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Tuesday, October 11, 2011

पठन से अध्ययन




पढ़ना आ जाने या लिखना आ जाने मात्र से हम विद्वान नहीं हुए। समझ में आने पर या पारंगत होने पर ही अध्ययन हुआ। समझ में आने पर ही प्रमाणित होने की बात हुई. प्रमाणित होने का मतलब है – अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सूत्र-व्याख्या में जी पाना। अध्ययन का मतलब है – शब्द के अर्थ में तदाकार-तद्रूप होना। आपके पास जो कल्पनाशीलता है, उसके साथ सह-अस्तित्व में तदाकार-तद्रूप हुआ जा सकता है। सह-अस्तित्व रहता ही है। सह-अस्तित्व न हो, ऐसा कोई क्षण नहीं है। कल्पनाशीलता न हो, ऐसा कोई मानव होता नहीं है। हर जीते हुए मानव में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है। अब तदाकार-तद्रूप होने में आप कहाँ अटके हैं, उसको पहचानने की आवश्यकता है।

आवश्यकता महसूस होता है तो तदाकार होता ही है, तद्रूप होता ही है। जब अनुसंधान विधि से तदाकार-तद्रूप होता है, तो अध्ययन-विधि से क्यों नहीं होगा भाई? तदाकार-तद्रूप विधि से ही तो मैं भी इसको पाया हूँ। आप किताब से या शब्द से प्रकृति में तदाकार-तद्रूप होने तक जाओगे। किताब केवल सूचना है। किताब में लिखे शब्द से इंगित अर्थ के साथ तदाकार-तद्रूप होने पर समझ में आता है।

जब समाधान, नियम, नियंत्रण, स्व-धन, स्व-नारी-स्व-पुरुष, दया-पूर्ण कार्य-व्यवहार एक “आवश्यकता” के रूप में स्वीकार होता है, तभी तदाकार-तद्रूप होता है, अनुभव होता है। अन्यथा नहीं होता है। किसी की आवश्यकता बने बिना उसे समझाने के लिए जो हम प्रयास करते हैं, वह उपदेश ही होता है, सूचना तक ही पहुँचता है। अध्ययन से ही हर व्यक्ति पारंगत होता है। अध्ययन के बिना कोई पारंगत होता नहीं है। अनुभव मूलक विधि से ही हम प्रमाणित होते हैं। अनुभव के बिना हम प्रमाणित होते नहीं हैं। यह बात यदि समझ आता है तो अनुभव की आवश्यकता है या नहीं, आप देख लो! अनुभव की आवश्यकता आ गयी है तो अनुभव हो कर रहेगा। आवश्यकता के आधार पर ही हर व्यक्ति काम करता है। आपकी आवश्यकता बनने का कार्यक्रम आपमें स्वयं में ही होता है। दूसरा कोई आपकी आवश्यकता बना ही नहीं सकता. यही मुख्य बात है। हर व्यक्ति की जिम्मेदारी की बात वहीं है। अनुभव हर व्यक्ति की आवश्यकता है, ऐसा मान कर ही इस प्रस्ताव को प्रस्तुत किया है। अनुभव को व्यक्ति ही प्रमाणित करेगा. जानवर तो करेगा नहीं, पेड़-पौधे तो करेंगे नहीं, पत्थर तो करेंगे नहीं...

सभी जीव वंश विधि से काम करते हैं। मानव ज्ञान-अवस्था का होते हुए अभी न पूरा जीवों जैसा जीता है, न पूरा मानव जैसा जीता है। इस तरह मानव अभी न इधर का है, न उधर का! ऐसा अनिश्चित जीने से धरती ही बीमार हो गयी।



प्रश्न: मानव ऐसा “न इधर का, न उधर का” क्यों हो गया?

उत्तर: उसका कारण है – जीवों में जो “आवश्यकता” है, उससे मानव का संतुष्ट होना बना नहीं। और मानव-चेतना से संतुष्ट होने की जगह में मानव आया नहीं। मानव-चेतना की “आवश्यकता” को महसूस करने पर ही मानव अनुभव करेगा और मानव-चेतना को अपनाएगा। हर व्यक्ति में इस आवश्यकता बनने के लिए उसे अध्ययन रुपी पुरुषार्थ करना होगा। पूरा समझ में आना और प्रमाणित होना ही परमार्थ है, वही समाधान है। फिर पुरुषार्थ के साथ समृद्धि होता ही है. समाधान-समृद्धि होने पर अभय होता ही है। समाधान-समृद्धि और अभय होने पर सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाणित होता है। ऐसा व्यवस्था बना हुआ है।

प्रश्न: इसमें दिक्कत फिर कहाँ है?

