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Thursday, July 31, 2008

ज्ञान की बात

प्रश्न: मध्यस्थ-दर्शन के पहले भी ज्ञान की बात होती रही है, पर वह स्पष्ट क्यों नहीं हुआ?

उत्तर: इसलिए क्योंकि विगत में ज्ञान को मूल में ईश्वर या ब्रह्म का ही स्वरुप माना था। यह ग़लत हो गया। यद्यपि सूक्ष्मतम रूप में यदि विश्लेषण करें- तो तथ्य यह निकलता है की व्यापक वस्तु ही साम्य ऊर्जा है। मध्यस्थ-दर्शन से यह निकला - "साम्य ऊर्जा ही ज्ञान के रूप में मानव परम्परा में प्रमाणित होता है।" साम्य ऊर्जा सम्पन्नता जड़ प्रकृति में भी है, चैतन्य प्रकृति में भी है। चैतन्य प्रकृति में से मानव एक ईकाई है। मानव में इन्द्रियगोचर और ज्ञान-गोचर बात प्रमाणित होती है। ज्ञान की रोशनी में जो समझ आता है - वह ज्ञान व्यापक वस्तु ही है। यह मैंने प्रतिपादित किया है।

प्रश्न: ज्ञान का दृष्टा कौन है?

उत्तर: जीवन। जीवन - जो एक गठन-पूर्ण परमाणु है, वही ज्ञान का दृष्टा है।

विगत में कहा - ईश्वर ही दृष्टा है। वह ग़लत हो गया।

विगत में जो ईश्वर या ब्रह्म को ज्ञान कहा - वह ग़लत नहीं है। लेकिन जो यह कहा - "ब्रह्म से ही जीव जगत पैदा हुआ!" - वह ग़लत हो गया। इस तरह गुड गोबर में घुल गया! मैं इसको अच्छी तरह से देखा हूँ। सारा प्रयास, इतने अच्छे लोगों का प्रयास गुड-गोबर हो गया।

ज्ञान जो व्यापक रूप में रहता है - हर जगह में वह एक ही है। इसी लिए ज्ञान व्यापक है। इसी लिए हर जीवन में जीवन-ज्ञान एक ही है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान हर जीवन में एक ही है। मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान हर जीवन में एक ही है। इस तरह यह साम्य हो गया! यह साम्य-ज्ञान मानव-परम्परा में प्रमाणित होता है।

जबकि विगत में बताया था - ज्ञान अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है। जबकि मैं कह रहा हूँ - ज्ञान प्रमाणित होता है। ज्ञान वचनीय भी है। ज्ञान व्यक्त भी है। विगत में कहा हुआ बात इस तरह निरर्थक हो गया न? दूसरी भाषा में इसे कहें तो - "झूठ बोल दिया!" चाहे इस झूठ को सही मान करके क्यों न बोले हों! इस झूठ से मेरे जैसे कितने लोग आहत हुए, इसका कोई संख्या नहीं है। जबकि मैं कैसे न कैसे बच गया। मेरा इस तरह बच जाना और मध्यस्थ-दर्शन का अनुसंधान सफल हो जाना इस तरह मानव-परम्परा के लिए देन स्वरुप में हो गयी। यह देन स्वरुप में तभी है - जब मानव परम्परा इसको स्वीकारता है।

मेरा जो प्रयास है - वह नगण्य है। मैं इसको अच्छी तरह से estimate कर पा रहा हूँ। मैंने कोई बहुत भारी साहस किया हो - ऐसा मुझको तो लगता नहीं है। सामान्य रूप में ठीक है - कुछ किया! कुछ करने से यह प्रतीक्षा ही नहीं था - यह हो जायेगा! इसको क्या कहें?

अनुभव है इतनी से गोली - पर देखो यह सारे अस्तित्व को ढकता है। सारे अस्तित्व को छूता है। सारे अस्तित्व का परीक्षण करता है। सारे समाधान को पाता है। मानव परम्परा में ज्ञान को प्रमाणित करता है। अनुभव एक सूक्ष्मतम गोली - वह खुलता है तो कहीं तक खुलता ही चला जाता है। अनुभव की महिमा यही है। कितना भी विशाल तक ले जाओ - और विशालता के लिए material शेष रहता ही है। यहाँ ज्ञान अंत हो गया - वह जगह मिलता ही नहीं है। हर जगह में ऐसा लगता है - इससे आगे भी ज्ञान की रोशनी पहुँचती है। यही अनुभव का महिमा है। उत्साहित होने के लिए यह एक बहुत भारी बात है न? हर व्यक्ति को इसकी ज़रूरत महसूस होने के लिए यह एक बहुत ही प्रभावशाली तथ्य है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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