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Friday, November 30, 2018

प्रकृति में परस्पर पहचान का स्वरूप



भौतिक रासायनिक वस्तुओं की परस्परता में जो दूरियाँ रहती है, वह स्वयं व्यापक वस्तु (सत्ता) ही है.  जहाँ भौतिक रासायनिक वस्तुएं हैं वहाँ भी व्यापक वस्तु पारगामी विधि से यथावत है. 

प्रश्न: प्रकृति की वस्तुओं की परस्परता में परस्पर पहचान में व्यापक वस्तु का क्या रोल है?

उत्तर: व्यापक वस्तु की पारदर्शीयता - जिससे वस्तुएं/इकाइयां एक दूसरे को पहचान सकती हैं.  पहचानने के लिए जो ताकत है वह वस्तुओं के बीच में रखा है.  व्यापक वस्तु ही पहचानने की अच्छी निश्चित दूरी है.  दूरी बीच में न हो तो पहचान होता ही नहीं है.  जैसे - मैंने इस वस्तु को छुआ, यह स्पर्श ज्ञान मुझे मेरे हाथ और इस वस्तु के बीच दूरी के आधार पर हो रहा है.  स्पर्श में वस्तुओं के बीच दूरी रहता ही है.  यदि हाथ और वस्तु के बीच में दूरी नहीं होती तो इनको अलग किया ही नहीं जा सकता था.  परस्परता में दूरी नहीं है तो स्पर्श ज्ञान भी नहीं है. 

प्रश्न: प्रकृति की वस्तुओं के परस्पर पहचान का क्या स्वरूप है?

उत्तर: वस्तुएं एक दूसरे को शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध विधि से पहचानती हैं.  इन पाँच प्रकार से पहचानने की विधियाँ हैं. 

इनमे सर्वप्रथम स्पर्श विधि से पहचान का प्रकटन है.  एक परमाणु अंश दूसरे परमाणु अंश को स्पर्श विधि से पहचानता है.  स्पर्श स्वीकृति के आधार पर परमाणु अंश परमाणु की व्यवस्था में भागीदारी करने में तत्पर हो गए.

स्पर्श के बाद गंध के आधार पर पहचान का प्रकटन हुआ.  गंध के आधार पर सभी प्राणकोशाएं काम करते हैं.  एक ही भूमि से गन्ने का जड़ अपने पोषण की वस्तु ले लेता है, धतूरे का जड़ अपने पोषण की वस्तु ले लेता है.  यह गंध के आधार पर होता है. 

शब्द या ध्वनि  के आधार पर पहचान का भ्रूण स्वरूप जीवों में हुआ, जिसका मानव में पूरा प्रकटन हो गया.

रूप का "होना" जीवों में पहचान में आता है.  मानव में रूप का "होना" और "रहना" (आचरण) दोनों पहचान में आता है.  इस तरह रूप के आधार पर पहचानने का भ्रूण स्वरूप जीवों में हुआ, जिसका प्रकटन मानव में हुआ.

रस के आधार पर अपने आहार की पहचान जीव संसार में हुई.  जिसमे दो प्रजाति हुई - शाकाहारी और मांसाहारी.  शाकाहारी जीव अपने आहार को पूरा पहचानते हैं, मांसाहारी अपने आहार को पूरा नहीं पहचानते.  मांसाहारी जीव भूख लगने के समय कुछ भी खा लेते है, इसीलिये इनको क्रूर कहा.  मांसाहारी जीवों में ऐसा नहीं होता कि यही आहार करेंगे, दूसरा आहार नहीं करेंगे. 

इस तरह प्रकृति में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध पूर्वक पहचान का क्रमशः प्रकटन हुआ.  इतने से मानव का चार विषयों और पांच संवेदनाओं की सीमा में रूचि मूलक जीना बन गया, जिसको "जीव चेतना" कहा.  ऐसे जीने से समस्याएं हुई जिससे मानव चेतना की आवश्यकता बनी.  मानव चेतना के लिए यह प्रस्ताव है.  मानव चेतना में संज्ञानीयता पूर्वक हर वस्तु को उसके प्रयोजन के अर्थ में पहचानते हैं, जिससे मूल्य मूलक और लक्ष्य मूलक जीना बनता है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)



Saturday, November 24, 2018

हर अगली अवस्था का भ्रूण उसकी पिछली अवस्था में बनता है


पदार्थावस्था में जितने प्रजाति के परमाणु होना था, उनका प्रकटन होने के बाद उसमे यौगिक क्रिया का भ्रूण बना.  भ्रूण बनने का अर्थ है - पदार्थावस्था में प्राणावस्था को प्रकट करने की आवश्यकता बन गयी.  प्राणावस्था प्रकट होने की पृष्ठभूमि को हम "भ्रूण" कह रहे हैं.

