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Sunday, October 30, 2011

संयम-काल में अनुभव

प्रश्न: आपको अनुभव संयम-काल के पहले हुआ, बाद में हुआ, या संयम-काल में हुआ?

उत्तर: मुझे पाँच वर्ष के संयम-काल में अध्ययन-पूर्वक अनुभव हुआ। हर पक्ष का साक्षात्कार, बोध हो कर अनुभव होता रहा। चारों अवस्थाओं का अनुभव होने में समय लगता है। सह-अस्तित्व में ही विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति अनुभव हुआ। विकास-क्रम का अनुभव होने में सबसे अधिक समय लगा, उससे कम विकास में, उससे कम जागृति-क्रम में, उससे कम जागृति में। अनुभव करने में समय आपको भी लगेगा। जिस तरह मैंने मन लगाया वैसे आप मन लगाएं तो आपको उससे कम समय में अनुभव होगा। अनुभव के लिए अध्ययन में मन लगना आवश्यक है।

पूरी बात को अनुभव करने के बाद मैंने स्वीकारा यह मेरे अकेले का स्वत्व नहीं है, सम्पूर्ण मानव-जाति का स्वत्व है।

आपको भी “विकास-क्रम” और “विकास” को समझने के क्रम में सह-अस्तित्व अनुभव होगा, तथा “जागृति-क्रम” और “जागृति” को समझने के क्रम में मानव का ज्ञान-अवस्था में होना और यह ज्ञान मानव का स्वत्व होना अनुभव होगा।

अध्ययन के लिए मन लगाना पड़ता है। अनुभव के बाद मन लगा ही रहता है।

प्रश्न: क्या आपने भी संयम-काल में अध्ययन के लिए मन लगाया था?

उत्तर: हाँ। मन लगाए बिना संयम हो ही नहीं सकता।

प्रश्न: हम जिस विधि से अध्ययन कर रहे हैं, उसको आप आपकी विधि से अधिक सुगम क्यों कहते है?

उत्तर: - आप अध्ययन विधि से निष्कर्ष निकाल सकते हैं। निष्कर्ष निकालने के बाद अनुभव करना बहुत सरल है. मेरे पास कोई निष्कर्ष नहीं थे।

मध्यस्थ दर्शन के अध्ययन से निष्कर्ष तो निकलते हैं। यह तो अनेक व्यक्तियों ने सत्यापित कर दिया है। निष्कर्ष निकाल लेने को “अंतिम-बात” न माना जाए। अनुभव को ही अंतिम-बात माना जाए। निष्कर्षों को अंतिम-बात मान लेते हैं तो भाषा में लग जाते हैं। अनुभव को अंतिम-बात मानते हैं तो प्रमाण में लग जाते हैं। इतना ही सूक्ष्म-परिवर्तन है।

प्रश्न: क्या अनुभव ही क्रिया-पूर्णता है?

उत्तर: अनुभव के जीने में प्रमाणित होने पर क्रिया-पूर्णता है। प्रमाणित होने का स्वरूप भी मैंने प्रस्तुत कर दिया है। विकसित-चेतना का अनुभव होता है। अनुभव में समझ का पूंजी पूरा रहता है। उसके बाद जीने में शुरुआत मानव-चेतना से है, फिर देव-चेतना, और दिव्य-चेतना है।

प्रश्न: क्या अध्ययन के लिए जो आपने वांग्मय लिखा है, वह पर्याप्त है?

उत्तर: - मेरे अनुसार सारी बात वांग्मय में आ चुकी है। कुछ बचा होगा तो आप बताना। लिखा हुआ जो है वह केवल सूचना है, उसको समझाने का काम अनुभव-मूलक व्यक्ति ही करेगा।

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Tuesday, October 25, 2011

सिंधु-बिंदु न्याय

व्यापक-वस्तु बिंदु के रूप में अनुभव है, सिंधु के रूप में अभिव्यक्ति है। ज्ञान सत्ता का ही प्रतिरूप माना। जैसे सत्ता कहीं रुकता नहीं है, वैसे ज्ञान भी कहीं रुकता नहीं है। ज्ञान पारगामी है. जैसे ज्ञान मुझे स्वीकार होता है, आपको भी स्वीकार हो जाता है – तो ज्ञान पारगामी हुआ कि नहीं? यदि ऐसा ज्ञान ७०० करोड लोगों के बीच पारगामी होता है तो अखंड-समाज नहीं होगा तो और क्या होगा? सर्वाधिक लोग यदि समझदार होते हैं, तो अखंड-समाज होगा या नहीं होगा?

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

शंका का समाधान

मुझसे रायपुर में शिक्षा से जुड़े १५० लोगों की एक बैठक में एक शंका व्यक्त किया गयी थी – “आपकी बात कहीं एक सम्प्रदाय तो नहीं बन जायेगी?”

इसके उत्तर में मैंने कहा था – साम्प्रदायिकता को लेकर मैं तो सोच नहीं पाता हूँ, वह सोचना आपके अधिकार की बात है। आप इस प्रस्ताव को शोध करके बताइये कि इसमें सम्प्रदाय का आधार क्या है? उसको मैं ठीक कर दूंगा।

“सम्प्रदाय” शब्द का अर्थ है – समान रूप में प्रदाय होना। समान रूप में प्रदाय सही-बात का होता है, या गलती का होता है? सही-बात का ही समान रूप में प्रदाय हो सकता है। सही-बात का समान रूप से प्रदाय होगा तो अखंड-समाज ही होगा।

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

प्रश्न और उत्तर

प्रश्न में कौनसा उत्तर मिलता है भला? अभी तक प्रश्न पैदा करने को, शंका पैदा करने को ही विद्वता माना। केवल प्रश्न करके, शंका पैदा करके संतुष्ट रहना नहीं बनेगा – उत्तर को अपनाने से संतुष्ट रहना बनेगा। मानव को ही समझने का और उत्तर को स्वीकार करने का अधिकार है।

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

अनुभव प्रमाण की आवश्यकता

मैं उस दिन तृप्त हो जाऊँगा जिस दिन मुझको पता चलेगा कि दस-बीस आदमी प्रमाणित हो गए। मुझको इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। यही चाहिए! उसी के लिए मेरा सारा प्रयास है, मेरी सारी सोच उसी के लिए है, मेरा जीना उसी के लिए है।

प्रश्न: मैं सोचता हूँ, अनुभव तक हम यदि नहीं पहुँचते हैं तो क्या करेंगे?

उत्तर: “नहीं पहुंचेंगे” को क्यों सोचते हो? “कैसे पहुंचें?” – उसको सोचो! नहीं पहुँचने पर तो वही अपराध-परंपरा में रहेंगे। अभी इस धरती को छोड़ करके इस सौर-व्यूह में और कोई गृह नहीं है जहां “मानव” बन कर जी पाए। अभी तक इस धरती पर भी मनुष्य पशु-मानव और राक्षस-मानव के स्वरूप में ही रहा है। यदि मंगल-गृह पर भी जा कर रहने लगते हैं तो भी पशु-मानव राक्षस-मानव बन कर ही रहेंगे।

पशु-मानव और राक्षस-मानव की लड़ाइयों की ही गाथाएं हैं, हमारे इतिहास में। रहस्यमय देवी-देवताओं के गाने गाये, उनको “विशेष” मान कर उनकी भाटगिरी को ही विद्वता माने हैं। जबकि हमारी विधि से मानव ही समझदारी पूर्वक देवता स्वरूप में होता है।

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Monday, October 24, 2011

मध्यस्थ-क्रिया का स्वरूप

सत्ता किस वास्तविकता को व्यक्त करती है?

