न्याय चाहिए, पर प्रिय-हित-लाभ के चंगुल से छुटे नहीं हैं. अभी हम न्याय को भी संवेदनाओं के साथ जोड़ते हैं, क्योंकि दूसरा कोई रास्ता मिला नहीं है. अब इस अनुसंधान पूर्वक दूसरा रास्ता खोज लिया गया है. यहाँ संबंधों के साथ न्याय होने की बात की शुरुआत किये हैं. संवेदनाओं में प्रिय-हित-लाभ के साथ न्याय कुछ होना नहीं है. जैसे - फैक्ट्री में यूनियन और मैनेजमेंट के बीच आज जिसको लेकर compromise हुआ, वह दूसरे क्षण टूटा ही रहता है.
अध्ययन विधि में शब्द से न्याय एक शाश्वत वस्तु के रूप में इंगित होता है. शब्द का प्रयोजन इतने तक ही है. इंगित होने के बाद यह मन में, विचार में, साक्षात्कार में आना है. पहले कल्पना में आना, फिर विचार में तुलन होना, फिर चित्त में साक्षात्कार होना - ये तीनो लगातार हो गया तो बोध और अनुभव होता ही है.
इसमें अड़ने वाली चीज़ है - प्रिय हित लाभ के प्रति सम्मोहन, जो भय और प्रलोभन के रूप में रहता है. इससे हम "न्याय-प्रिय" तो हो जाते हैं पर न्याय प्रमाणित नहीं होता.
संवेदनाओं के स्थान पर संबंधों में शिफ्ट होने पर ये प्रमाणित होने की स्थिति बनती है.
प्रश्न: अभी प्रिय-हित-लाभ दृष्टि हममे प्रभावी है. न्याय-धर्म-सत्य के बारे में हमे सूचना मिला है - जिससे न्याय-धर्म-सत्य के आधार पर तुलन करने की हममे अपेक्षा है. आपने बताया कि अध्ययन की शुरुआत वहीं से है. अब हमारे पास न्याय-दृष्टि है ही नहीं तो हम इसका अभ्यास कैसे करें?
उत्तर: न्याय दृष्टि जीवन में रहता ही है, पर जागृत नहीं हुआ रहता. न्याय-दृष्टि का पहले कल्पना आ जाए. अध्ययन विधि से ही न्याय-दृष्टि का कल्पना बनता है, और किसी विधि से बनता नहीं है. अध्ययन विधि न्याय की पहचान के लिए संबंधों के पास पहुंचा देता है. "संबंधों की निर्वाह निरंतरता में ही न्याय होता है." अभी हम प्रिय-हित-लाभ विधि से भय व प्रलोभन पूर्वक थोड़े समय तक सम्बन्ध को पहचानते हैं फिर उसको जूता मार देते हैं - उसमे कौनसा न्याय होने वाला है? भय और प्रलोभन के अर्थ में संबंधों की पहचान विखंडित होता ही है. संबंधों का नाम लेना हमारे अभ्यास में है, किन्तु संबंधों के प्रयोजन (अर्थ) को पहचानना शेष रहा है. संबंधों का प्रयोजन (अर्थ) है - व्यवस्था में जीना. व्यवस्था बोध करा देने पर संबंधों की निर्वाह निरंतरता स्वाभाविक हो जाता है.
संबंधों की निर्वाह निरंतरता शब्द नहीं है - यह जीवन में होने वाली प्रक्रिया है. संबंधों की निर्वाह निरंतरता में न्याय अपने आप से आता है. उदाहरण के लिए जिस क्षण अभिभावक ने संतान के साथ अपने सम्बन्ध को पहचाना, उसी क्षण से उनमे ममता-वात्सल्य अपने आप से उमड़ता है. उसके लिए उनको कोई कॉलेज का प्रशिक्षण नहीं रहता है, कोई उपदेश दिया नहीं रहता है. यह अपने आप से आता है, क्योंकि यह सारा चीज़ जीवन में निहित है. सम्बन्ध पहचान लेने पर यह उभर जाता है.
न्याय-शब्द से न्याय-अर्थ इंगित होने के लिए न्याय में प्रमाणित व्यक्ति का होना बहुत महत्त्वपूर्ण है, अन्यथा शब्द से प्रिय-हित-लाभ के आधार पर ही अर्थ निकाल लेते हैं, उससे न्याय प्रमाणित होता नहीं है. प्रमाणित व्यक्ति का होना इस तरह अध्ययन की सफलता की पूंजी भी है और कुंजी भी है.
अध्ययन विधि से व्यवस्था स्पष्ट होना और व्यवस्था में हम जी सकते हैं - यह विश्वास दिलाने की ज़रुरत है. समाधान-समृद्धि पूर्वक हम व्यवस्था में जी सकते हैं, समग्र व्यवस्था में भागीदारी कर सकते हैं, और उपकार कर सकते हैं.
- श्रद्देय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
No comments:
Post a Comment