम से होता है. मैं सम्पूर्ण अस्तित्व को समझा हूँ, अध्ययन किया हूँ, अनुभव किया हूँ, मैं स्वयं प्रमाणित हूँ, किन्तु समझाने/प्रमाणित करने की जगह में क्रम में ही हूँ. पहले न्याय समझाने/प्रमाणित करने के बाद ही धर्म प्रमाणित होगा। धर्म प्रमाणित होने के बाद ही सत्य प्रमाणित होगा. अभी मैं न्याय को प्रमाणित करता हूँ, धर्म को प्रमाणित करता हूँ - लेकिन सत्य को प्रमाणित करने का जगह ही नहीं बना है. कालान्तर में बन जाएगा. सत्य प्रमाणित होना = सहअस्तित्व स्वरूप में व्यवस्था प्रमाणित होना. उसके पहले अखंड समाज सूत्र व्याख्या होना - जिसका आधार समाधान (धर्म) ही है. मैं समाधान प्रमाणित करता हूँ - इस बात की मैं घोषणा कर चुका हूँ. वही प्रश्न-मुक्ति अभियान है. न्याय मैं प्रमाणित करता ही हूँ - अपने परिवार और आगंतुकों के साथ मैं न्याय करता हूँ. मैं न्याय करता हूँ, उससे मुझे स्वयं से तृप्ति मिलती है. दूसरे से भी तृप्ति मिले, इसके लिए मैं प्रयत्न करता हूँ. कुछ संबंधों में ऐसा हो चुका है, कुछ में शेष है. </p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-19821807230757557432023-03-15T20:31:00.004+05:302023-03-15T20:31:23.495+05:30संवेदना का अर्थ <p> संवेदना का परिभाषा है - पूर्णता के अर्थ में वेदना. </p><p><br /></p><p>संवेदना की यह परिभाषा किस प्रकार चरितार्थ होगी? आप सोचिये!</p><p><br /></p><p>भोगवाद संवेदनाओं को उन्मुक्त करने में खुशहाली मानता है. व्यापार विधि में ऐसा मानते हैं - व्यापार से पैसा, पैसे से संग्रह, संग्रह से भोग, भोग से खुशहाली.</p><p><br /></p><p>यहाँ (मध्यस्थ दर्शन में) संवेदनाओं को संयत करने में खुशहाली मानते हैं.</p><p><br /></p><p>संवेदनाओं को कितना भी उन्मुक्त बनाएं, उसमें खुशहाली तो मिलता नहीं है. संवेदनाओं को संयत करने में सर्वतोमुखी समाधान पूर्वक खुशहाली का निरंतरता होता है. इसको "अभ्युदय" हमने नाम दिया है. </p><p><br /></p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक) </p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-62898549618057989322022-12-20T22:40:00.001+05:302022-12-20T22:40:21.961+05:30जीवन में दृष्टा विधि का स्वरूप <p><b> </b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="284" src="https://www.youtube.com/embed/ERXwXL1j8t0" width="428" youtube-src-id="ERXwXL1j8t0"></iframe></b></div><b><br />प्रश्न: जीवन ही जीवन को कैसे देखता है?</b><p></p><p><br /></p><p>उत्तर: इसके लिए लिख कर दिया है - वृत्ति मन का दृष्टा होता है, मन वृत्ति में अनुभव करता है. अपने से अधिक में अनुभव करना होता है. मन का दृष्टा होने का मतलब है, वृत्ति मन का विश्लेषण करने वाला है. मन क्या करता है, क्या नहीं करता है - इसको वृत्ति मूल्यांकित करता है. कल्पनाशीलता के ज्ञान सम्पन्नता को छूने की पहली जगह यही है. इससे पार पाने पर चित्त वृत्ति के दृष्टा होने की बात आती है. वृत्ति में मूल्यांकन कहाँ तक ठीक हुआ, यह मूल्यांकन चित्त करता है. वृत्ति में जो तुलन हुआ, वह कहाँ तक न्याय हुआ - कहाँ तक धर्म हुआ - कहाँ तक सत्य हुआ, चित्त की चिंतन क्रिया में इसका मूल्यांकन होता है. इसी तरह चित्त का दृष्टा बुद्धि होता है. बुद्धि का दृष्टा आत्मा होता है. </p><p><br /></p><p>इस तरह मन का दृष्टा वृत्ति, वृत्ति का दृष्टा चित्त, चित्त का दृष्टा बुद्धि और बुद्धि का दृष्टा आत्मा है. </p><p><br /></p><p>इस तरह जीवन जीवन को पहचानता है. इससे पहले कहा था, "ईश्वर ईश्वर को पहचानता है." "ईश्वर को पहचानने वाला ईश्वर के अलावा दूसरा कोई नहीं है." "ईश्वर ही ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय है." - इसको "त्रिपुटी-संगम" नाम दिया. यहाँ हम कह रहे हैं - जीवन ज्ञाता है, सहअस्तित्व ज्ञेय है, और ज्ञान चार अवस्था स्वरूप में है. जीवन ज्ञान है - ज्ञाता होने का ज्ञान. यह अनुभव मूलक विधि से आता है. मन वृत्ति में, वृत्ति चित्त में, चित्त बुद्धि में, बुद्धि आत्मा में अनुभव करता है. आत्मा सहअस्तित्व में अनुभव करता है.