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Saturday, November 5, 2011

अनुगमन और चिंतन

अनुगमन का मतलब है – अनुक्रम से गति होना। अनुक्रम है – समझ, योजना, कार्य-योजना, फल-परिणाम, जिसमे फल-परिणाम समझ के अनुरूप हो। दूसरे – जीव-चेतना से मानव-चेतना को पहचानना अनुक्रम है, मानव-चेतना से देव-चेतना को पहचानना अनुक्रम है, देव-चेतना से दिव्य-चेतना को पहचानना अनुक्रम है। तीसरे – अनुभव से विचार, विचार से व्यव्हार की ओर गति होना अनुगमन है। अनुभव मूलक विधि से इच्छा का नाम है – चिंतन।

अनुगमन और चिंतन के लिए बताया है – स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण, कारण से महाकारण।

धरती स्थूल है, परमाणु सूक्ष्म है, परमाणु-अंश अति-सूक्ष्म है। जीवन सूक्ष्म है, अनुभव “परम-सूक्ष्म” है। सत्ता में संपृक्त सम्पूर्ण प्रकृति के रूप में सृष्टि स्थूल है, सत्ता “परम-सूक्ष्म” है. मानव-शरीर स्थूल है। मानव-शरीर में जो क्रियाएँ हैं – वे सूक्ष्म हैं। मानव-शरीर का जो प्रयोजन है – वह “परम-सूक्ष्म” है। वह प्रयोजन है – शरीर के द्वारा जीवन सहज जागृति को प्रमाणित करना। इन तीन विधियों से “परम-सूक्ष्म” को पहचाना जाता है। प्रकृति की सभी इकाइयां स्थूल, सूक्ष्म, अति-सूक्ष्म रूप में हैं – लेकिन “परम-सूक्ष्म” वस्तु व्यापक-सत्ता ही है। इस “परमता” को समझने के बाद मानव कहाँ गलती या अपराध कर सकता है, आप सोच लो!

न्याय समझ में आने के बाद अपराध है ही नहीं। जो लोग अपराध करते हैं, वे भी न्याय ही चाहते हैं।

सही समझ में आने के बाद गलती है ही नहीं। जो लोग गलती करते हैं, वे भी सही ही करना चाहते हैं।

“कारण” है – सह-अस्तित्व। “ महाकारण” है – सत्ता। सारी क्रियाकलाप का, ज्ञान का, अज्ञान का, विज्ञान का एक मात्र कारण है – सह-अस्तित्व। सह-अस्तित्व में ही सारा अज्ञान है और सारा ज्ञान है। जीव-चेतना में जीना अज्ञान है। मानव-चेतना में जीना ज्ञान है। सत्ता ही जड़-प्रकृति को ऊर्जा के रूप में और चैतन्य-प्रकृति (जीवन) को ज्ञान के रूप में प्राप्त है। सत्ता में ही सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति है – इसीलिये सत्ता को “महाकारण” नाम दिया।

अभी तक किसी भी परंपरा में “महाकारण” का उद्धाटन करना नहीं बना। “ कारण” को बताना भी नहीं बना। “ स्थूल” को बताने वाले बहुत हैं। जीवन को समझे बिना “सूक्ष्म” को समझाना बनेगा नहीं। सूक्ष्म को समझने पर ही दृष्टा-पद समझ में आता है। दृष्टा-पद समझ में आने पर ही दृश्य समझ में आता है। दृश्य समझ में आने पर प्रयोजन समझ में आता है। प्रयोजन समझ में आना ही “परम-सूक्ष्म” है। यह ज्ञान हो जाना ही परिपूर्णता है। इन्द्रिय-गोचर विधि से मानव परिपूर्ण नहीं होता है, ज्ञान-गोचर विधि से ही मानव परिपूर्ण होता है। इन्द्रियगोचर विधि से सम्पूर्णता समझ में आता ही नहीं है, तो उसके साथ जियेंगे कैसे? ज्ञानगोचर विधि से सम्पूर्णता समझ में आता है, तभी उसके साथ जीना बनता है।

- बाबा श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २०१०, सरदारशहर)

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