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Tuesday, June 30, 2009

अध्ययन की शुरुआत

हर परस्परता के बीच जो हमारी आँखों से खाली-स्थली जैसा दिखता है, वह सत्ता ही है। यह खाली नहीं है - यह ऊर्जा है। यह ऊर्जा सभी वस्तुओं में पारगामी है। पत्थर में, मिट्टी में, पानी में - सभी वस्तुओं में यह पारगामी है। एक परमाणु-अंश से लेकर इस विशाल धरती तक सभी वस्तुओं में यह पारगामी है।

वस्तुओं की ऊर्जा-सम्पन्नता ही सत्ता की पारगामीयता की गवाही है।

मानव में यह ऊर्जा-सम्पन्नता ज्ञान के रूप में होता है। यह ज्ञान है - ४ विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) का ज्ञान, ५ संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) का ज्ञान, ३ ईश्नाओं (पुत्तेष्णा, वित्तेष्णा, लोकेषणा) का ज्ञान, और उपकार का ज्ञान। इन १३ शीर्षों में मनुष्य के पास ज्ञान "करने" के रूप में आता है। इन १३ शीर्षों के अलावा मनुष्य और कुछ कर भी नहीं सकता। जिसका ज्ञान होता है, वही हम कर पाते हैं। ४ विषयों का हमें ज्ञान है, इसलिए हम उन विषयों का उपयोग कर पाते हैं। ५ संवेदनाओं का हमें ज्ञान है, तभी उन संवेदनाओं को हम पहचान पाते हैं।

समझना ही ज्ञान है। ज्ञान ही मनुष्य के करने में आता है।

४ विषयों की बात जीव-संसार में "करने" के रूप में है। जीव-जानवर ४ विषयों को भोगते रहते है, उसी के अर्थ में उनकी ५ संवेदनाएं काम करती रहती हैं। जैसे - आहार विषय के लिए शेर गंध इन्द्रिय का प्रयोग करता है। मनुष्य संवेदनाओं के आधार पर विषयों को पहचानता है। जैसे - मनुष्य जीभ से अच्छा लगने के लिए आहार ढूंढता है। मनुष्य और जीव-जानवरों में यह फर्क हुआ। मनुष्य ने संवेदनाओं के आधार पर ही सर्वप्रथम ज्ञान को स्वीकारना शुरू किया।

मनुष्य ने इन्द्रियों को राजी रखने के लिए ज्ञान को स्वीकारना शुरू किया। क्यों शुरू किया? सुखी होने के लिए। मानव का अध्ययन इसी बिन्दु से शुरू होता है।

इस विधि से जब हम अध्ययन करने जाते हैं, तो यह विगत के किसी भी प्रस्ताव से जुड़ता नहीं है। विगत में हम जो कुछ भी किए - अच्छा, बुरा, खरा, खोटा - उसका screen ही ख़त्म। अध्ययन का reference यह हुआ, न कि विगत का कोई अवशेष!

विगत से आपके पास मानव-शरीर है, और भाषा (शब्द-संसार) है। और विगत का कोई पुच्छल्ला इस प्रस्ताव के अध्ययन के लिए आपको नहीं चाहिए। शब्द/भाषा विगत से है - परिभाषाएं इस प्रस्ताव की हैं। परिभाषाएं ज्ञान के अर्थ में हैं।

यहाँ से आप अध्ययन शुरू करिए।

मानव का अध्ययन में हम चलें तो पहली बात आती है - यह शब्द, स्पर्श, गंध, रूप, रस इन्द्रियों का ज्ञान किसको होता है? शरीर को यह ज्ञान होता है, या शरीर के अलावा किसी चीज़ को होता है?

विगत में ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय ब्रह्म को ही बताया था। साथ ही ब्रह्म को अव्यक्त और अनिर्वचनीय बता कर रास्ता बंद कर दिया था।

उसके विकल्प में यहाँ प्रस्तावित है - ज्ञान व्यक्त है और ज्ञान वचनीय भी है। ज्ञान को हम समझ सकते हैं, और समझा भी सकते हैं। ज्ञान का मतलब ही यही है - जिसे हम समझ भी सकें, और समझा भी पाएं। ज्ञान शरीर को नहीं होता। ज्ञान जीवन को होता है। जीवन ही ज्ञाता है। इन्द्रियों से भी जो ज्ञान होता है वह जीवन को ही होता है। जीवन ही समझता है। जीवन ही जीवन को समझाता है।

प्रश्न: विगत ने हमको क्या दिया फ़िर?

उत्तर: विगत में आदर्शवाद ने हमको शब्द-ज्ञान दिया - जिसके लिए उनका धन्यवाद है। फ़िर भौतिकवाद ने हमको कार्य-ज्ञान दिया - उसके लिए उनका धन्यवाद है। इन दोनों से मनुष्य को जो ज्ञान हुआ वह पर्याप्त नहीं हुआ। कुछ और समझने की ज़रूरत बनी रही। इसकी गवाही है - धरती का बीमार होना।

धरती क्यों और कैसे बीमार हो गयी, और यह ठीक कैसे होगी - इसके लिए जो ज्ञान चाहिए वह आदर्शवाद और भौतिकवाद दोनों के पास नहीं है।

यही मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन का reference point है। तर्क-संगत होने के लिए, व्यवहार-संगत होने के लिए, अपने-आप का मूल्यांकन करने के लिए, और स्वयं का अध्ययन करने के लिए - यही reference point है। अध्ययन के लिए इस reference point को अपने में अच्छे से स्थिर बनाना चाहिए, वरना हम बारम्बार वही पुराने में गुड-गोबर करने लगते हैं।

इस तरह - इस विकल्प को सोचने के लिए, अध्ययन करने के लिए हमारे पास एक आधार-भूमि तैयार हुई।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Monday, June 29, 2009

मनोगति से सब कुछ नापा जाता है.

मनोगति को किसी संख्या में नापा नहीं जा सकता। मनोगति से सब कुछ नापा जाता है। गति ही गति को नापता है। गति के बिना गति को कैसे नापा जाए? जीवन गति के आधार पर ही हम सब कुछ की गति को नापते हैं। मरने के बाद कोई नापना नहीं होता। जीता हुआ आदमी ही नापता है।

स्थिति, गति, उपयोग, सदुपयोग, और प्रयोजन को पहचानने के लिए मनोगति है।

आशा गति से विचार-गति अधिक पैनी या अधिक सूक्ष्म है। विचार-गति से इच्छा गति, इच्छा गति से संकल्प गति, संकल्प गति से प्रमाण-गति अधिक पैनी या अधिक सूक्ष्म है। जीवन में इन गतियों के आधार पर ही एक दूसरे के साथ तदाकार-विधि से मूल्यांकन होने की व्यवस्था है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

प्रकृति में शून्याकर्षण प्रमाणित है.

सत्ता में सम्पृक्तता वश हर वस्तु चुम्बकीय-बल संपन्न है। चुम्बकीय-बल सम्पन्नता वश वस्तुओं में परस्पर पहचान सिद्ध होती है। चुम्बकीय बल सम्पन्नता - आकर्षण, प्रत्याकर्षण (आकर्षित होना), और शून्याकर्षण के रूप में होती है। वस्तुओं के बीच चुम्बकीय-धारा के आधार पर आकर्षण और प्रत्याकर्षण है। शून्याकर्षण का मतलब है - न किसी को आकर्षित करता हो, न किसी की ओर आकर्षित होता हो। जैसे - यह धरती शून्याकर्षण में है। न हमारी धरती किसी गृह-गोल को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है, न यह किसी दूसरे गृह-गोल की तरफ़ आकर्षित हो रहा है। यह अपने कार्य-गति पथ की निरंतरता को बनाए हुए है। दूसरा उदाहरण - जीवन परमाणु शून्याकर्षण में है। धरती शून्याकर्षण में है, जीवन शून्याकर्षण में है। यदि ये दो बात पहचानने में आ जाता है तो समझ आता है - "शून्याकर्षण प्राकृतिक है।" दूसरे शब्दों में - "प्रकृति में शून्याकर्षण प्रमाणित है।"

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६)

संवेदना का मतलब

संवेदना = पूर्णता के अर्थ में वेदना। यह संवेदना की परिभाषा बनी। संवेदनाओं में संतुष्टि मिलता नहीं है - इसी लिए वेदना। संवेदनाओं में पूर्णता की अपेक्षा (प्यास) रहते हुए भी अभाव का संकट बना रहता है, असंतुष्टि बनी रहती है।

संवेदनाओं के अर्थ में जीने से सार्वभौमता को प्राप्त नहीं किया जा सकता। मुझको खाने में जो अच्छा लगता है, वह आपको भी अच्छा लगे - ऐसा कोई नियम नहीं है। मुझको जितना सोने की आवश्यकता है, उतनी ही आपको भी हो - ऐसा कोई नियम नहीं है। संवेदनाओं के अर्थ में हर व्यक्ति अपने में एक स्वरूप है।

संवेदनाओं में संतुष्टि मिलती नहीं है। संवेदना विधि से मानवीय परम्परा बन नहीं सकती। हम यदि संवेदनाओं में जीने से स्वयं संतुष्ट नहीं हैं, तो अपने बच्चों को क्या संतुष्टि देंगे? इस तरह यही कहना बनता है - हमको इतने पैसे से संतुष्टि नहीं हुआ, शायद हमारे बच्चे इससे ज्यादा पैसे से संतुष्ट हो जायेंगे! इस तरह की सोच बनती है।

मानव समझदारी पूर्वक (सह-अस्तित्व में अनुभव पूर्वक) ही न्याय-सम्मत कार्य-व्यवहार करता है। समझदारी यदि नहीं है, तो न्याय-संगत कार्य-व्यवहार नहीं करता, सवेंदना-संगत कार्य-व्यवहार करता है। संवेदना-संगत कार्य-व्यवहार से न्याय नहीं मिल सकता।

