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Wednesday, August 7, 2019

अनुभव ज्ञान




आपने "अनुभव ज्ञान" शीर्ष में लिखा है:

"सत्ता में संपृक्त जड़ चैतन्य प्रकृति, सत्ता (व्यापक) में संपृक्त जड़ चैतन्य इकाइयां अनंत

व्यापक (पारगामी व पारदर्शी) सत्ता में संपृक्त सभी इकाइयां रूप, गुण, स्वभाव व धर्म संपन्न, त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में है"

इसको और व्याख्या कर दीजिये.

उत्तर:  मैंने क्या अनुभव किया - इस बात को यहाँ सत्यापित किया है.  यह संसार के लिए सूचना है.  अभी आप-हम जो सत्संग कर रहे हैं वो इसलिए जिससे यह सूचना हृदयस्पर्शी हो सके.

इसमें मूल बात है - "सत्ता में संपृक्त प्रकृति"

सत्ता को मैंने सर्वत्र एक सा विद्यमान, सुखप्रद व नित्य प्रतिष्ठा स्वरूप में देखा.  इसमें रद्दोबदल, कमीबेशी का काम नहीं है.  यहाँ ज्यादा, वहाँ कम - ऐसा कुछ नहीं है.  सत्ता सम्पूर्ण जड़ चैतन्य प्रकृति में पारगामी है.  प्रकृति का सत्ता में डूबा, भीगा, घिरा होना समझ में आया.  हरेक वस्तु - सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल से स्थूल, छोटे से छोटा', बड़े से बड़ा - इसमें भीगा है.  सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु के रूप में परमाणु अंश मिला.  परमाणु अंश का प्रवृत्ति परमाणु की व्यवस्था स्वरूप में काम करने का बना रहता है.  ऐसे परमाणु अंश भी व्यापक वस्तु में डूबा, भीगा, घिरा रहता है.  परमाणु के बाद ही व्यवस्था का प्रकटन है.  परमाणु अंश में परमाणु स्वरूप में गठित होने का प्रवृत्ति प्रकट हुआ.

यह सिद्धांत है - "हरेक प्रकटन के पूर्व स्थिति में उसका बीज स्वरूप निहित रहता है."  इसी आधार पर परमाणु अंश में व्यवस्था में होने की प्रवृत्ति निहित रहती है.  इसी कारण परमाणु में मध्य और परिवेशों में परमाणु अंश स्थापित और गतित होते हैं और एक निश्चित आचरण को प्रकाशित कर पाते हैं.  अकेले में परमाणु अंश किसी निश्चित आचरण को प्रकाशित नहीं कर पाता है.  निश्चित आचरण से उपयोगिता और पूरकता स्पष्ट होती है.  इस तरह एक प्रजाति के परमाणु की अवस्था और यथास्थिति दूसरे प्रजाति के परमाणु की अवस्था और यथास्थिति के लिए पूरक हो गयी.  इस प्रकार अनेक प्रजाति के परमाणुओं का प्रकटन हुआ.

परमाणुओं के सारे क्रियाकलाप को भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया और जीवन क्रिया स्वरूप में देखा.  तीन ही क्रियाएं हैं.  जीवन क्रिया जाग्रति-क्रम और जाग्रति अर्थ में काम करता रहता है.   भौतिक-रासायनिक क्रियाएं विकास-क्रम और विकास के अर्थ में काम करता मिलता है.

विकास-क्रम के बिना विकास का प्रमाण नहीं हो सकता.  जीवन का प्रमाण सहअस्तित्व में ही होगा.  इसको लेकर मैंने प्रतिपादित किया है - "सहअस्तित्व नित्य प्रभावी है".  सहअस्तित्व नित्य प्रभावी होने के कारण ही चैतन्य का वैभव और जड़ की सीमायें स्पष्ट हो जाती है.  चैतन्य प्रकृति गठनपूर्ण होने के आधार पर जड़ प्रकृति से भिन्न हो गया.  चैतन्य भी जड़ के साथ ही अपने वैभव को व्यक्त करता है.  व्यापक जैसा निर्मल वस्तु...  उसमे कोई ज़रुरत का खाका नहीं है, ज्यादा-कम का खाका उसमे नहीं है, परिणाम का खाका उसमे नहीं है, परिवर्तन का खाका उसमे नहीं है.  ऐसे पावन वस्तु भी सहअस्तित्व के बिना प्रमाणित नहीं हो पाया!  इससे बड़ी चीज़ बताया नहीं जा सकता.

सहअस्तित्व नित्य प्रभावी है.  व्यापक वस्तु अपने वैभव को जड़-चैतन्य प्रकृति के साथ ही प्रकट किया है.  जड़-चैतन्य प्रकृति न हो और व्यापक वस्तु प्रकट हो जाए - ऐसा होता नहीं है.  हमारे बुजुर्गों ने जबकि लिखा है - "व्यापक वस्तु ज्ञान है जो अपने में अव्यक्त और अनिर्वचनीय है."  उस समय में शायद उतना ही लिखने का ज़रूरत रहा होगा, इसलिए उतना ही लिखे.  या उनको समझ में नहीं आया होगा - ऐसा भी हम सोच सकते हैं.  मेरे हिसाब से सम्मानजनक भाषा यही है कि उस समय में उतना ही लिखना उचित समझा, उतना ही लिखा, उतना ही प्रमाणित हुए, और आगे के लिए आशीर्वाद दे कर गए.

शुभकामना की पूर्ति के लिए ये सब देखा/समझा या शुभकामना की पूर्ति के लिए ये सब दिखा/समझ में आ गया.  उसको हमने प्रकट किया है.  प्रकट करने पर पता चलता है यह पूरा अभिव्यक्ति "अस्तित्व में व्यवस्था है" - इस आधार पर है.   "व्यवस्था नहीं है" - भौतिकवाद यहाँ से शुरू किया.  दोनों में अंतर इतना ही है.  व्यवस्था होने के आधार पर ही सब कुछ एक दूसरे के लिए व्यवस्था में होने के लिए प्रेरक है, पूरक है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००५, रायपुर)

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