सत्ता मध्यस्थ वस्तु है। वस्तु का मतलब है – जो वास्तविकताओं को व्यक्त करे। पारगामी, पारदर्शी, और व्यापक स्वरूप में सत्ता प्रस्तुत है। सत्ता मध्यस्थ है – क्योंकि उस पर सम और विषम का प्रभाव नहीं पड़ता है।

परमाणु एक से अधिक अंशों का गठन है। गठन पूर्वक ही परमाणु है. ऐसे परमाणु के मध्य में कुछ अंश रहते हैं, और परिवेशों में कुछ अंश होते हैं। जितने अंश चक्कर लगाते हैं उतने या उससे अधिक अंश मध्य में रहते हैं। अजीर्ण परमाणुओं में मध्य में परिवेशों से अधिक अंश रहते हैं, भूखे परमाणुओं में परिवेशों जितने अंश मध्य में रहते हैं। मध्य में जो अंश रहते हैं, वे घूर्णन गति करते हैं तथा जो परिवेश में रहते हैं – वे घूर्णन के साथ वर्तुलात्मक गति भी करते हैं।

परमाणु का मध्यांश मध्यस्थ-क्रिया करता है। यदि परिवेशीय अंश अपनी नाभिक से दूर जाते हैं (विषम क्रिया) या मध्य के पास आते हैं (सम क्रिया), तो उनको मध्यस्थ-क्रिया पुनः निश्चित-दूरी पर स्थापित कर देता है। इस तरह सम और विषम मध्यस्थ के नियंत्रण में रहते हैं। मध्यस्थ-दर्शन उसी के आधार पर नाम दिया है।

प्रश्न: मध्यस्थ-बल क्या है?

उत्तर: सत्ता में भीगे रहने से मध्यांश में जो ताकत रहता है, उसी का नाम है मध्यस्थ-बल। मध्यस्थ-बल के आधार पर ही चुम्बकीय बल है – जिससे मध्यांश द्वारा परिवेशीय अंशों को स्वयं-स्फूर्त विधि से नियंत्रित करना बनता है।

इसी आधार पर कहा है – “व्यवस्था का मूल रूप परमाणु है।”

सत्ता मध्यस्थ है – अर्थात सत्ता सम और विषम प्रभावों से मुक्त है। मध्यस्थ-क्रिया सम और विषम प्रभावों को नियंत्रित करता है। सत्ता कोई नियंत्रण करता नहीं है, जबकि मध्यस्थ-क्रिया नियंत्रण करता है। सत्ता सम-विषम से अप्रभावित रहता है, जबकि मध्यस्थ-क्रिया सम-विषम को नियंत्रित करता है। दोनों में अंतर यही है. 

परमाणु के सभी अंग-अवयव अपने स्थान के अनुसार काम करते हैं। सभी परमाणु-अंश एक जैसे होते हैं। जो परमाणु-अंश मध्य में होता है वह मध्यस्थ क्रिया करता है। जो परिवेश में होता है वह परिवेशीय क्रिया करता है। यह स्वयं-स्फूर्त विधि से होता है। वैसे ही प्राण-कोषा रचना के जिस स्थान पर रहते हैं, उसके अनुसार काम करते हैं। प्राण-कोषा जो आँख में काम करते हैं वे आँख के अनुसार ही काम करते हैं, जीभ में जो प्राण-कोषा काम करते हैं, वे जीभ के अनुसार ही काम करते हैं। इसको मैंने संयम-काल में महीनों देखा। जब तक मैं संतुष्ट नहीं हो गया, तब तक देखा। इस तरह समझने के बाद ही मैंने दर्शन के रूप में व्यक्त किया। मैंने प्रकृति से समझा, वैसे ही आप समझा हुए व्यक्ति से समझ सकते हैं।

प्रश्न: प्रकृति में उद्भव, विभव, और प्रलय का क्या स्वरूप है?

उत्तर: उद्भव, विभव और प्रलय केवल भौतिक-रासायनिक संसार के साथ ही है। जीवन और सत्ता नित्य विभव ही है। जीवन दो स्वरूप में हुआ – भ्रमित रहने के स्वरूप में, और जागृत रहने के स्वरूप में। भ्रमित रहने का स्वरूप है – जीव-चेतना. जागृत रहने का स्वरूप है – मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। भौतिक-रासायनिक संसार में मात्रात्मक-परिवर्तन के साथ गुणात्मक-परिवर्तन है। जीवन में केवल गुणात्मक-परिवर्तन है। इस बात को भौतिकवाद बनाम विज्ञान अभी तक पहचाना नहीं है।

प्रश्न: भौतिक-रासायनिक संसार के साथ प्राकृतिक रूप में “प्रलय” का भाग है, उसको क्या ‘विषम क्रिया’ कहना ठीक है?

उत्तर: नहीं. विघटन होना ‘प्रलय’ है। भौतिक-रासायनिक वस्तुओं में संगठन-विघटन निरंतर बना ही रहता है. विघटन कोई विषम क्रिया नहीं है।

प्रश्न: तो विषम क्रिया क्या है?

उत्तर: विषम क्रिया है – हमारे अधिकार से भिन्न काम करना। जैसे मानव का जीवों के स्वरूप में काम करना। व्यवस्था सहज सब कुछ सम है। व्यवस्था के विपरीत सब कुछ विषम है। मानव-जाति के अलावा विषम क्रिया करने वाला या व्यवस्था के विपरीत करने वाला, अपराध करने वाला कुछ भी नहीं है। यह एक मौलिक बात है। केवल मानव को व्यवस्थित होने की आवश्यकता है। बाकी सब अवस्थाओं को व्यवस्थित-मानव ही नियंत्रित करने का अधिकार रखता है। जैसे – जंगल बहुत बढ़ गया, उसको नियंत्रित करना। जीवों का अत्याचार बहुत बढ़ गया, उसको नियंत्रित करना. धरती में उत्पात बढ़ गया – उसको नियंत्रित करना। इसी नियंत्रण के अर्थ में मनुष्य का प्रकटन हुआ है। मानव को नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य के ज्ञान होने पर ही वह नियंत्रण को प्रकट कर सकता है। इसी ज्ञान का अनुभव होने की आवश्यकता है।

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

प्रभाव

सत्ता का प्रभाव सर्वत्र बना रहता है, सत्ता विकृत नहीं होता। उसी तरह प्रत्येक वस्तु का प्रभाव है। किसी वस्तु का प्रभाव जितनी दूर तक है, उससे वह वस्तु विकृत नहीं होती। वस्तु का प्रभाव नहीं हो तो वस्तुओं के बीच दूरी ही नहीं होगी। इकाई का प्रभाव-क्षेत्र इकाई से अधिक होता ही है। इसी से इकाइयों के बीच में दूरी बना रहता है। दो इकाइयों के प्रभाव-क्षेत्र से अधिक दूरी उनके बीच बनी रहती है। चाहे दो परमाणु-अंशों की परस्परता हो या दो धरतियों की परस्परता हो। इसी आधार पर इकाइयां एक दूसरे को पहचानती हैं, और काम करती हैं।

जड़ वस्तु जितना लंबा-चौड़ा होता है उसी जगह में काम करता है। चैतन्य वस्तु जितना लंबा-चौड़ा होता है, उससे अधिक जगह में काम करता है। इकाई का प्रभाव-क्षेत्र उसके कार्य-क्षेत्र से ज्यादा होता है – इसीलिए इकाइयों में परस्पर दूरी होती है।

संपृक्तता से इकाइयों में ऊर्जा-सम्पन्नता, ऊर्जा-सम्पन्नता से इकाइयों में चुम्बकीय-बल सम्पन्नता, चुम्बकीय बल-सम्पन्नता से कार्य-ऊर्जा, और कार्य-ऊर्जा ही प्रभाव है। प्रभाव के आधार पर इकाइयों में पहचान और निर्वाह. इकाई की पहचान उसके प्रभाव या वातावरण के साथ ही है। इकाई अपने वातावरण (प्रभाव) के साथ ही सम्पूर्ण है।

प्रभाव = गुण। वस्तु का प्रभाव = वस्तु का गुण। वस्तु का गुण = वस्तु का परस्परता में सम, विषम या मध्यस्थ प्रभाव। जड़ प्रकृति में मात्रात्मक-परिवर्तन के साथ गुणात्मक-परिवर्तन होता है। मतलब जड़-वस्तु की मात्रा और उसके गठन में परिवर्तन होने के साथ साथ उसके प्रभाव (गुणों) में परिवर्तन होता है। चैतन्य-प्रकृति (जीवन) में मात्रात्मक-परिवर्तन नहीं होता, केवल गुणात्मक-परिवर्तन होता है, या केवल उसके प्रभाव में परिवर्तन होता है। भ्रमित-मानव का एक प्रकार का प्रभाव होता है। जागृत-मानव का दूसरे प्रकार का प्रभाव होता है।