प्रश्न: भ्रूण वस्तु के रूप में क्या है?

उत्तर: जो प्रकट हो सकता है, उसको भ्रूण कहते हैं.  जैसे- आम की डाल पर उसके फूल लगने से पहले उसका भ्रूण उस डाल में बनता है.

इसी तरह सभी स्थितियों में पर-रूप का भ्रूण पूर्व-रूप में निहित रहता है.  जैसे - पानी एक यौगिक है, जो एक जलने वाले और एक जलाने वाले वस्तु के योग से प्रकट हुआ है.  इन दोनों परमाणुओं में एक दूसरे से मिलने की आवश्यकता जो बना, वही भ्रूण है.

यह समझ में आने पर आदमी का अहंकार काफी शांत हो जाता है.  नहीं तो आदमी अपनी शेखी बघारने में लगा रहता है.  इस बात को गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है.

मिलन को योग संज्ञा है.  एक दूसरे से मिलने के बाद "ऐक्य" या "सहवास" स्वरूप में हो जाते हैं.  एक दूसरे से मिलने के बाद अलग-अलग स्वरूप पता नहीं चले उसे ऐक्य कहा.  जैसे - अपना-अपना आचरण छोड़ कर जलने वाला और जलाने वाला वस्तु एक तीसरे आचरण (प्यास बुझाने वाला) को अपना लिए, और जल का प्रकटन हुआ.  यह एक सहज नियंत्रण का स्वरूप है.  यह यदि समझ में आता है तो आदमी में अभी जो प्रकृति का नियंत्रण करने का शेखचिल्ली है वह समाप्त हो जाता है. 

प्रकृति में नियति विधि से "होना" और "रहना" का प्रकटन है.  होने और रहने के स्वरूप में यह सम्पूर्ण सहअस्तित्व है.  हर वस्तु होने और रहने के स्वरूप में है.  होना चार अवस्थाओं के स्वरूप में है.  रहना - त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी.  इसमें मानव की सबसे विडंबनात्मक स्थिति है.  अभी तक मानव जीवचेतना में जीते हुए पशुमानव/राक्षसमानव स्वरूप में जिया है, उससे उठा नहीं है.  कमर सीधा हुआ नहीं है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Wednesday, November 21, 2018

योग-संयोग न हो, ऐसा कोई स्थिति ही नहीं है



सत्ता में संपृक्त प्रकृति के कारण योग-संयोग है.  सारी क्रियाएं इसी प्रकार हैं.

मानव शरीर यात्रा के सुगम बने रहने के लिए भी योग-संयोग चाहिए.  जैसे हवा चाहिए ही.  हवा नहीं हो मानव शरीर सुरक्षित नहीं रहेगा.

योग-संयोग न हो, ऐसा कोई स्थिति ही नहीं है.  ऐसी कोई स्थिति को हम पहचान नहीं पायेंगे जिसमे योग-संयोग न हो.

प्रश्न:  योग-संयोग के साथ-साथ प्रकृति में वियोग भी देखा जाता है.  उसका क्या प्रयोजन है?

उत्तर: वियोग का प्रयोजन है - संतुलन!  चारों अवस्थाओं के बने रहने के लिए.  जैसे - मांसाहारी जीवों का होना जंगल में जीवों के संतुलन के लिए आंकलित होता है.  आहार विधि से ही शाकाहारी और मांसाहारी जीवों में संतुलन है.  मारक (विषैली) वनस्पतियों का होना भी संतुलन के लिए आंकलित होता है.

सारक-मारक वनस्पति और शाकाहारी-मांसाहारी जीवों का प्रकटन योग-संयोग विधि से होता है.  योग-संयोग सदा रहता ही है, इसलिए घटित होता है.  योग-संयोग घटित होता है जिससे चारों अवस्थाओं में संतुलन बने रहता है.  घटना, योग और संयोग ये पूरा का पूरा चारों अवस्थाओं के बने रहने के लिए है.  यदि इस ज्ञान के आधार पर मानव विचार करता है तो उसके कार्यों का फल-परिणाम सकारात्मक होता है. 

