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Wednesday, July 30, 2008

संवाद का मतलब

संवाद का मतलब है - परस्परता में पूर्णता के अर्थ में भाषा को प्रकट करना।

संवाद तर्क नहीं है।

संवाद पूर्णता की ज़रूरत के आधार पर है। पूर्णता के अर्थ में हमको पारंगत होना है या नहीं होना है? इसके उत्तर में - "होना है" यही आपसे कहना बनता है। "नहीं होना है" - यह कहना सबके सामने तो नहीं बनता। भले ही व्यक्तिगत रूप में समझदारी से दूर भागते रहे। जब भागते-भागते थक जाते हैं - तो वापस इस जगह आना ही पड़ता है।

पूर्णता को स्वीकारना ही पड़ता है - यही संवाद का मतलब है। पूर्णता को नकारना बनता नहीं है। पूर्णता को हम नहीं समझे, हम मनमानी पूर्वक भागते रहे - यह सब हो सकता है। किंतु यह घोषित करना नहीं बनता की हमको पूर्णता नहीं चाहिए। मनमानी करके सच्चाई से दूर भागते हैं, तो मानसिक रूप में थकना स्वाभाविक हो जाता है। मानसिक रूप में थकने से ही जीने में गलतियाँ होती हैं।

प्रश्न: मानसिक रूप से थक जाने का क्या स्वरूप है?

अपने द्वारा किए गए विश्लेषण से ही निकले प्रश्न-चिन्ह में स्वयं ही फंस जाना। इसको "कुंठा" नाम भी दिया जा सकता है। कुंठित होना, रास्ता बंद हो जाना, रास्ता ठीक नहीं लगना - इनमे से किसी मॉडल में हम गलती करने के रास्ते में आ जाते हैं। अपने ग़लत विश्लेषण को छोड़ कर के स्वयं में सहीपन की प्यास को पहचानना ही सहअस्तित्ववाद के लिए जुड़ने का तरीका है। इस प्यास को हरेक व्यक्ति बुझाना चाहता ही है। सकारात्मक बात के लिए हर व्यक्ति के पास में जगह बनी हुई है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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