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Friday, October 14, 2011

आस्वादन और स्वागत

संवेदनशीलता पूर्वक मन में स्वागत क्रिया और आस्वादन क्रिया है। स्वागत क्रिया समझने के अर्थ में है, आस्वादन क्रिया प्रमाणित करने के अर्थ में है। स्वागत क्रिया को छोड़ कर हम आस्वादन क्रिया में ज्यादा रम जाते हैं। स्वागत क्रिया केंद्रीकृत होता है. आस्वादन क्रिया फैलता है। फैलने वाली क्रिया को हम स्वीकार लेते हैं, स्वागत क्रिया को हम छोड़ देते हैं – यही बुद्धिजीवियों का रोग है।



स्वागत क्रिया संवेदनशीलता को अनुभव-बिंदु तक ले जाता है, अनुभव को मूल्यांकन करने में ले जाता है। संवेदनशीलता के बिना संज्ञानशीलता (या बोध) होता ही नहीं है। संवेदनशीलता के बिना संज्ञानशीलता होता ही नहीं, किसी को नहीं होगा! इस धरती पर तो क्या, अनंत धरतियों पर किसी को नहीं होगा!

प्रश्न: मैं पहले सोचता था, संवेदनशीलता अपने में कोई “अच्छी” वस्तु नहीं है। लेकिन आप यहाँ कह रहे हैं, संवेदनशीलता के बिना बोध हो ही नहीं सकता!

जीवन जब मानव-शरीर को जीवंत बनाता है तो संवेदनशीलता प्रकट होती है। मानव में संवेदनशीलता “तृप्ति” के अर्थ में काम करता है। तृप्ति को शरीर में खोजता है तो वह मिलता नहीं है। शासन में खोजता है, तो भी तृप्ति मिलता नहीं है। शिक्षा में खोजता है, तो भी मिलता नहीं है। इन तीन जगह में तृप्ति नहीं मिल पाने के कारण मानव मान लेता है कि जीने में तृप्ति मिलता नहीं है। यदि जीने में तृप्ति नहीं मिलेगा तो कहाँ तृप्ति मिलेगा? संवेदनशीलता पूर्वक मन में स्वागत क्रिया है। स्वागत क्रिया संवेदनशीलता को संज्ञानशीलता (या बोध) तक ले जाता है। संज्ञानशीलता पूर्वक अनुभव-मूलक विधि से तृप्ति के साथ जीना बनता है। इस तरह जीने को विकसित-चेतना (मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना) कहा है।

इस तरह (अध्ययन विधि से) आशा, विचार, और इच्छा पूर्वक हम बोध तक पहुँच गए – संज्ञानीयता के लिए. संज्ञानीयता का ही बोध होता है, निरर्थकताएं चित्रण तक ही रह जाता है – जिनका बोध नहीं होता। इस तरह चित्रण, विचार और आशा के साथ प्रगटन में बोध नहीं है। अनुभव मूलक विधि से बोध होकर के प्रमाण रूप में जीने में प्रगट कर सकते हैं। प्रमाण जीने में ही है. मैंने जो कुछ वांग्मय के रूप में लिखा है, वह सब सूचना ही है। मेरा जीना ही प्रमाण है. अध्ययन, बोध, अनुभव, और प्रमाण – यह क्रम है।

- श्रद्धेय नागराज जी  के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

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