समझदारी सबको मिल सकता है। हर मनुष्य समझदार होने योग्य है। हर व्यक्ति को समझदारी पूर्वक न्याय मिल सकता है।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

Sunday, June 28, 2009

साधना, समाधि, संयम

यह एक संयोग की बात है - मेरी ही इच्छा, मेरी ही स्वीकृति, मेरी ही चर्चा, मेरा ही तर्क मुझको अमरकंटक तक ले आया। ऐसा मैं मानता हूँ।

अमरकंटक उस समय एक छोटा सा गाँव था। कुल आबादी - १५० लोग। वहाँ आने पर वहाँ के सभी लोग जैसे मेरे अभिभावक बन गए। फ़िर मैं वहाँ साधना करने की प्रवृत्ति बनाने लगा। अमरकंटक के बड़े-बुजुर्गों के नित्य-कर्मो को मैंने देखा। सवेरे नर्मदा में स्नान करने के बाद, घर में खाने-पीने के बाद, वही बीडी-सिगरेट-तम्बाकू का सेवन, फ़िर चौपड़ खेलना, ताश खेलना। ये उनकी पूरी दिनचर्या के काम को मैंने देखा। ऐसे बड़े-बुजुर्गों के पास मैं बैठता हूँ तो ये मुझे भी वही सब करने को कहेंगे। यदि मैं इसके लिए मना करता हूँ, तो मैं उनके लिए कुजात जो जाता हूँ! यदि मैं वही सब करता हूँ - तो मेरा साधना तो समझो हवा हो गया! अब क्या किया जाए? यहाँ पर रहा जाए या यहाँ से भागा जाए?

ऐसे में मेरी पत्नी ने सुझाया - तुम क्यों परेशान होते हो? उनको अपना काम करने दो, तुम अपना काम करो! तुम सवेरे से शाम तक साधना करो। तुम्हारे पास कोई आएगा नहीं, तुम किसी के पास जाना नहीं। यह सुन कर मैं बहुत बाग़-बाग़ हुआ। उसी के अनुसार मैंने साधना शुरू किया। १९४२ में मेरा विवाह हुआ था। १९५० में हम अमरकंटक आ गए थे। इन ८ वर्षों में मैं अपनी पत्नी के लिए अभिभावक जैसे रहा था। मेरी पत्नी १९५० से लेकर आज तक मेरे लिए अभिभावक है। इस सम्मानजनक सम्बन्ध को मैंने कैसे पहचाना, और वह मेरे लिए कैसे वरदान सिद्ध हुआ - यह आपको बताना चाहा। मेरी पत्नी की तपस्या ही है, जो मैं साधना कर पाया। नहीं तो मैं साधना नहीं कर पाता। मैं समझता हूँ, साधना करने के लिए कहीं न कहीं आत्मीयता पूर्ण सेवा आवश्यक है।

साधना में मैं पार पा गया। समाधि को मैंने देखा। समाधि में मुझको कोई ज्ञान नहीं हुआ। समाधि में क्या हुआ? समाधि में मेरी आशा-विचार-इच्छाएं चुप हो गयी।

चुप होने को ही ज्ञान कहते हों - तो इसको मैं क्या कहूं? "समाधि में जो ज्ञान होता है - वह अव्यक्त और अनिर्वचनीय होता है।" - ऐसा बताया गया था। उसके लिए उपमा दिया - जैसे गुड खाया हुआ गूंगा हो। इस पर मैंने पूछा - क्या गूंगे ही गुड खाते हैं? क्या बात करने वाले गुड नहीं खा सकते?

मेरी हजारों वन्दनाएँ यही हैं - समाधि में ज्ञान नहीं होता। मुझे तो नहीं हुआ। और किसी को हुआ हो तो उसका गवाही आज तक मुझको मिला नहीं। जिस-जिस के समाधिस्थ होने की बात थी, उन्होंने मेरी जिज्ञासा का उत्तर दिया नहीं।

आशा-विचार-इच्छा चुप हो जाने को मैंने ज्ञान नहीं माना। मुझे समाधि हुआ या नहीं - इसका गवाही कैसे दिया जाए? समाधि के बाद यदि संयम होता है, तो समाधि के होने की गवाही मिल जायेगी। विभुतिपाद में संयम के बारे में जो भी लिखा है, उसको पढ़ कर मुझे लगा वह अज्ञात को ज्ञात किया हुआ का गवाही नहीं है। कैवल्य-पाद को पढ़ा तो - वह पूरा रहस्य में ही फंसा हुआ है। संयम को मैंने अवश्य स्वीकारा, संयम विधि को थोड़ा बदला।

संयम करने पर जैसे मैं आपको अभी अध्ययन करा रहा हूँ, वैसे ही मैंने प्रकृति में पढ़ा। मैंने किताब से नहीं पढ़ा, प्रकृति से सीधा पढ़ा। मैं जो कुछ भी साहित्य रूप में प्रस्तुत किया हूँ, वह मेरा प्रकृति में पढ़ा हुए का मानव-सम्मुख अनुनय-विनय है।

क्यों मैंने मानव सम्मुख इसे प्रस्तुत किया? क्योंकि मैंने इसे सम्पूर्ण मानव-जाति के पुण्य का फल माना। इसी के साथ धरती के बीमार होने से इस प्रस्ताव की आवश्यकता का पता चल गया। इस आधार पर इस प्रस्ताव को मानव-जाति के अवगाहन के रूप में प्रस्तुत किया है। यदि धरती पर मानव-परम्परा को बने रहना है, तो मानव इस प्रस्ताव को अपनी मानसिकता में स्वीकारेगा और "सच्चाई" के साथ जियेगा।

सह-अस्तित्व "होने" के रूप में "सच्चाई" है। जीव-संसार, वनस्पति-संसार, और खनिज-संसार अपने "होने" के रूप में सच्चाई है, और वे अपने "होने" के अनुसार ही "रहते" हैं। मनुष्य का इस धरती पर "होना" सच्चाई है। मनुष्य "रहने" के रूप में सच्चाई को पकड़ा नहीं है। उस भाग को छुआ नहीं है। उस भाग को पकड़ने की आवश्यकता है। उसी भाग में प्रमाणित होंगे।

साधना, समाधि, संयम - हर व्यक्ति तो इसमें से गुजरेगा नहीं, इस कठिनाई से हर व्यक्ति तो जूझेगा नहीं। यह निर्णय लेने के बाद, संयम से मुझे जो प्राप्त हुआ, वह सबको दिया जा सकता है। संसार इसको अपना सकता है। संसार प्रमाणित हो सकता है। इन तीन बात पर यकीन करते हुए, मानव के सम्मुख इस प्रस्ताव को रखने की हिम्मत मैंने किया।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन, कानपुर २००६ में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित।

एक करुण-कथा

मैंने कई बार आपके सामने "अनुसंधान" शब्द का प्रयोग किया है। मुझसे यहाँ पूछा जा रहा है - तुमको यह अनुसंधान करने की ज़रूरत कहाँ से आ गयी? मेरा अनुसन्धान के लिए प्रवृत्त होना एक "करुण-कथा" है। "करुण-कथा" का मतलब है - दिशा चाहते हुए भी दिशा-विहीन स्थिति में होना। यही करुण-कथा का मतलब है, जो मैं आपके सम्मुख रखता हूँ।

मेरी आयु जब ५ वर्ष रही होगी, तब मेरे सम्मुख हमारे घर आने वाले बड़े-बुजुर्ग दीर्घ-दंड प्रणाम करते रहे। एक दिन मेरे मन में यह आया - मैंने इनको क्या दे दिया? ये लोग क्यों मेरा सम्मान करते हैं? मेरी सारी करुण-कथा का बीज इतना ही है। उस समय मेरे इस प्रश्न का उत्तर मुझे मेरे बड़ों से नहीं मिला।

१०-११ वर्ष की आयु में मुझे पता लगा - लोग मेरे परिवार का सम्मान करते हैं, इसीलिए मेरा भी सम्मान करते हैं। यह पता लगना मेरी करुण-कथा की अगली सीड़ी बनी।

मैं सोचने लगा - वैदिक संस्कृति का सर्वोच्च सम्मान पाने वाले हमारे परिवार ने संसार को क्या दे दिया? उसका शोध करने पर पता चला - मेरे परिवार में हजारों वर्षों से हर पीढी में संन्यासी होते रहे हैं। उनमें से कई संन्यासी समाधि के लिए अपने ही हाथों से गड्ढा खोद कर, उसमें बैठ गए, अपने पर मिट्टी ढांप लिए, और मर गए। फ़िर लोग उस के ऊपर चबूतरा बना कर रखे थे। यह सब सुनने के बाद मैं सोचने लगा - ये संन्यासी लोग हमको क्या दे गए? सर्वोच्च सम्मान जो परिवार पाया हो, सर्वोच्च कोटि की श्रम-पद्दतियां जहाँ बनी हों, सर्वोच्च कोटि की सेवा विधि जिस परिवार में समाई हो - ऐसे परिपेक्ष्य में जब मैं इस तरह बात करने लगा, तो कैसा हुआ होगा - आप ही सोचिये? मेरे बड़े-बुजुर्गों को मेरा ऐसे सवाल करना उचित नहीं लगा। उन्होंने कहा - "तुम छोटा मुहँ, बड़ी बात करते हो!" मेरी आयु तब १८ वर्ष से कम ही रही होगी। मैंने उनसे पूछा - आप कुछ ऐसा बताइये जिससे मेरी बात छोटी हो जाए, या कुछ ऐसा बताइये जिससे मेरा मुहँ बड़ा हो जाए। मैं ऐसा अड्भंगा बात करना शुरू किया। यह और परेशानी का कारण हुआ।

उस समय रमण-मह्रिषी एक सम्माननीय व्यक्ति थे, मेरे बड़े-बुजुर्ग उनको समाधिस्थ पुरूष मानते थे। उनके एक शिष्य मद्रास से काव्य-कंठ गणपति नाम से थे, जिनका मेरे बुजुर्गों के साथ संपर्क रहा। उन्होंने सहमती दिया कि मुझे रमण-मह्रिषी के पास ले जाना चाहिए। अंततोगत्वा रमण-मह्रिषी के पास मुझको मेरे परिवार-जन ले गए। मैंने उनको अपना संकट बताया - हम जो किताबों में यह कहते हैं, ब्रह्म से जीव-जगत पैदा हुआ है, और अंत में कहते हैं - "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या", तो क्या सत्य से मिथ्या पैदा हो सकता है? यह मैं पूछता हूँ तो कहते हैं - "छोटे मुहँ बड़ी बात"। अब मैं अपनी बात को कैसे छोटा बनाऊं, या अपने मुहँ को कैसे बड़ा करुँ?