</p><p><br /></p><p>जब कभी आत्मा सहअस्तित्व में अनुभव करता है तो पूरा जीवन अनुभव मूलक विधि से अनुभव में भीग जाता है या अनुभव संपन्न हो जाता है.</p><p><br /></p><p><b>प्रश्न: मन वृत्ति में कब अनुभव करता है?</b></p><p><br /></p><p>उत्तर: वृत्ति जब अनुभव मूलक रहता है तभी मन वृत्ति में अनुभव करता है. </p><p><br /></p><p><b>प्रश्न: उससे पहले क्या होता है?</b></p><p><br /></p><p>उत्तर: उससे पहले शरीर की अनुकूलता में मन, वृत्ति, चित्त की क्रियाशीलता साढ़े चार क्रियाओं में रहती है. चित्रण तक साढ़े चार क्रियाएं व्यक्त रहती हैं, साढ़े पांच क्रियाएं सुप्त रहती हैं - यही है "छुपा हुआ ज्ञान"! शरीर मूलक विधि से जीवन रूचि मूलक विधि में गिरफ्त हो जाता है. साढ़े चार क्रिया में जीता हुआ जीवन वीरान रहता है, उसमे तृप्ति नहीं मिलती है, अंततोगत्वा दस क्रियाएं पूरा होने की आवश्यकता बन जाती है.</p><p><br /></p><p>जाग्रति से पहले मन शरीर के तद्रूप रहता है या शरीर को ही जीवन माने रहता है. उसमे प्रिय-हित-लाभ का तुलन वृत्ति में होता है, न्याय-धर्म-सत्य छुटा रहता है. इसी के आधार पर विश्लेषण और चित्रण हो जाता है. यही भौतिकवाद है, जिसमे जीवन का अधूरा अभिव्यक्ति होती है. इसको 'जीव चेतना' हम नाम देते हैं. शरीर को जीवन मानते हुए रूचि ग्रस्त हो कर जितना मानव काम कर सकता था, उतना कर दिया.</p><p><br /></p><p>ऐसे में "खूबी" यह रही कि जीव चेतना में जीते हुए भी मानव ने जीवों से अच्छा जीने की सोचा. इससे विराक्तिवाद और आसक्तिवाद निकला. विराक्तिवाद ने कामिनी-कांचन में विवश रहने वाले को "गृहस्थ" माना. कामिनी-कांचन से विरक्त रहने वाले को तपस्वी, साधक, ज्ञानी माना. इस तरह विरक्त मानव को तो पहचाना, किन्तु विरक्ति से क्या मिला - यह मानव जाति को पता नहीं चला. </p><p><br /></p><p><b>प्रश्न: मानव अनुभव तक कैसे पहुँच सकता है?</b></p><p><br /></p><p>उत्तर: इसके लिए अनुभवगामी विधि को मैंने प्रस्तुत किया. मैंने अनुभव किया, फिर अनुभवगामी विधि से अध्ययन को प्रस्तुत किया. अध्ययन में लगना आवश्यक है. अध्ययन किये बिना हम अपने को समझा माने रह सकते हैं, पर समझे नहीं रहते हैं. अध्ययन नितांत आवश्यक है. शब्द का अर्थ समझ में आना अध्ययन है. शब्दों को उच्चारण करना अध्ययन नहीं है. इस बात को ध्यान में रखने से हम बहुत आगे बढ़ सकते हैं. स्मरण अध्ययन नहीं है. शब्द का अर्थ हमारा स्वीकृति है, स्मरण नहीं है. स्वीकृति बुद्धि में बोध रूप में होता है. शब्द का अर्थ बोध रूप में हुआ, तब हम समझे. शब्द के अर्थ की स्वीकृति बुद्धि में ही होती है, उसके पहले भी नहीं उसके बाद में भी नहीं. अर्थ का बोध जो बुद्धि में हुआ, उसको प्रमाणित करने की प्रवृत्ति होती है, फिर वह अनुभव मूलक विधि से प्रकट होता है. इसमें किसको क्या तकलीफ है? यदि बुद्धि में (अवधारणा) बोध होता है तो आत्मा में स्वयंस्फूर्त प्रवृत्ति रहती है, अस्तित्व में अनुभव करने की. बुद्धि में यदि अवधारणा बोध होता है तो आत्मा में अनुभव होना भावी है. आत्मा स्वयं अस्तित्व अनुभव करने योग्य रहता ही है, उसके लिए ट्रेनिंग की जरूरत नहीं है. चैतन्य इकाई (जीवन) के मध्यांश का नाम है आत्मा! वह एक अंश अस्तित्व में अनुभव कर लेता है. यह एक अंश अस्तित्व में अनुभव कर लेता है. यह अंश अस्तित्व में अनुभव योग्य बना ही रहता है, बुद्धि में (अवधारणा) बोध होने के बाद अनुभव होता है. बुद्धि में अवधारणा बोध होना अध्ययन विधि से ही संभव है. सर्वसुलभ होने के लिए अध्ययन विधि ही है, अभ्यास विधि (साधना विधि) नहीं है. अध्ययन में लिए मन को लगा देना ही अभ्यास है. </p><p><br /></p><p>अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान स्वरूप में अवधारणा बोध होने से सहअस्तित्व में अनुभव होना सहज है. </p><p><br /></p><p><b>प्रश्न: आत्मा के अस्तित्व में अनुभव कर लेने के बाद क्या होता है?