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Sunday, July 6, 2008

काल की पहचान

काल = क्रिया की अवधि।

गणितात्मक भाषा को जब प्रयोगशाला में लाये - तब क्रिया के आधार पर काल को पहचानना शुरू किया। तकलीफ तब शुरू हुई जब हमने विखंडन विधि से गणित करना शुरू किया। एक वस्तु को विखण्डित करते-करते इसके एक भाग के साथ कितना "काल" हुआ, यह जब गिनने लगे - तब काल का मूल concept पीछे छूट गया। इसके रहते जो कुछ भी निष्कर्ष निकालते चले गए - वे सब ग़लत होते चले गए।

जैसे - मानव को जब पहचानने जाते हैं, और यदि मानव को हम किसी काल-खंड में पहचानने का प्रयास करते हैं - और काल-खंड को छोटा, और छोटा करते चले जाते हैं, तो मानव स्वयं एक निरंतर क्रिया है - यह पकड़ में नहीं आता। मानव को पहचानने का आधार "क्रिया की अवधि" नहीं है। जिस क्रिया के आधार पर काल को पहचाना था - जैसे धरती का सूरज के चारों तरफ़ चक्कर लगाना - वह भी अपने में निरंतर है। क्रिया को भुलावा देना - अस्तित्व को भुलावा देना है। काल-खंड को शून्य करके किसी क्रिया की समग्रता को पहचानने का कोई तरीका ही नहीं बचता। वस्तु को छोड़ देते हैं, गणित को पकड़ लेते हैं। अस्तित्व को भुलावा देकर जो भी निष्कर्ष निकालते हैं - वे अपराधिक ही होते हैं। गणित लिखने में आता है - उससे कोई वस्तु मिलता नहीं है। सारी विज्ञान की दौड़ गणित के साथ जुडी है।

काल-खंड के आधार पर कोई दर्शन नहीं होता। काल नित्य वर्तमान है। वर्तमान को शून्य करके हमारी गति पहचानने की कोई जगह ही नहीं है। वर्तमान को शून्य करके जो भी निष्कर्ष निकालते हैं - सब निराधार होते हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक )

3 comments:

Roshani said...

भैया जी प्रणाम,
यह थोड़ा कठिन लगा|
इसे और समझाइए...
"मानव को जब पहचानने जाते हैं, और यदि मानव को हम किसी काल-खंड में पहचानने का प्रयास करते हैं - और काल-खंड को छोटा, और छोटा करते चले जाते हैं, तो मानव स्वयं एक निरंतर क्रिया है - यह पकड़ में नहीं आता। मानव को पहचानने का आधार "क्रिया की अवधि" नहीं है। जिस क्रिया के आधार पर काल को पहचाना था - जैसे धरती का सूरज के चारों तरफ़ चक्कर लगाना - वह भी अपने में निरंतर है। क्रिया को भुलावा देना - अस्तित्व को भुलावा देना है। काल-खंड को शून्य करके किसी क्रिया की समग्रता को पहचानने का कोई तरीका ही नहीं बचता।"

मानव को कैसे कालखंड में पहचानने का प्रयास करते हैं भौतिकवादी पद्धति में?

आभार
रोशनी

Rakesh Gupta said...

काल को विज्ञान (भौतिकवादी विधि से) ने समय के स्वरूप में पहचाना है. किसी क्रिया के घटने में कितनी अवधि लगती है, उसको समय कहा. एक आवर्तनशील क्रिया की अवधि को standard मान कर दूसरी क्रियाओं की अवधि को नापना शुरू किया। जैसे - धरती का अपनी धुरी पर घूर्णन करने की अवधि को एक दिन का standard माना। इसके २४ भागों घंटा, और १ घंटे के ६० भाग को मिनट, and so on. अब इस अवधि में सारी वस्तुओं को पहचानने का प्रयास किया। जबकि अस्तित्व सहज वस्तु किसी समय की सीमा में पूरी व्याख्यायित होती नहीं। अवधि को यदि बिलकुल शून्य जैसा कर दें - जैसे micro, nano seconds - तो उसमें परमाणु, अणु, प्राण कोशिका, पेड़ पौधे, जीव जानवर या मानव - किसी को हम पूरा पहचान ही नहीं सकते।

मध्यस्थ दर्शन में किसी भी वस्तु को चार आयामों में पहचाना है - रूप, गुण, स्वभाव और धर्म। इसमें से रूप और गुण समय के साथ बदलते हैं, लेकिन स्वभाव और धर्म समय-सीमा से परे हैं. स्वभाव और धर्म सर्व-काल और सर्व-देश के लिए हैं. यदि हम वस्तु को केवल काल-खण्ड में ही देखेंगे तो उसकी समग्रता को हम कभी पकड़ ही नहीं सकते। वस्तुओं का आचरण उनके सर्व-काल और सर्व-देश के अर्थ में है, न कि परिस्थिति विशेष, स्थान विशेष, काल खण्ड विशेष में उसका response. साक्षात्कार और बोध समग्रता में वस्तुओं की पहचान और स्वीकृति को कहते हैं.

ऐसा नहीं है कि काल-खण्ड के आधार पर देखना "गलत" है. उसकी उपयोगिता है ही. जैसे - दिन में कब क्या काम करना है, उसको हम उसी आधार पर तय करते हैं. हम सारे मानव यदि एक कैलेंडर को और एक समय व्यवस्था को नहीं माने तो ट्रेन कैसे चलेंगी? हवाई जहाज कैसे चलेंगे? दूसरे - काल खण्ड की गणनाओं के आधार पर हम ऋतुओं को पहचानते हैं, फसलों को बोते हैं, आदि. उसमे कोई परेशानी नहीं है.

मौलिकता (स्वभाव) और धारणा (धर्म) को समय में बांधा नहीं जा सकता। समय को हमे उपयोग करना है, न कि समय के अनुसार अस्तित्व को समझना है. यदि समय के अनुसार अस्तित्व को समझने का प्रयास करते हैं तो अस्तित्व में कोई स्थिरता और निश्चयता दिखती ही नहीं है. सब कुछ परिवर्तनशील और नश्वर ही दीखता है.

Roshani said...

काफी स्पष्टता बनी भैया
धन्यवाद..