प्रश्न: आपने लिखा है - "आत्मा पूर्ण मध्यस्थ व नित्य शांत है, इस पर सम या विषम का आक्रमण सिद्ध नहीं होता है." इसको स्पष्ट कर दीजिये.
उत्तर: अनुभव करने वाले जीवन के मध्यांश को "आत्मा" नाम दिया है. उस पर सम-विषमात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है, इसीलिये वह सुरक्षित रहता है. जब आवश्यकता बनता है तब वह अनुभव में आ जाता है. अनुभव मानव परम्परा में ही प्रमाणित होता है.
प्रश्न: क्या जीवन के प्रथम परिवेश "बुद्धि" पर सम-विषम का आक्रमण हो सकता है?
उत्तर: नहीं. बुद्धि पर भी सम विषम का आक्रमण सिद्ध नहीं है. चित्त के चिंतन भाग पर भी नहीं. शरीर मूलक जीते तक चित्रण, तुलन, विश्लेषण, आस्वादन व चयन पर सम-विषम का प्रभाव होता है.
प्रश्न: आत्मा को आपने "सर्वज्ञ" संज्ञा किस आधार पर दी है?
उत्तर: आत्मा से अधिक जानने वाला कोई वस्तु होता नहीं है. अनुभव से अधिक जानना कुछ होता नहीं है. सहअस्तित्व में अनुभव से अधिक जानने की वस्तु नहीं है. दूसरे किसी विधि से इससे ज्यादा कुछ होता नहीं है - इसलिए ऐसा लिखा है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
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