सहअस्तित्व नित्य प्रभावी सिद्धांत के आधार पर योग-संयोग की उपलब्धता निश्चित होने पर सफलताएं होते हैं.

जैसे - धरती पर एक जलने वाला वस्तु और एक जलाने वाला वस्तु दोनों एक निश्चित मात्रा में मिलने से पानी का प्रकटन होता है.  दोनों की मात्रा में यदि घट-बढ़ होता है तो पानी नहीं होगा.  धरती पर इनकी निश्चित मात्रा को क्या कोई बनाता है?  अच्छे ढंग से इसको सोच लो!  यह एक मुद्दा पर्याप्त है अस्तित्व में योग-संयोग के महत्त्व को समझने के लिए.  सहअस्तित्व नित्य प्रभावी है इस आधार पर योग-संयोग पूर्वक ये वस्तुएं निश्चित अनुपात में बनती हैं.  सहअस्तित्व को ही चारों अवस्थाओं के स्वरूप में प्रकट होना है.  चारों अवस्थाओं के स्वरूप में प्रकट होने पर ही सहअस्तित्व का वैभव है.  इससे कम में होता नहीं है.

धरती पर चारों अवस्थाओं का प्रकटन होना है और उनका बने रहना है, इसके आधार पर धरती पर सारा योग-संयोग है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक) 

Tuesday, November 20, 2018

सहअस्तित्व में योग-संयोग




प्रश्न: एक वृक्ष के सभी बीज अंकुरित नहीं हो जाते, एक जीव की सभी संतानें अपनी पूरी आयु जी नहीं पाती - यह हमको प्रकृति में दिखता है, वैसे ही सभी परमाणु गठनपूर्ण हो कर जीवन पद प्रतिष्ठा में नहीं हो पाते.  यह कैसे होता है?  यह किस नियम से होता है?

उत्तर:  यह योग-संयोग नियम से होता है.  योग-संयोग सहअस्तित्व पूर्वक निश्चित होता है.  सम्पूर्ण योग-संयोग सहअस्तित्व पर निर्भर है. 

मिलन का नाम है योग.  हर वस्तु का अन्य वस्तुओं के साथ मिलन विधि या योग विधि बना ही रहता है.  जैसे - बीज का मिट्टी से मिलन योग है.  पानी से मिलना योग है.  हवा से मिलना योग है.  खाद-गोबर मिलना योग है.  ये सब मिलकरके योग है.  इन सब में से कुछ भी मिलने से रह जाए तो विरोधाभास होता है. 

सहअस्तित्व बने रहने, चारों अवस्थाएं बने रहने के लिए प्रकृति में यह नियंत्रण है.

प्रश्न:  यह नियंत्रण होता कैसे है?  बिना किसी नियंत्रण करने वाले के यह नियंत्रण कैसे हो रहा है?

उत्तर: प्रकृति में नियंत्रण स्वयंस्फूर्त रहता है.  अभी नियंत्रण को हम अपनी हविस के रूप में मानते हैं.  किन्तु सहअस्तित्व (सत्ता में संपृक्त प्रकृति) में जो नियंत्रण है वह चारों अवस्थाओं के बने रहने के अर्थ में है.  यह इसका नियति है.  सहअस्तित्व का नियति इतना है.

प्रश्न: तो इस नियंत्रण के चलते जो बीज अंकुरित नहीं हुआ, या जो शिशु अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गया - क्या उसका शोषण नहीं हुआ?

उत्तर: वहां योग ठीक नहीं हुआ.  यह बिल्कुल स्पष्ट बात है.  कोई भी वस्तु के रहने के लिए योग-संयोग विधि बना है.  जैसे - आप हम यहाँ रह रहे हैं.  इसके साथ यह घर है, हवा है, पानी है, खाना है - यह सब संयोग है.  इन सब के एकत्रित होने से हमारा रहना हो पाता है.  इनमे से कोई भी कम होने पर या तो हम रोगी होते हैं या दुखी होते हैं.  उसी प्रकार हर वस्तु के साथ योग है, संयोग है.  सहअस्तित्व स्वरूपी नियम अपने आप में सिद्ध है.  चारों अवस्थाएं सहअस्तित्व में ही प्रकट हैं.  इन चारों अवस्थाओं का बने रहना सहअस्तित्व का उद्देश्य है.  नियति विधि यही है.  नियति विधि से ही सहअस्तित्व सिद्धांत और योग-संयोग सिद्धांत आता है.