जीवन जो ज्ञान को व्यक्त करता है, वह एक प्रभाव है। ज्ञान या अनुभव को व्यक्त करने से जीवन का कोई व्यय होता ही नहीं है। शरीर में जो व्यय होता है, वह अपने गति से होता है। ज्ञान को व्यक्त करने का स्वरूप है – अभिव्यक्ति, सम्प्रेश्ना, और प्रकाशन। अभिव्यक्ति और सम्प्रेश्ना में शरीर का कोई व्यय/क्षति होता ही नहीं है। प्रकाशन में भौतिक-रासायनिक वस्तु का भी व्यय होता है। ज्ञान प्रभाव है। प्रभाव से ही भाव, भाव से ही मूल्य, मूल्य से ही व्यवहार होता है।

जीवन में निहित आशा, विचार, इच्छा, संकल्प, अनुभव के प्रभावों का मूल्यांकन करने वाला दिन आता है, तब “जीना” होता है। अभी शरीर को जीवन मानते हुए, हम मरने के लिए जीते हैं। जीवन को जीवन मानते हुए, हम जीने के लिए जीते हैं। शरीर एक भौतिक-रासायनिक रचना है, उसमे परिवर्तन भावी है। उसको स्थिर मान कर जीव-चेतना में शुरू करते हैं, इसलिए पराभावित होते हैं।

इकाइयां एक दूसरे के पास में आते हैं, फिर भी उनके बीच दूरी बनी रहती है। इकाइयां ठोस, तरल, और विरल के रूप में प्रगट होती हैं। अणुओं का प्रभाव-क्षेत्र एक दूसरे के साथ मिल जाता है, इसलिए वह तरल रूप में होता है – जैसे पानी में। तरल रूप में अणुओं का सबसे ज्यादा पास में होना पाया जाता है, उससे कम विरल में, और ठोस रूप में अणुओं का सबसे दूर रहना पाया जाता है। एक तरल-अणु और दूसरा तरल-अणु का प्रभाव-क्षेत्र सबसे निकट-वर्ती होते हैं, तब वह तरल या रस स्वरूप में होता है। उससे ज्यादा दूरी होती है विरल में, उससे ज्यादा दूरी होती है ठोस में।

प्रश्न: यह तो हमारे सामान्य तर्क से भिन्न बात लग रही है...

उत्तर: ठोस में अणु सब अलग अलग करके गिना जा सकता है। ठोस में अणुओं को अलग अलग करना सबसे आसान है, विरल में उससे कठिन है, तरल में सबसे कठिन है। जैसे मैंने संयम में देखा – एक ठोस वस्तु सामने आया, वह धीरे धीरे पिघलते गया, और पिघलते-पिघलते इस स्थिति में आया जब उसका हर अंग स्वयं-स्फूर्त विधि से क्रियाशील देखा। उसी को मैंने परमाणु नाम दिया. विरल में ऐसा होने के लिए उससे कई गुना अधिक श्रम है, तरल में उससे कई गुना अधिक।

परमाणु से अणु, और अणु से रचना है। पहले वह रचना भौतिक-क्रिया स्वरूप में ठोस, तरल, विरल रूप में है। भौतिक-क्रिया में रचना-तत्व का प्रगटन है। रचना-तत्व में रचना करने की प्रवृत्ति रहती है। रचना -तत्व से जितने भी खनिजों का प्रगटन होना है, वे तैयार हो गए। यौगिक विधि से रसायन-तंत्र का प्रगटन होता है। जल पहला रसायन है. रसायन-तंत्र में ‘पुष्टि-तत्व’ का प्रगटन है और ‘रचना-तत्व’ पहले से रहा। पुष्टि-तत्व में परंपरा बनाने वाली प्रवृत्ति होता है। रचना-तत्व और पुष्टि-तत्व के संयोग से प्राण-कोषा बन गए, जिनमे सांस लेने का गुण है। प्राण-कोषा में रचना-विधि स्वयं-स्फूर्त आयी। जिससे पहली रचना है – काई। काई में अपने जैसा दूसरा बनाने का गुण (बीज-वृक्ष न्याय) गवाहित होता है। काइयों की कई प्रजाति होने के बाद, फिर प्राण-सूत्रों में खुशहाली के आधार पर उत्तरोत्तर श्रेष्ठ वनस्पति-रचना, स्वेदज-शरीर रचना, जीव-शरीर रचना, मानव-शरीर रचना का स्वयं-स्फूर्त प्रगटन है। लिंग विधि (स्त्रीलिंग/पुर्लिंग) की शुरूआत वनस्पति-संसार से है। वनस्पति-संसार में पुर्लिंग प्राण-कोषा सर्वाधिक होता है, स्वेदज-संसार (मच्छर, मक्खी, कीड़े-मकोड़े आदि) में उससे कम होता है, अंडज-संसार में उससे कम होता है, पिंडज संसार में उससे भी कम होता है, और फिर मानव में स्त्रीलिंग और पुर्लिंग समान होता है। पशुओं में पुरुष में बहु-यौन प्रवृत्ति रहती है, स्त्री में संयत प्रवृत्ति रहती है. मानव में नर-नारी दोनों में यौन-चेतना एक सा होता है। यह समझ में आने से पूरा प्रकृति आपको समझ में आता है या नहीं, यह आपको सोचना है।

साम्य-ऊर्जा या सत्ता में भीगे रहने के फलस्वरूप सभी इकाइयों में ऊर्जा-सम्पन्नता है। ऊर्जा-सम्पन्नता के आधार पर चुम्बकीय-बल सम्पन्नता है। ऊर्जा नहीं हो तो चुम्बकीयता भी न हो। चुम्बकीय-बल सम्पन्नता के आधार पर ही क्रियाशीलता है। क्रियाशीलता के फलन में कार्य-ऊर्जा है। कार्य-ऊर्जा का ही प्रभाव-क्षेत्र होता है। इकाइयों की परस्परता में उस प्रभाव-क्षेत्र से अधिक दूरी होती है। इसीलिये इकाइयां शून्याकर्षण में हैं। इकाइयां एक दूसरे के प्रभाव-क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करती, उससे अधिक दूरी बना कर स्वतन्त्र रहते हैं।

प्रश्न: कार्य-ऊर्जा का क्या स्वरूप है?

उत्तर: जड़ प्रकृति में कार्य-ऊर्जा का स्वरूप है – ध्वनि, ताप और विद्युत। इसके साथ इकाइयों में परस्पर चुम्बकीय-बल के रूप में भी कार्य-ऊर्जा है। इन चार प्रकार की ऊर्जा का ही इकाई के चारों ओर वातावरण बना रहता है। मानव के चारों ओर भी उसका वातावरण बना रहता है। आशा, विचार, इच्छा, संकल्प, और अनुभव-प्रमाण – इन पाँच प्रकार से मनुष्य में ऊर्जा-सम्पन्नता का प्रभाव रहता है।

प्रश्न: विद्युत तैयार होने की प्रक्रिया में क्या होता है?

उत्तर: - इकाई के चुम्बकीय प्रभाव-क्षेत्र का विखंडन होता है जो विद्युत में परिणित होता है। विद्युत भी एक प्रभाव ही है। विद्युत कोई कण नहीं है।

प्रश्न: प्रकाश क्या है?

उत्तर : - प्रकाश भी इकाई का प्रभाव ही है। प्रकाश कोई कण या तरंग नहीं है। प्रकाश कोई गति नहीं होता है। ताप-परम बिम्ब के प्रतिबिम्ब को प्रकाश कहा है। हर वस्तु प्रकाशमान है।

प्रश्न: चैतन्य शक्तियों का प्रभाव कितनी दूर तक रहता है?

