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Monday, October 24, 2011

मध्यस्थ-क्रिया का स्वरूप

सत्ता किस वास्तविकता को व्यक्त करती है?

सत्ता मध्यस्थ वस्तु है। वस्तु का मतलब है – जो वास्तविकताओं को व्यक्त करे। पारगामी, पारदर्शी, और व्यापक स्वरूप में सत्ता प्रस्तुत है। सत्ता मध्यस्थ है – क्योंकि उस पर सम और विषम का प्रभाव नहीं पड़ता है।

परमाणु एक से अधिक अंशों का गठन है। गठन पूर्वक ही परमाणु है. ऐसे परमाणु के मध्य में कुछ अंश रहते हैं, और परिवेशों में कुछ अंश होते हैं। जितने अंश चक्कर लगाते हैं उतने या उससे अधिक अंश मध्य में रहते हैं। अजीर्ण परमाणुओं में मध्य में परिवेशों से अधिक अंश रहते हैं, भूखे परमाणुओं में परिवेशों जितने अंश मध्य में रहते हैं। मध्य में जो अंश रहते हैं, वे घूर्णन गति करते हैं तथा जो परिवेश में रहते हैं – वे घूर्णन के साथ वर्तुलात्मक गति भी करते हैं।

परमाणु का मध्यांश मध्यस्थ-क्रिया करता है। यदि परिवेशीय अंश अपनी नाभिक से दूर जाते हैं (विषम क्रिया) या मध्य के पास आते हैं (सम क्रिया), तो उनको मध्यस्थ-क्रिया पुनः निश्चित-दूरी पर स्थापित कर देता है। इस तरह सम और विषम मध्यस्थ के नियंत्रण में रहते हैं। मध्यस्थ-दर्शन उसी के आधार पर नाम दिया है।

प्रश्न: मध्यस्थ-बल क्या है?

उत्तर: सत्ता में भीगे रहने से मध्यांश में जो ताकत रहता है, उसी का नाम है मध्यस्थ-बल। मध्यस्थ-बल के आधार पर ही चुम्बकीय बल है – जिससे मध्यांश द्वारा परिवेशीय अंशों को स्वयं-स्फूर्त विधि से नियंत्रित करना बनता है।

इसी आधार पर कहा है – “व्यवस्था का मूल रूप परमाणु है।”

सत्ता मध्यस्थ है – अर्थात सत्ता सम और विषम प्रभावों से मुक्त है। मध्यस्थ-क्रिया सम और विषम प्रभावों को नियंत्रित करता है। सत्ता कोई नियंत्रण करता नहीं है, जबकि मध्यस्थ-क्रिया नियंत्रण करता है। सत्ता सम-विषम से अप्रभावित रहता है, जबकि मध्यस्थ-क्रिया सम-विषम को नियंत्रित करता है। दोनों में अंतर यही है. 

परमाणु के सभी अंग-अवयव अपने स्थान के अनुसार काम करते हैं। सभी परमाणु-अंश एक जैसे होते हैं। जो परमाणु-अंश मध्य में होता है वह मध्यस्थ क्रिया करता है। जो परिवेश में होता है वह परिवेशीय क्रिया करता है। यह स्वयं-स्फूर्त विधि से होता है। वैसे ही प्राण-कोषा रचना के जिस स्थान पर रहते हैं, उसके अनुसार काम करते हैं। प्राण-कोषा जो आँख में काम करते हैं वे आँख के अनुसार ही काम करते हैं, जीभ में जो प्राण-कोषा काम करते हैं, वे जीभ के अनुसार ही काम करते हैं। इसको मैंने संयम-काल में महीनों देखा। जब तक मैं संतुष्ट नहीं हो गया, तब तक देखा। इस तरह समझने के बाद ही मैंने दर्शन के रूप में व्यक्त किया। मैंने प्रकृति से समझा, वैसे ही आप समझा हुए व्यक्ति से समझ सकते हैं।

प्रश्न: प्रकृति में उद्भव, विभव, और प्रलय का क्या स्वरूप है?

उत्तर: उद्भव, विभव और प्रलय केवल भौतिक-रासायनिक संसार के साथ ही है। जीवन और सत्ता नित्य विभव ही है। जीवन दो स्वरूप में हुआ – भ्रमित रहने के स्वरूप में, और जागृत रहने के स्वरूप में। भ्रमित रहने का स्वरूप है – जीव-चेतना. जागृत रहने का स्वरूप है – मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। भौतिक-रासायनिक संसार में मात्रात्मक-परिवर्तन के साथ गुणात्मक-परिवर्तन है। जीवन में केवल गुणात्मक-परिवर्तन है। इस बात को भौतिकवाद बनाम विज्ञान अभी तक पहचाना नहीं है।

प्रश्न: भौतिक-रासायनिक संसार के साथ प्राकृतिक रूप में “प्रलय” का भाग है, उसको क्या ‘विषम क्रिया’ कहना ठीक है?

उत्तर: नहीं. विघटन होना ‘प्रलय’ है। भौतिक-रासायनिक वस्तुओं में संगठन-विघटन निरंतर बना ही रहता है. विघटन कोई विषम क्रिया नहीं है।

प्रश्न: तो विषम क्रिया क्या है?

उत्तर: विषम क्रिया है – हमारे अधिकार से भिन्न काम करना। जैसे मानव का जीवों के स्वरूप में काम करना। व्यवस्था सहज सब कुछ सम है। व्यवस्था के विपरीत सब कुछ विषम है। मानव-जाति के अलावा विषम क्रिया करने वाला या व्यवस्था के विपरीत करने वाला, अपराध करने वाला कुछ भी नहीं है। यह एक मौलिक बात है। केवल मानव को व्यवस्थित होने की आवश्यकता है। बाकी सब अवस्थाओं को व्यवस्थित-मानव ही नियंत्रित करने का अधिकार रखता है। जैसे – जंगल बहुत बढ़ गया, उसको नियंत्रित करना। जीवों का अत्याचार बहुत बढ़ गया, उसको नियंत्रित करना. धरती में उत्पात बढ़ गया – उसको नियंत्रित करना। इसी नियंत्रण के अर्थ में मनुष्य का प्रकटन हुआ है। मानव को नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य के ज्ञान होने पर ही वह नियंत्रण को प्रकट कर सकता है। इसी ज्ञान का अनुभव होने की आवश्यकता है।

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

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