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Sunday, July 27, 2008

वैदिक विचार की विसंगति, अनुसंधान, और विकल्प

हमारे घर-गाँव में केवल वेद, उपनिषद्, दर्शन, शास्त्र के अलावा कोई ध्वनि मुझे सुनने को नहीं मिला। इसी oven में मैं भी पका। पलने में जो सुना - तो यही सुना। यदि गर्भ-वास में सुना हो - तो भी यही सुना। उसके बाद तो यही सुना है। वैदिक विचार से ज्यादा सत्य के पक्ष में झुलसा हुआ परम्परा और कोई नहीं है। सत्य के पक्ष में झुलसते ही गए। झुलसने का भाषा मैंने ऐसे प्रयोग किया - हमारे अकेले परिवार में १००० वर्ष से यह किंवदंती है - हर पीढी में १-२ सन्यासी होता ही रहा। सन्यासी के लिए वे लिखे हैं - वैदिक ब्राह्मण हो, शिष्ट परिवार के हों, वेदान्त संपन्न हों - उनको मोक्ष का अधिकार होना लिखा है। ऐसा मैंने भी सुना। ऐसे लिखे हुए के आधार पर हमारा परिवार स्वयं को एक श्रोतिय वैदिक परम्परा का मानता रहा। मेरे परिवार में बड़े भाई तक ऐसी ही स्वीकृति थी। मेरी भी स्वीकृति इसी पक्ष में थी। ऐसी स्वीकृति मुझ में ३० वर्ष की आयु तक रहा। ३० वर्ष आयु के बाद मैं शोध में लग गया।

प्रश्न: बाबा, आप जो इसमें कहते हैं आपके गाँव में वेद-ध्वनि ही थी। क्या कभी इस पर कोई वाद-विवाद भी होता था? या केवल ध्वनि ही थी?

सब होता था। संवादों का तो भरमार था। हर दिन शाम के समय एक संवाद होता ही रहा। ३० घर का गाँव - कभी इस घर में, तो कभी उस घर में संवाद होता ही रहा। उसके साथ संगीत... उसके साथ नृत्य... कोई चीज़ छुटा नहीं था वहाँ... आज तक सबसे ज्यादा जिसका मान्यता होता है - कोई चीज वहाँ छूटा नहीं था वहाँ। उन सभी चीजों के मूल में वही वेदान्त ही था। वेदान्त की अन्तिम भाषा है - "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या"! जगत कहाँ से आया - पूछने पर कहा - ब्रह्म से आया! सत्य से मिथ्या आ गया! ख़त्म हो गयी बात। यही मेरे प्राण संकट का कारण हुआ - सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है? इसको कैसे पचाया जाए? आज के तर्क-संगत विधि से सोचने वाले मष्तिष्क में इसको कैसे बोध कराया जाए?

१९५० में जब भारत का संविधान तैयार हुआ - तब उसमें मुझे "राष्ट्रीयता" और "राष्ट्रीय चरित्र" का कोई स्वरुप निकलता नहीं दिखा। तब मैंने एक हज़ार वेद-मूर्तियों को एकत्रित किया। वेद-मूर्तियों को एकत्रित करना मैन्डकों को एकत्रित करने के बराबर ही है। मैंने उनसे विनती किया - एक लाइन तो लिख कर दे दो राष्ट्रीयता को ले कर (वैदिक ज्ञान के आधार पर)। वे लोग एक लाइन लिख कर नहीं दे पाये। फ़िर काहे के लिए ४०-४० वर्ष वेद को पढ़ते रहते हैं? किस प्रयोजन के लिए? केवल सम्मान पाने के लिए!? सम्मान तो हर लफाडु प्राप्त कर लेता है!

प्रश्न: इसका मतलब पूरी वैदिक परम्परा में कभी तर्क जुटा ही नहीं?

वही है! यही पूरी बात nutshell में है। इतनी ही बात है। पाप इतना ही हुआ। उपदेश विधि से ही सारा बात-चीत, उपदेश विधि से ही सारा संवाद, उपदेश विधि से ही सारा स्वीकृति! यह हम सुनते ही रहे। अब कुल मिला कर आपने जो trace किया - वही है! तर्क का प्रयोग नहीं हुआ। तर्क का प्रयोग न होने से शोध समाप्त हो गयी। रूढी रह गयी। अब उसमें (वैदिक परम्परा को लेकर ) रोने के अलावा क्या चीज है? हम लोग पूरा जिए हैं इसे! इसका कोई दूसरा रास्ता नहीं है - रोने के अलावा। अब उस जगह से मैंने शुरू किया। इतने हजारों वर्षों की पुराण बताते हैं - और रोने की जगह में पहुँचते हैं हम। कैसे किया जाए? क्या किया जाए? कैसे हल निकाला जाए? इस अरण्य में मैं खो गया।

