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Monday, May 2, 2011

मानव-जाति की छाती के पीपल

आदि-काल से अभी तक हर समुदाय में नर-नारियों में असमानता – ऊपर-नीचे की बात, श्रेष्ठ और नेष्ट की बात, ज्यादा और कम की बात - बना ही रहा है। यह किसी एक समुदाय विशेष की बात नहीं है। हर समुदाय में ऐसा ही रहा है. ‘नर-नारियों में असमानता’ और ‘गरीबी-अमीरी में असंतुलन’ आदि काल से मानव-जाति की “छाती के पीपल” बने हुए है। नारी को असमान बनाए रखने के लिए और गरीब को गरीब ही बनाए रखने की विधियों को लेकर के आदमी अभी तक चला है। हर मानव में ये दो जंजाल बने हुए है। यह है भ्रम का विस्तार! यह सोचने का मुद्दा है। विकल्पात्मक विधि से इस पर सोचने से निकला – समाधान को यदि हम अध्ययन पूर्वक पाते हैं तो नर-नारियों में समानता आती है। नर और नारी में समानता रूप विधा से आ नहीं सकती, बल विधा से आ नहीं सकती, धन विधा से आ नहीं सकती, पद विधा से आ नहीं सकती। बुद्धि विधा से अर्थात समझदार होने पर ही नर-नारी में समानता का स्वरूप निकलता है।

यदि हर परिवार में समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना बन जाता है तो गरीबी-अमीरी में संतुलन होता है। हर परिवार – जिसे चाहे हम आज “गरीब” कहते हों, “अमीर” कहते हों, या “सामान्य” कहते हों – यदि ‘समझदारी से समाधान’ और ‘श्रम से समृद्धि’ को प्रमाणित करते हैं तो गरीबी-अमीरी में संतुलन सिद्ध होता है। परिवार में संबंधों को व्यवस्था के अर्थ में पहचानना और व्यवस्था के अर्थ में जीने पर समाधान-समृद्धि का अनुभव होता है। उसके पहले प्रमाण होने वाला नहीं है. इसकी आवश्यकता है या नहीं – यह भी सोचा जाए।

इस धरती पर जितने भी देश हैं, जिसकी सीमाओं पर सेनाएं तैनात हैं – उन सभी के अपने-अपने संविधान हैं। वे सभी एक-एक परम्पराएं हैं। इस तरह मानव कितनी विधियों से जियेगा? इस तरह मानव छतरिया गया है। छतरिया करके कहीं भी टिक नहीं पा रहा है। सर्व-देश में एक ही तरीके से उपयोगी हो, ऐसा मानव बन नहीं पा रहा है। हम सभी देशों में अपने उपयोगी हो पाने के बारे में चाहते अवश्य हैं, पर उस तरह से हम सोच नहीं पाते हैं, प्रमाणित नहीं हो पाते हैं। व्यापार-विधि से मानव सर्व-देश तक पहुंचा है। व्यापार का मतलब है – दूसरे को बुद्धू बना कर, ज्यादा लेना और कम देना। व्यापार को सर्व-देशीय बनाने की कोशिश हुई है। उस तरह जिसके पास ज्यादा धन है - वह ज्यादा शोषण करता है, जिसके पास कम धन है – वह कम शोषण करता है।