प्रश्न: अस्पतालों में जो भ्रूण-हत्या करते हैं, उसके बारे में आपका क्या मंतव्य है?

उत्तर: यह आदमी का हविस है.  योग हो गया उसको विच्छेद करने का उपाय खोज लिया आदमी ने.  मनुष्य के इस कुकर्म को कुछ लोग सही भी मानते हैं, कुछ गलत भी मानते हैं.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Sunday, November 11, 2018

किताब के साथ पारंगत व्यक्ति का होना आवश्यक है




वांग्मय और उसको पढने वाला - इन दोनों के बीच में एक पारंगत व्यक्ति भी होता है.  पारंगत व्यक्ति को भुलावा दे कर हम केवल वांग्मय से कभी पार नहीं पायेंगे.  पारंगत व्यक्ति ही मार्गदर्शन करेगा - misinterpretation (अधूरा/गलत अनुमान) को right interpretation (सही अनुमान) में परिवर्तित करने के लिए.  जीव चेतना के प्रभाव वश ही misinterpretation होता है.  पिछले २० वर्षों में यह सब मेरे सर्वेक्षण में आ चुका है, इसमें मुझे कोई शंका नहीं है.

किताब सूचना है.  सूचना से अर्थ ग्रहण करने का अधिकार हर व्यक्ति के पास है.  इस अधिकार को सफल बनाने के लिए पारंगत व्यक्ति है.  इन तीनो के योग में इस की परंपरा चलेगी.

प्रश्न:  अनुभव मानव के कितना "दूर" है या कितना "पास" है?

उत्तर: अनुभव हर मनुष्य के पास ही है.  "समीचीन" इसका नाम दिया है.  अनुभव करने की इच्छा मानव में होना है.   अनुभव मूलक विधि से ही मानव मानवीयता को प्रमाणित करेंगे.  यदि यह निष्कर्ष निकलता है तो मन लगना शुरू हो जाएगा.  इस निष्कर्ष के निकलने से पहले प्रस्ताव में कमी निकालने में मन लगा रहता है.  कमी निकालना कोई अध्ययन नहीं है.

प्रश्न:  पर यदि हमको कोई कमी दिखता है तो क्या करें?

उत्तर: उस कमी को आप मुझे बताइये.  यदि मेरे लिखे हुए में कुछ ठीक करना होगा तो वो मैं कर दूंगा.  यदि उस "कमी" में आपने जीव चेतना का कोई अर्थ लगाया होगा तो मैं उसको ठीक कर दूंगा.  यह मेरा काम ही है. 

प्रश्न:  अनुभव में कितना समय है, क्या इसको कुछ कहा जा सकता है?

उत्तर: यह हमारी चाहत (इच्छा) पर ही है.  हम चाहते हैं तो यह अभी है.  हम नहीं चाहते हैं तो इसमें अभी समय  है.  चाहत में वरीयता आने पर देर नहीं लगता.  अनुभव को यदि प्राथमिकता में ला पाते हैं तो उसमे समय लगने का मतलब ही नहीं है.  हमारा ध्यान कई जगह बंटा हुआ है, इसलिए यह वरीयता में नहीं है. 

सच्चाई समीचीन है.  सच्चाई की समीचीनता को स्वीकारने तक मानव में इधर-उधर का भटकाव रखा ही है.  सच्चाई को स्वीकारने के लिए अध्ययन है.  अध्ययन में मन लगाना ही पड़ता है.  अर्थ जब अस्तित्व में वस्तु के रूप में समझ आ जाता है तो आदमी पार पा जाता है. 

मैंने भी इतना ही किया है.  अर्थ को अस्तित्व में वस्तु के रूप में पहचाना है.  उसी के अनुरूप परिभाषाएं दी हैं.  सारी परिभाषाएं अस्तित्व में वस्तु को इंगित करती हैं.  इंगित होने का अधिकार हर मानव में है.  मानव की इस मौलिकता को समाप्त नहीं किया जा सकता.  उपदेशवाद/ईश्वरवाद/आदर्शवाद ने मानव की इस मौलिकता का अवमूल्यन किया.  उपभोक्तावाद/भौतिकवाद ने मानव की इस मौलिकता का निर्मूल्यन किया.  इसको nutshell (सार संक्षेप) में ला करके हमको निष्कर्ष निकालना है - सार्थकता क्या है?  सार्थकता के प्रति अपने में समर्पण होने की आवश्यकता है.  इस ढंग से हम एक अच्छी स्थिति तक पहुँच सकते हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Friday, November 9, 2018

स्त्रोत की ओर ध्यानाकर्षण


जीवन विद्या योजना इस अनुसंधान की "सूचना" को जनसामान्य तक पहुंचाने का एक कार्यक्रम है.  उससे लोगों में उत्साह होता है.  उत्साहित लोगों को अध्ययन में लगाना चाहिए.  व्यक्तिवाद के आधार पर ही आप लोगों को अध्ययन में नहीं लगाओगे.  जीवचेतना से व्यक्तिवाद आया ही है. 

