अभी हमारे इतने दिनों के सम्बन्ध में और संभाषण में जो आपको बोध होना था वह हुआ कि नहीं हुआ?
-> मुझसे यह कहना नहीं बन पा रहा है, कि मुझे “बोध” हो गया है।
समझदारी को लेकर भी जो कहा जाता है, उसका भी कोई शब्द होगा ही। समझदारी को व्यक्त करने के लिए भी भाषा होगी। उस भाषा के अर्थ में अस्तित्व में वस्तु होगी। वस्तु के साथ तदाकार होना स्वाभाविक है। वस्तु-ज्ञान होना ही बोध होना है. यदि बोध होता है तो अनुभव होता ही है। उसके लिए अपने को अलग से प्रयत्न नहीं करना है। तदाकार होता है तो तद्रूप होता ही है। तदाकार और तद्रूप दोनों एक साथ हैं। मनुष्य के पास तदाकार-तद्रूप होने के लिए है कल्पनाशीलता। अध्ययन संज्ञानशीलता के लिए है। संज्ञानशीलता हुआ का मतलब बोध हो गया। बोध होने के बाद पारंगत होने की बात आयी। पारंगत होने के बाद प्रमाणित होने की बात आयी। यह आपको बोध होता है कि नहीं? यही संवाद का अंतिम बात है। इस तरह विस्तार से हम एक बिंदु तक पहुँचते हैं। अनुभव वह बिंदु है। उस बिंदु का प्रकाशन फैलता चला जाता है। फ़ैलाने में हमारी प्रवृत्ति ज्यादा है, बिंदु तक पहुँचने में हमारी प्रवृत्ति कम है। यही अनुभव की कमी है।
-> फैलाने की हमारी जो प्रवृत्ति है, क्या उसको हमे निषेध करने की आवश्यकता है?
उसके लिए आपको बताया, सच्चाई का भी भाषा होता है। सच्चाई का भाषा अलग होता है। वह भाषा कम है। व्यर्थता की भाषा ज्यादा है, सार्थकता की भाषा कम है। सार्थकता की भाषा के अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है – यथार्थता, वास्तविकता, और सत्यता के रूप में। उस वस्तु के साथ हम तदाकार होते हैं तो हम तद्रूप हो जाते हैं। शब्द के अर्थ को छोड़ करके शब्द को लेकर चल देते हैं, इसी में समय लगता है। आपमें समझने (अनुभव बिंदु तक पहुँचने) और प्रमाणित करने (फैलाने) दोनों की प्रवृत्ति बनी है। इनमे से प्रमाणित करने की प्रवृत्ति ज्यादा है. यही रुकावट है। स्वत्व रूप में प्रमाणित करने की इच्छा को बलवती बनाना है। अनुभव के पहले बताने जाते हैं तो वह अनुभव की आवश्यकता के लिए आप में पीड़ा पैदा करता है। वह तो आप में हो ही रहा है. अनुभव के लिए पीड़ा पैदा होती है तो अनुभव के लिए निष्ठा बनेगी। अभी जहां मानव खड़ा है, वह ज्यादा बताने के पक्ष में है, समझने के पक्ष में नहीं है। इसीलिये मैं कहता हूँ – सही बात को बताओ, उससे धीरे-धीरे उसको स्वत्व बनाने के लिए जिज्ञासा होगी। अभी आप-हम उसी जिज्ञासा के आधार पर बात कर रहे हैं. स्वत्व बनाने के लिए जिज्ञासा रुपी पीड़ा बढ़ जाती है, तो उसका निराकरण स्वाभाविक हो जाता है।
अनुभव मूलक विधि से चिंतन करने का अधिकार पाने के लिए आत्मसात करना पड़ता है। रिकॉर्डिंग सब सूचना है। मैंने जो कुछ वांग्मय के रूप में लिखा है, वह सब भी सूचना ही है। सूचनाओं को लेकर उसको प्रगट करने के काम में आप लोग पारंगत हैं। प्रमाणित मानव ही होता है। प्रमाणित होने के लिए आप आत्मसात करोगे या नहीं करोगे?
-> आत्मसात ही करना है!
मुख्य बात इतना ही है। जिस जिज्ञासा से आप लोग आये हैं, उसके लिए इतनी ही बात है। आत्मसात करना हर व्यक्ति का अधिकार है। एक व्यक्ति का अधिकार नहीं है। क्योंकि हर व्यक्ति जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है। जीवन के बिना कोई मानव होता ही नहीं है।
यह एक शिकायत मुक्त प्रस्ताव है। व्यक्तिवाद-समुदायवाद के स्थान पर मानववाद-सहअस्तित्व-वाद आ गया है। इस पर सोचा जाए। सोच कर के आप बताइये आपकी क्या जिज्ञासा बनती है, उसकी आपूर्ति होगी।
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)
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