उत्तर: अनुभव का प्रभाव सम्प्रेश्ना के रूप में दूर-दूर तक जाता है। सम्प्रेश्ना का मतलब है – पूर्णता के अर्थ में व्यक्त होना। मानव की जागृति का प्रभाव असीम दूरी तक जाता ही है। अनुभव के प्रभाव-क्षेत्र में तो आप समझ ही रहे हैं। शब्द के प्रभाव से उससे इंगित अर्थ को अस्तित्व में आप समझ रहे हो। शब्द के अर्थ में सत्य को समझ रहे हो।

प्रश्न: इकाइयों के बीच जो परस्पर प्रभाव है, उसमे क्या कोई वस्तु एक से दूसरे तक जाता है?
उत्तर: नहीं। जड़ इकाइयों के बीच चुम्बकीय-धारा कोई वस्तु नहीं है, वह प्रभाव ही है। उसी तरह आप जो शब्द से अर्थ को समझते हो, उसमे मुझसे आप तक कोई वस्तु जाता नहीं है, वह प्रभाव ही है।

प्रश्न: जड़ और चैतन्य शक्तियों में क्या तुलना है?

उत्तर: जड़-प्रकृति में चुम्बकीयता है। चैतन्य-प्रकृति में चुम्बकीयता आशा के स्वरूप में काम करता है।

जड़ प्रकृति में चुम्बकीय-बल के आधार पर भार-बंधन और अणु-बंधन होता है, वही गुरुत्वाकर्षण के रूप में स्पष्ट होता है। जड़-इकाइयों के प्रभाव-क्षेत्र जब एक दूसरे को प्रतिच्छेद करते हैं तो भार-बंधन और अणु-बंधन का प्रकाशन होता है। चैतन्य-प्रकृति में गुरुत्त्वाकर्षण का स्वरूप है – न्याय-धर्म-सत्य दृष्टि के विचारों का प्रिय-हित-लाभ दृष्टि के विचारों को आकर्षित करना और स्वयं में विलय करना।

जड़-प्रकृति में सामान्य-हस्तक्षेप ‘होने’ और ‘रहने देने’ के स्वरूप में है। जैसे – एक झाड है, उसके नीचे एक पौधा है। झाड पौधे को रहने देता या नहीं रहने देता है। यह रहने देना या नहीं रहने देना सामान्य-हस्तक्षेप है। जैसे – वट-वृक्ष अपने नीचे कम से कम पौधा रहने देता है। आम का वृक्ष अपने नीचे अधिक से अधिक पौधा रहने देता है। चैतन्य-प्रकृति में या सामान्य-हस्तक्षेप समझने-समझाने के रूप में है।

चैतन्य प्रकृति में प्रबल-हस्तक्षेप बुद्धि के रूप में है। सत्य-बोध हुआ है तो प्रबल-हस्तक्षेप है. प्रबल-हस्तक्षेप जड़ प्रकृति में नहीं होता। प्रबल-हस्तक्षेप का प्रदर्शन मानव ही करता है – समझदारी को एक से दूसरे में अंतरित करने के रूप में।

मध्यस्थ-बल जड़-प्रकृति में भी रहता है, लेकिन चैतन्य-प्रकृति में मध्यस्थ-बल सर्वाधिक रहता है। मध्यस्थ बल सम और विषम से मुक्त है। इसका चैतन्य प्रकृति में विषम से मुक्ति का अर्थ है – भ्रम से मुक्ति, अपराध से मुक्ति, और भय से मुक्ति।

प्रचलित विज्ञान में जड़-प्रकृति के अध्ययन में पहले चार बलों (विद्युत चुम्बकीय बल, गुरुत्त्वाकर्षण बल, सामान्य-हस्तक्षेप और प्रबल-हस्तक्षेप) का नाम लिया जाता है। इन प्रचलित नामो की मैंने परिभाषा दी है। मध्यस्थ-बल का प्रचलित-विज्ञान में नाम भी नहीं है।

प्रचलित-विज्ञान ने ‘बोध’ नाम की कोई चीज नहीं पहचानी। रासायनिक-भौतिक वस्तुओं का एक दूसरे पर प्रभाव होता है, यह पहचाना है। प्रचलित-विज्ञान ने चैतन्य-वस्तु (जीवन) को नहीं पहचाना है। बोध को यहाँ (मध्यस्थ दर्शन में) चैतन्य-वस्तु (जीवन) में पहचाना है. इससे किस विज्ञानी को तकलीफ है?

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Wednesday, October 19, 2011

इकाई

"जो नियंत्रित है वह इकाई है, यही स्वभाव गति क्रिया है। गठन रहित संतुलित इकाई नहीं है। हर गठन में कई अंशों या अंगों एवं इकाइयों को पाया जाना अनिवार्य है। क्रियाएँ अनंत हैं तथा समस्त क्रियाएँ सत्ता में ही ओत-प्रोत व नियंत्रित हैं, जिससे हर इकाई शक्त है अर्थात सत्ता में ही हर इकाई को शक्ति प्राप्त है। हर इकाई अनंत की तुलना में एक अंश ही है। हर इकाई का गठन अनेक अंशों से संपन्न है। इकाई निष्क्रिय हो ऐसी कोई सम्भावना नहीं है। इकाई का ह्रास व विकास प्राप्य योग पर ही है। इकाई में कंपन क्रिया का बढ़ जाना ही विकास की घटना है, तथा इसके विपरीत में ह्रास की घटना है। चैतन्य इकाई में कंपन की अधिकता ही विशेषता है। अध्ययन से हर इकाई की गठन प्रक्रिया एवं उसका परिणाम स्पष्ट होता है। प्रत्येक इकाई का सर्वांगीण दर्शन उसके रूप, गुण, स्वभाव व धर्म से होता है। इनमे से रूप, गुण और स्वभाव समझ में आता है और धर्म की मात्र अनुभूति ही संभव है, जो अनुभव प्राप्त इकाई द्वारा एक प्रक्रियाबद्ध अनुभव के सम्भावना पूर्ण आदेश, सन्देश, एवं निर्देश व अध्ययन से ही संभव है।" - मानव व्यवहार दर्शन (श्री ए. नागराज)

Sunday, October 16, 2011

सबसे मासूमियत का भाग



अनुभव के लिए स्वीकृति ज्यादा है, प्रश्न कम है। प्रमाणित होने के लिए अनुभव है, और सभी प्रश्नों का उत्तर है।

वास्तविकता = वस्तु जैसा है, मतलब - त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी।

प्रश्न: दुःख क्या कोई वास्तविकता है?

उत्तर: दुःख वास्तविकता होती तो उसको सभी-मानव सभी-समय समाप्त करने के लिए कोशिश क्यों करते रहते हैं? समस्या = दुःख. समस्या या दुःख कभी भी मानव को स्वीकृत नहीं है। समस्या और दुःख में सकारात्मक भाग ही नहीं है। जीव-चेतना में जीता हुआ भ्रमित-मानव भी समस्या और दुःख को नकारता है। दुःख को भला कौन मोलना चाहता है?

प्रश्न: तो “दुःख” शब्द से क्या इंगित है?

उत्तर: पीड़ा. व्यवस्था का विरोध ही पीड़ा है, दुःख है, समस्या है। व्यवस्था का स्वरूप सह-अस्तित्व है। व्यवस्था के विपरीत जो भी मनुष्य प्रयत्न करता है, सोचता है - वह दुःख है।

आदर्शवाद ने कहा – सुख और दुःख को बताया नहीं जा सकता. जबकि यहाँ कह रहे हैं – व्यवस्था में जीना सुख है, समाधान है। अव्यवस्था में जीना दुःख है, समस्या है। मानव जब व्यवस्था में जीता है तो तीनो प्रमाण होते हैं – अनुभव-प्रमाण, व्यवहार-प्रमाण, और प्रयोग-प्रमाण। इन तीनो प्रमाण के साथ सुखी नहीं होगा तो और क्या होगा?

प्रश्न: वियोग होने पर दुःख तो होता है न?