</b></p><p><br /></p><p>उत्तर: आत्मा में अनुभव होने पर अनुभव का प्रमाण को आत्मा में हुआ, उसका बोध बुद्धि में होता है. प्रमाणित करने के लिए यह चित्त में चिंतन में आएगा, वृत्ति में न्याय धर्म सत्य तुलन स्वरूप में आएगा, उसके बाद विश्लेषण और आस्वादन पूर्वक चयन में आएगा. इस तरह अनुभव के साथ जीवन के तदाकार होने की बात होती है. </p><p><b>प्रश्न: अनुभव का तदाकार?</b></p><p><br /></p><p>उत्तर: जैसे मनाकार होता है, वैसे ही अनुभव का तदाकार होता है. मानव बहुत तरह की वस्तुओं को बनाया - जैसे ये टेबल है, कुर्सी है, कैमरा है, ये सब के मूल में मनाकार रहा जो साकार हुआ. अनुभव में जैसा आकार हुआ वैसा पूरा जीवन का हो जाना = तदाकार. आकार नाम इसलिए दिया क्योंकि यह होता है. जैसे, हमारे बीच रिक्त स्थली अपने में आकार है. आँखों के लिए यह आकार है. होने के क्रम में यह पारगामी है. यहाँ अपनी बुद्धि को नियोजित नहीं करोगे तो सत्य को कैसे पहचानोगे? इसके लिए जिज्ञासात्मक बुद्धि का प्रयोग करना पड़ेगा, हमको समझना है - यह तत्परता चाहिए, नहीं तो यह हाथ नहीं लगेगा. diversity यदि है तो यह नहीं बनेगा. दूसरे के साथ तौलोगे, दूसरों के स्मरण से इसको सोचोगे तो यह हाथ लगने वाला नहीं है. तदाकार-तद्रूप होना ही इसका सिद्धांत है. तद्रूप-तदाकार नाम की प्रक्रिया है. </p><p><br /></p><p><b>प्रश्न: तदाकार-तद्रूपता को और बताइये.</b></p><p><br /></p><p>उत्तर: (परम्परा में) सत्तामयता में तद्रूपता की अवस्था को समाधि कहते हैं. परम्परा में उसी को ज्ञान माना है. जबकि ज्ञान सहअस्तित्व में होता है. इसलिए तदाकार और तद्रूप दोनों होने की आवश्यकता है. अनुभव एक घटना है जिसमे पूरा जीवन के तद्रूप होने की (उसी के स्वरूप में होने की) व्यवस्था है. </p><p><br /></p><p>तदाकार में हर क्रिया होता है, तद्रूप में व्यापक वस्तु आता है. अनुभव पूर्वक तदाकार तद्रूप दोनों पूरा हो जाता है. </p><p><br /></p><p>ज्ञान व्यापक स्वरूप में फैला है. सत्ता व्यापक स्वरूप में फैला है. इसमें तद्रूप होना - यही ज्ञान संपन्न होना है. जीवन में ज्ञान फैला हुआ स्वरूप में स्वीकार होता है, जो सर्वत्र विद्यमान वस्तु है. व्यापक वस्तु में सभी चरों अवस्थाएं संपृक्त स्वरूप में हैं, फलस्वरूप पदार्थावस्था की वस्तुएं अस्तित्व संपन्न, प्राणावस्था की वस्तुएं पुष्टि संपन्न, जीवावस्था की वस्तुएं आशा-संपन्न, और ज्ञानावस्था में ज्ञान संपन्न होने की बात है. सहअस्तित्व में अनुभव होने से व्यापक वस्तु के साथ प्रकृति की चारों अवस्थाओं के होने का ज्ञान होता है. इसी को कहा सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान. सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान होता है तो जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान होता ही है. </p><p><br /></p><p>ज्ञान संपन्न होने पर प्रकृति का अविनाशी होना समझ में आता है. इसी को हमने कहा - "ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत". इसके पहले आदि शंकराचार्य ने लिखा - "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या". फिर तैत्तिरीय उपनिषद् में कहे - "सत्यम ज्ञानं अनंतम ब्रह्मम" फिर सत्य को ही ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय होना बताये. जबकि सहअस्तित्व में अनुभव करने पर सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान हुआ, सहअस्तित्व में दृष्टा पद में जीवन ज्ञान हुआ, ऐसे जीवन के शरीर के साथ संयुक्त रूप में मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान हुआ. इस पर हमको ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. इसमें जो तकलीफ का भाग है उसको trace कर लेना, उसको समझ के अभ्यास करके सुगम बना लेना. </p><p><br /></p><p>शब्द का अर्थ समझ में आता है</p><p>समझ में आता है तो अनुभव होता ही है</p><p>अनुभव होता है तो प्रमाण होता ही है.