अनुभव के लिए स्वीकृति ज्यादा है, प्रश्न कम है। प्रमाणित होने के लिए अनुभव है, और सभी प्रश्नों का उत्तर है।
वास्तविकता = वस्तु जैसा है, मतलब - त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी।
प्रश्न: दुःख क्या कोई वास्तविकता है?
उत्तर: दुःख वास्तविकता होती तो उसको सभी-मानव सभी-समय समाप्त करने के लिए कोशिश क्यों करते रहते हैं? समस्या = दुःख. समस्या या दुःख कभी भी मानव को स्वीकृत नहीं है। समस्या और दुःख में सकारात्मक भाग ही नहीं है। जीव-चेतना में जीता हुआ भ्रमित-मानव भी समस्या और दुःख को नकारता है। दुःख को भला कौन मोलना चाहता है?
प्रश्न: तो “दुःख” शब्द से क्या इंगित है?
उत्तर: पीड़ा. व्यवस्था का विरोध ही पीड़ा है, दुःख है, समस्या है। व्यवस्था का स्वरूप सह-अस्तित्व है। व्यवस्था के विपरीत जो भी मनुष्य प्रयत्न करता है, सोचता है - वह दुःख है।
आदर्शवाद ने कहा – सुख और दुःख को बताया नहीं जा सकता. जबकि यहाँ कह रहे हैं – व्यवस्था में जीना सुख है, समाधान है। अव्यवस्था में जीना दुःख है, समस्या है। मानव जब व्यवस्था में जीता है तो तीनो प्रमाण होते हैं – अनुभव-प्रमाण, व्यवहार-प्रमाण, और प्रयोग-प्रमाण। इन तीनो प्रमाण के साथ सुखी नहीं होगा तो और क्या होगा?
प्रश्न: वियोग होने पर दुःख तो होता है न?
उत्तर: वियोग होता कहाँ है? वियोग का मतलब है – नासमझी. शरीर सदा के लिए बनता ही नहीं है। एक आयु के बाद शरीर विरचित होता ही है, जैसे पत्ता पक कर गिर ही जाता है, झाड एक दिन मर ही जाता है, जीव-जानवर मर ही जाते हैं – वैसे ही मानव-शरीर भी मरता है. यह एक साधारण बात है।
प्रश्न: लेकिन मृत्यु से होने वाले वियोग पर शोक तो होगा ही न?
उत्तर: परंपरा यदि बनता है तो वियोग होगा ही नहीं. मेरी बात आपको स्वीकार हो जाती है, तो फिर हमारा वियोग कहाँ हुआ? जीवन मूलक विधि से वियोग नहीं है। जीवन जीवन से प्रभावित होकर रहता है, यह परंपरा है. शरीर का वियोग होता है. जीवन शरीर को छोड़ देता है, जब वह उसके काम का नहीं रहता, या उसके अनुसार काम नहीं करता. परंपरा विधि से वियोग होता नहीं है। शरीर-यात्रा में जो उद्देश्य अपूर्ण रह गया, उसकी पूर्ति करना आगे की पीढ़ी का काम है। मानव-परंपरा जीवन उद्देश्य की आपूर्ति के लिए है।
अभी जीवन-उद्देश्य को पहचाने बिना हम दौड रहे हैं, इसीलिये दुःख है, शोक है, समस्या है। जीवन-उद्देश्य (सुख, शान्ति, संतोष, आनंद) और मानव-लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) को पहचानने के लिए अभी तक इतिहास में कौन गया? क्या ऐसा इतिहास में आपने कहीं पढ़ा है? कौनसे समुदाय की परंपरा ने इसको अपनाया है?
जीवन-उद्देश्य और मानव-लक्ष्य परंपरा में स्वीकार होने पर उसी की आपूर्ति के लिए सभी काम करते हैं, फिर उसमे वियोग हुआ या निरंतरता हुई? इस निरंतरता का स्वरूप है – अनुभव-प्रमाण, व्यवहार-प्रमाण, प्रयोग-प्रमाण। इसकी आपूर्ति के लिए ही जीना, आगे पीढ़ी के लिए हस्तांतरित करना, और शरीर को छोड़ देना। इसमें वियोग क्या हुआ? मानव-परंपरा में शरीर पुनः बनता ही रहता है. पुनः शरीर ग्रहण करेंगे, यही काम करेंगे. कहाँ वियोग? किसका वियोग? इसमें रोने-धोने की जगह कहाँ है? दूसरे के शरीर शांत होने पर संवेदनाएं तो होती हैं – यदि और जीते रहते तो लक्ष्य के लिए और काम कर सकते थे, इस अर्थ में शोक व्यक्त करना ठीक है। यह सबसे मासूमियत का भाग है।
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)
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really helpful for me at this stage..
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