प्रश्न:  यह व्यक्तिवाद कैसे हुआ?

उत्तर: जीवन विद्या को आप अपने अधिकार से प्रबोधित किये.  इसके स्त्रोत की ओर आपने ध्यान नहीं दिलाया, मतलब आप स्वयं इसके आचार्य हुए.  यह व्यक्तिवाद हुआ या नहीं?

प्रश्न: होना क्या चाहिए?

उत्तर: स्त्रोत की ओर ध्यानाकर्षण.  स्त्रोत भाषा रूप में है - मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद, अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन.  "मानव केन्द्रित" मतलब मानव समझदार हो सकता है, मानव के समझदार होने की विधि है, और मानव के समझ को प्रमाणित करने की विधि है.

रहस्य मूलक ईश्वर केन्द्रित चिंतन का मतलब है - कोई मानव समझदार नहीं होगा.  अस्थिरता-अनिश्चयता मूलक वस्तु केन्द्रित चिंतन का मतलब - सकल अपराध हर व्यक्ति कर सकता है. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

मानव चेतना और जीव चेतना के बीच में एक संक्रमण रेखा है.


पहले जो दो वाद आये (आदर्शवाद और भौतिकवाद) - उनसे यदि कोई निष्कर्ष निकलता है तो निकाल लो.  यदि निष्कर्ष नहीं निकलता है तो विकल्प को समझो.  ईमानदारी से समझना होगा.  इसमें केवल पूछताछ करना पर्याप्त नहीं है.  समझना आवश्यक है.  (मानव चेतना पूर्वक) क्या समझते हैं, क्या सोचते हैं, क्या करते हैं और क्या जीते हैं -  इन चारों भागों में तद्रूप-तदाकार होने की अर्हता हर मानव में है. 

इस पूरी बात में किसी भी बात को हम condemn करते हैं, कि ये बात हमको suit नहीं करता - तो हम रुक जाते हैं.  जबकि मानव चेतना के इस प्रस्ताव की कोई भी बात जीव चेतना से suit नहीं करता.  ऐसा कोई भी मुद्दा नहीं है जहाँ जीव चेतना से राजी करता हो मानव चेतना.  मानव चेतना और जीव चेतना के बीच में एक संक्रमण रेखा है.  एक तरफ अपने-पराये की दीवारें हैं, दूसरे तरफ अपने-पराये की दीवारों से मुक्ति है.  अपना-पराया रहते तक न स्वतंत्रता है, न स्वराज्य है. अपना-पराया है तो स्वतंत्रता नहीं है.  घटना विधि से हम जैसे-तैसे परिस्थितियों का सामना करते रहते हैं. 

मैं समझा हूँ, सोचता हूँ, जीता हूँ, अनुभव किया हूँ - इन चारों विधाओं में मैं समाधानित हूँ.  इस अनुरूप जीने से अपना-पराया से मुक्ति होता है. 

प्रश्न:  आपके अनुरूप मैं कैसे जी सकता हूँ?

उत्तर:  आप समझ कर ऐसे जी सकते हैं.  मैं जो समझा हूँ वो समझाता हूँ.  मेरे पास समझाने का अधिकार है.  यदि हम समझे न होते तो कभी समझा नहीं सकते थे.  हम समझे होते हैं तो समझाते ही हैं.  समझना क्या है?  सहअस्तित्व को समझना है, जीवन को समझना है, मानवीयता पूर्ण आचरण को समझना है.  समझना है या नहीं समझना है - पहले इसी को निर्णय कर लिया जाए.  समझना है तो यह पूरा रास्ता ठीक है.  नहीं समझना है तो इसकी ज़रुरत ही नहीं है.  इसका नाम लेने की भी ज़रुरत नहीं है.  फिर तो जो मानवजाति अभी कर रहा है वही ठीक है. 