</p><p><br /></p><p>शब्द का अर्थ पूरा पूरा जानना और उसके प्रति निष्ठा होना </p><p>शब्द का अर्थ ही अवधारणा है.</p><p>अवधारणा जब व्यवहार में प्रमाणित करते हैं तब वह धारणा है.</p><p>धारणा = समाधान = सुख.</p><p><br /></p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)</p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-33145782095253396432022-07-04T13:49:00.008+05:302022-07-04T13:49:56.840+05:30 सत्ता और मध्यस्थ क्रिया <p>सत्ता की प्रेरणा प्रकृति में मध्यस्थ क्रिया रूप में ही है. परमाणु, अणु, वनस्पति संसार, जीव संसार में संतुलन इसी आधार पर है. मानव के भी मध्यस्थ क्रिया के आधार पर संतुलित होने की व्यवस्था है. </p><p><br /></p><p>मध्यस्थ सत्ता में प्रेरणा से मध्यस्थ क्रिया है. वस्तु प्रेरणा पाता है. प्रेरणा स्वीकृति के रूप में है. मध्यस्थ सत्ता में जड़-चैतन्य वस्तुओं को मध्यस्थ क्रिया के लिए प्रेरणा है. </p><p><br /></p><p>पूर्णता की प्रेरणा मध्यस्थ क्रिया रूप में है. </p><p><b><br /></b></p><p><b>प्रश्न: तो क्या जीवन में आत्मा का कोई रोल है उसको पूर्णता (अनुभव) की ओर गतित करने में?</b></p><p><br /></p><p>उत्तर: है. भौतिक संसार में भी मध्यस्थ क्रिया का रोल है, पूर्णता की ओर प्रेरित करने का. आत्मा की रौशनी में मानव का क्रियाशील होना अभी शेष है.</p><p><b><br /></b></p><p><b>प्रश्न: आत्मा की रौशनी में मानव के क्रियाशील होने से पूर्व आत्मा का क्या रोल है?</b></p><p><br /></p><p>उत्तर: ज्ञानार्जन के अर्थ में, अध्ययन के अर्थ में.</p><p><b><br /></b></p><p><b>प्रश्न: क्या जीवन की अन्य क्रियाओं में भी पूर्णता के लिए प्रेरणा है?</b></p><p><br /></p><p>उत्तर: आशा को आशा की गम्य स्थली के लिए प्रेरणा है. विचार को विचार की गम्यस्थली के लिए प्रेरणा है. इच्छा को इच्छा की गम्यस्थली के लिए प्रेरणा है. संकल्प को संकल्प की गम्यस्थली के लिए प्रेरणा है. </p><p><br /></p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक) </p><p><br /></p><p><br /></p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-17053770280916735762022-07-04T11:55:00.010+05:302022-07-04T11:55:53.762+05:30 सत्ता और ज्ञान <p>सहअस्तित्व में मानव समाहित है. सहअस्तित्व से चारों अवस्थाओं में संतुलन भी इंगित है, सत्ता में सम्पृक्त्ता भी इंगित है. व्यव्हार रूप में चारों अवस्थाओं के साथ संतुलित रूप में जीना और अनुभव में सम्पृक्त्ता/पारगामीयता का ज्ञान होना. पारगामीयता के आधार पर ही सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान है. व्यापक वस्तु के प्रतिरूप का नाम है ज्ञान. व्यापक वस्तु को अभिव्यक्त करना, संप्रेषित करना, आचरण में लाना का नाम ज्ञान है. ज्ञान का प्रमाण केवल मानव है. व्यापक वस्तु ही मानव द्वारा ज्ञान के नाम से प्रकाशित होता है.</p><p>मानव में ऊर्जा सम्पन्नता ज्ञान है. मानव में जो कुछ भी ऊर्जा है, उसका नाम है 'ज्ञान'. चार विषयों का ज्ञान, पांच संवेदनाओं का ज्ञान, तीन एषणाओं का ज्ञान, उपकार का ज्ञान. चार विषयों और पांच संवेदनाओं के ज्ञान से शरीर संवेदनाओं की सीमा में जीना बनता है. जिसको जीव चेतना नाम है. तीन एषणाओं और उपकार का ज्ञान होने पर विशालतम स्वरूप में जीना बनता है. जिसको मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना नाम है. जिस सीमा में जीना है, जियो! हम तो आग्रह नहीं करेंगे, आप ऐसे ही जियो. </p><p>ज्ञान के बिना कोई