प्रश्न: मेरी जिज्ञासा ठीक है या नहीं – इसका मैं कैसे निर्णय कर सकता हूँ?उत्तर: अनुभव-शील व्यक्ति ही इसको बताएगा। अनुभव मूलक विधि से जीने वाला व्यक्ति सामने व्यक्ति की जिज्ञासा को समझ सकता है। जिज्ञासु को जब समझ में आता है, तभी उसको पता चलता है कि उसको अनुभव-संपन्न व्यक्ति ने उसे समझा दिया! एक दूसरे के लिए पूरक होने का विधि इस तरह बन गया या नहीं? यही एक छोटी सी दीवार है, जिसको फांदने की जरूरत है।
मानव में सुख की निरंतरता की चाहत समाई हुई है। “ सत्य” नाम तो सब जानते हैं, बच्चे भी जानते हैं। “ सत्य में सुख की निरंतरता है” – इस परिकल्पना के आधार पर जिज्ञासा है। “ सत्य” शब्द के आधार पर सभी सत्य को चाहते हैं। हर बच्चा जन्म से ही न्याय का याचक होता है, सही कार्य-व्यवहार करना चाहता है, और सत्य-वक्ता होता है। सत्य बोध कराना शिक्षा का काम है, सही कार्य-व्यवहार सिखाना शिक्षा का काम है, और न्याय-प्रदायी क्षमता को स्थापित करना शिक्षा का काम है। जबकि आज की शिक्षा में पढ़ाते है कि “बच्चे जन्म से ही कामुक होते हैं”। यही कामोंमादी मनोविज्ञान है। कामोन्माद के साथ भोगोन्माद और लाभोन्माद जुड़ा ही है। मानव की चाहत और आज की शिक्षा के बीच में परस्पर-विरोध होगा या नहीं?
सत्य को समझना है या नहीं समझना है? – यह पहली बात है। सत्य को समझने के लिए वरीयता है या नहीं? – यह दूसरी बात है। सत्य को समझने के लिए जिज्ञासा है या नहीं? – यह तीसरी बात है। इन तीन बातों को आप अपने में आजमा सकते हैं। सत्य को समझने के लिए वरीयता है तो जिज्ञासा है, सत्य को समझने के लिए वरीयता नहीं है तो जिज्ञासा नहीं है – केवल शब्द के आधार पर बात-चीत है।
बात-चीत तो शब्दों में ही होती है। फिर भी बात-चीत तीन स्तर पर हो सकती है। पहले - शब्द के आधार पर बात-चीत होना। दूसरे – शब्द से इंगित अर्थ के आधार पर समझने के लिए बात-चीत होना। तीसरे – समझ के आधार पर अपना स्वत्व बना कर जीने के लिए बात-चीत होना, या अनुभव के आधार पर बात-चीत होना। इन तीनो में अंतर है या नहीं? अनुभव के आधार पर ही “सत्संग” पूरा होता है। शब्द के आधार पर सत्संग मानव आदि-काल से करता रहा है। शब्द के अर्थ तक मानव अभी तक गया नहीं है। शब्द के अर्थ तक जाना है, फिर अनुभव के आधार पर जीना है।
जिज्ञासा दो बातों के लिए है – पहला, अनुभूत होने के लिए कैसे मैं समझ जाऊँगा? दूसरे, समझने के बाद प्रमाणित कैसे करूँगा? अनुभव के बाद प्रमाणित करना स्वाभाविक होता ही है।
अनुभव के लिए अध्ययन ही अभ्यास है। सुख की निरंतरता के लिए प्रयास ही मानव की स्वभाव-गति है। इस तरह अनुभव से पहले अध्ययन ही स्वभाव गति है।
वस्तु को समझने के लिए कल्पनाशीलता आगे निकल जाता है, तर्क पीछे छूट जाता है। वस्तु को समझने के बाद तर्क कहाँ रहा? वस्तु को समझने के बाद अनुभव ही है, फिर हमको अनुभव हुआ है इसके प्रमाण पूर्वक प्रस्तुत होना शुरू होता है। “ हम ठीक न हों, और दूसरे सब ठीक हो जाएँ” – वर्तमान में राज्य को, धर्म को, शिक्षा को देखने पर ऐसा ही लगता है। राज्य-गद्दी, धर्म-गद्दी, और शिक्षा-गद्दी में बैठे लोग अपने को सही मानते हैं, वे स्वयं सुधरना नहीं चाहते हैं। व्यापार-गद्दी में बैठे लोग अपने आप को इन सभी का संरक्षक मानते हैं – वे तो अपने को सबसे सही मानते हैं।