इसमें किसको क्या तकलीफ है?  इसको सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तर पर आप जाँच कर देख लीजिये.  इसमें कोई छेद आपको नहीं मिलेगा.  इसके स्वीकार होने या स्वीकार नहीं होने की बात है. 

प्रश्न:  मुझे यह स्वीकार क्यों नहीं होता?

उत्तर:  पहले से आप अपना कोई design बनाए हो, उसमे adjust होता है तो आपको यह स्वीकार होता है - नहीं तो नहीं स्वीकार होता.  जीव चेतना में अभी तक आप जो जीते रहे उसके साथ adjustment बैठाने का इसमें कोई सूत्र नहीं है.  अभी जो कर रहे हैं उसके बदले में ऐसे जीने का अधिकार है मानव में.  समस्या के स्थान पर समाधानित होने की व्यवस्था है.  विपन्नता के स्थान पर सम्पन्नता पूर्वक जीने की व्यवस्था है.  वितृष्णा के स्थान पर सच्चाई के प्रति जिज्ञासु होने की व्यवस्था है.  दासता और विवशता पूर्वक काम करने के स्थान पर स्वतंत्रता पूर्वक स्वयंस्फूर्त जीने की व्यवस्था है.  अभी के संसार में ९९.९% लोग व्यापार और नौकरी में व्यस्त हैं.  तो हमे ७०० करोड़ लोगों की अभी की स्वीकृति के "विकल्प" की बात करनी है. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

minimum beautiful model

सहअस्तित्व ही परम सत्य है.  सहअस्तित्व विधि से सर्वमानव का एक मानसिकता में जीना बन जाता है.  भ्रम में जीते हुए एक मानसिकता हो नहीं सकता.  मानसिकताओं में टकराव बना ही रहता है.  जैसे - व्यापार में दो संस्थाओं का, दो व्यापारियों का एक मन नहीं होता, उनकी नीतियां अलग अलग होती हैं.  इसको आप लोग दावे के साथ सत्यापित कर सकते हो. 

मैं जो दावा करता हूँ - पहला, सहअस्तित्व को देखे होने का दावा करता हूँ.  दूसरा, सहअस्तित्व में जीने का दावा करता हूँ.  तीसरा, सहअस्तित्व में जीने के आधार पर व्यवस्था में जीने का दावा करता हूँ.  ये तीन दावा है मेरे पास!  सहअस्तित्व में जीने में समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी तीनो समाहित हैं.  इन तीनों का निर्वाह मैं करता ही हूँ.  अभी इतने लोग मेरे संपर्क में आये पर एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने जवाब नहीं दिया हो.  उनका तृप्त होना या नहीं होना अलग चीज़ है.  एक समय तक आप अतृप्त रहेंगे, फिर तृप्त होंगे - यह हो सकता है.  किन्तु मैंने जवाब नहीं दिया - यह नहीं हुआ. 

मैंने अपने आप को minimum beautiful model के स्वरूप में प्रस्तुत किया है.  इससे आगे और अच्छा करने की संभावना रखी ही है!  यदि समझें तो!  इसका आधार है - मुझसे जो आपने सुना उसके अर्थ में जाने का अधिकार आपही के पास है.  मैं जैसा समझा हूँ उसको सूचना के रूप में आपको प्रस्तुत कर सकता हूँ.  भाषा में इससे ज्यादा नहीं हो सकता.  मैं जो समझा हूँ, सोचता हूँ, करता हूँ, और जीता हूँ - इन चार बातों का भाषाकरण है.  उसमें से जो मैं करता हूँ - वह आपको पहले पकड़ में आता है.  मैं जो जीता हूँ, उसको पकड़ने के लिए आपको ज्यादा जोर मन पड़ता है.  मैं जो सोचता हूँ, उसको पकड़ने के लिए उससे ज्यादा मन लगाना पड़ता है.  जो मैं समझता हूँ, उससे भी ज्यादा.  ये चार स्तर हैं मन लगाने के.  अध्ययन में मन लगाना पड़ता है.  यही ध्यान है.  अध्ययन में मन लगाने का प्रमाण है - ये चारों बात समझ में आना. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

परिवार का महत्त्व

प्रश्न: कृपया परिवार के महत्त्व को समझाइये.