रमण मह्रिषी ने कहा - "तुम्हारी जिज्ञासा का उत्तर आदमी-जात के पास नहीं है। तुमको समाधि में ही इसका उत्तर मिलेगा। संसार में कोई आदमी तुम्हारी इस जिज्ञासा का उत्तर देने योग्य नहीं है। तुम्हारे लिए समाधि में जाना ही एक मात्र रास्ता है।"

रमण मह्रिषी से मैंने यह नहीं पूछा - आपको समाधि हुआ या नहीं? क्यों नहीं पूछा? भय-वश। यदि वे कहते समाधि हुआ है - तो वे मेरे प्रश्न का उत्तर क्यों नहीं दे पाते हैं, यह पूछता। यदि वे कहते समाधि नहीं हुआ - तो मुझे समाधि होगा, मैं इस बात पर कैसे विश्वास करता? उन पर मैंने कोई प्रति-प्रश्न नहीं किया। उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करके मैं चला आया।

यह मार्ग-दर्शन मुझको मिला। यही मेरी "करुण-कथा" का अन्तिम चरण भी है। २२ वर्ष की आयु में मुझे यह लक्ष्य और दिशा मिली। उस समय मैंने अपनी आजीविका के लिए जो पेंसिल फैक्ट्री लगाया था, और जो कुछ भी लेन-देन था उसको पूरा किया - और अंततोगत्वा हम अमरकंटक पहुँच गए। यह मेरी करुण-कथा का सार-संक्षेप है।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६ में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

Sunday, June 21, 2009

अभी तक की सोच का विकल्प

मनुष्य-जाति के इतिहास में अभी तक जो भी प्रयास हुए, वे उसको समझदारी के घाट पर पहुंचाने में असमर्थ रहे। पहले आदर्शवाद ने "आस्था" या मान्यता के आधार पर भक्ति-विरक्ति का रास्ता दिखलाया। उसके बाद भौतिकवाद आया, जिसने तर्क का रास्ता खोल दिया। तर्क-संगत विधि से आस्था टिक नहीं पायी तो सुविधा-संग्रह के चक्कर में हम आ गए। अभी ज्ञानी-अज्ञानी-विज्ञानी तीनो सुविधा-संग्रह के दरवाजे पर भिखारी बने खड़े हैं। कोई आदमी इससे नहीं बचा। धरती पर मनुष्य के अपने को समझदार मानने के बाद मनुष्य का गति आज तक इतना ही हुआ है।

सह-अस्तित्व-वादी ज्ञान इस दरवाजे के बाहर है। और जो कुछ भी रास्ते हैं, सुविधा-संग्रह दरवाजे की ओर ही ले जाते हैं। आप चाहे कुछ भी कर लो! सह-अस्तित्व-वादी विधि से जीने का तरीका है - समाधान समृद्धि पूर्वक परिवार में जीना। फ़िर समाधान-समृद्धि-अभय पूर्वक समाज में जीना। फ़िर समाधान-समृद्धि-अभय-सह-अस्तित्व पूर्वक सार्वभौम-व्यवस्था में जीना।

अब आप-हम को तय करना है, समाधान-समृद्धि पूर्वक परिवार में जीना है - या सुविधा-संग्रह के दरवाजे पर भिखारी बने खड़े ही रहना है?

हर व्यक्ति को अपने-अपने में इसके लिए निर्णय लेने की आवश्यकता है। एक व्यक्ति के निर्णय लेने भर से काम नहीं चलेगा।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

Thursday, June 18, 2009

तत्काल राहत

मनुष्य-जाति के इतिहास में जंगल-युग से जो भी परिस्थितियां उदय हो रही हैं, वे समस्या की ओर ही जा रही हैं। अभी तक के इतिहास में मनुष्य जैसे भी जिया है, समस्याओं को ही निर्मित किया है। हर परिस्थिति समस्या को ही लाया, समाधान को नहीं ला पाया। पीढी दर पीढी समस्याएं बढ़ती ही आयी हैं। समस्याओं से मनुष्य-जाति पूरी तरह अब घिर चुकी है। इससे "तत्काल राहत" की आवश्यकता है - ऐसा भी मुझसे कई लोग पूछते हैं।

समाधान के अलावा "तत्काल राहत" क्या होगी? समाधान के अलावा आप जो कुछ भी करेंगे समस्या ही पैदा करेंगे। समाधान से तत्काल भी राहत है, दीर्घ-काल तक भी राहत है, सर्व-काल तक भी राहत है।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

Wednesday, June 17, 2009

व्यापक, साम्य-ऊर्जा, ज्ञान

अस्तित्व में व्यापक वस्तु है - जो आप हमारे बीच, और हर परस्परता के बीच दूरी के रूप में दिखाई पड़ती है। परस्परता में दूरी के रूप में जो वस्तु है, इसी में हम डूबे हैं, घिरे हैं - यह भी हमें समझ में आता है। तीसरे, इसमें सभी जड़-चैतन्य वस्तुएं भीगे हुए हैं - जिससे जड़-वस्तुएं चुम्बकीय-बल संपन्न हैं, और चैतन्य वस्तुएं ज्ञान-संपन्न हैं। कोई भी जड़ या चैतन्य ऐसी वस्तु नहीं है - जो ऊर्जा-संपन्न नहीं हो। साम्य-ऊर्जा सभी को प्राप्त है। व्यापक वस्तु ही साम्य-ऊर्जा है। इसको मैं अच्छे से समझा हूँ।

प्रश्न: व्यापक को समझने का क्या प्रयोजन है?

उत्तर: इसको समझने से व्यवस्था में जीने के लिए हम समर्थ हो जाते हैं। जब तक यह समझ में नहीं आता है, तब तक हम व्यवस्था में जियेंगे नहीं! यह शतशः सही है।

ज्ञान ज्ञानेन्द्रियों से गम्य नहीं है। नाक से यह सूंघने में नहीं आता। आँख से यह दिखाई नहीं देता। जीभ से यह चखने में नहीं आता। कान से यह सुनाई नहीं देता। त्वचा से यह छूने में नहीं आता। इन्द्रियों से जो गम्य होता भी है - वह समझ में आता है। अस्तित्व में वस्तुओं का "प्रयोजन" समझ में ही आता है। प्रयोजन आंखों में दिखता नहीं है। इन्द्रियगम्य वस्तु का प्रयोजन इन्द्रियों से गम्य नहीं है। यह केवल समझ में ही आता है। समझता जीवन ही है। समझने वाला भाग आंखों में नहीं आता।

इन्द्रियों से जीवन को सूचना मिलती है, उसको समझता जीवन ही है। जैसे - यह वस्तु गर्म है। "गर्म" को समझता कौन है? समझता जीवन ही है। इस तरह इन्द्रियगम्य वस्तुओं में भी समझने का भाग शेष रहता ही है। समझे बिना कुछ इन्द्रियगम्य हुआ, यह हम कह भी नहीं सकते। मृत शरीर में कोई गर्म-ठंडे की पहचान सिद्ध नहीं होती।

कोई वस्तु आंखों से दिखता है, पर उसको हम समझे नहीं हैं तो उसको हम देखे हैं, इसका कोई प्रमाण नहीं है।

दो बातें हुई - समझ में आया वस्तु देखने को मिलना। दूसरे - देखने में आया वस्तु समझने को मिलना।

इन्द्रिय-गम्य वस्तुएं हमको देखने के बाद समझ में आता है। जो वास्तविकताएं इन्द्रियगम्य नहीं हैं - वे हमको समझने के बाद देखने को मिलता है। जैसे - व्यापक वस्तु को आप समझ गए तो आप-हमारे बीच की दूरी के रूप में वह आपको दिख गयी। यदि आप व्यापक वस्तु को समझे नहीं है, तो वह आप हमारे बीच दूरी के रूप में है - यह आपसे सत्यापित करना बनेगा नहीं!

प्रश्न: आपने बता दिया, अब हम भी बोल सकते हैं कि व्यापक वस्तु ऐसा है!