उस समय में मैं हर दिन ८ घंटे काम करके एक हज़ार बजने वाला रुपया प्राप्त करता था। आज के दिन में उसका कीमत एक लाख रुपया तो होगा। (अपने गुरु की आज्ञा लेकर मैंने समाधि के लिए फ़िर जाने का निश्चय किया। मेरी पत्नी ने मेरे साथ चलने के लिए अपना मत दिया। मैंने अपनी श्रीमती से पूछा - यह बजने वाला पैसा जंगल में मिलेगा नहीं। मैं जंगल में कोई कंद-मूल लेने गया, और मुझे कोई बाघ खा गया - तो तुम क्या करोगी जंगल में मेरे साथ जा कर? वे बोली - तुम्हारा गणित ठीक नहीं है! तुमको पहले बाघ खायेगा, या मुझको खायेगा - कैसे बताओगे? कौनसे नक्षत्र से बताओगे? कौनसे विधि से बताओगे? उसके बाद मैंने कहा - अब जो होगा, सो होगा! माता जी की वह बात ने मुझको वहाँ से यहाँ तक पहुंचाया। माता जी यदि नहीं होते - मेरा साधना पूरा होता - मैं विश्वास नहीं करता। जबकि शास्त्रों में लिखा है - गृहस्थ व्यक्ति साधना नहीं कर सकता। उनको समाधि नहीं होगा - यह लिखा है। संन्यास के बाद ही साधना-समाधि की बात लिखा है। श्रवण-मनन-निधिध्यासन की बात लिखा है, साधन-चतुष्टय सम्पन्नता के बाद। इसको मैं पढ़ा हूँ। कितना प्राण-संकट के साथ मैं निकला, कितना भयंकर कीता-पत्थर काँटा के बीच मैं गुजरा - और उसमें से कैसे निकल गए, इस बीच में यंत्रणा मुझको हुआ नहीं। सबसे भारी ख्याति कहो, उपलब्धि कहो - इस बीच में एक भी क्षण हम यंत्रणा से ग्रसित नहीं हुए। अभाव-ग्रस्त नहीं हुए। अभाव का पीड़ा हमको नहीं हुआ, यंत्रणा का अनुभव नहीं हुआ। जबकि कल के लिए चाय की व्यवस्था न रखते हुए जिए हैं। इससे ज्यादा असंग्रह को क्या बताया जाए?

यहाँ आने से पहले - मुझे विज्ञान विधि से तर्क ठीक है, यह स्वीकृत रहा। और वेद-वेदान्त का "मोक्ष" शब्द मुझको स्वीकृत रहा। मोक्ष तो होना चाहिए - पर मोक्ष सब कुछ को छोड़ कर होना चाहिए - यह मेरा स्वीकृति नहीं हुई। विरक्ति छोड बिना हो नहीं सकती। विरक्ति-विधि बिना साधना हो नहीं सकती। यह तो शास्त्रों में भी लिखा हुआ है। इसी आधार पर मैंने अपने आप को साधना के लिए setup किया। हर अवस्था में चल के देखा। चलकर यही हुआ - यंत्रणा हमको पहुँचा नहीं। दो-चार हाथ दूर से ही चला गया। समस्या हमको छुआ नहीं। संसार का तर्क हमको परास्त नहीं कर पाया। यह सब उपकार नियति-विधि से ही होती रही। इसके अलावा मैं कहाँ thanks pay करूँ - बताओ?

इस ढंग से चल कर के जो अंत में निकला - उसको मैंने मानव का पुण्य माना। अपनी साधना का फल मैंने नहीं माना। इसीलिये निर्णय किया - मानव को इसे पकडाया जाए। पकडाने में ही सारा चक्कर है - पापड बेल रहे हैं! आप सभी जो मेरे साथ इस टेबल पर बैठे हो - आप सभी के साथ ऐसा ही है। "हमारा विचार" कह कर अपनी बात रखते हो - तो मैं क्या तुमको बताऊँ? "आपका विचार" क्या हुआ? मानव का विचार यह है! देव-मानव का विचार यह है! दिव्य-मानव का विचार यह है! पशु-मानव का विचार यह है! राक्षस-मानव का विचार यह है! इन पाँच विचार शैलियों को पढ़ लो! यदि इच्छा हो तो! नहीं इच्छा हो तो बिल्कुल कृपा करो! यह जो विचारों को demarcate करने का अधिकार (मुझमें) आया - उसको अद्भुत मानो! यह चेतना विधि से किया - जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना के अनुसार विचार हैं। अब उसमें आप कहते हो - तुम्हारा भाषा कठिन है! कैसे मैं इसका व्याख्या करू, बड़ा मुश्किल है! केवल आपका सम्मान करने के अलावा हम कुछ कर नहीं पाते हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अमरकंटक, अगस्त २००६)

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