उत्तर: दिक्कत है, हम दूसरों को ठीक करने में अपने को ज्यादा लगा देते हैं। स्वयं ठीक होने के लिए हम लगते नहीं हैं। दूसरे – पठन से हम अपने को विद्वान मान लेते हैं, वह गलत है। जीने से ही हम विद्वान हैं। वह आने पर हो जाता है. इसमें आप मुझे ही जाँचिये. मैं पढ़ने-लिखने में विद्वान नहीं हूँ, फिर मैं इसे कैसे पा गया? शब्द का अर्थ समझ में आने पर मेरा “जीना” बन गया, उसी को हम प्रमाण कह रहे हैं। प्रमाण के रूप में मैं आपके सामने उपलब्ध हूँ. अनुसन्धान विधि से चलते हुए, मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं था। आपके साथ सूचना भी है, प्रमाण रूप में व्यक्ति भी है।

प्रश्न: तो आप कह रहे हैं, हमारी अनुभव-प्रमाण की आवश्यकता नहीं बन पा रही है, इसलिए हमे अनुभव नहीं हो रहा है?

उत्तर: - आवश्यकता अनुभव करने की और प्रमाणित होने की नहीं बना है। दूसरों को बताने की आवश्यकता बना है। दूसरों को बताने योग्य आप हो भी गए हैं। श्रवण के आधार पर गति होना पर्याप्त नहीं है। समझ के आधार पर गति होना ही पर्याप्त होता है। समझ के आधार पर गति होना अनुभव के साथ ही होता है, प्रमाण के साथ ही होता है। अनुभव के लिए तदाकार-तद्रूप होने के लिए वस्तु कल्पनाशीलता के रूप में हर व्यक्ति के पास रखा है। कल्पनाशीलता रुपी इस व्यक्तिगत स्त्रोत को नकारा भी कैसे जाए? कल्पनाशीलता का स्त्रोत जीवन है. जीवन का अध्ययन नहीं हुआ है। शरीर को जब तक जीवन मानते रहते हैं तब तक अनुभव होना नहीं है। जीवन को जीवन माना, जीवन में अनुभव होने की सम्भावना को समझा, उसके बाद अपनी उपयोगिता को जोड़ दिया तो अनुभव होता है। हमारा उपयोग अनुभव-मूलक विधि से ही है. अनुभव एक बिंदु है. प्रमाण एक सिंधु है।


 

भाषा में हम बहुत विद्वान हो जाते हैं, अनुभव को लेकर हम वहीं के वहीं बने रहते हैं। इसी रिक्तता को भरने की आवश्यकता है। प्रमाण अनुभव से ही होता है. सूचना से प्रमाण होता नहीं है। सूचना सूचना ही है। भाषा से हम सूचना तक पहुँच पाते हैं। सूचना को प्रमाण में उतारना हर व्यक्ति का जिम्मेदारी है।

सुनाना हमारा स्वत्व नहीं है। सुनाना दूसरों के लिए ही होता है. जीना हमारा स्वत्व है। यही जिम्मेदारी की बात है। इसको पहचान लेना एक पुण्य की बात है। अच्छी बुद्धि के बिना यह पहचान में नहीं आता है।

व्यक्त होने के लिए आपने प्रयत्न किया तो स्वत्व बनाने के लिए आवश्यकता बनी। स्वत्व बनाने की आवश्यकता बनी तो उसमे सफल हो जायेंगे।

इसका सार बात है – “अनुभव स्वत्व है. बताना हमारा वैभव है।” वैभव के बारे में हम जल्दी चले जाते हैं, स्वत्व के बारे में उपेक्षा रहता है।

स्वयं में मानव-चेतना की आवश्यकता स्वीकार होना, तदाकार-तद्रूप होना, स्वयं की उपयोगिता सिद्ध होना, फिर उपकार विधि से पूरक होना – ये एक से एक लगी कड़ियाँ हैं। पूरकता विधि से ही परंपरा है। बिना परंपरा के कोई प्रमाण नहीं है। परंपरा के बिना तो केवल “घटना” है। “ घटना” के रूप में एक व्यक्ति को अनुभव हो गया, वह चला गया – उसका कोई मतलब नहीं है।


 - श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

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