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Friday, July 4, 2008

होना और रहना

"होना" अस्तित्व में प्रकटन विधि से है। अस्तित्व प्रयोजनशील है - इसलिए इसमें उत्ततोत्तर विकास-क्रम और जागृति-क्रम का क्रमिक-प्रकटन भावी है। इसी क्रम में - पदार्थावस्था समृद्ध होने पर प्राण-अवस्था प्रकट हुई, प्राण-अवस्था समृद्ध होने के बाद जीव-अवस्था प्रकट हुई, जीव-अवस्था समृद्ध होने पर ज्ञान-अवस्था (मनुष्य जाती) प्रकट हुई। "होने" को चारों अवस्थाएं प्रमाणित करते ही रहते हैं। मानव में ही "होने" और "रहने" दोनों को प्रमाणित करने की बात रहती है। "होने" के अर्थ में अस्तित्व में सारा प्रकटन विकास-क्रम, विकास, और जागृति-क्रम के स्वरुप में हुआ है। "रहने" का विकास मानव को ही करना है।

"होना" सभी अवस्थाओं का कर्तव्य है! अस्तित्व में हर ईकाई नियति-क्रम में अपने प्रकटन के अनुसार अपने "होने" को प्रकटन करने के लिए बाध्य है।

"रहना" मानव के जागृत होने पर ही प्रमाणित होता है। "रहने" का दृष्टा मानव ही है।

"होने" के प्रकटन क्रम में मनुष्य जाती इस धरती पर प्रकट हुई। मनुष्य के प्रकटन हेतु पिछली सभी अवस्थाएं संतुलन में रही। मनुष्य स्वयं असंतुलित होने के कारण पिछली सभी अवस्थाओं के साथ हस्तक्षेप किया - जिससे वे सभी विकृत हुए। जागृत-मानव के साथ ही मनुष्येत्तर प्रकृति के संतुलित रहने की व्यवस्था है। मानव को छोड़ कर मनुष्येत्तर प्रकृति के संतुलन का कोई अर्थ भी नहीं है। मानव से कम में संतुलन की सम्पूर्णता होती ही नहीं है। पिछली अवस्थाओं के संतुलन का प्रयोजन मानव को ही project करना था। मानव अपने प्रयोजन और इनके प्रयोजन को अब तक नहीं पहचाना - इसलिए जितना कुकर्म करना था, सब कर दिया।

प्रयोजन का स्वरुप चारों अवस्थाओं के साथ ही स्पष्ट होता है। "होने" और "रहने" का स्वरुप मानव जागृति-पूर्वक चारों अवस्थाओं के साथ सह-अस्तित्व के स्वरुप में प्रमाणित करता है। जागृति अस्तित्व का प्रयोजन है। मानव ही जागृति के प्रमाण को प्रस्तुत करता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (बंगलोर, जून २००८)

1 comment:

आशीष कुमार 'अंशु' said...

अच्छी शूरूआत हो, हमारी शुभकामनाएँ