उत्तर: परिवार संबंधों में जीने का स्वरूप है.  संबंधों के नाम आपको विदित हैं.  इन संबंधों का प्रयोजन समझ में आता है तो उनका निर्वाह होता है.  संबंधों का प्रयोजन समझ नहीं आता है तो हम सम्बन्धियों को अपनी सुविधा के लिए उपयोग करते हैं.  एक छत के नीचे दस व्यक्तियों का "होना" तो बन जाता है, "जीना" नहीं बन पाता.  सब अपने-अपने तरीके से जीते रहते हैं.

मानव के व्यवस्था में जीने का पहला सोपान परिवार है.  परिवार में साथ जीने के लिए आचरण में एकरूपता आवश्यक है.  आचरण ही नियम है.

हर वस्तु में आचरण ही नियम है.  आदर्शवाद और भौतिकवाद ने मानव के आचरण को नियम नहीं माना.  मानव को पहले अपने आचरण को पहचानने की आवश्यकता है.  आचरण को पहचानने के बाद मूल्य, चरित्र, नैतिकता व्याख्यायित होता है.  इन तीनों को लेकर यदि हम परिवार में सफल  हो जाते हैं तो परिवार के संबंधों में फिर कोई मतभेद नहीं रहता.  यदि सभी परिवारजन मानवीयता पूर्ण आचरण में जीते हैं और समाधान से वैभवित हो जाते हैं तो परिवार में कोई समस्या नहीं रहती.  समाधान के बिना समस्या जाता नहीं है.  हर मुद्दे पर समाधान चाहिए!

शरीर यात्रा पर्यंत भौतिक समृद्धि एक समाधान है.  शरीर यात्रा में भौतिक वस्तुएं किसलिए हैं?  - शरीर पोषण, संरक्षण और समाज गति के लिए.  इस तरह सूत्र ने चारों तरफ अपना पैर जमा लिया.   समाज गति है -  व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी.  परिवार में पहले व्यवस्था है.  मानव लक्ष्य का आधा भाग वहीं प्रमाणित हो गया.  मानव लक्ष्य चार हैं - समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व प्रमाणित होना.

समाधान परिवार में ही है.  परिवार में हर व्यक्ति का समाधानित होना आवश्यक है.  यह शिक्षा विधि से होगा.  जैसे - आप यदि शिक्षित हैं तो आप जो मुखरित होते हैं वह शिक्षा ही है.  आप यदि भ्रमित हैं तो आप जो मुखरित होते हैं वह भ्रम ही है.  हर मानव का हैसियत इतना ही है.  जन्मने से पहले और मरने के बाद क्या होता है - इसमें पड़ने की आवश्यकता नहीं है.  मानव की हैसियत के स्वरूप को समझने और प्रमाणित करने की आवश्यकता है.  वह है - समाधान समृद्धि पूर्वक परिवार में जीना.  हर नर-नारी को समाधानित होने का समान अधिकार है.  यह पहला मानवाधिकार है. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Monday, November 5, 2018

सहअस्तित्व विधि से सर्वमानव एक मानसिकता में जी सकता है



- श्रद्धेय श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Saturday, November 3, 2018

मानव चेतना में परिवर्तित होना संभव है



मानव चेतना में परिवर्तित होना संभव है - आचरण विधि से, संविधान विधि से, अध्ययन विधि से, और व्यवस्था विधि से.  मूल वस्तु इसमें अध्ययन है.  अध्ययन विधि से मानव चेतना में परिवर्तित हुए और मानवीयता पूर्ण आचरण में पक्का हो गए.  मानवीयता पूर्ण आचरण में मूल्य, चरित्र, नैतिकता तीनो आ गयी.  अब उसका कहीं भी आक्षेप नहीं हो सकता.  इससे इसके multiply होने की सम्भावना आ गयी.  आक्षेप विहीन आचरण यदि हो तो वह multiply होगा या नहीं?  जैसे एक वृक्ष से अनेक बीज हो कर अनेक वृक्ष हो जाते हैं, वैसे ही मानवीयता का multiply होना ही मानव का बीज है.

इसमें सिद्धांत है - "त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी".  इसी सिद्धांत में हमको पार पड़ना होगा.  इसकी अनदेखी करेंगे तो हम फंसे ही रहेंगे.