उत्तर: आप बोल अवश्य सकते हैं, पर बिना आप उसको समझे समझा नहीं पायेंगे! इस बात पर जितने प्रश्न बन सकते हैं, उनका सामना करना अनुभव के बिना बनेगा नहीं! व्यापक वस्तु पारगामी है, यह समझाना तभी बनेगा जब व्यापक में अनुभव किया हो। यह वैसे ही है - कोई वस्तु खट्टा है, यह दूसरे को समझाना आपसे तभी बनेगा जब आपने स्वयं उसको चखा हो। व्यापक को हम अनुभव के स्तर पर समझते हैं, और उसमें सुख पाते हैं। हम स्वयं व्यापक में डूबे हैं, भीगे हैं, घिरे हैं - इसका पहला सुख यही है।

मानव में ऊर्जा ज्ञान-सम्पन्नता के रूप में समझ आती है। ज्ञान हमको व्यापक वस्तु के रूप में प्राप्त है।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

स्वराज्य का मतलब है - स्वयं का वैभव

स्वराज्य का मतलब है - स्वयं का वैभव। राज्य का मतलब है - वैभव। हर मनुष्य का वैभव जब व्यवस्था के रूप में प्रकट होता है - वही स्वराज्य है। हर व्यक्ति का वैभव जब स्वत्व (समझदारी) और स्वतंत्रता के रूप में होता है - तभी स्वराज्य है। नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य - ये ६ स्तर का काम है। कम से कम न्याय पूर्वक जीने में मनुष्य का वैभव है। न्याय पूर्वक जीने में नियम, नियंत्रण, संतुलन पूर्वक जीना समाहित रहता है। संज्ञानीयता पूर्वक संवेदनाएं अपने आप से नियंत्रित रहते हैं।

अभी तक माना गया था - राजा के अनुसार चलने से स्वराज्य होता है। "राजा गलती नहीं करता" - यहाँ से शुरू किए। राजा को अय्याश के रूप में लोग देखे - तो लोग उसको नकार दिए। फ़िर गुरु के अनुसार चलने से स्वराज्य होता है - माना गया। गुरु को स्वयं प्रमाण स्वरूप में न पा कर लोग उसको भी नकार दिए। उसके बाद - सभा के अनुसार चलने से स्वराज्य होता है, यह माना गया। सभा में सभी प्रकार के अपराधों को वैध मानने के कार्यक्रमों में लोग लगे हैं। ये तीन लहरें तो गुजर चुकी। इन तीन प्रकार से मनुष्य ने अपने को अर्पित करके देख लिया - पर उससे स्वराज्य मिला नहीं। हर व्यक्ति का वैभव दिखा नहीं।

प्रश्न: राजा से हुआ नहीं, गुरु से हुआ नहीं, सभा से हो नहीं पा रहा है - फ़िर स्वराज्य कैसे होगा?

उत्तर: परिवार से होगा। परिवार में सभी समझदार हों, परस्परता में संबंधों को पहचानते हों, मूल्यों का निर्वाह करते हों, मूल्यांकन करते हों, उभय-तृप्ति पाते हों - इस प्रकार न्याय पूर्वक रहते हों। जब तक परिवार-जन मूल्यों को प्रमाणित नहीं करते, तब तक वे एक छत के नीचे "रह" सकते हैं पर "जी" रहे हैं - यह प्रमाणित नहीं होता। साथ में रहने मात्र से स्वराज्य प्रमाणित नहीं होता। "जीने" में ज्ञान ही आधार है, मूल्य ही आधार है, समाधान ही आधार है - और कोई आधार नहीं है। ज्ञान-आधार पर परिवार होने पर परिवार-जन परस्पर सहमति से कार्य करते हैं, परस्पर सहमति से प्रतिफल पाते हैं, परस्पर-सहमति से उपयोग करते हैं। इस तरह सह-अस्तित्व विधि से हम अच्छी तरह जी पाते हैं। इस तरह सह-अस्तित्व पूर्वक जी पाने पर मानव के स्वराज्य की शुरुआत हुआ। १० समझदार व्यक्तियों से गठित परिवार स्वराज्य का प्रथम सोपान समाधान-सम्रिध्ही पूर्वक जी कर प्रमाणित करता है। ऐसे १० परिवार मिल कर परिवार-समूह स्वराज्य-व्यवस्था को प्रमाणित करते हैं। इस तरीके से १० सोपान तक चल कर हम विश्व-परिवार व्यवस्था तक पहुँच जाते हैं। इसी का नाम है - "परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था"।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

समझदारी के बाद स्वतंत्रता है

"स्वतंत्रता" शब्द से भास् होता है - मनुष्य ऐसा भी कर सकता है, तैसा भी कर सकता है। इस तरह मनमानी करने को स्वतंत्रता मान लिया गया है।

प्रश्न: स्वतंत्रता वास्तव में क्या है?

उत्तर: समझदारी के बाद उत्तरोत्तर और अच्छा करने के बारे में ही सोचना ही स्वतंत्रता है। उत्तरोत्तर और अच्छा सोचने की जो हमारी ताकत है, वही स्वतंत्रता है। यह उपकार के साथ जुडी रहती है। इस तरह अच्छे से, और अच्छा, और अच्छे से और ज्यादा अच्छा चलने की जो गति है - उसको हम कहते हैं "अभ्युदय"। अभ्युदय का तात्विक अर्थ है - सर्वतोमुखी समाधान। स्वतंत्रता का वैभव अभ्युदय में है।

हमारे देश में १९४७ में जो राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी, उसने कहाँ पहुँचा दिया? हर गलती करने में स्वतन्त्र! सभी को गलती करने की स्वतंत्रता प्राप्त हुई। सभी व्यक्ति अपराधी होने पर समाज का क्या होगा? इससे आदमी दुःख, कठिनाइयाँ जो भोगेगा, उसे फ़िर भी सह लो - पर धरती जो बीमार हो गयी, तो आगे पीढी कहाँ रहेगा? हमने तो मजा मार लिया, आगे पीढी के लिए वीरानी छोड़ कर! इस अभिशाप के तो हम योग्य हो ही चुके हैं। मनुष्य के कृत्यों के आधार पर ही यह धरती बीमार हुई है।

कृत-कारित-अनुमोदित भेदों से हर व्यक्ति धरती के साथ होने वाले अपराधों से जुड़ा ही है। राज्य में रहने वाला हर व्यक्ति राजनैतिक-अपराध से जुड़ा ही है। धर्म-नैतिक अपराध - उस समुदाय से जुड़ा हर आदमी उस में भागीदार है ही। आर्थिक अपराध - उस संस्थान का हर आदमी उससे जुड़ा ही है। इस धरती का बीमार होना इस धरती पर रहने वाले ७०० करोड़ आदमियों के अपराध का फलन है।

यही ७०० करोड़ आदमी अपराध-मुक्त होने पर यह धरती अपने आप में संभल सकता है। ऐसा मेरा विश्वास है। इसी आधार पर आपके सम्मुख मैं प्रस्तुत हो रहा हूँ। कहाँ तक आप समझ पायेंगे, सार्थक हो पायेंगे, उपकार कर पायेंगे - यह आपके संकल्प पर ही निर्भर है। "आप यही करिए!!" - मैं आपको ऐसा नहीं कहता हूँ। समझने का अधिकार आपके पास है। अपनी समझी हुई बात को मैं आपके सम्मुख अनुनय-विनय ही करूंगा। यदि यह आपको स्वीकार होता है तो आप स्वयं तौलिये, ऐसे जीना है कि नहीं? समझदारी पूर्वक जीने की आपकी इच्छा होता है तो आप प्रमाणित होंगे ही! प्रमाणित होने के क्रम में आप भी उपकार ही करेंगे।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

स्वत्व समझ ही है.

हर मनुष्य में "स्वत्व" समझदारी के रूप में समीचीन है। समझदारी या तो प्रमाण के रूप में आ गया है, या फ़िर समीचीन है। समीचीन का मतलब निकटवर्ती है। समझदारी प्राप्त करने का अवसर हर मनुष्य के लिए हमेशा बना ही रहता है। समझदार होने का अवसर मनुष्य के पास आदिकाल से है, आज भी है, आगे भी रहेगा। यदि यह मिलने वाला नहीं होता तो हम उसकी आशा भी नहीं कर सकते थे। जिसको हम आशा ही नहीं कर सकते, वह हमको मिल भी नहीं सकता। जो मिल सकता है, उसी के प्रति हम आशा करते हैं। आप-हम जो यहाँ बैठे हैं, सबके साथ ऐसा ही है। आप हम सभी यह आशा करते हैं - "स्वत्व" हमको समझ में आए।

समझदारी स्वत्व है। समझदारी मानव-परम्परा के लिए शाश्वत स्वत्व है। समझदारी एक बार आने के बाद सदा-सदा के लिए रहता है, उससे फ़िर विलागीकरण नहीं होता। अभी तक स्वत्व किसको मानते रहे? कुछ चोरी करके घर ले आए - उसको स्वत्व मानते रहे। कुछ प्रतिफल के रूप में मिल गया - उसको स्वत्व मान लिया। प्रतिफल, पारितोष, और पुरस्कार के रूप में हम जो कुछ भी पाते हैं, वह स्वत्व के रूप में रहता नहीं है। वह अंततोगत्वा हस्तांतरित हो ही जाता है। अभी तक किसी भी आदमी के पास कोई भौतिक-वस्तु स्वत्व के रूप में स्थिर होता हुआ देखने को नही मिला। आज यदि वस्तु पास में है, कल उससे वियोग होता ही है। बड़े-बड़े धनाढ्य घरानों में भी एकत्रित किया गया धन एक दिन दूसरे को हस्तांतरित हो ही जाता है। यह तो सभी जानते हैं, शरीर छोड़ने के बाद ये जो भौतिक-रासायनिक वस्तुएं हैं, वे धरती के साथ ही चिपकी रहती हैं। मरे हुए व्यक्ति के साथ भागती नहीं हैं! इसको आप-हम देखते ही हैं। यह देखने पर हम यह निर्णय ले सकते हैं - भौतिक-रासायनिक वस्तुएं हमारा "स्वत्व" नहीं हो सकती। इनसे वियोग हो कर ही रहेगा। इनका उपयोग हो कर रहेगा। ये बंट कर ही रहेंगी। ये खर्च हो कर ही रहेंगी।

शरीर स्वत्व नहीं है। सदा के लिए जो काम ही न कर सके, उसे स्वत्व कैसे कहें? शरीर को स्वत्व के रूप में हम पहचान नहीं पायेंगे। शरीर एक आगंतुक उपलब्धि है, संयोग है। जब तक शरीर स्वस्थ रहता है तब तक संसार में समझदारी को हम व्यक्त करेंगे - जीवन में ऐसा संकल्प होना ही समझदारी का मतलब है।

