सभी संसार – एक परमाणु-अंश से लेकर परमाणु तक, परमाणु से लेकर अणु रचित रचना तक, अणु रचित रचना से लेकर प्राण-कोषा से रचित रचना तक – का क्रियाकलाप स्वयं-स्फूर्त होता हुआ समझ में आया। स्वयं-स्फूर्त विधि से ही परमाणु का गठन-पूर्ण होना समझ में आया।
प्रश्न: परमाणु स्वयं-स्फूर्त विधि से कैसे रचना कर दिया और कैसे गठन-पूर्ण हो गया?
इसका उत्तर है – परमाणु ऊर्जा संपन्न है, जिसके क्रिया-रूप में वह स्वचालित है। परमाणु अपने में स्वचालित है, उसको कोई “बाहरी वस्तु” चलाता नहीं है। हर परमाणु-अंश स्व-चालित है, हर परमाणु स्व-चालित है। इसको देख लिया गया। स्व-चालित होने के आधार पर ही गठन-पूर्ण हुआ है, और रचनाएँ किया है। स्वयं-स्फूर्त होने के लिए मूल वस्तु है – ऊर्जा-सम्पन्नता। सत्ता से प्रकृति का वियोग होता ही नहीं है। इसी का नाम है – “नित्य वर्तमान” होना।
सत्ता न हो, ऐसा जगह मिलता नहीं है। पदार्थ न हो, ऐसा जगह मिलता है। पदार्थ का सत्ता से वियोग होता नहीं है, पदार्थ को सदा ऊर्जा प्राप्त है – इसलिए पदार्थ नित्य क्रियाशील है, काम करता ही रहता है। इस तरह सभी पदार्थ या जड़-चैतन्य प्रकृति का ‘त्व सहित व्यवस्था – समग्र व्यवस्था में भागीदारी’ पूर्वक रहने का विधि आ गई। पदार्थ की स्वयं-स्फूर्त क्रियाशीलता ही “सह-अस्तित्व में प्रकटन” है।
सत्ता को हमने “साम्य ऊर्जा” नाम दिया – क्योंकि यह साम्य रूप में जड़ और चैतन्य को प्राप्त है। जड़ को ऊर्जा रूप में प्राप्त है, चैतन्य को ज्ञान रूप में प्राप्त है। ज्ञान ही चेतना है, जो चार स्वरूप में है – जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। जीव-चेतना में जीने से जीवों में तो व्यवस्था होता है, लेकिन मानवों में व्यवस्था होता नहीं है। मानव के व्यवस्था में जीने के लिए कम से कम मानव-चेतना चाहिए। मानव-चेतना में परिपक्व होते हैं तो देव-चेतना में जी सकते हैं। देव-चेतना में परिपक्व होते हैं तो दिव्य-चेतना में जी सकते हैं।
साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता वश प्रकृति में सापेक्ष-ऊर्जा या कार्य-ऊर्जा है। सापेक्ष-ऊर्जा और कार्य-ऊर्जा एक ही है. कार्य से जो उत्पन्न हुआ वह कार्य-ऊर्जा है। अभी प्रचलित भौतिक-विज्ञान में जितना भी पढ़ाते हैं – वह कार्य-ऊर्जा ही है। साम्य-ऊर्जा को प्रचलित भौतिक-विज्ञान में पहचानते ही नहीं हैं।
सत्ता में भीगे रहने से या पारगामीयता से प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता है। सत्ता में डूबे रहने से प्रकृति में क्रियाशीलता है। सत्ता में घिरे रहने से प्रकृति में नियंत्रण है। इसको अच्छे से समझने के लिए अपने को लगाना ही पड़ता है। अपने को लगाए नहीं, यंत्र इसको समझ ले – ऐसा होता नहीं है। यंत्र को आदमी बनाता है।
अस्तित्व नित्य वर्तमान होने से, नित्य प्रगटनशील होने से ही मूल-ऊर्जा सम्पन्नता का होना पता चल गया। मूल ऊर्जा सम्पन्नता ही मूल-चेष्टा है. चेष्टा ही क्रियाशीलता है। क्रियाशीलता से ही सापेक्ष-ऊर्जा है। भौतिक-रासायनिक वस्तुओं की परस्परता में दबाव, तरंग, और प्रभाव के रूप में सापेक्ष-ऊर्जा को पहचाना जाता है। ताप, ध्वनि, और विद्युत भी सापेक्ष ऊर्जा है। कार्य-ऊर्जा पूर्वक ही इकाइयों का एक दूसरे को प्रभावित करना और एक दूसरे से प्रभावित होना सफल होता है। इस तरह प्रभावित होने और प्रभावित करने का प्रयोजन है – व्यवस्था में रहना। प्रभावित होने और करने के साथ परिणिति होने की भी बात है। यदि परणिति न होती तो चारों अवस्थाओं के प्रकट होने की बात ही नहीं थी।