उत्तर: वियोग होता कहाँ है? वियोग का मतलब है – नासमझी. शरीर सदा के लिए बनता ही नहीं है। एक आयु के बाद शरीर विरचित होता ही है, जैसे पत्ता पक कर गिर ही जाता है, झाड एक दिन मर ही जाता है, जीव-जानवर मर ही जाते हैं – वैसे ही मानव-शरीर भी मरता है. यह एक साधारण बात है।

प्रश्न: लेकिन मृत्यु से होने वाले वियोग पर शोक तो होगा ही न?

उत्तर: परंपरा यदि बनता है तो वियोग होगा ही नहीं. मेरी बात आपको स्वीकार हो जाती है, तो फिर हमारा वियोग कहाँ हुआ? जीवन मूलक विधि से वियोग नहीं है। जीवन जीवन से प्रभावित होकर रहता है, यह परंपरा है. शरीर का वियोग होता है. जीवन शरीर को छोड़ देता है, जब वह उसके काम का नहीं रहता, या उसके अनुसार काम नहीं करता. परंपरा विधि से वियोग होता नहीं है। शरीर-यात्रा में जो उद्देश्य अपूर्ण रह गया, उसकी पूर्ति करना आगे की पीढ़ी का काम है। मानव-परंपरा जीवन उद्देश्य की आपूर्ति के लिए है।

अभी जीवन-उद्देश्य को पहचाने बिना हम दौड रहे हैं, इसीलिये दुःख है, शोक है, समस्या है। जीवन-उद्देश्य (सुख, शान्ति, संतोष, आनंद) और मानव-लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) को पहचानने के लिए अभी तक इतिहास में कौन गया? क्या ऐसा इतिहास में आपने कहीं पढ़ा है? कौनसे समुदाय की परंपरा ने इसको अपनाया है?

जीवन-उद्देश्य और मानव-लक्ष्य परंपरा में स्वीकार होने पर उसी की आपूर्ति के लिए सभी काम करते हैं, फिर उसमे वियोग हुआ या निरंतरता हुई? इस निरंतरता का स्वरूप है – अनुभव-प्रमाण, व्यवहार-प्रमाण, प्रयोग-प्रमाण। इसकी आपूर्ति के लिए ही जीना, आगे पीढ़ी के लिए हस्तांतरित करना, और शरीर को छोड़ देना। इसमें वियोग क्या हुआ? मानव-परंपरा में शरीर पुनः बनता ही रहता है. पुनः शरीर ग्रहण करेंगे, यही काम करेंगे. कहाँ वियोग? किसका वियोग? इसमें रोने-धोने की जगह कहाँ है? दूसरे के शरीर शांत होने पर संवेदनाएं तो होती हैं – यदि और जीते रहते तो लक्ष्य के लिए और काम कर सकते थे, इस अर्थ में शोक व्यक्त करना ठीक है। यह सबसे मासूमियत का भाग है।

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Friday, October 14, 2011

सहीपन का अनुभव



अनुभव के बिना स्वयम को विद्वान मानना ही गलत हो गया। देखिये – मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, यदि मुझे यह बोध हो सकता है तो आपको क्यों नहीं हो सकता? आप पढ़े हो, लिखे हो, सब कुछ किये हो – यह मान कर ही तो मैंने इसे अध्ययन के लिए प्रस्तुत किया है। यदि मैं यह मानता मनुष्य समझ ही नहीं सकता, तो यह प्रयास ही क्यों करते? मनुष्य समझने वाली वस्तु है और मनुष्य के पास समझने की प्यास है – ऐसा मान करके इसे व्यक्त किया है। “ मनुष्य में समझने की प्यास है” – यहाँ तक तो प्रचलित है। लेकिन प्यास को बुझाने में आनाकानी करते हैं, व्यक्त करने में लग जाते हैं, अनुभव-बिंदु तक पहुँचने को भूल जाते हैं। सबको समझना ही होगा – दूसरा कोई रास्ता नहीं है। समझने के बाद ही प्रमाण है, प्रमाण सर्वतोमुखी है। अनुभव से सर्वतोमुखी समाधान आता है, फिर कौनसी जगह है फंसने की? अनुभव हर व्यक्ति का अधिकार है। यदि आप अनुभव करते हैं, तो आप हमारे जैसे या हमसे अच्छे ही होंगे। मैं कम-से-कम अच्छे होने का प्रमाण प्रस्तुत किया हूँ। अधिक-से-अधिक अच्छे होने का प्रमाण प्रस्तुत करने की जगह आपके लिए रखा ही है। मेरा सभी प्रमाण मानव-चेतना का है. देव-चेतना और दिव्य-चेतना के प्रमाण प्रस्तुत करने का स्थान रखा ही है।

हमारा कहना सूचना है। “ आप हमसे अच्छे हो सकते हैं” – यह भी सूचना है। हमारा जीना ही प्रमाण है। सूचना के बिना अनुभव तक पहुँचने का कोई रास्ता नहीं है। सूचना तो मिलना चाहिए - सहीपन के लिए। सहीपन को व्यक्त करने के पक्ष में काफी लोग सहमत हो गए हैं। सहीपन को अनुभव करने के पक्ष में कम लोग हैं। कुछ लोग सहीपन को अनुभव करने के लिए भी जुड़े हैं।

प्रश्न: कभी-कभी ऐसा लगता है कि अनुभव के लिए जो शेष प्रयास आवश्यक हैं, उनके लिए कुछ ध्यान विधियों की आवश्यकता है...

उत्तर: अध्ययन करना ही ध्यान है। अध्ययन करने में ध्यान नहीं है, इसीलिये अनुभव में जाते नहीं हैं। पठन में ध्यान है, अध्ययन में ध्यान नहीं है। सत्ता निर्विकार स्वरूप में रहता है। सारी जड़-चैतन्य प्रकृति संपृक्त स्वरूप में रहता है। यही अनुभव होता है।

- श्रद्धेय  ए. नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

आस्वादन और स्वागत

संवेदनशीलता पूर्वक मन में स्वागत क्रिया और आस्वादन क्रिया है। स्वागत क्रिया समझने के अर्थ में है, आस्वादन क्रिया प्रमाणित करने के अर्थ में है। स्वागत क्रिया को छोड़ कर हम आस्वादन क्रिया में ज्यादा रम जाते हैं। स्वागत क्रिया केंद्रीकृत होता है. आस्वादन क्रिया फैलता है। फैलने वाली क्रिया को हम स्वीकार लेते हैं, स्वागत क्रिया को हम छोड़ देते हैं – यही बुद्धिजीवियों का रोग है।



स्वागत क्रिया संवेदनशीलता को अनुभव-बिंदु तक ले जाता है, अनुभव को मूल्यांकन करने में ले जाता है। संवेदनशीलता के बिना संज्ञानशीलता (या बोध) होता ही नहीं है। संवेदनशीलता के बिना संज्ञानशीलता होता ही नहीं, किसी को नहीं होगा! इस धरती पर तो क्या, अनंत धरतियों पर किसी को नहीं होगा!

प्रश्न: मैं पहले सोचता था, संवेदनशीलता अपने में कोई “अच्छी” वस्तु नहीं है। लेकिन आप यहाँ कह रहे हैं, संवेदनशीलता के बिना बोध हो ही नहीं सकता!

