प्रश्न: यह जो आप-हमारे बीच में जो खाली स्थली है, यह “सत्ता” है – ऐसा मुझसे बोलना नहीं बन रहा है।
उत्तर: - पहले बोलना ही बनता है, फिर समझा हुआ को समझाना बनता है, फिर जिया हुआ को जीने के रूप में प्रमाणित करना बनता है। यही क्रम है। मैं भी इसी क्रम से गुजरा हूँ। इससे ज्यादा क्या सत्यापन होगा? इससे कम सत्यापन में काम चलेगा नहीं। ऐसी बात है यह!
प्रकृति जड़ ओर चैतन्य स्वरूप में है। जड़ है – भौतिक ओर रासायनिक क्रियाकलाप। चैतन्य है – जीवन। रासायनिक क्रियाकलाप हरियाली के रूप में तथा जीव-शरीरों ओर मानव-शरीरों के रूप में हमे प्राप्त है। इनको बनाने में मानव का कोई हाथ नहीं है। परमाणु में विकास हो कर गठन-पूर्णता के रूप में हर जीवन है। गठन-पूर्णता के फलन में हर जीवन “जीने की आशा” से संपन्न है। मानव-परंपरा में भी वैसा ही “जीने की आशा” से संपन्न जीवन है। उसके बाद है – विचार, इच्छा, संकल्प, और उसके बाद है – प्रमाण। अभी साढ़े-चार क्रिया में मानव आशा-विचार-इच्छा की सीमा में है। यह सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति सत्ता (व्यापक-वस्तु) में ही संपृक्त है। व्यापक-वस्तु जड़-प्रकृति में ऊर्जा है, जिससे जड़-प्रकृति (भौतिक-रासायनिक वस्तुओं में) में चुम्बकीय बल सम्पन्नता है। व्यापक वस्तु ही चैतन्य-प्रकृति में ज्ञान है. व्यापक वस्तु ही मानव-परंपरा में ज्ञान रूप में प्रकट है। ज्ञान ही मानव में ऊर्जा है. ज्ञान की ताकत पर ही मानव अपने वैभव को बनाए रख सकता है। इसको छोड़ कर मानव अपराध को विधि मान कर नाश के काम करेगा ही. संपृक्तता का मतलब यह है। यह बात समझ में आने से आगे की बात हो सकती है।
जड़-प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता वश क्रियाशीलता है। चैतन्य-प्रकृति (जीवन) का मानव-परंपरा में आशा से विचार, विचार से इच्छा, इच्छा से संकल्प, और संकल्प से प्रमाण तक पहुँचने की बात है। इस तरह साढ़े चार क्रिया से दस क्रिया तक पहुंचना हर मानव की जिम्मेदारी है। जब इच्छा हो तब पहुँच सकते हैं। उसी के लिए हमने मार्ग प्रशस्त कर दिया है। मैंने किसी चीज को निर्मित नहीं किया है। केवल “जो है” उसको स्पष्ट किया है। स्पष्ट होने पर हम अच्छी तरह से जी सकते हैं। स्पष्ट होने की परिपूर्णता ही “अनुभव” है। अनुभव पूर्वक हम अच्छी तरह से जी सकते हैं। अच्छी तरह जीने का स्वरूप है – समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व।
जिसको मैंने पता लगाया है, इसको समझने के लिए क्या हमको किसी आइंस्टीन को पढ़ना है? प्रचलित विज्ञान के साथ हम जिस जगह पहुँच गए हैं, कितनी विलक्षण बात है। ऊर्जा को हम समझे नहीं हैं, और “ऊर्जा” का नाम लेते हैं! ये विज्ञानी ऊर्जा को एक “प्रतिक्रिया” के रूप में ही पहचाने हैं। जैसे – एक लकड़ी का जलना। इसमें जलने को ऊर्जा माना। जबकि वास्तविकता है – एक जलाने वाली वस्तु थी, एक जलने वाली वस्तु थी, इसलिए जलने की घटना हुई। जलने को ऊर्जा माना। जलने से पहले जो लकड़ी और वायु थी – उसको ये जड़ (ऊर्जा-विहीन) मानते हैं। विज्ञानी वैभव को ऊर्जा-विहीन मानते हैं, नाश करने को ऊर्जा मानते हैं। इस तरह विज्ञान द्वारा ऊर्जा को प्रतिक्रिया मानना केवल ह्रास की ओर ले गया। आप इसको हर जगह में, जिसको applied science मानते हैं, जांच करके देखिये।
जिस स्वरूप में मैंने ऊर्जा को पहचाना, वह प्रभाव रूप में विकास-क्रम, विकास, जाग्रति-क्रम, जाग्रति को प्रगट कर चुका है। उस ऊर्जा को आइंस्टीन नहीं पहचाना। आप बताइये – क्या मैं ऐसा कहने योग्य हूँ या नहीं हूँ? ऊर्जा को इस तरह पहचाने बिना मानव अपनी पहचान कर नहीं सकता। यदि मानव अपनी पहचान कर नहीं सकता, तो जियेगा कैसे? ऐसे बिना पहचान के लकडबग्घा जैसे ही जियेगा, और उससे जो होना है वह हो जाएगा। मैंने अस्तित्व की स्थिरता और निश्चयता को जो स्पष्ट किया है, वह विज्ञानियों के सामने प्रकट नहीं है, ऐसी बात नहीं है। लेकिन जब उसी को वे देखे तो कैसे उसको अस्थिर-अनिश्चित मान लिए? उस सोच ने आदमी-जात को कहाँ पहुंचाया – सोच लो! यदि विज्ञान की सोच ही चाहिए, तो आप विज्ञान को ही अपनाओ। यदि नहीं तो विकल्प का अध्ययन करो।
प्रश्न: तो आप यथास्थिति को बताते हैं, आवश्यकता को बताते हैं, फिर हमारी इच्छा पर छोड़ देते हैं?
उत्तर: विकल्प को अपनाना स्वेच्छा से ही होगा। हम किसी को आग्रह करने वाले नहीं हैं। इच्छा हो तो अपनाओ, नहीं तो जो आप कर रहे हैं – वही ठीक है। उपदेश-विधि को मैंने अपनाया नहीं है। जबकि अनुसंधान से पहले मैं उपदेश-परंपरा से ही था।
संपृक्तता को समझना इस बात का आधार है। यदि संपृक्तता समझ आती है, तो आगे सभी कुछ समझ में आ जाता है।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)
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