यह निर्णय लेने पर हम इस बात पर आ सकते हैं, समझदारी ही हमारा स्वत्व हो सकती है। इससे अधिक स्वत्व के रूप में तो और कुछ हो नहीं सकता। इससे कम में हमारा काम नहीं चल सकता।

समझदारी अपने में परिपूर्ण होना पाया जाता है। सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व दर्शन हमको पूर्णतया समझ में आने पर हम "समझदार" हुए। जीवन-ज्ञान पूर्णतया समझ में आने पर हम समझदार हुए। ऐसी समझदारी स्वत्व के रूप में शरीर रहते हुए भी रहता है, शरीर के बाद भी रहता है, पुनः मानव-परम्परा में शरीर लेने पर भी साथ रहता है। इस स्वत्व की आवश्यकता है या नहीं, इसको आप हम को मिल कर तय करना है। यदि मानव-परम्परा को धरती पर बने रहना है तो इसके लिए सर्व-सम्मति और सर्व-स्वीकृति की आवश्यकता बनती है। जिसको हम स्वीकार लेते हैं, उसके लिए हम प्रयत्न भी करते हैं। जिसको हम स्वीकारते नहीं हैं - उसके लिए हम कुछ भी प्रयत्न नहीं करते। सर्व-मानव में यह गुण है - जिसको वह आवश्यक मान लेता है, उसके लिए जी-जान लगाता ही है। जिसको वह आवश्यक नहीं मानता - उसकी तरफ़ देखने तक नहीं जाता।

समझदारी रुपी "स्वत्व" को पाने के लिए बहुत सारी विधियां, उपाय मानव-परम्परा में सुझाए गए हैं। पर अंततोगत्वा वे समझदारी रुपी स्वत्व को पाये नहीं! ऐसा मैं किस आधार पर कहता हूँ? क्योंकि अभी तक यह शिक्षा विधि से आया नहीं है। प्रचलित व्यवस्था स्वत्व को पहचाना नहीं है। इन दो गवाहियों के आधार पर मैं कहता हूँ - "अभी तक मानव-परम्परा में समझदारी आया नहीं है।" मेरा यह कथन आपको कठोर लग सकता है, एक हकीकत भी लग सकता है। मेरा इसमें आग्रह यही है - सच्चाई को यथावत स्वीकारा जाए। उसको ज्यादा भी न किया जाए, कम भी न किया जाए।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

समझदारी की तीन धाराएं

सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व को समझना, जीवन को समझना, और मानवीयता पूर्ण आचरण को समझना - इस तरह समझदारी की तीन धाराओं को मैं पहचाना हूँ। मैं इनको पूर्णतया समझा हूँ, पारंगत हूँ, जिया हूँ, जीता हूँ, आपको समझा सकता हूँ। ये तीनो धाराएं स्वयं में एकत्र होने पर समझदारी के प्रति हमारी तृप्ति होना बन जाती है। समझदारी के अनुरूप सोच-विचार, योजना, कार्य-योजना, फल-परिणाम निरंतर बना रहता है - अर्थात समाधान निरंतर बना रहता है। इसलिए मैं तृप्त रहता हूँ। मेरा विश्वास है आप सभी तृप्त होने के अर्थ में ही हैं। कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो तृप्त नहीं होना चाहता हो। सर्व-मानव आबाल-वृद्ध तृप्त होना ही चाहते हैं।

समझदार हुए बिना मनुष्य को तृप्ति नहीं है।

समझदार आदमी गलती नहीं करता। गलती करता है तो समझदार नहीं है। समझा नहीं है, इसी लिए गलती किया - यहाँ पहुँचते हैं। उनको समझाने की अर्हता समझे हुए व्यक्ति में रहता ही है। गलती का सुधार ही "दंड" है। दंड का मतलब है - सुधार। दंड का मतलब यंत्रणा नहीं है। मेरा विश्वास है यह सदबुद्धि हरेक व्यक्ति में उपज सकता है। यदि ऐसा सदबुद्धि सबमें उपज जाए, तो धरती पर संकट कहाँ है? सदा-सदा समाधान ही रहेगा। यह मैं आपको भरोसा दिलाना चाहता हूँ। अभी भरोसा दिलाना ही बनता है। आपके-हमारे अथक प्रयास से इस प्रस्ताव को शिक्षा-विधा में और व्यवस्था-विधा में प्रकट करना आवश्यक है। व्यवस्था और शिक्षा में यह प्रस्ताव आए बिना यह सर्व-सुलभ होगा, ऐसा मैं नहीं मानता।

अभी परंपरागत शिक्षा में सह-अस्तित्व स्वरूपी सत्य को समझाने की कोई गुंजाइश नहीं है। इस शिक्षा में जीवन को समझाने का कोई प्रावधान नहीं है। अभी की शिक्षा में शरीर को ही जीवन मानते हैं। जब तक शरीर संवेदनाओं को व्यक्त करता है, उसको जीवन मानते हैं। जब शरीर संवेदनाओं को व्यक्त नहीं करता है - उसको मृत्यु मानते हैं। इतना ही परम्परा में अभी तक ज्ञान है, इससे अधिक हुआ नहीं।

धरती पर ७०० करोड़ लोगों के पास सह-अस्तित्व वाद का यह प्रस्ताव शिक्षा-विधि से ही पहुंचेगा। शिक्षा के ढाँचे-खांचे में इस वस्तु को बहाने की आवश्यकता है। मैं सामान्य व्यक्ति हूँ, इस बात को मैंने अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। इसको आप और अच्छे ढंग से प्रस्तुत करेंगे - ऐसा मेरा विश्वास बना हुआ है।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

Monday, June 15, 2009

हर मनुष्य में अनुभव करने का माद्दा है

अनुभव = अनुक्रम से होना-रहना

मैंने जो भी प्रस्तुत किया है वह अनुभव-मूलक विधि से किया है। मेरा विश्वास है - हर व्यक्ति में अनुभव करने का माद्दा है।

विगत में कहा था - "अनुभव को बताया नहीं जा सकता"। मैं कह रहा हूँ - अनुभव को ही ठोक-बजाऊ तरीके से बताया जा सकता है। शानदारी से यदि कुछ बताया जा सकता है तो वह अनुभव ही है। दूसरा कुछ भी शानदारी से नहीं बताया जा सकता।

अनुभव के लिए मेरे बुजुर्गों ने जैसा मेरा मार्ग-दर्शन किया था वैसे मैंने प्रयत्न किया। समाधि तक भी पहुंचे। समाधि में जब अज्ञात ज्ञात नहीं हुआ तब मैंने संयम किया। संयम के बारे में पंतांजलि योग-सूत्र में लिखा है - "धारणा ध्यान समाधिः त्रयामेकत्रवा संयमः"। विभूतिपाद में जो संयम के फल-परिणाम के बारे में लिखा है, उससे मुझे लगा वह केवल सिद्धि प्राप्त करने के लिए है, उससे कोई अज्ञात ज्ञात नहीं होगा। वह सब अप्राप्त को प्राप्त करने के लिए है - ऐसा मुझे लगा। "समाधि के बाद अप्राप्त को प्राप्त करने की इच्छा कैसे रह गयी? यदि रह गयी तो समाधि कैसे हुआ, माना जाए?" - यह प्रश्न मुझ में हुआ। मैंने पंतांजलि द्वारा बताये गए सूत्र को उलटाया और इन तीनो स्थितियों को विपरीत क्रम में रखा - समाधि, ध्यान, फ़िर धारणा। यह योग में गंभीर रूप से जुड़े लोगों के लिए एक बहुत ही मूल्यवान सूचना हो सकती है।

इस तरह जब मैंने संयम किया तो समग्र अस्तित्व मेरे अध्ययन में आ गया। जो मैंने अध्ययन किया वही आपके अध्ययन के लिए दर्शन-वाद-शास्त्र के रूप में "सूचना" प्रस्तुत कर दिया। समझना और समझाना मानव से ही होगा। किताब से समझना होगा नहीं। किताब से सूचनाएं मिलती हैं।

"अनुभव से अनुभव के लिए प्रेरणा दी जा सकती है।" यह जब मैं निर्णय कर पाया तो अनुभवगामी पद्दति बनी। पहले के अनुसार भी मैं कह सकता था - सब लोग समाधि करो, संयम करके ज्ञान हासिल करो। अनुभवगामी पद्दति ही अध्ययन विधि है। अनुभव-मूलक विधि से जो कुछ भी बताते हैं, उसका अर्थ बोध होने तक अध्ययन है। अध्ययन शब्द का मतलब इतना ही है। आचरण से लेकर दर्शन तक, और दर्शन से लेकर आचरण तक अध्ययन कराने की व्यवस्था दी। भाषा परम्परा की है। परिभाषाएं मैंने दी हैं। परिभाषा के अनुसार अध्ययन करने पर लोगों को बोध होगा। हर मनुष्य में अनुभव करने का माद्दा है। यह मानव का पुण्य रहा, मानव-जाति का अपेक्षा रहा, चिर-कालीन तृषा रहा - ऐसा मैं मानता हूँ।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित।