जीवन जब मानव-शरीर को जीवंत बनाता है तो संवेदनशीलता प्रकट होती है। मानव में संवेदनशीलता “तृप्ति” के अर्थ में काम करता है। तृप्ति को शरीर में खोजता है तो वह मिलता नहीं है। शासन में खोजता है, तो भी तृप्ति मिलता नहीं है। शिक्षा में खोजता है, तो भी मिलता नहीं है। इन तीन जगह में तृप्ति नहीं मिल पाने के कारण मानव मान लेता है कि जीने में तृप्ति मिलता नहीं है। यदि जीने में तृप्ति नहीं मिलेगा तो कहाँ तृप्ति मिलेगा? संवेदनशीलता पूर्वक मन में स्वागत क्रिया है। स्वागत क्रिया संवेदनशीलता को संज्ञानशीलता (या बोध) तक ले जाता है। संज्ञानशीलता पूर्वक अनुभव-मूलक विधि से तृप्ति के साथ जीना बनता है। इस तरह जीने को विकसित-चेतना (मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना) कहा है।

इस तरह (अध्ययन विधि से) आशा, विचार, और इच्छा पूर्वक हम बोध तक पहुँच गए – संज्ञानीयता के लिए. संज्ञानीयता का ही बोध होता है, निरर्थकताएं चित्रण तक ही रह जाता है – जिनका बोध नहीं होता। इस तरह चित्रण, विचार और आशा के साथ प्रगटन में बोध नहीं है। अनुभव मूलक विधि से बोध होकर के प्रमाण रूप में जीने में प्रगट कर सकते हैं। प्रमाण जीने में ही है. मैंने जो कुछ वांग्मय के रूप में लिखा है, वह सब सूचना ही है। मेरा जीना ही प्रमाण है. अध्ययन, बोध, अनुभव, और प्रमाण – यह क्रम है।

- श्रद्धेय नागराज जी  के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Thursday, October 13, 2011

जीवन में सूक्ष्म और कारण क्रियाएँ




जीवन में बुद्धि और आत्मा कारण-क्रियाएँ हैं। जीवन में मन, वृत्ति, और चित्त सूक्ष्म-क्रियाएँ हैं. शरीर स्थूल-क्रिया है.  सूक्ष्म क्रियाएँ सम-विषमात्मक हैं – जो condition के साथ में हैं। कारण क्रियाएँ बिना condition के हैं। सूक्ष्म क्रिया से कारण क्रिया के लिए पहला जो खेप है – वह है बुद्धि में (अवधारणा) बोध होना। बुद्धि में (अवधारणा) बोध हुए बिना आत्मा में अनुभव होता ही नहीं है। यही मुख्य बात है। बुद्धि में (अवधारणा) बोध होने के लिए स्त्रोत हैं – आशा, विचार और इच्छा। इन तीनो के आधार पर ही मानव ४.५ क्रिया में जीता है। ४.५ क्रियाएँ (अवधारणा) बोध के लिए स्त्रोत हैं, न कि ये स्वतन्त्र रहने के लिए हैं। अभी मानव इनके स्वतन्त्र रहने के लिए चल रहा है। यही लाभोन्माद, भोगोन्माद, और कामोन्माद है। सूक्ष्म क्रियाएँ (मन, वृत्ति, और चित्त) कारण-क्रियाओं के लिए स्त्रोत हैं। इन्ही के द्वारा बुद्धि में (अवधारणा) बोध होता है। (अवधारणा) बोध होने पर अनुभव स्वतः होता है। अनुभव के लिए आपको अलग से कुछ नहीं करना है। (अवधारणा) बोध तक ही पुरुषार्थ है।

सूक्ष्म क्रियाओं को संकेत मिलता है, शरीर से। बुद्धि (कारण क्रिया) को संकेत मिलता है, सूक्ष्म क्रियाओं से। बुद्धि को संकेत मिलने से आत्मा में अनुभव होता है। सिंधु से बिंदु तक पहुँचने का काम यही है। आशा, विचार, और इच्छा (कल्पनाशीलता) ही बोध के लिए स्त्रोत है। आशा के बिना हम किसी की बात सुनेंगे ही नहीं। सुनेंगे नहीं तो वह विचार में आएगा ही नहीं। विचार में नहीं आएगा तो चित्त में उसका चित्रण बन नहीं पायेगा। चित्त में सच्चाई का चित्रण संवेदनशीलता पूर्वक तदाकार-तद्रूप विधि से होता है। इस तरह तदाकार होने पर सच्चाई का बोध होता है। शरीर से सम्बंधित जो भाग है वह चित्रण तक ही रह जाता है।

प्रश्न: आशा, विचार, और इच्छा सच्चाई के लिए स्त्रोत हो सकता है, यह विगत से बिलकुल अलग बात लगती है?

वह तो स्वाभाविक है। विगत (आदर्शवाद और भौतिकवाद) में तो केवल भाड़ झोंकने वाली बात ही है। भाड़ झोंकने का मतलब है – शिकायत पैदा करना, समस्या पैदा करना, और दुःख पैदा करना।

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

पूर्णता के अर्थ में वेदना

जीव-चेतना में मानव शरीर को जीवन मानता है। जीवन अपनी आवश्यकताओं को शरीर से पूरा करने की कोशिश करता है, जो पूरा होता नहीं है, इसलिए अतृप्त रहता है। शरीर में होने वाली संवेदनाओं का नियंत्रण हो सकता है, लेकिन उनको चुप नहीं कराया जा सकता। संवेदनाओं का चुप होना समाधि की अवस्था में होता है, जब आशा-विचार-इच्छा चुप हो जाती हैं। मानव-परंपरा को संवेदनाओं के नियंत्रण की जरूरत है, न कि संवेदनाओं को चुप करने की।

समाधान या पूर्णता के अर्थ में वेदना ही संवेदना है। वेदना के निराकरण में विचार-प्रवृत्ति के बदलते बदलते सच्चाई के पास पहुँच ही जाते हैं। नियति विधि से मानव में संवेदना जो प्रकट हुई, उसमे तृप्त होने की अपेक्षा है। आदर्शवादियों ने संवेदनाओं को चुप कराने के लिए कोशिश किया – वह सफल नहीं हुआ। भौतिकवादियों ने संवेदनाओं को राजी रखने के लिए कोशिश किया – उससे धरती ही बीमार हो गयी।

आत्मा में अनुभव की प्यास है, इसीलिए संवेदना होती है। इतनी ही बात है। संवेदनाएं होने के आधार पर ही जिज्ञासाएं बनते हैं। जितनी सीमा में मनुष्य जीता है या अभ्यास करता है, उससे अधिक का विचार करता है, बात करता है। अध्ययन पूर्वक आत्मा की प्यास बुझती है। अनुभव होता है, जो जीने में प्रमाणित होने पर आत्मा की प्यास बुझी यह माना जाता है।

प्रश्न: अनुभव पूर्वक जो आत्मा की प्यास बुझती है, क्या उससे आत्मा का कार्य-रूप पहले से बदल जाता है?

उत्तर: नहीं। आत्मा का कार्य-रूप नहीं बदलता। आत्मा की प्यास बुझने पर जीवन में कार्य करने की प्रवृत्तियां बदल जाती हैं। इस तरह जीवन की दसों क्रियाएँ प्रमाणित होती हैं। अभी ४.५ क्रिया में मानव जी रहा है, इसीलिये उसमे अनुभव का प्यास बना है। ४.५ क्रिया में जीने में तृप्ति नहीं है। ४.५ क्रिया में शरीर-मूलक विधि से जीते हुए तृप्ति के बारे में जो भी सोचा वह गलत हो गया, सभी अपराधों को वैध मान लिया गया।

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

अंतिम बात समझ में आना चाहिए




व्यापक क्या है? इसके उत्तर में कहा – “ब्रह्म ब्रह्म में व्यापक है, सोना सोने में व्यापक है, लोहा लोहे में व्यापक है।” यह किसी को स्पष्ट नहीं हुआ. समझ में आता ही नहीं है – वह है वेदान्त। मेरे वेदान्त पर इस तरह प्रश्न करने से ही मेरे मामा परेशान हुए। मेरा मेरे मामा के साथ बहुत लगाव था। तभी तो हम इस तरह अंतिम बात कह पाए, अंतिम बात सोच पाए, अंतिम बात के लिए जिज्ञासु हो पाए। “अंतिम बात समझ में आना चाहिए” - इसमें मेरे मामा भी सहमत रहे और मैं भी सहमत रहा। यहाँ तक मेरे मामा साथ रहे। फिर अज्ञात को ज्ञात करने के लिए जिज्ञासा को पूरा करने के लिए एक ही विधि है – समाधि। उसमे मुझे बीस वर्ष लगे। उसके बाद संयम में पाँच वर्ष लगे। यह तो बात सही है – समाधि के बिना संयम होता नहीं है। उसी तरह अध्ययन-विधि में अनुभव किये बिना संवेदनाओं पर नियंत्रण नहीं हो सकता।

प्रश्न: अनुसंधान क्या समाधि-संयम विधि से ही हो सकता है?