कार्य-ऊर्जा की मानव गणना करता है. मूल-ऊर्जा (साम्य-ऊर्जा) की उस तरह गणना नहीं होती। मूल-ऊर्जा को हम समझने जाते हैं, तो पता चलता है – मूल-ऊर्जा सम्पन्नता चारों अवस्थाओं के रूप में प्रकट है। कार्य-ऊर्जा का स्वरूप हर अवस्था का अलग-अलग है। जैसे – जिस तरह जीव-जानवर कार्य करते हैं, और जिस तरह मानव कार्य करता है, इन दोनों में दूरी है। मानव जीवों से भिन्न जीने का प्रयास किया है, इस कारण से यह दूरी हो गयी। कार्य करने के स्वरूप को ही कार्य-ऊर्जा कहते हैं।
कार्य-ऊर्जा में ही आवेशित-गति और स्वभाव-गति की पहचान होती है। कारण-ऊर्जा या साम्य-ऊर्जा में आवेशित-गति होती ही नहीं है। आवेशित-गति अव्यवस्था कहलाता है। स्वभाव-गति व्यवस्था कहलाता है।
साम्य-ऊर्जा न बढ़ती है न घटती है। कार्य-ऊर्जा भी न बढ़ती है न घटती है। एक दूसरे पर दबाव और प्रभाव के बढ़ने और घटने की बात होती है। उसमे कोई मात्रात्मक परिवर्तन होता नहीं है। कम होना और बढ़ना मात्रात्मक परिवर्तन के साथ ही होता है। दबाव और प्रभाव में आवेशित गति और स्वभाव गति ही होती है। जैसे - एक तप्त इकाई है, दूसरी इकाई उसके समक्ष है – जो उसके ताप से प्रभावित है। ऐसे में, दोनो इकाइयां कार्य-ऊर्जा संपन्न हैं तभी वे एक दूसरे को पहचान पाती हैं। पहचान के फलस्वरूप दूसरी इकाई उसके ताप को अपने में पचाती है। अंततोगत्वा दोनों इकाइयां स्वभाव-गति में पहुँचती हैं।
- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०११, अमरकंटक)
प्रश्न: परमाणु स्वयं-स्फूर्त विधि से कैसे रचना कर दिया और कैसे गठन-पूर्ण हो गया?
इसका उत्तर है – परमाणु ऊर्जा संपन्न है, जिसके क्रिया-रूप में वह स्वचालित है। परमाणु अपने में स्वचालित है, उसको कोई “बाहरी वस्तु” चलाता नहीं है। हर परमाणु-अंश स्व-चालित है, हर परमाणु स्व-चालित है। इसको देख लिया गया। स्व-चालित होने के आधार पर ही गठन-पूर्ण हुआ है, और रचनाएँ किया है। स्वयं-स्फूर्त होने के लिए मूल वस्तु है – ऊर्जा-सम्पन्नता। सत्ता से प्रकृति का वियोग होता ही नहीं है। इसी का नाम है – “नित्य वर्तमान” होना।
सत्ता न हो, ऐसा जगह मिलता नहीं है। पदार्थ न हो, ऐसा जगह मिलता है। पदार्थ का सत्ता से वियोग होता नहीं है, पदार्थ को सदा ऊर्जा प्राप्त है – इसलिए पदार्थ नित्य क्रियाशील है, काम करता ही रहता है। इस तरह सभी पदार्थ या जड़-चैतन्य प्रकृति का ‘त्व सहित व्यवस्था – समग्र व्यवस्था में भागीदारी’ पूर्वक रहने का विधि आ गई। पदार्थ की स्वयं-स्फूर्त क्रियाशीलता ही “सह-अस्तित्व में प्रकटन” है।
सत्ता को हमने “साम्य ऊर्जा” नाम दिया – क्योंकि यह साम्य रूप में जड़ और चैतन्य को प्राप्त है। जड़ को ऊर्जा रूप में प्राप्त है, चैतन्य को ज्ञान रूप में प्राप्त है। ज्ञान ही चेतना है, जो चार स्वरूप में है – जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। जीव-चेतना में जीने से जीवों में तो व्यवस्था होता है, लेकिन मानवों में व्यवस्था होता नहीं है। मानव के व्यवस्था में जीने के लिए कम से कम मानव-चेतना चाहिए। मानव-चेतना में परिपक्व होते हैं तो देव-चेतना में जी सकते हैं। देव-चेतना में परिपक्व होते हैं तो दिव्य-चेतना में जी सकते हैं।
साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता वश प्रकृति में सापेक्ष-ऊर्जा या कार्य-ऊर्जा है। सापेक्ष-ऊर्जा और कार्य-ऊर्जा एक ही है. कार्य से जो उत्पन्न हुआ वह कार्य-ऊर्जा है। अभी प्रचलित भौतिक-विज्ञान में जितना भी पढ़ाते हैं – वह कार्य-ऊर्जा ही है। साम्य-ऊर्जा को प्रचलित भौतिक-विज्ञान में पहचानते ही नहीं हैं।
सत्ता में भीगे रहने से या पारगामीयता से प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता है। सत्ता में डूबे रहने से प्रकृति में क्रियाशीलता है। सत्ता में घिरे रहने से प्रकृति में नियंत्रण है। इसको अच्छे से समझने के लिए अपने को लगाना ही पड़ता है। अपने को लगाए नहीं, यंत्र इसको समझ ले – ऐसा होता नहीं है। यंत्र को आदमी बनाता है।
अस्तित्व नित्य वर्तमान होने से, नित्य प्रगटनशील होने से ही मूल-ऊर्जा सम्पन्नता का होना पता चल गया। मूल ऊर्जा सम्पन्नता ही मूल-चेष्टा है. चेष्टा ही क्रियाशीलता है। क्रियाशीलता से ही सापेक्ष-ऊर्जा है। भौतिक-रासायनिक वस्तुओं की परस्परता में दबाव, तरंग, और प्रभाव के रूप में सापेक्ष-ऊर्जा को पहचाना जाता है। ताप, ध्वनि, और विद्युत भी सापेक्ष ऊर्जा है। कार्य-ऊर्जा पूर्वक ही इकाइयों का एक दूसरे को प्रभावित करना और एक दूसरे से प्रभावित होना सफल होता है। इस तरह प्रभावित होने और प्रभावित करने का प्रयोजन है – व्यवस्था में रहना। प्रभावित होने और करने के साथ परिणिति होने की भी बात है। यदि परणिति न होती तो चारों अवस्थाओं के प्रकट होने की बात ही नहीं थी।
कार्य-ऊर्जा की मानव गणना करता है. मूल-ऊर्जा (साम्य-ऊर्जा) की उस तरह गणना नहीं होती। मूल-ऊर्जा को हम समझने जाते हैं, तो पता चलता है – मूल-ऊर्जा सम्पन्नता चारों अवस्थाओं के रूप में प्रकट है। कार्य-ऊर्जा का स्वरूप हर अवस्था का अलग-अलग है। जैसे – जिस तरह जीव-जानवर कार्य करते हैं, और जिस तरह मानव कार्य करता है, इन दोनों में दूरी है। मानव जीवों से भिन्न जीने का प्रयास किया है, इस कारण से यह दूरी हो गयी। कार्य करने के स्वरूप को ही कार्य-ऊर्जा कहते हैं।
कार्य-ऊर्जा में ही आवेशित-गति और स्वभाव-गति की पहचान होती है। कारण-ऊर्जा या साम्य-ऊर्जा में आवेशित-गति होती ही नहीं है। आवेशित-गति अव्यवस्था कहलाता है। स्वभाव-गति व्यवस्था कहलाता है।
साम्य-ऊर्जा न बढ़ती है न घटती है। कार्य-ऊर्जा भी न बढ़ती है न घटती है। एक दूसरे पर दबाव और प्रभाव के बढ़ने और घटने की बात होती है। उसमे कोई मात्रात्मक परिवर्तन होता नहीं है। कम होना और बढ़ना मात्रात्मक परिवर्तन के साथ ही होता है। दबाव और प्रभाव में आवेशित गति और स्वभाव गति ही होती है। जैसे - एक तप्त इकाई है, दूसरी इकाई उसके समक्ष है – जो उसके ताप से प्रभावित है। ऐसे में, दोनो इकाइयां कार्य-ऊर्जा संपन्न हैं तभी वे एक दूसरे को पहचान पाती हैं। पहचान के फलस्वरूप दूसरी इकाई उसके ताप को अपने में पचाती है। अंततोगत्वा दोनों इकाइयां स्वभाव-गति में पहुँचती हैं।
- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०११, अमरकंटक)
No comments:
Post a Comment