स्वत्व, स्वतंत्रता, स्वराज्य

"स्वत्व", "स्वतंत्रता", और "स्वराज्य" - ये तीन शब्द हम हमारे देश में बड़े समय से सुनते आए हैं। पर ये वास्तविकता में हैं क्या - यह समझ में किसी के भूंजी-भांग नहीं आया! हमारे देश में ६० वर्ष पहले स्वतंत्रता की बात सार्थक हुई, माना गया था। किंतु आज जब मैं ८७ वर्ष में चल रहा हूँ, मुझे समझ नहीं आता हम १९४७ में क्या स्वतंत्रता पाये? क्या स्वराज्य पाये? क्या स्वत्व के रूप में मिला? आपको यदि समझ में आता हो तो मुझे समझाइये! यदि आपको भी यह समझ में नहीं आता हो, तो मैं जो अनुसंधान किया हूँ, सह-अस्तित्व को देखा हूँ, सह-अस्तित्व में जिया हूँ, जिससे मुझे स्वत्व, स्वतंत्रता, और स्वराज्य का अर्थ समझ में आया - उसको आप परिशीलन करके देखिये। सह-अस्तित्व के बारे में मेरा विश्वास सोलह आना है। इसी आधार पर मैं यह कामना करता हूँ - आप में भी सह-अस्तित्व के प्रति पूर्ण विश्वास हो। आप में ऐसी अर्हता आए जिससे आप स्वत्व को भी समझ सकते हैं, स्वतंत्रता को भी समझ सकते हैं, स्वराज्य को भी समझ सकते हैं। यह आप के ऊपर कोई आरोपण नहीं है। आपकी इच्छा हो तो आप इसको समझ सकते हैं।

सह-अस्तित्व समझ में आए बिना न स्वत्व समझ में आएगा, न स्वतंत्रता समझ में आएगा, और स्वराज्य समझ में आना तो दूर की बात है।

अभी परंपरागत शिक्षा में सह-अस्तित्व स्वरूपी सत्य को समझाने की कोई गुंजाइश नहीं है। इस शिक्षा में जीवन को समझाने का कोई प्रावधान नहीं है। अभी की शिक्षा में शरीर को ही जीवन मानते हैं। जब तक शरीर संवेदनाओं को व्यक्त करता है, उसको जीवन मानते हैं। जब शरीर संवेदनाओं को व्यक्त नहीं करता है - उसको मृत्यु मानते हैं। इतना ही परम्परा में अभी तक ज्ञान है, इससे अधिक हुआ नहीं। सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व के ज्ञान को मैं पूर्णतया समझा हूँ, मैं पारंगत हूँ, आपको समझा सकता हूँ।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

सर्व-शुभ में जीने का मतलब

"सर्व-शुभ में जीने" का मतलब है - मेरा शुभ सबके लिए स्वीकार्य है तथा सबका शुभ मेरे लिए स्वीकार्य है। यही मानव-चेतना पूर्वक जीना है। अभी की स्थिति इसका उल्टा है। हम जो जीते हैं - वह किसी को स्वीकार्य नहीं है। दूसरे सब को जीते हैं - वह हमको स्वीकार्य नहीं है। यही "भ्रम में जीना" है, या जीव-चेतना में जीना है। जीवों के सदृश जीना मानव के लिए भ्रम है।

मानव-चेतना पूर्वक ही मनुष्य के सुख-पूर्वक जीने की व्यवस्था है। जीव-चेतना पूर्वक मानव के सुख-पूर्वक जीने की व्यवस्था नहीं है। जीवों को देखने पर पता चलता है - जीव-जानवर अपनी अपनी जाति के साथ व्यवस्था में जी लेते हैं। मनुष्य को देखते हैं तो पता चलता है, हम कुछ भी व्यवस्था में नहीं जी पा रहे हैं। "मनुष्य जीवों से भिन्न है, और मानव-जाति एक है" - यह हमें पहचान नहीं हुई है। हमको मानवत्व पूर्वक जीने के लिए आवश्यक ज्ञान की पहचान नहीं हुई है। न ही हमें मानवत्व पूर्वक जीने की व्यवस्था के स्वरूप की पहचान है। फ़िर भी हम जी रहे हैं, यंत्रणा को भुगत रहे हैं। इसमें जो मनुष्य के साथ यंत्रणा गुजरी वह कोई उतनी महत्त्वपूर्ण बात नहीं है। सबसे बड़ी बात है - धरती का बीमार होना। धरती के बीमार होने पर अब सदबुद्धि का प्रयोग करने की आवश्यकता आ गयी है।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६ कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

Thursday, June 11, 2009

आदर्शवाद का विकल्प

सत्य समझ में आने के बाद पता चलता है - "सह-अस्तित्व स्वरूपी सत्य से मुक्त कोई वस्तु है ही नहीं।" यह आदर्शवादी विचारधारा से भिन्न बात है - जिसमें कहा सत्य अलग ही रहता है, जगत अलग ही रहता है। सत्य को "खोजने" की अभ्यास, तप विधियां बता दी। सत्य को जगत से अलग ही बता दिया - उसी में उनके हाथ-पैर टूट गए। "सत्य जगत से अलग ही कोई चीज है" - कोई इस बात को समझा नहीं पाता है, न प्रमाणित कर पाता है। केवल इसको "कहने" मात्र से यह प्रभावित होता नहीं है।

आदर्शवाद ने संवेदनाओं को समाप्त करने के लिए बहुत सारे उपदेश, और अभ्यास-विधियां बताई गयी। समाधि से पहले कोई संवेदनाएं नियंत्रित होती नहीं हैं। समाधि सबको मिलने वाला नहीं है। इस तरह सबके लिए संवेदनाएं नियंत्रित होने के लिए कोई उत्तर आदर्शवाद के पास नहीं है। इसीलिए हम अराजकता के शिकार हो गए। काफी क्षत-विक्षत हो चुके हैं।

पहले इन आदर्शवादी भाषणों के प्रति लोगो की आस्थाएं होती थी। अब आस्था होती नहीं है। अब उन भाषणों पर प्रश्न करना बनता है। "इसको कैसे प्रमाणित किया जाए? इसको कैसे समझा जाए?" असभ्य तरीके से भी लोग प्रश्न करते हैं - "यह तो बकवास है, इसका रोटी-कपड़ा-मकान से कोई लेन-देन नहीं है।" ये दोनों ध्वनियां हम सुनते ही हैं। आज के समय में आस्थावाद स्थापित होने वाला नहीं है। प्रमाण ही स्थापित होगा। प्रमाण के लिए आपको अपनी सौजन्यता का प्रयोग करना पड़ेगा। प्रमाण के लिए आपकी सौजन्यता ही जिम्मेदार है, और कोई जिम्मेदार नहीं है।

सत्य को समझना = सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व को समझना। अस्तित्व क्यों है, और कैसा है - यह समझ में आना। कैसा है? - का स्वरूप आपको बताया। क्यों है? - का उत्तर है, प्रकट होने के लिए है। विगत में आदर्शवाद ने कहा था - "ब्रह्म से सब प्रकट है।" यहाँ कह रहे हैं - "ब्रह्म में सब प्रकट है।" व्याकरण-विधि से देखें तो ज्यादा दूर नहीं हैं - बस "में" और "से" का फर्क है। ब्रह्म में सब प्रकट है - इससे "सम्पृक्तता" इंगित है। सम्पृक्तता का मतलब है - जगत डूबा है, भीगा है, घिरा है।

सत्य को जो मैं समझा उसको समझाने के लिए मैंने भाषा का प्रयोग किया। भाषा परम्परा की है। परिभाषाएं मैंने दी हैं। जैसे - "धर्म" एक शब्द है। उसके लिए विगत में आदर्शवाद ने परिभाषा दिया - "धार्यतेति सः धर्मः"। "धारणा" का व्याख्या देते हुए कहा - जिसको पहना जा सकता है, ओढा जा सकता है, उतारा भी जा सकता है। गीता में भी कहा गया है - "सर्वधर्मान परिताज्या मामेकम शरणम रजा"। मतलब - सभी धर्मो को त्याग दो! इस ढंग से हम कहाँ पहुँच गए? धर्म को पहना भी जा सकता है, ओढा भी जा सकता है, और उतारा भी जा सकता है! इसका मतलब - "धर्मान्तरण" हो सकता है! अभी जो "धर्मान्तरण" हो रहा है - उसका आधार यही है।

धर्म वास्तव में क्या है? जिससे जिसका विलगीकरण न हो, वही उसका धर्म है। पदार्थावस्था अस्तित्व-धर्मी है। प्राणावस्था अस्तित्व-सहित पुष्टि धर्मी है। जीवावस्था अस्तित्व-पुष्टि सहित आशा-धर्मी है। मानव ज्ञान-अवस्था में होते हुए, अस्तित्व-पुष्टि-आशा सहित सुख-धर्मी है। सुख की अपेक्षा से मानव को अलग नहीं किया जा सकता।

समाधान = सुख। समाधान कैसे होता है? ज्ञान के अनुरूप फल-परिणाम होने पर समाधान होता है। यह अखंड-समाज सार्वभौम व्यवस्था सूत्र-व्याख्या में जीने से होता है।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित।

सह-अस्तित्व परम सत्य है

एक बात मैं ठोस रूप में कहता हूँ - "हर मनुष्य सत्य के लिए प्यासा है।" वह प्यास ज्ञान, विवेक, और विज्ञान को समझने से ही बुझ सकती है। उसको समझाने का माद्दा मेरे पास है। इस प्रस्ताव को जो अध्ययन किए हैं, उनके पास है। इस आश्वासन पर यदि हम विश्वास कर सकते हैं तो सत्य को समझना हमारे लिए सम्भव है।

व्यापक में संपृक्त प्रकृति अस्तित्व-समग्र है। व्यापक में सम्पूर्ण प्रकृति डूबी, भीगी, घिरी है। व्यापक वस्तु को आप "ईश्वर" नाम दे सकते हैं, यदि इच्छा हो तो! मूल सत्ता यही है। मूल ऊर्जा यही है। जड़ प्रकृति में यही ऊर्जा-सम्पन्नता चुम्बकीय-बल के रूप में प्रमाणित है। मानव में यही ऊर्जा ज्ञान के रूप में प्रमाणित है। जीव-जानवरों में यही ऊर्जा "जीने की आशा" के रूप में प्रमाणित है। वनस्पतियों में यही ऊर्जा "पुष्टि" के रूप में प्रमाणित है। इस तरह ऊर्जा-सम्पन्नता "धर्म" के रूप में प्रकृति की हर वस्तु से अविभाज्य है।