उत्तर: समाधि-संयम विधि से ही अनुसंधान हो सकता है। समाधि में कुछ नहीं होगा। समाधि में आशा-विचार-इच्छाएं चुप होते हैं। समाधि के बाद संयम पूर्वक ही अनुसन्धान होता है।

प्रश्न: भौतिकवादी विधि से क्या अनुसंधान नहीं हो सकता?

उत्तर: भौतिकवादी विधि से तो कुछ भी नहीं मिल सकता. भौतिकवादी विधि से वितृष्णाएं ही मिलते हैं।

प्रश्न: तो क्या आदर्शवाद भौतिकवाद से आगे की सोच पाया?

उत्तर: आदर्शवाद भौतिकवाद से बहुत आगे की सोच पाया। इसमें कोई शंका नहीं है।

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Wednesday, October 12, 2011

संवाद की अंतिम बात



अभी हमारे इतने दिनों के सम्बन्ध में और संभाषण में जो आपको बोध होना था वह हुआ कि नहीं हुआ?

-> मुझसे यह कहना नहीं बन पा रहा है, कि मुझे “बोध” हो गया है।

समझदारी को लेकर भी जो कहा जाता है, उसका भी कोई शब्द होगा ही। समझदारी को व्यक्त करने के लिए भी भाषा होगी। उस भाषा के अर्थ में अस्तित्व में वस्तु होगी। वस्तु के साथ तदाकार होना स्वाभाविक है। वस्तु-ज्ञान होना ही बोध होना है. यदि बोध होता है तो अनुभव होता ही है। उसके लिए अपने को अलग से प्रयत्न नहीं करना है। तदाकार होता है तो तद्रूप होता ही है। तदाकार और तद्रूप दोनों एक साथ हैं। मनुष्य के पास तदाकार-तद्रूप होने के लिए है कल्पनाशीलता। अध्ययन संज्ञानशीलता के लिए है। संज्ञानशीलता हुआ का मतलब बोध हो गया। बोध होने के बाद पारंगत होने की बात आयी। पारंगत होने के बाद प्रमाणित होने की बात आयी। यह आपको बोध होता है कि नहीं? यही संवाद का अंतिम बात है। इस तरह विस्तार से हम एक बिंदु तक पहुँचते हैं। अनुभव वह बिंदु है। उस बिंदु का प्रकाशन फैलता चला जाता है। फ़ैलाने में हमारी प्रवृत्ति ज्यादा है, बिंदु तक पहुँचने में हमारी प्रवृत्ति कम है। यही अनुभव की कमी है।

-> फैलाने की हमारी जो प्रवृत्ति है, क्या उसको हमे निषेध करने की आवश्यकता है?

उसके लिए आपको बताया, सच्चाई का भी भाषा होता है। सच्चाई का भाषा अलग होता है। वह भाषा कम है। व्यर्थता की भाषा ज्यादा है, सार्थकता की भाषा कम है। सार्थकता की भाषा के अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है – यथार्थता, वास्तविकता, और सत्यता के रूप में। उस वस्तु के साथ हम तदाकार होते हैं तो हम तद्रूप हो जाते हैं। शब्द के अर्थ को छोड़ करके शब्द को लेकर चल देते हैं, इसी में समय लगता है। आपमें समझने (अनुभव बिंदु तक पहुँचने) और प्रमाणित करने (फैलाने) दोनों की प्रवृत्ति बनी है। इनमे से प्रमाणित करने की प्रवृत्ति ज्यादा है. यही रुकावट है। स्वत्व रूप में प्रमाणित करने की इच्छा को बलवती बनाना है। अनुभव के पहले बताने जाते हैं तो वह अनुभव की आवश्यकता के लिए आप में पीड़ा पैदा करता है। वह तो आप में हो ही रहा है. अनुभव के लिए पीड़ा पैदा होती है तो अनुभव के लिए निष्ठा बनेगी। अभी जहां मानव खड़ा है, वह ज्यादा बताने के पक्ष में है, समझने के पक्ष में नहीं है। इसीलिये मैं कहता हूँ – सही बात को बताओ, उससे धीरे-धीरे उसको स्वत्व बनाने के लिए जिज्ञासा होगी। अभी आप-हम उसी जिज्ञासा के आधार पर बात कर रहे हैं. स्वत्व बनाने के लिए जिज्ञासा रुपी पीड़ा बढ़ जाती है, तो उसका निराकरण स्वाभाविक हो जाता है।

अनुभव मूलक विधि से चिंतन करने का अधिकार पाने के लिए आत्मसात करना पड़ता है। रिकॉर्डिंग सब सूचना है। मैंने जो कुछ वांग्मय के रूप में लिखा है, वह सब भी सूचना ही है। सूचनाओं को लेकर उसको प्रगट करने के काम में आप लोग पारंगत हैं। प्रमाणित मानव ही होता है। प्रमाणित होने के लिए आप आत्मसात करोगे या नहीं करोगे?

-> आत्मसात ही करना है!

मुख्य बात इतना ही है। जिस जिज्ञासा से आप लोग आये हैं, उसके लिए इतनी ही बात है। आत्मसात करना हर व्यक्ति का अधिकार है। एक व्यक्ति का अधिकार नहीं है। क्योंकि हर व्यक्ति जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है। जीवन के बिना कोई मानव होता ही नहीं है।

यह एक शिकायत मुक्त प्रस्ताव है। व्यक्तिवाद-समुदायवाद के स्थान पर मानववाद-सहअस्तित्व-वाद आ गया है। इस पर सोचा जाए। सोच कर के आप बताइये आपकी क्या जिज्ञासा बनती है, उसकी आपूर्ति होगी।

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Tuesday, October 11, 2011

जीवन एक परमाणु

परमाणु व्यवस्था का मूल रूप है. कम से कम दो परमाणु-अंश मिल करके एक परमाणु को बनाते हैं. उसी तरह अनेक अंशों से मिल कर बने हुए भी परमाणु होते हैं. सभी परमाणु त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करते हैं. समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने का स्वरूप है – पूरकता और उपयोगिता. मानव कहाँ तक पूरक हुआ, उपयोगी हुआ – इसका स्वयं में परिशीलन करने की आवश्यकता है. परमाणु गठन-पूर्ण होने पर जीवन कहलाता है. उससे पहले गठन-शील परमाणु हैं. गठन-शील परमाणुओं में रासायनिक-भौतिक क्रियाएँ ही होते हैं. जीवन क्रिया गठन-पूर्ण परमाणु से ही होता है, और दूसरे परमाणुओं से होता नहीं है. भौतिक-क्रिया, रासायनिक क्रिया, और जीवन क्रिया – ये तीन प्रकार की क्रियाएँ है, जो चार अवस्थाओं के रूप में प्रकाशित हैं. जीवन क्रिया से ही ज्ञान का अभिव्यक्ति होती है. ज्ञान की अभिव्यक्ति को ही चेतना कहा है. चेतना के चार स्तर हैं – जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना. इनमे श्रेष्ठता का क्रम है – जीव-चेतना से मानव-चेतना श्रेष्ठ है, मानव-चेतना से देव-चेतना श्रेष्ठतर है, देव-चेतना से दिव्य-चेतना श्रेष्ठतम है. चेतना-विकास के अर्थ में ही मध्यस्थ-दर्शन लिखा है.

