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Sunday, July 27, 2008

परस्पर पहचान होना प्रकाशन का मतलब है.

हर वस्तु के सभी ओर उसका प्रतिबिम्ब रहता है। क्योंकि हर वस्तु सीमित होता है। सीमित होने के आधार पर ही "एक" के रूप में गण्य होता है। इस ढंग से हरेक का प्रतिबिम्ब उसके सभी ओर होता है। इसका प्रमाण एक दूसरे को पहचानना ही है। उसके बाद गणित करना भी प्रमाण है। जैसे - हमारे सामने यह धान का ढेर है। धान का ढेर हमारे ऊपर प्रतिबिंबित रहता ही है। एक एक धान को मैं गिन भी सकता हूँ। उसके बाद किसी नाप से इसको नाप कर गणना भी कर सकता हूँ। किसी तराजू में तोल कर भी गणना कर सकता हूँ। यदि यह प्रतिबिंबित नहीं होता तो मैं गणना कैसे करता? परस्पर पहचान होना ही गणना करने का आधार है। परस्पर पहचान होना ही सम्बन्ध को पहचानने का आधार है। उसके साथ फ़िर कार्य-व्यवहार करने का आधार भी प्रतिबिम्बन ही है। प्रतिबिम्बन न हो तो हम अपने कार्य-व्यवहार का निश्चयन कर ही नहीं सकते। जैसे - अभी यह धूलि ऊपर से गिरा, उसको मैं हाथ से ऐसे हटा दिया। यदि धूलि को मैं नहीं पहचानता होता तो मैं ऐसा नहीं कर सकता था। यह प्राकृतिक नियम है।

इस तरह - परस्पर पहचान होना प्रकाशन का मतलब है।

हर वस्तु प्रतिबिम्बन के रूप में प्रकाशमान है। हरेक एक सभी ओर से दीखता है, उनका होना समझ में आता है। "होना" समझ में आना ही बिम्ब के साथ सम्बन्ध का पहचान और उसके साथ कार्य-व्यवहार का निश्चयन है। इस तरह एक दूसरे को पहचानने की व्यवस्था प्राकृतिक रूप में बना ही है।

प्रतिबिम्बन पूर्वक हम क्या चाहते हैं? हम चाहते हैं - वस्तु क्यों है, और कैसा है? यह स्पष्ट होना। जैसे यह किताब है - तो या तो इसमें कुछ लिखा होगा, या यह कुछ लिखने योग्य होगा। लिखने योग्य हो, या लिखा हो - उसको हम "किताब" कहते हैं। लिखने योग्य हो - तो हम लिखना शुरू कर देते हैं। लिखा हो - तो हम पढ़ना शुरू कर देते हैं। इस तरह इस किताब का मेरे लिए उपयोग सिद्ध हो गया। इसी प्रकार हम हरेक वस्तु को लेकर अध्ययन कर सकते हैं।

आगे सोचने पर - यह प्रतिबिम्बन कहाँ रुकता है? इसका उत्तर है - अपारदर्शक वस्तु पर रुकता है। जैसे यह दीवार है - मेरा प्रतिबिम्बन उस दीवार तक ही है। दीवार के पार मेरा प्रतिबिम्बन नहीं है। इसका मतलब है - किसी सीमित जगह पर एक इकाई सभी ओर दिखाई देती है। जैसे इस खोली में वह आग रखा है - इसको सभी ओर से देखो तो यह दिखाई देता है। दीवार के उस पार चले जाओगे तो यह दिखता नहीं है। इसके लिए कोई प्रयोगशाला बनाने की ज़रूरत नहीं है।

उसी प्रकार सूर्य का प्रकाश भी है। सूर्य का प्रतिबिम्ब धरती के एक ओर रहता ही है। वह कभी छूटता नहीं है। जबकि प्रचलित-विज्ञान कहता है - "सूर्य का प्रकाश गतिमान है, ८ मिनट में धरती तक पहुँचता है।" जबकि सूर्य का प्रकाश कोई भी क्षण, कोई भी पल, किसी भी विधि से धरती से छुटा नहीं है। विज्ञानी कितने अच्छे आदमी हैं - सोच लो! क्या यह कंपकंपी पैदा करने वाली चीज नहीं है? ये कहते हैं - "प्रकाश आ रहा है"। कहाँ से आ रहा है? कैसे आ रहा है? ऐसे कहने का जिम्मेदार कौन है? कैसे फंसाया आदमी जात को? क्या यह अपराधिक है या नहीं? जबकि इस सब को पढ़ कर आप सब अपने आप को विद्वान मानते हो। इसका क्या किया जाए? कैसे किया जाए? हर व्यक्ति इसका निराकरण नहीं कर पाता है। हर व्यक्ति के बल-बूते का यह रोग नहीं है। इसीलिये जी-जान लगाने वाले किसी आदमी की ज़रूरत पड़ता ही है। अभी विज्ञान के झूठ के पुलिंदे को पढ़ कर हम अपने को विद्वान मान लेते हैं। उस झूठ के आधार पर हम गलती के अलावा कुछ करेंगे नहीं।

व्यापार भी एक गलती का पुलिंदा है।  नौकरी भी एक गलती का पुलिंदा है।  कितना खतरनाक बात आपके सामने आ रहा है - आप देख लो!  एक तरफ़ ७०० करोड़ आदमी हैं व्यापार और नौकरी के लिए।  दूसरी तरफ़ एक आदमी यह प्रस्तुत करता है। एक आदमी! अभी आपके सामने मैंने जो विश्लेषण प्रस्तुत किया - वह सही है या ग़लत? आप और हम यह परामर्श कर रहे हैं - क्या यह विश्लेषण ग़लत है?

प्रतिबिम्बन का सही स्वरुप न समझने के कारण विज्ञान ने यह ग़लत निष्कर्ष निकाल लिया - "प्रकाश ही प्रतिबिम्बन का कारण है।" ऐसा निष्कर्ष निकाल लिए - "प्रकाश गतिशील है, इसलिए सबका प्रतिबिम्बन होता है।" जबकि हर वस्तु अपने में प्रकाशित रहता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद के आधार पर (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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