मनुष्य को अपने ज्ञान पर विश्वास करने के लिए "सत्य" को पहचानना होगा।

सह-अस्तित्व परम सत्य है। व्यापक वस्तु में जड़-चैतन्य वस्तु संपृक्त है। प्रकृति तीन तरह की क्रियाओं के स्वरूप में है - भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया, और जीवन क्रिया। इन तीन प्रकार की क्रियाओं के जोड़-जुगाड़ से चार अवस्थाएं प्रकट हुई हैं - पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था, और ज्ञानावस्था। ज्ञानावस्था में मानव है। मानव समझने वाली इकाई है। जीव-जानवर समझने वाली इकाई नहीं है। जीव-जानवर अपने वंश के अनुसार व्यवस्था में जीते हैं। पेड़-पौधे बीज के अनुसार व्यवस्था में जीते हैं। पदार्थ-संसार परिणाम के अनुसार व्यवस्था में है। इस तरह मनुष्येत्तर (मनुष्य को छोड़ कर) सभी अवस्थाएं अपने त्व-सहित व्यवस्था में हैं। मानव भी मानवत्व के साथ व्यवस्था में रह सकता है। मूल मुद्दा यही है।

मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता मौलिक है। इसी के कारण वह दौड़ता है। दौड़ते-दौड़ते थक-थकाकर कहीं बैठ जाता है। अब यहाँ कह रहे हैं - "थकें नहीं! इस कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को सत्य को समझने के लिए उपयोग करें।" सत्य को मैंने पहचाना है, आप भी पहचान सकते हैं। सह-अस्तित्व-वादी विचार में आप पारंगत हो सकते हैं। मैं सह-अस्तित्व-वादी विचार के अनुरूप जिया हूँ, जीता हूँ, आप भी जी सकते हैं।

सत्य समझ में आने पर पता चलता है - "सह-अस्तित्व स्वरूपी सत्य से मुक्त कोई वस्तु है ही नहीं!"

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

Wednesday, June 10, 2009

अध्ययन और अभ्यास

हम सब जो यहाँ बैठे हैं, सबको "शब्द ज्ञान" तो है। शब्द का कोई अर्थ होता है। मिसाल के लिए - "पानी" एक शब्द है। पानी एक वस्तु है - जो आदि-काल से अस्तित्व में है, अभी भी है, आगे भी रहेगा। इसी तरह, किसी भी वस्तु का नाम लेते हैं, वह नाम वस्तु नहीं है। जैसे मैं "नागराज" शब्द नहीं हूँ। मैं अपने स्वरूप में अस्तित्व में हूँ। मानव-स्वरूप में मेरी स्थिति-गति है। नाम वस्तु नहीं है। वस्तु का नाम है।

शब्द के अर्थ को समझना अध्ययन है। शब्द को सुना, उसको उच्चारण किया - वह कोई अध्ययन नहीं है। शब्द से अर्थ इंगित होता है। अर्थ अस्तित्व में वस्तु है। वस्तु समझ में आया - मतलब अध्ययन किया। शब्द को उच्चारण भर किया, मतलब पठन किया। अध्ययन है - शब्द के अर्थ को अस्तित्व में वस्तु के स्वरूप में पहचानना।

"सत्य", "धर्म", "न्याय", "नियम", "नियंत्रण", "संतुलन" शब्द हैं - इनसे इंगित वास्तविकताओं को हमें पहचानना ही पड़ेगा। हम यदि वस्तु को पहचानते हैं, उसका मूल्यांकन कर पाते हैं - तभी उसका सम्मान करना हमसे बन पायेगा। यदि सत्य को हम वास्तिविकता रूप में नहीं पहचानते हैं, उसका मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं, तो उसका सम्मान करना हमसे बनेगा नहीं। "सत्य" शब्द का उच्चारण करने से सत्य का सम्मान करना बनेगा नहीं।

अनुभवगामी पद्दति ही अध्ययन-विधि है। हम जो कुछ भी शब्द बताते हैं, उसका अर्थ-बोध होते तक अध्ययन है। "अध्ययन" शब्द का मतलब इतना ही है। आचरण से लेकर दर्शन तक, और दर्शन से लेकर आचरण तक अध्ययन कराने की व्यवस्था दी है। भाषा परम्परा की है। परिभाषाएं मैंने दी हैं। परिभाषा के अनुसार अध्ययन कराने से लोगों को बोध होगा। यह मानव-जाति का पुण्य रहा, मानव-जाति का अपेक्षा रहा, चिर-कालीन तृषा रहा - ऐसा मैं मानता हूँ।

अभ्यास का मतलब है :- अध्ययन पूर्वक वस्तु को जो पहचान लिया - उसका उपयोग करना, संरक्षण करना, उससे तृप्ति पाना। जैसे - पानी को हमने पहचान लिया - अब उसको उपयोग करना, संरक्षण करना, उससे तृप्ति पाना। उसी तरह अध्ययन पूर्वक सत्य को पहचान लिया, उसके बाद सत्य में जीना अभ्यास है। अध्ययन के बाद ही उपयोगिता, सदुपयोगिता, और प्रयोजनशीलता की बात आती है।

जीने के लिए अभ्यास है। अभ्यास का अन्तिम-छोर है - अनुभव में जीना। पहले सर्व-शुभ सूचना के आधार पर जीना। फ़िर सर्व-शुभ सूचना के अनुकूल अध्ययन में जीना। अध्ययन पूरा होने पर अनुभव में जीना। अनुभव में जीना = अखंड-समाज सार्वभौम-व्यवस्था सूत्र व्याख्या में जीना। इस तरह जीने का मतलब है - समाधान-समृद्धि पूर्वक परिवार में जीना। समाधान-समृद्धि-अभय पूर्वक समाज में जीना। समाधान-समृद्धि-अभय-सह-अस्तित्व पूर्वक व्यवस्था में जीना। ये चारों भाग चाहिए या नहीं चाहिए, इसका आप निर्णय कीजिये। आगे संतानों को इसकी ज़रूरत है या नहीं - इसको सोचिये।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित।

Tuesday, June 9, 2009

प्रश्न-मुक्ति अभियान

मैंने समाधि की स्थिति को देखा है। समाधि में कोई अज्ञात ज्ञात नहीं होता। समाधि में आशा-विचार-इच्छाएं चुप हो जाती हैं - यह मैंने देखा है। "समाधि हुआ है" - यह कैसे कहा जाए? इसलिए समाधि के बाद संयम किया। जिसके फलस्वरूप मैंने सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व का अध्ययन किया - और वह मुझे समझ में आया। समझने के बाद मुझे पता चला यह मानव-जाति के पुण्य से मुझे समझ में आया है, इसको मानव को अर्पित किया जाए। उसी क्रम में मैं आज आप तक पहुँचा हूँ। मुझे आप से एक कौडी की भी ज़रूरत नहीं है। मैं अपने आप में संतुष्ट हूँ। अपने पुरुषार्थ से मैं जो वस्तु उपार्जित करता हूँ, उससे संतुष्ट हूँ। इस तरह - अपने पुरुषार्थ और परमार्थ दोनों से मैं संतुष्ट हूँ।

मुझको अभी तक किसी कुंठा या निराशा ने प्रताड़ना नहीं दिया। मैंने कुंठा को देखा नहीं। निराशा को देखा नहीं। यंत्रणा से मैं कभी पीड़ित नहीं हुआ।

जो मैं पाया, उसे मानव-जाति को पहुँचा कर तो देखें! देखें - मानव इसको कैसे स्वीकारता है! यदि मानव इसको स्वीकार लेता है तो उसका धरती पर बने रहना सम्भव है। यदि नहीं स्वीकार होता है, तो इससे कोई अच्छी चीज़ को अनुसंधान करना पड़ेगा। इससे कम अच्छे में तो काम नहीं चलेगा!

इस बात को समझाने में मुझ में यह कमी रही - मैं स्कूल-कॉलेज में पढ़ा हुआ आदमी नहीं हूँ। स्कूली शिक्षा मेरे पास कुछ भी नहीं है। फ़िर भी मुझ में अनुभव के आधार पर हर मोड़-मुद्दे का समाधान मेरे पास आता है। उसके आधार पर मैं आप के सम्मुख प्रस्तुत होता हूँ।

संसार के ७०० करोड़ आदमियों के पास यदि विधिवत कोई प्रश्न बनता है - तो उसका उत्तर मेरे पास है। "विधिवत" प्रश्न से आशय है - किसी लक्ष्य के लिए पूछा गया प्रश्न। इसको आप "प्रश्न मुक्ति अभियान" कह सकते हैं।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६ कानपूर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

Sunday, June 7, 2009

मनः स्वस्थता और अखंड-समाज

अभी तक मनुष्य जीव-चेतना में जिया है। जीव-चेतना में जीते हुए भी मनुष्य ने जीवों से ज्यादा अच्छा जीने का प्रयास किया। उसी क्रम में मनुष्य ने आहार, आवास, अलंकार, दूर-श्रवण, दूर-गमन, और दूर-दर्शन संबन्धी वस्तुओं का इन्तेजाम कर लिया। मानव की परिभाषा है - मनाकार को साकार करने वाला, और मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने वाला। मनाकार को साकार करने में मनुष्य सफल हो गया। मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने में मनुष्य सफल नहीं हो पाया। मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने के लिए अथक प्रयास ज़रूर किए। योग से, अभ्यास से, समाधि से प्रयत्न कर करके हम थक चुके हैं, क्षत-विक्षत हो चुके हैं - किंतु मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने में हम सर्वथा असफल रहे। मनः स्वस्थता को हम कैसे उपलब्ध हो सकते हैं, उसका हम यहाँ जिक्र करना चाहते हैं। वह एक सूचना ही होगी। उसके बाद अध्ययन करना, समझना अपने-अपने बलबूते पर ही होगी। अध्ययन करने के लिए मध्यस्थ-दर्शन का पूरा साहित्य उपलब्ध है। इस आश्रम में, और कुछ और आश्रमों में उसका अध्ययन कराया जाता है।