मानव मिलेगा नहीं. ज्ञान को हम संकीर्ण बनाते हैं तो दुखी होते हैं, विशाल बनाते हैं तो सुखी होते हैं. </p><p>सत्ता को समझने के लिए मनुष्य में जो ज्ञान है, वहां से शुरू करना होगा. ज्ञान को छोड़ के सत्ता को समझना किसी से होगा नहीं, चाहे कुछ भी कर लो! ज्ञान को स्वयं में पहचानना ही स्वनिरीक्षण है. स्वनिरीक्षण विधि से हम निष्कर्ष पर पहुंचेंगे, और किसी विधि से नहीं. स्वनिरीक्षण पर ध्यान नहीं जाना ही fallacy है. चार विषय और पांच संवेदनाएं पर-सापेक्ष हैं. जीवन के लिए शरीर "पर" है. शरीर की निवृत्ति होती है. जीवन शरीर को चलाता है, छोड़ देता है. चार विषय और पांच संवेदनाएं पर-सापेक्ष होने के कारण इनमे स्वनिरीक्षण हो नहीं सकता. स्वनिरीक्षण मानवीय और अतिमानवीय विषय (तीन एषणा और उपकार) की सीमा में ही संभव है. स्वनिरीक्षण होने पर पता चलता है, ज्ञान जीवन का है. सहअस्तित्व ज्ञान के बिना जीवन ज्ञान होता नहीं है. अभी तक तो हुआ नहीं! सारा सिर कूट लिया, साधना कर लिया, यज्ञ कर लिया, तप कर लिया, योग कर लिया - क्या नहीं किया! चारों अवस्थाओं के साथ सहअस्तित्व को अनुभव करना = सहअस्तित्व ज्ञान होना. </p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक) </p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-9697744255775957822022-05-11T14:52:00.000+05:302022-05-11T14:52:01.364+05:30 विचार और तर्क <p>विचार का एक छोटा सा भाग तर्क है. स्वीकृति के लिए निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए तर्क है. निष्कर्ष को जीने में उतारने के लिए तर्क है.</p><p><br /></p><p>अभी हम विचार को प्रश्न में उलझाने के लिए तर्क को लगाते हैं. फिर तर्क के लिए तर्क का प्रयोग करते हैं. वह कभी निष्कर्ष तक पहुँचता नहीं है. </p><p><br /></p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०११, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-3685573210158493862022-05-08T17:17:00.007+05:302022-05-08T19:43:17.956+05:30स्व-मूल्यांकन<p>स्वयम पर विश्वास समझदारी से होता है. विकसित चेतना (मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना) समझदारी का स्वरूप है. जीव चेतना समझदारी नहीं है. विकसित चेतना में पारंगत होने पर हम स्वयं का मूल्यांकन कर सकते हैं. उसके पहले हम दूसरों से शिकायत ही करते रहते हैं. विकसित चेतना से पहले हमारा हर व्यक्ति, हर सभा, हर न्यायालय के साथ शिकायत ही बना रहता है. शिकायत कभी स्वमूल्यांकन का आधार नहीं बनता. समाधान ही स्वमूल्यांकन का आधार बनता है. समाधान पाए बिना स्वमूल्यांकन करना बनता नहीं है. जीव चेतना में हम समाधान नहीं पायेंगे, समस्या ही पायेंगे, समस्या को ही गायेंगे, समस्या को ही गुनेंगे, समस्या में ही हम पंडित कहलायेंगे, दक्षिणा पायेंगे - सभी बात होगा, पर स्वमूल्यांकन होगा नहीं. स्वमूल्यांकन के लिए समाधान को पाना ही होगा. समाधान के अर्थ में स्वमूल्यांकन होगा.</p><p><br /></p><p>स्वमूल्यांकन है - मैं जैसा समझा हूँ, वैसा करता हूँ या नहीं, वैसा जीता हूँ या नहीं, वैसा बोल पाता हूँ या नहीं? इस check-balance में मूल्यांकन होता है. यदि हम समझने में, करने में, जीने में, बोलने में एकसूत्रता को पा जाते हैं तो समाधान होगा या समस्या होगा? एक व्यक्ति में संतुलन यही है. कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित भेदों से जो हम कर्म करते हैं, इनमे एकसूत्रता बन जाए तो हमारा स्वमूल्यांकन होता है. एकसूत्रता नहीं आता है तो स्वमूल्यांकन नहीं होता. इसके बाद समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व स्वरूप में हम जी पा रहे हैं या नहीं - यह दूसरा मूल्यांकन है. तीसरा - नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य पूर्वक जीता हूँ या नहीं - यह तीसरा मूल्यांकन है. चौथा - स्वधन, स्वनारी-स्वपुरुष, दया पूर्ण कार्य-व्यव्हार स्वरूप में जीता हूँ या नहीं. हर व्यक्ति समझदार होने पर अपने ऊपर ये कसौटियां लगा सकता है. शिक्षा इसी के लिए है. </p><p><br /></p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-12673631116070226522022-04-06T18:38:00.000+05:302022-04-06T18:38:02.922+05:30 मानव-मानव में समानता की पहचान<p> मानव-मानव में समानता की पहचान के साथ ही उनका "साथ में रहना" प्रमाणित होता है. समानता की पहचान अधूरा रहता है तो उनका "सहवास में रहना" ही बनता है. "साथ में रहना" में निरंतरता बनता है. "सहवास में रहना" में निरंतरता बनता नहीं है. रूप-गुण-स्वभाव-धर्म में विषमता ही सहवास में रहने की बाध्यता है. इसमें से रूप और गुण कभी दो मानवों के समान नहीं हो सकते. आपका रूप और मेरा रूप एक नहीं हो सकता. रचना की खूबी मौलिक रूप में हरेक में अलग-अलग हम देखते है. गुणों के आधार पर काम करने की जगह में हम और आप अलग-अलग ही रहेंगे. समान रूप से काम करके हम तृप्ति नहीं पाते हैं. स्वभाव और धर्म में एकरूपता होने पर मानव का "साथ में रहना" या "जीना" बन जाता है. मानव में ज्ञान ही स्वभाव और धर्म में एकरूपता का आधार है. स्वभाव और धर्म के आधार पर मानव जाति एक हो सकती है. </p><p><br /></p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-47328225778280513642022-02-21T10:34:00.002+05:302022-02-21T10:34:06.174+05:30क्रिया, ज्ञानगोचर को समझना <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/s15eeE_9u9M" width="320" youtube-src-id="s15eeE_9u9M"></iframe></div><br /> <p></p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-17460432052730900732022-02-17T19:20:00.008+05:302022-02-17T19:25:59.704+05:30स्वकृपा आवश्यक है <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/VdrM_qhRdnE" width="320" youtube-src-id="VdrM_qhRdnE"></iframe></div><br /><p>स्वकृपा के बिना ज्ञानप्राप्ति संभव नहीं है. हमारे चाहे बिना हमको अनुभव कैसे हो सकता है? अनुभव होने का अधिकार हमारे पास है, यह तो मेरा पहले से ही कल्पना था. किन्तु अनुभव की वस्तु क्या है, यह स्पष्ट नहीं था. अब (अनुसन्धान पूर्वक) यह स्पष्ट हो गया कि जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान अनुभव में आता है. अनुभव के बाद प्रमाणित होना स्वाभाविक ही है.</p><p>अनुभव के लिए पीड़ा नहीं है तो शोध काहे को करेंगे? इस पीड़ा-मुक्ति का आधार शोध ही है. </p><p>ज्ञान में अनुभव हर व्यक्ति का अधिकार है. </p><p>ज्ञान में अनुभव तक कैसे जियें? इसका उत्तर है - अनुकरण विधि से. </p><p>अभी संसार में जितनी तरह की रूढ़ियाँ हैं, उनको अलग रख कर हम निष्कर्ष पर आने के लिए यहाँ प्रयास कर रहे हैं. धरती के बीमार होने से इस प्रस्ताव की आवश्यकता बनता जा रहा है. ऋतु परिवर्तन हो चुका है, बहुत प्रजाति की वनस्पतियाँ लुप्त हो चुकी हैं, कई प्रकार की जीव प्रजातियाँ समाप्त हो चुकी हैं. लेकिन मनुष्य सुविधा-संग्रह के अलावा दूसरा कुछ सोच नहीं पा रहा है.</p><p>अब आगे का कार्यक्रम है - यदि साक्षात्कार नहीं हुआ है तो अध्ययन से साक्षात्कार का रास्ता बनाया जाए. यदि साक्षात्कार हो रहा है तो उसके अनुसार जीने का डिजाईन तैयार किया जाए. इसमें दूसरा पुराण-पंचांग कुछ नहीं है. </p><p>पहले यह पता चल जाता तो समय बच जाता, ऐसा सोचने की जगह - जब जागे तभी सवेरा हुआ मान लो! </p><p><br /></p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक) </p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-91285098551115581682021-11-21T16:45:00.008+05:302021-11-21T16:45:56.096+05:30समझदार होने के प्रति ईमानदारी<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="377" src="https://www.youtube.com/embed/XEMdNoWOaR4" width="454" youtube-src-id="XEMdNoWOaR4"></iframe></div><br /> <p></p><p><br /></p><p>समझदारी के प्रस्ताव को समझ के फिर जाँचना होता है. बिना समझे जाँचने का कोई मतलब नहीं निकलता. विगत की विचारधाराओं को जांचने से कुछ निकलेगा नहीं. किसी भी विधा से दौड़ के आओ उनसे अपराध ही निकलना है. राज्य विधा से अपराध, धर्म विधा से विरोध, शिक्षा विधा से अपराध, व्यापार विधा से अपराध ही निकलता है. अपराधिक शिक्षा, अपराधिक राज्य, अपराधिक व्यापार, अपराधिक धर्म, अपराधिक व्यवस्था - इतना ही है. आदमी के अभी अपराध से बचने का जगह कहाँ है, आप बताओ? इतना सब होने के बावजूद, इन सबसे छूट के समझदारी पूर्वक जीने का एक प्रस्ताव है. समाधानित व्यक्ति, समाधान-समृद्धि संपन्न परिवार, समाधान समृद्धि अभय संपन्न समाज, समाधान समृद्धि अभय सहअस्तित्व प्रमाण परम्परा स्वरूपी व्यवस्था. सुधरा हुआ का स्वरूप इतना ही है. आपकी जरूरत होगी तो इसको समझना आपकी झकमारी है. इसमें किसी दूसरे का कोई दोष नहीं है.</p><p><br /></p><p> इससे अधिक की चाहत मानव के पास नहीं है. यह चाहिए या नहीं, आप देख लो! इसके अलावा जो अपराधिक चाहतें हैं, मानव में - उनका प्रभाव समझदारी के आगे पहले ही निरस्त हो जाता है. जैसे अँधेरी खोली में दिया जलाने से तत्काल प्रकाश हो जाता है, यह उसी प्रकार है. करोड़ों वर्षों से अन्धकार से भरी खोली क्यों न हो, एक माचिस की तीली से सारा अन्धकार ख़तम! मानव समझदार होने के प्रति कितना ईमानदारी से संलग्न हो सकता है, उतना ही इसमें देरी है.</p><p><br /></p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-38669021181946004242021-11-18T15:51:00.002+05:302021-11-18T22:41:54.022+05:30 समझदारी या मजामारी <p>अब दो ही रास्ते हैं आदमी के पास - समझदारी या मजामारी. मजामारी में सभी अपराध वैध हैं. समझदारी में वैध बात अलग है, अवैध बात अलग है. जैसे - गुड़ और गोबर. गुड़ एक अलग चीज़ है, गोबर एक अलग चीज़ है. इसमें मानव के मन पर एक प्रहार भी है, एक सुझाव भी है. विगत से जुड़ी हुई सूत्रों पर प्रहार है, भविष्य में सुधरने के लिए प्रस्ताव है. जैसा बने,वैसा करो अब! </p><p><b>प्रश्न: आप हर समय यह भ्रम और जाग्रति का विश्लेषण क्यों करते हैं?</b></p><p>उत्तर: अभी संक्रमित होने के लिए, परिवर्तित होने के लिए इस विश्लेषण को करने की आवश्यकता है. जैसे - लाभ समझ में आने के लिए हानि समझ में आना भी आवश्यक है. हानि किसमें है यह स्पष्ट किये बिना आप लाभ को बता ही नहीं सकते.</p><p>इस तरह भ्रम और जाग्रति का नीर-क्षीर विश्लेषण किया. अब सर्वेक्षण में आया कि हर मानव जाग्रति को चाहता है. लेकिन अभी मानव जहाँ है, उसको अपने मन की जाग्रति चाहिए! वो होता नहीं है. इसीलिये जीव-चेतना और मानव-चेतना के बीच की लक्ष्मण-रेखा को स्पष्ट कर दिया. मानव चेतना में मानव समझदारी से जीता है. जीव चेतना में सकल अपराध को समझदारी मानता है. भ्रमित मानव में जागृत होने की अपेक्षा है, उस अपेक्षा को पूरा करने के लिए तमीज चाहिए. उस तमीज के लिए यह प्रस्ताव है. यह पर्याप्त है या नहीं उसको पहले जांचो, उसके बाद बात करो!</p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-25809586294935258072021-11-17T13:24:00.006+05:302021-11-17T13:24:37.466+05:30सहअस्तित्व सूत्र अविभाज्यता ही है<p><br /></p><p><br /></p><p>प्रत्येक एक की परस्परता में जो खाली स्थली है - वही व्यापक वस्तु है. दो आदमी के बीच, दो झाड के बीच, दो जानवर के बीच, दो फलों के बीच, दो परमाणुओं के बीच - हर परस्परता में दूरियाँ बनी रहती है. जैसे - हमारी आँख, कान, नाक इनके बीच भी दूरियाँ बनी रहती हैं. जैसे - हमारी आँख, कान, नाक के बीच भी दूरियाँ बनी रहती हैं, सम्बन्ध बना रहता है. हमारा आँख अलग दिखता है, हाथ अलग दिखता है, मूंह अलग दिखता है - किन्तु इन सभी