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Tuesday, May 3, 2011

अनुभव और प्रमाण

प्रमाण के बिना अनुभव का कोई प्रयोजन नहीं है। यदि हम कहते हैं, हमको अनुभव हो गया पर उसका प्रमाण नहीं है – तो उसका कोई प्रयोजन नहीं है। अनुभव होता है, तो प्रमाण होता ही है। प्रमाण नहीं होता, तो अनुभव होता ही नहीं है। अनुभव होने में ही गलती हो गयी है, तभी प्रमाण नहीं हुआ। अनुभव ही एक ऐसी बात है जिसको झाड पर चढ कर चिल्ला सकते हैं, बहुत दूर-दूर तक हम चोंगा-पोंगा लगा करके बात कर सकते हैं, उसका कोई भय नहीं होता। अभी तक की सारी परंपराओं के विपरीत मैं बात कर रहा हूँ – फिर भी मैं कहाँ भयभीत हूँ? जो अनुभव होता है, उससे अधिक की संभावनाएं बने रहते हैं। क्योंकि मानव में पायी जाने वाली कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता अनुभव से जुड़ती है। अनुभव मूलक विधि से न्याय पूर्वक जीना बनता है। न्याय-पूर्वक जीना बनता है तो समाधान (धर्म) पूर्वक जीना बनता है। न्याय और धर्म पूर्वक जीना बनता है तो सत्य पूर्वक जीना बनता है। दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है। ७०० करोड आदमी मिल कर दूसरा कोई रास्ता या विधि को बना ही नहीं पायेंगे।

- बाबा श्री ए नागराज के जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २०१० में उदबोधन पर आधारित

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