किसी आयु के बाद हर व्यक्ति अपने आप को समझदार माना ही रहता है। हर मनुष्य अपने ढंग से अपने को समझदार मानता है। जैसे कोई कहता है - "मैं समझदार हूँ, इसका प्रमाण है - मेरे पास पैसा है "। दूसरा कहता है - "मैं समझदार हूँ, इसका प्रमाण है - मैं इस पद पर हूँ।" तीसरा कहता है - "मैं समझदार हूँ, इसका प्रमाण है - मैं बहुत बलशाली हूँ।" चौथा कहता है - "मैं समझदार हूँ, इसका प्रमाण है - मैं बहुत रूपवान हूँ।" जबकि ज्यादा पैसा, ऊंचा पद, या खूब हट्टा-कट्टा होना, या देखने में सुंदर होना - समझदारी का प्रमाण नहीं है। किसी के पास ज्यादा पैसा हो, वह ज्यादा सुलझा हुआ हो - ऐसा कोई नियम नहीं है। कम पैसा हो, वह ज्यादा सुलझा हो - ऐसा भी कोई नियम नहीं है। वैसा ही पद, बल, और रूप के साथ भी है।
मध्यस्थ-दर्शन से निकला : - समझदारी का प्रमाण है - न्याय पूर्वक जी पाना, धर्म पूर्वक जी पाना, और सत्य पूर्वक जी पाना।
न्याय, धर्म, और सत्य को समझना अध्ययन है। न्याय, धर्म, और सत्य को प्रमाणित करना समझदारी है।
प्रमाणित करने की इच्छा ही न हो - तो अध्ययन कोई क्यों करेगा? अनुभव-प्रमाण की प्रेरणा से ही अध्ययन होता है। प्रमाणित करने की इच्छा से ही अध्ययन होता है।
यथास्थिति को बनाए रखने के लिए, और अध्ययन न करने के लिए जितने हमारे सर में बाल हैं, उतने बहाने हैं। किसी आयु के बाद मनुष्य के बाद सच्चाई से दूर भागने के अनगिनत बहाने बन जाते हैं। साथ ही, किसी आयु के बाद अपने संस्कार-वश ही सच्चाई को शोध करने की भी कुछ लोगों में इच्छा रहती है। वह जो भाग है - उसी के साथ मैं और आप जुड़ रहे हैं। सच्चाई को शोध करने की इच्छा वाले लोग ही मेरे पास आते हैं। नहीं तो कोई आता नहीं है।
फ़िर सत्य के शोध के पक्ष में हमारी चर्चा में निकला - सत्य को शोधा नहीं जाता। सत्य को समझा जाता है। शोधा जाता है - बेवकूफी को। बेवकूफी को छान कर अलग कर दिया जाता है। सत्य को समझा जाता है। सह-अस्तित्व स्वरूपी सत्य हमको सभी को प्राप्त है। प्राप्त वस्तु को क्या शोधा जाए? अभी तक की आवाज था - "सत्य को खोजेंगे!" अब यह आया - सत्य हमको प्राप्त है, उसका हमको अनुभव करना है। व्यापक वस्तु और एक-एक वस्तु साथ-साथ हैं , यह अनुभव में आना।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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