व्यापार “कृत्रिम अभाव” के आधार पर होता है. इसमें हर उत्पादक द्वारा किये गए सारे उत्पादन को एक जगह इकठ्ठा करके मनचाहे लाभ के अनुसार बेचने की बात रहती है। अभी हमारे ही देश में जो उत्पादक हैं, कृषक हैं – वे अपने घर की दीवारों पर सफेदी करवा नहीं पाते हैं। और जो व्यापारी हैं – वे चमकते घरों में रहते हैं। क्यों होता है ऐसा करिश्मा!? यह सोचने का मुद्दा है या नहीं? गरीबी और अमीरी में संतुलन आये बिना इस स्थिति का समाधान होगा ही नहीं। गरीबी और अमीरी में संतुलन कैसे होगा? गरीबी और अमीरी का संतुलन समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की विधि से ही होगा। गरीब के पास भी समाधान का अभाव है। अमीर के पास भी समाधान का अभाव है। समाधान के बिना समृद्धि का अनुभव होता ही नहीं है। समाधान के बाद ही समृद्धि का अनुभव होता है। हर व्यक्ति यदि समझदारी से समाधान प्राप्त करता है तो वह श्रम से समृद्धि को प्राप्त कर ही सकता है। हर व्यक्ति में समाधान का एक ही स्वरूप होता है। हर परिवार में समृद्धि का अपना-अपना स्वरूप होता है। किसी का दो रोटी से पेट भरता है, किसी का चार से पेट भरता है। उसके लिए कोई एक वस्तु का एक मात्रा में उत्पादन करता है, दूर किसी दूरी वस्तु का दूसरी मात्रा में उत्पादन करता है। दोनों समृद्धि का अनुभव कर सकते हैं। समाधान पूर्वक सभी समृद्धि का अनुभव कर सकते है। यदि दस व्यक्तियों के एक परिवार में समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने का अभ्यास होता है – उससे फिर एक से अनेक परिवार का ऐसे ही जीना बनता है। हम यदि न्याय पूर्वक जियें, समाधान पूर्वक जियें, सुख पूर्वक जियें, समृद्धि पूर्वक जियें – तो हर व्यक्ति ऐसा चाहता है या नहीं, इसका परीक्षण किया जा सकता है।

सह-अस्तित्व विधि से हम अध्ययन कर पाते हैं तो समाधान-समृद्धि हाथ लगता है। प्रचलित-विज्ञान की विधि से हम अध्ययन करते हैं तो अस्थिरता-अनिश्चयता ही हाथ लगता है, उससे सिवाय अपराध करने के दूसरा कोई प्रवृत्ति बनता ही नहीं है। भक्ति-विरक्ति विधि से हम चलते हैं तो भौतिकता को नकारते रहते हैं, जबकि जीने में भौतिकता को ही स्वीकारे रहते हैं। इस तरह भक्ति-विरक्ति विधि से हमारे शिक्षा में, जीने में, और व्यवहार में कहाँ संतुलन होता है? इस तरह संतुलन न भक्ति-विरक्ति विधि से हुआ, न अत्याधुनिक-विज्ञान विधि से हुआ। अत्याधुनिक-विज्ञान यंत्र को सर्वोपरि प्रमाण मानने तक पहुंचा है – मानव को प्रमाण नहीं माना. भक्ति-विरक्ति शास्त्र को सर्वोपरि प्रमाण मानने तक पहुंचा है – मानव को प्रमाण नहीं माना। यही मुख्य बात है. सह-अस्तित्व वादी विधि से शिक्षा व्यवस्था में जीने के अर्थ में है। स्थिरता और निश्चयता के आधार पर है. हम स्थिरता-अनिश्चयता चाहते हैं या अस्थिरता-अनिश्चयता? – इसका भी अपने में परिशीलन करिये. हम यदि स्थिरता-निश्चयता चाहते हैं तो क्या उसे हम पाए हैं या नहीं – इसका भी अपने में परिशीलन करिये। यदि स्थिरता-निश्चयता को पा गए हैं तो उसमे प्रमाणित हैं या नहीं – इसको सोचिये। इस तरह हम सोचते हैं तो अभी तक की शिक्षा की समीक्षा होती है, उसका मूल्यांकन होता है, और हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि - अभी तक की शिक्षा निरर्थक है, अपराधिक है, अनिश्चित है, अस्थिर है। इसमें कोई शंका हो, कोई जिज्ञासा हो, कोई प्रश्न हो तो उसको आप सभी मुझसे पूछ सकते है।

आपका कोई प्रश्न नहीं है – उसका मतलब मैं यह नहीं मानता कि आपको यह बात स्वीकार हो गयी है। आप इस बात में पारंगत हो गए – ऐसा मैं नहीं मानता हूँ। स्वीकार होने पर प्रमाण ही होता है। आप इस बात से सहमत हुए हैं, ऐसा मैं मानता हूँ।

- बाबा श्री ए नागराज के जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २०१० में उदबोधन पर आधारित

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