में सम्बन्ध बना रहता है. जैसे - एक शरीर के सभी अंग-अवयवों में सम्बन्ध है, वैसे ही एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति में सम्बन्ध है. सम्बन्ध में निश्चित दूरियाँ हैं ही. यह दूरी स्वयं में सत्ता है. इससे डूबे रहने, घिरे रहने का स्वरूप स्पष्ट होता है. </p><p><br /></p><p>अब सत्ता में भीगे रहने को समझने की बात है. इसके लिए बताया - सत्ता में भीगे रहने से जड़ प्रकृति ऊर्जा-संपन्न है, चैतन्य प्रकृति चेतना संपन्न और ज्ञान संपन्न है. जड़ भीगा रहता है - इसलिए ऊर्जा. चैतन्य भीगा रहता है - इसलिए चेतना. इस ढंग से व्यापक वस्तु में एक-एक वस्तु अविभाज्य होना पता चलता है. अविभाज्यता स्वयं में सहअस्तित्व का सूत्र है. सहअस्तित्व सूत्र अविभाज्यता ही है. </p><p><br /></p><p>इस तरह सम्पूर्ण के साथ हमारा सम्बन्ध भी पता चलता है, सम्पूर्ण के साथ हमारा ज्ञान भी पता चलता है, सम्पूर्ण के साथ कर्तव्य भी पता चलता है, सम्पूर्ण के साथ नियम-नियंत्रण-संतुलन पूर्वक जीना भी पता चलता है, सम्पूर्ण के साथ समाधानित होना बनता है, सम्पूर्ण के साथ न्याय-धर्म-सत्य प्रमाणित करना बनता है. यह कुल मिला कर चेतना और ज्ञान का मतलब है. </p><p><br /></p><p>यह सब बातों को समझ के, आदमी स्वयम में विचार करके जैसे जीना है, वैसे जियेगा. समझाते तक हम संकल्पित हैं, जीना हर व्यक्ति का स्वतंत्रता है. नासमझी से आदमी सभी गलती करता है. समझदारी से सभी सही करता है. आदमी का कुंडली ही ऐसा है! समझदारी को सर्वमानव चाहता ही है. किसी आयु के बाद सभी अपने को समझदार मानते ही हैं. ये दो बातें सर्वेक्षण में आता है. हर मानव समझदारी को चाहता है तो समझदारी के लिए रास्ता बनाया जाए. उसके लिए शिक्षा में समझदारी का समावेश किया जाए - यह निकला. उसके लिए हम प्रयासरत हैं.</p><p><br /></p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ सम्वाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-30244300000605836472021-11-16T09:16:00.004+05:302021-11-16T09:17:06.393+05:30 क्रिया-प्रतिक्रिया और प्रभाव-परिपाक <p>कोई भी क्रिया की प्रतिक्रिया में ह्रास होता है या विकास होता है. जैसे - ठंडी होने की प्रतिक्रिया में हम कुछ करते हैं. किसी के भाषा द्वारा कुछ कहने की प्रतिक्रिया में हम कुछ करते हैं. किसी किताब में कुछ पढ़ कर उस सोच की प्रतिक्रिया में हम कुछ करते हैं. इस तरह, अपने में हुई प्रतिक्रिया के आधार पर कुछ भी किया जाता है तो वह पुनः क्रिया ही होगा. लेकिन अनुभव मूलक गुणों का जब प्रभाव पड़ता है तो उसके आधार पर हमारे विचारों में निश्चयन होता है. विचारों में निश्चयन होने के आधार पर अनुभव परिपाक होता है. क्रिया के उपक्रम की परिणिति को "परिपाक" कहा है. जैसे - खेत को जोता, उसमे धान लगाया, उसको सींचा, सुरक्षा किया - फिर एक दिन धान पक के तैयार हो गया. वह तैयार हो जाना परिपाक है.</p><p><br /></p><p>- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1882721000829201281.post-78100770858371738872021-11-16T09:15:00.003+05:302021-11-16T09:15:40.481+05:30पूर्ण कला<p><b> प्रश्न: आपने लिखा है - "सत्य निरूपण कला की 'पूर्ण कला' तथा इससे भिन्न कला की 'अपूर्ण कला' संज्ञा है." निरूपण से क्या आशय है?</b></p><p><br /></p><p>उत्तर: निरूपण का मतलब है - विश्लेषण. सत्य को अभिव्यक्त, संप्रेषित, प्रकाशित कर सकना ही पूर्ण कला है. कला का और कोई प्रयोजन नहीं है. अभी कला के नाम से जो लोग चिल्ला रहे हैं, उनका ध्यान दिलाने के लिए यह कहा है. किसी भी चीज़ को कला बता करके पवित्र शब्दों को अपवित्र कामों से जोड़ने का काम कर रहे हैं.</p><p><br /></p><p>-श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)</p>Rakesh Guptahttp://www.blogger.com/profile/15890065299448749586noreply@blogger.com0