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

पठन से अध्ययन




पढ़ना आ जाने या लिखना आ जाने मात्र से हम विद्वान नहीं हुए। समझ में आने पर या पारंगत होने पर ही अध्ययन हुआ। समझ में आने पर ही प्रमाणित होने की बात हुई. प्रमाणित होने का मतलब है – अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सूत्र-व्याख्या में जी पाना। अध्ययन का मतलब है – शब्द के अर्थ में तदाकार-तद्रूप होना। आपके पास जो कल्पनाशीलता है, उसके साथ सह-अस्तित्व में तदाकार-तद्रूप हुआ जा सकता है। सह-अस्तित्व रहता ही है। सह-अस्तित्व न हो, ऐसा कोई क्षण नहीं है। कल्पनाशीलता न हो, ऐसा कोई मानव होता नहीं है। हर जीते हुए मानव में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है। अब तदाकार-तद्रूप होने में आप कहाँ अटके हैं, उसको पहचानने की आवश्यकता है।

आवश्यकता महसूस होता है तो तदाकार होता ही है, तद्रूप होता ही है। जब अनुसंधान विधि से तदाकार-तद्रूप होता है, तो अध्ययन-विधि से क्यों नहीं होगा भाई? तदाकार-तद्रूप विधि से ही तो मैं भी इसको पाया हूँ। आप किताब से या शब्द से प्रकृति में तदाकार-तद्रूप होने तक जाओगे। किताब केवल सूचना है। किताब में लिखे शब्द से इंगित अर्थ के साथ तदाकार-तद्रूप होने पर समझ में आता है।

जब समाधान, नियम, नियंत्रण, स्व-धन, स्व-नारी-स्व-पुरुष, दया-पूर्ण कार्य-व्यवहार एक “आवश्यकता” के रूप में स्वीकार होता है, तभी तदाकार-तद्रूप होता है, अनुभव होता है। अन्यथा नहीं होता है। किसी की आवश्यकता बने बिना उसे समझाने के लिए जो हम प्रयास करते हैं, वह उपदेश ही होता है, सूचना तक ही पहुँचता है। अध्ययन से ही हर व्यक्ति पारंगत होता है। अध्ययन के बिना कोई पारंगत होता नहीं है। अनुभव मूलक विधि से ही हम प्रमाणित होते हैं। अनुभव के बिना हम प्रमाणित होते नहीं हैं। यह बात यदि समझ आता है तो अनुभव की आवश्यकता है या नहीं, आप देख लो! अनुभव की आवश्यकता आ गयी है तो अनुभव हो कर रहेगा। आवश्यकता के आधार पर ही हर व्यक्ति काम करता है। आपकी आवश्यकता बनने का कार्यक्रम आपमें स्वयं में ही होता है। दूसरा कोई आपकी आवश्यकता बना ही नहीं सकता. यही मुख्य बात है। हर व्यक्ति की जिम्मेदारी की बात वहीं है। अनुभव हर व्यक्ति की आवश्यकता है, ऐसा मान कर ही इस प्रस्ताव को प्रस्तुत किया है। अनुभव को व्यक्ति ही प्रमाणित करेगा. जानवर तो करेगा नहीं, पेड़-पौधे तो करेंगे नहीं, पत्थर तो करेंगे नहीं...

सभी जीव वंश विधि से काम करते हैं। मानव ज्ञान-अवस्था का होते हुए अभी न पूरा जीवों जैसा जीता है, न पूरा मानव जैसा जीता है। इस तरह मानव अभी न इधर का है, न उधर का! ऐसा अनिश्चित जीने से धरती ही बीमार हो गयी।



प्रश्न: मानव ऐसा “न इधर का, न उधर का” क्यों हो गया?

उत्तर: उसका कारण है – जीवों में जो “आवश्यकता” है, उससे मानव का संतुष्ट होना बना नहीं। और मानव-चेतना से संतुष्ट होने की जगह में मानव आया नहीं। मानव-चेतना की “आवश्यकता” को महसूस करने पर ही मानव अनुभव करेगा और मानव-चेतना को अपनाएगा। हर व्यक्ति में इस आवश्यकता बनने के लिए उसे अध्ययन रुपी पुरुषार्थ करना होगा। पूरा समझ में आना और प्रमाणित होना ही परमार्थ है, वही समाधान है। फिर पुरुषार्थ के साथ समृद्धि होता ही है. समाधान-समृद्धि होने पर अभय होता ही है। समाधान-समृद्धि और अभय होने पर सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाणित होता है। ऐसा व्यवस्था बना हुआ है।

प्रश्न: इसमें दिक्कत फिर कहाँ है?

उत्तर: दिक्कत है, हम दूसरों को ठीक करने में अपने को ज्यादा लगा देते हैं। स्वयं ठीक होने के लिए हम लगते नहीं हैं। दूसरे – पठन से हम अपने को विद्वान मान लेते हैं, वह गलत है। जीने से ही हम विद्वान हैं। वह आने पर हो जाता है. इसमें आप मुझे ही जाँचिये. मैं पढ़ने-लिखने में विद्वान नहीं हूँ, फिर मैं इसे कैसे पा गया? शब्द का अर्थ समझ में आने पर मेरा “जीना” बन गया, उसी को हम प्रमाण कह रहे हैं। प्रमाण के रूप में मैं आपके सामने उपलब्ध हूँ. अनुसन्धान विधि से चलते हुए, मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं था। आपके साथ सूचना भी है, प्रमाण रूप में व्यक्ति भी है।

प्रश्न: तो आप कह रहे हैं, हमारी अनुभव-प्रमाण की आवश्यकता नहीं बन पा रही है, इसलिए हमे अनुभव नहीं हो रहा है?

उत्तर: - आवश्यकता अनुभव करने की और प्रमाणित होने की नहीं बना है। दूसरों को बताने की आवश्यकता बना है। दूसरों को बताने योग्य आप हो भी गए हैं। श्रवण के आधार पर गति होना पर्याप्त नहीं है। समझ के आधार पर गति होना ही पर्याप्त होता है। समझ के आधार पर गति होना अनुभव के साथ ही होता है, प्रमाण के साथ ही होता है। अनुभव के लिए तदाकार-तद्रूप होने के लिए वस्तु कल्पनाशीलता के रूप में हर व्यक्ति के पास रखा है। कल्पनाशीलता रुपी इस व्यक्तिगत स्त्रोत को नकारा भी कैसे जाए? कल्पनाशीलता का स्त्रोत जीवन है. जीवन का अध्ययन नहीं हुआ है। शरीर को जब तक जीवन मानते रहते हैं तब तक अनुभव होना नहीं है। जीवन को जीवन माना, जीवन में अनुभव होने की सम्भावना को समझा, उसके बाद अपनी उपयोगिता को जोड़ दिया तो अनुभव होता है। हमारा उपयोग अनुभव-मूलक विधि से ही है. अनुभव एक बिंदु है. प्रमाण एक सिंधु है।


 

भाषा में हम बहुत विद्वान हो जाते हैं, अनुभव को लेकर हम वहीं के वहीं बने रहते हैं। इसी रिक्तता को भरने की आवश्यकता है। प्रमाण अनुभव से ही होता है. सूचना से प्रमाण होता नहीं है। सूचना सूचना ही है। भाषा से हम सूचना तक पहुँच पाते हैं। सूचना को प्रमाण में उतारना हर व्यक्ति का जिम्मेदारी है।

सुनाना हमारा स्वत्व नहीं है। सुनाना दूसरों के लिए ही होता है. जीना हमारा स्वत्व है। यही जिम्मेदारी की बात है। इसको पहचान लेना एक पुण्य की बात है। अच्छी बुद्धि के बिना यह पहचान में नहीं आता है।

व्यक्त होने के लिए आपने प्रयत्न किया तो स्वत्व बनाने के लिए आवश्यकता बनी। स्वत्व बनाने की आवश्यकता बनी तो उसमे सफल हो जायेंगे।

इसका सार बात है – “अनुभव स्वत्व है. बताना हमारा वैभव है।” वैभव के बारे में हम जल्दी चले जाते हैं, स्वत्व के बारे में उपेक्षा रहता है।

स्वयं में मानव-चेतना की आवश्यकता स्वीकार होना, तदाकार-तद्रूप होना, स्वयं की उपयोगिता सिद्ध होना, फिर उपकार विधि से पूरक होना – ये एक से एक लगी कड़ियाँ हैं। पूरकता विधि से ही परंपरा है। बिना परंपरा के कोई प्रमाण नहीं है। परंपरा के बिना तो केवल “घटना” है। “ घटना” के रूप में एक व्यक्ति को अनुभव हो गया, वह चला गया – उसका कोई मतलब नहीं है।


 - श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)