मैं एक बार एक बड़े अधिकारी से मिला था उन्होंने कहा - "हम अभी जैसे रहते हैं वैसे रहते रहे और हम मानव चेतना में परिवर्तित हो जाएँ, ऐसा आप कुछ बात बताइये".  यह कैसे हो सकता है भला!  आप कुछ भी अनाचार-व्यभिचार करते रहे और साथ में सुधर भी जाएँ - यह हो नहीं सकता.  अपने द्वारा होने वाले अतिवाद का आंकलन करना आवश्यक है.  सुविधा-संग्रह एक अतिवाद है.  भक्ति-विरक्ति एक अतिवाद है.  इन दोनों अतिवादों ने मानव को बर्बाद किया.

प्रश्न: भक्ति-विरक्ति ने लोगों को कैसे बर्बाद किया?

उत्तर:  भक्ति-विरक्ति में वे ही लोग गए जो अपने आप को बहुत अच्छा मानते रहे.  ऐसे लोगों को अन्य लोग भी विद्वान मानते रहे, सम्मान देते रहे.  ये लोग अपने पत्नी-बच्चों को छोड़ कर सन्यासी हो गए, जिससे उनका परिवार क्षति-ग्रस्त हो गया.  इस ढंग से भक्ति-विरक्ति से लोग बर्बाद हुए.

अभी सुविधा-संग्रह के दरवाजे पर ज्ञानी-विज्ञानी-अज्ञानी तीनो भिखारी बने खड़े हैं.  इनमे से ज्ञानी और विज्ञानी ज्यादा चालाक होते होंगे, अज्ञानी कम चालाक होते होंगे.  लेकिन तीनो समान रूप से दरिद्र हैं.  दरिद्रता से मुक्ति पाने की सम्भावना तीनो में समान है.  लेकिन इस दरिद्रता से मुक्ति पाने के लिए ज्ञानी और विज्ञानी को अज्ञानी की तुलना में ज्यादा परिश्रम करना पड़ेगा, क्योंकि उनकी मानसिकता में ज्यादा कचड़ा है.  मैं इस प्रस्ताव को लेकर ज्ञानी कहलाने वालों के पास भी गया हूँ, विज्ञानी कहलाने वालों के पास भी गया हूँ, अज्ञानी कहलाने वालों के पास भी गया हूँ.  इनमें से मैंने पाया विज्ञान background वाले लोगों को यह प्रस्ताव तत्काल स्वीकार होता है.  इसका कारण है - ज्ञानियों ने तर्क को नकारा.  जबकि विज्ञान ने तर्क को खूब अपनाया और अपने अध्ययन को systematic माना.  विज्ञान ने यंत्र को प्रमाणीकरण का आधार मानते हुए जो यंत्र के पकड़ में आता है उसको object (अध्ययन की वस्तु) कहा, और जो यंत्र के पकड़ में नहीं आता है उसको object नहीं माना.  (इस तरह विज्ञान विधि से मानव का अध्ययन छूट गया)  अब इस प्रस्ताव में तर्क के साथ systematic अध्ययन भी है और स्वयं को एक object के रूप में पहचानने की बात भी है. (इसलिए यह विज्ञानियों को जल्दी रंगता है)

यहाँ मूल बात है - अपना भरोसा सुविधा-संग्रह से समाधान-समृद्धि में shift होना.  यह मुख्य बात है.  यह जिसका shift हो गया, वो पार पा गया.  जिसका shift नहीं हुआ, वह प्रयास कर रहा है!

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Friday, November 2, 2018

आगे की पीढ़ी आगे



आप लोगों की पुण्यशीलता आपके लिए काम कर गया!  पुण्यशीलता का मतलब है - सच्चाई के स्वीकृति के लिए आतुरता.  सच्चाई की स्वीकृति के लिए मैं जितना आतुर-कातुर था, आप लोग उससे आगे हैं.  आतुरता की गति आप में मुझसे आगे है.  आपके आगे आने वाली पीढी में इससे ज्यादा गति होगा.

प्रश्न: लेकिन आपके जैसी ईमानदारी हमको पाना दूर जैसे लगता है...

उत्तर: सच्चाई को पाना अभी आसान इसलिए नहीं है क्योंकि दस जगह में आपकी उंगलियाँ फंसी हैं.  (जैसे जैसे परंपरा बनती है) आगे पीढ़ी में उंगलियाँ कम फंसा होता जाएगा.  मैं ऐसा सोच के चल रहा हूँ.  यह गलत नहीं है.  अभी भी आप देख सकते हैं - वृद्ध पीढी में सबसे कम, प्रौढ़ पीढी में उससे अधिक, और युवा पीढी में सबसे अधिक इस बात को अपनाने के लिए तैयारी दिखती है.

श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)