७०० करोड मानवों के सभी प्रश्नों के लिए एक ही चाबी है। समझना है और प्रमाणित करना है – तो सभी प्रश्न ही समाप्त हैं। समझना नहीं है, प्रमाणित नहीं करना है – तो प्रश्न ही प्रश्न हैं.
समझ में आते तक मानव द्वारा अध्ययन करना या अनुसंधान करना ही उसकी स्वभाव-गति है। समझ में आने पर (अनुभव होने पर) प्रमाणित करना ही मानव की स्वभाव-गति है।
समझना = शक्तियों का अंतर्नियोजन। प्रमाणित करना = शक्तियों का बहिर्गमन। समझने के लिए ध्यान देने का अर्थ है, कल्पनाशीलता को लगाना। परंपरागत ध्यान-विधियों से इसका कोई लेन-देन ही नहीं है। कल्पनाशीलता का सह-अस्तित्व वस्तु में (न कि “सह-अस्तित्व” शब्द में) तदाकार होना ही अध्ययन के लिए ध्यान देना है। सह-अस्तित्व वस्तु है – चारों अवस्थाएं “त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी” स्वरूप में होने से है। शब्द के अर्थ में तदाकार होना होता है. ध्यान देने का मतलब इतना ही है।
तदाकार होते हैं तो बोध होता है, बोध होता है तो अनुभव होता है। अनुभव होता है तो प्रमाण होता है।
सुनना, समझना, और प्रमाणित करना – यह क्रम है। बारम्बार उलझ जाते हैं, मतलब समझे नहीं हैं। समझे नहीं हैं, मतलब सुने नहीं हैं। प्रमाणित नहीं हुए हैं, मतलब समझे नहीं हैं. मूल में “सुख की निरंतरता” के लिए यह क्रम है। समाधान हुए बिना सुख की निरंतरता होता नहीं है. समाधान होने पर प्रमाण होता ही है।
प्रश्न: समझना पूरा होते तक विद्यार्थी के पास सच्चाई को “जांचने” का क्या आधार है?
समझना पूरा होते तक जिज्ञासा ही है. समझ पूरा होने के बाद ही जांचना होता है। विद्यार्थी की समझ पूरा होते तक गुरु ही जांचता है।
समझ पूरा होने के बाद शिष्य स्वयं अपने समझे होने का सत्यापन करता है। गुरु अपने शिष्य के समझदार होने का सत्यापन नहीं करता। कोई एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के समझदार होने का सत्यापन करे – यह जीव-चेतना की बात है. मेरे विद्वान होने का आप प्रमाण-पत्र लिख कर दें – यह जीव-चेतना है। यह सब मिला कर के सुविधा-संग्रह में ही समीक्षित होता है।
- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०११, अमरकंटक)
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