अनुभव के बिना समझ में आया नहीं। अनुभव के बिना हम कितने भी डिजाईन बना लें – वह दूसरों के लिए ही है, हमारे अपने जीने के लिए नहीं है। अनुभव विधि में पहले स्वयं समझना है, फिर हमको अनुभव हुआ है इसके प्रमाण में दूसरे को समझाना है।
जिज्ञासा की तृप्ति के लिए अध्ययन है। समझा हुआ व्यक्ति ही अध्ययन कराएगा। किताब अध्ययन कराएगा नहीं। यंत्र अध्ययन कराएगा नहीं। इन दो विधियों से आदमी अभी तक चला है। जबकि यंत्र कभी किसी को समझाता नहीं है। किताब कभी किसी को समझाता नहीं है। मानव जो जिज्ञासा करता है, उसके लिए सारी बात को एक स्थान पर संजो कर प्रस्तुत करने का काम न किताब कर सकती है, न यंत्र कर सकता है। कोई एक बात को समझाने के लिए २०० सन्दर्भों के साथ प्रस्तुत होने की बात समझा हुआ आदमी ही कर सकता है, यंत्र नहीं कर सकता। विद्यार्थी द्वारा जिज्ञासा को व्यक्त करना और अध्यापक द्वारा जिज्ञासा का उत्तर देना – इन दोनों के संयोग में अध्ययन है। इसी लिए ‘अनुभव-मूलक विधि से समझाना’ और ‘अनुभव-गामी विधि से समझना’ इसको शिक्षा के लिए तैयार किया। इस तरह से हम शुरू किया हैं। ऐसे शुरू करके हम कहाँ तक पहुँचते हैं, इसको हम देखेंगे। वर्तमान-शिक्षा में तो ऐसा प्रावधान नहीं है।
प्रश्न: आपकी बात से लगता है अध्ययन की जिम्मेदारी विद्यार्थी की कम और अध्यापक की ज्यादा है?अध्ययन की जिम्मेदारी अध्ययन करने वाले और अध्ययन कराने वाले दोनों पक्षों की है। अध्ययन करने की इच्छा भी ज़रूरी है। अध्ययन कराने की ताकत भी ज़रूरी है। इन दोनों के योगफल में अध्ययन है। कल्पनाशीलता के आधार पर जिज्ञासा है। जिज्ञासा ही पात्रता है। जिज्ञासा की प्राथमिकता के आधार पर ही ग्रहण होता है। जिज्ञासा की प्राथमिकता है या नहीं – इसको सटीक पहचानना अध्यापक का काम है। प्राथमिकता को स्वीकारना और उसके लिए प्रयास करना विद्यार्थी का काम है।
पाँच वर्ष की आयु तक बच्चों में अपने अभिभावकों के प्रति अपनी जिज्ञासा पूरी होने के प्रति पूरा विश्वास रहता है। लेकिन उनकी जिज्ञासा अभिभावकों के न पहचान पाने से और उनके द्वारा उसे पूरा न कर पाने की स्थिति में बच्चों का विश्वास घटता जाता है। धीरे-धीरे वह घटते-घटते शून्य हो जाता है। एक आयु के बाद बच्चे दूर हो जाते हैं।
"सुख की निरंतरता" मानव का प्रयोजन है। संवेदनाओं में सुख भासता है, पर सुख की निरंतरता बन नहीं पाती। "सत्य में सुख की निरंतरता है" - इस परिकल्पना के साथ जिज्ञासा है। निरंतर सुख संवेदनाओं में नहीं होता है, समाधान से ही निरंतर सुख होता है। यह अनुसंधान पूर्वक मैंने पता लगाया, अब समाधान के लिए सभी का रास्ता बना दिया।
- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०११, अमरकंटक)