मानव-परम्परा में दो लक्ष्य पाया जाता है - मानव लक्ष्य और जीवन लक्ष्य। मानव-लक्ष्य और जीवन-लक्ष्य दोनों प्रमाणित होना है। इसमें मैंने जो अध्ययन किया, समझा, जिया, और प्रमाणित किया - वह है, मानव-लक्ष्य प्रमाणित होता है तो जीवन-लक्ष्य भी प्रमाणित होता है। दूसरे - जीवन-लक्ष्य पूरा होता है तो मानव-लक्ष्य भी पूरा होता है। जीवन सुख, शान्ति, संतोष, और आनंद को अनुभव करना चाहता है। यही जीवन-लक्ष्य है। अध्ययन द्वारा सह-अस्तित्व को समझने से, जीवन को समझने से, मानवीयता पूर्ण आचरण को समझने से समाधान होता है। समाधान से सुख होता है। समाधान मानव-लक्ष्य है। समाधान, समृद्धि, अभय, और सह-अस्तित्व मानव-लक्ष्य है।

मानव को ज्ञान-अवस्था की इकाई के रूप में मैंने पहचाना। ज्ञान को भी मैंने पहचाना। ज्ञान यदि मानव को होता है, तो संज्ञानीयता में संवेदनाएं नियंत्रित होती हैं। मानव अभी तक शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों को तृप्ति देने के लिए सकल कुकर्म कर दिया। सभी अपराधों को वैध मान लिया। उसके बाद भी संवेदनाओं में तृप्ति की निरंतरता नहीं मिली। संज्ञानीयता में संवेदनाएं नियंत्रित होती हैं - यह मैंने देखा है, जिया है, और उसको प्रमाणित किया है।

हर व्यक्ति मूलतः संयत रहना चाहता है। बच्चे से बूढे तक आप अध्ययन करें तो आप पायेंगे - हर व्यक्ति में कहीं न कहीं संयमता की अपेक्षा बनी हुई है। भले ही वह घोर अराजकता में क्यों न जीता हो! प्रख्यात डाकुओं से लेकर, महान झूठ-खोरों, सभी प्रकार के कुकर्म करने वाले लोगों के साथ संभाषण करके मैं इस अन्तिम-निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ। सज्जनों में तो संयमता की अपेक्षा है ही। अभी तक संयमता की निश्चित-विधि, निश्चित-प्रक्रिया, निश्चित-पहचान, निश्चित-मूल्यांकन, और उसका सम्मान हम नहीं कर पाये थे। संयमता को पाना जरूरी है। समाज की सम्पूर्ण संरचना संवेदनाएं नियंत्रित रहने या अनियंत्रित रहने पर निर्भर है। यदि हम संयमता को पहचानते हैं, समझते हैं, जीते हैं, उसमें पारंगत होते हैं - तब हम "अखंड-समाज और सार्वभौम-व्यवस्था" को सोचने योग्य होते हैं। उससे पहले एक भी आदमी "अखंड-समाज सार्वभौम-व्यवस्था" को नहीं सोच पायेगा - यह आप मुझसे लिखवा लो! यदि यह बात आपके गले उतरती है तो संज्ञानीयता में पारंगत होने की आपकी इच्छा बलवती होती है।

सभी मनुष्यों में "मानवत्व" नाम की एक चीज है - जो सोया रहता है, उसको जगाने की ज़रूरत है। जो भूला रहता है, उसको स्मरण दिलाने की ज़रूरत है। जो समझा नहीं रहता है, उसको समझाने की ज़रूरत है। इन तीन काम में लगने की ज़रूरत है। कौन लगेगा इसमें? जो संज्ञानीयता में पारंगत है, जिसकी संवेदनाएं नियंत्रित हो चुकी हैं, अखंड-समाज सार्वभौम-व्यवस्था की सूत्र-व्याख्या को जो पा चुका है - वही स्वयं को प्रमाणित करने के क्रम में इस काम में लगेगा। इससे कम दाम में यह होने वाला नहीं है। योग विधि से, अभ्यास विधि से हम बहुत सोचे हैं, कहे हैं - उसमें यह आशय तो व्यक्त होता है, किंतु वह प्रमाण में होना, परम्परा में होना, और जीना - इस जगह में हम आए नहीं! इन जगहों पर आने की आवश्यकता है। क्यों आवश्यकता है? इसका यही उत्तर है - क्योंकि धरती बीमार हो गयी है। मनुष्य की अपराध-प्रवृत्ति से ही यह धरती बीमार हुई है। अपराध-प्रवृत्ति से मुक्ति के लिए अखंड-समाज सार्वभौम-व्यवस्था सूत्र-व्याख्या के पास आना ही होगा।

"अखंड-समाज" का मतलब है - मानवत्व का जागृति स्वरूप में प्रमाणित होना। मानव संज्ञानीयता संपन्न हो कर नियंत्रित संवेदनशीलता पूर्वक व्यवस्था में जीता है। "संज्ञानीयता" से आशय है - सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान से संपन्न होना। ज्ञान से विवेक आता है - जो है, शरीर का नश्वरत्व, जीवन का अमरत्व, और व्यवहार के नियम। उसके बाद विज्ञान के पास आते हैं - मानव-लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) और जीवन-लक्ष्य (सुख, शान्ति, संतोष, आनंद) के लिए दिशा निर्धारित करने के लिए। विज्ञान है - काल-वादी, क्रिया-वादी, और निर्णय-वादी ज्ञान।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन से

"ब्रह्म सत्य - जगत मिथ्या" से परेशानी

हमारे शास्त्रों में ब्रह्म को सत्य, परम-पावन बताया गया है। ब्रह्म अव्यक्त और अनिर्वचनीय है - यह भी बताया गया है। साथ ही यह भी लिखा है - ब्रह्म से ही जीव-जगत पैदा हुआ। जीव-जगत को मिथ्या भी कहा है। इससे मुझे परेशानी हुई - "सत्य से मिथ्या भी पैदा हो सकता है!?" यही मेरे अनुसंधान का मूल प्रश्न रहा।

मैंने वैदिक-विचार के चिंतन को देखा, समझा, और उसके अनुसार जीने के लिए तैय्यारी किया। वहाँ किताबों में लिखा है - "ईश्वर से यह जगत पैदा हुआ है।" "ब्रह्म से आकाश, आकाश से वायु, वायु से जल, जल से अग्नि पैदा हुआ" - यह लिखा है। इसके अलावा जीव के भी ब्रह्म से पैदा होने के बारे में लिखा है। "ब्रह्म की परछाई माया पर पड़ने से असंख्य जीवों की उत्पत्ति हो गयी।" - ऐसा बताया गया है। इस तरह ब्रह्म या ईश्वर से ही जीव-जगत पैदा होने की बात लिखी गयी है। अंत में फ़िर लिखा है - "ब्रह्म सत्य - जगत मिथ्या"। यह किताबों में लिखा हुआ है। उसको आप भी पढ़ सकते हैं। यह पढने के बाद मेरे मन में बहुत आन्दोलन हुई - सत्य से मिथ्या कैसे पैदा हो सकता है? मेरा परिवार श्रेष्ठतम वैदिक-परम्परा का सम्मान जो प्राप्त किया हुआ था - वे मेरे इस "वितंडावाद" से बहुत परेशान हुए। उस समय रमण मह्रिषी जीवित थे, जिनके प्रति हमारे परिवार की आस्था थी। उनकी आज्ञा से कि मेरे प्रश्नों के उत्तर समाधि में मिलेंगे - मैं यहाँ अमरकंटक चला आया।

अनुसंधान सफल होने पर मुझे पता चला - सत्य से कोई मिथ्या पैदा नहीं होता। "पैदा होता है" - यह सोच ही ग़लत है। अस्तित्व में कुछ पैदा नहीं होता, न विनाश होता है। अस्तित्व में प्रकटन है, और लुप्त होना है। प्रकटन होना हर धरती पर नियति-सहज व्यवस्था है। प्रकटन होना - विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति के रूप में ही होता है। दूसरा कुछ होता ही नहीं है। मनुष्य के प्रकटन तक कोई परेशानी नहीं है। सारी परेशानी की जड़ मनुष्य ही है। मनुष्य स्वयं फंसा है। कैसे उद्धार होगा? - इसका उत्तर हमको विगत में मिला नहीं था। इसके उत्तर को अब मैं पा गया हूँ। वह यदि आप तक पहुँचता है, तो आप भी मेरे जैसे सत्यापन कर सकते हैं।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के प्रबोधन पर आधारित

अपने-पराये की मानसिकता ही अपराध-प्रवृत्ति है.

अपने-पराये की मानसिकता ही अपराध-प्रवृत्ति है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है - सभी देशों की सीमा-रेखाओं पर तैनात फौजें। क्या काम है वहाँ पर? दोनों भू-खंडों के बीच में १०-१५ फुट की दूरी में जो दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश करेगा, उसको मारेंगे! डंडे से लेकर, गोली-बारूद, प्रक्षेपात्र, atom bomb तक सब हथियार तैयार रखे रहते हैं। इन सब का प्रयोग वहाँ वैध माना गया है। यही अपने-पराये की मानसिकता छोटे स्तर पर परिवार-परिवार के बीच कटुता, समुदाय-समुदाय के बीच कटुता के रूप में दिखता है।

सभी देशों के संविधान मूलतः गलती को गलती से रोकने, अपराध को अपराध से रोकने, और युद्ध को युद्ध से रोकने के अर्थ में हैं। "अपराध करने से अपराध रुकेगा" - यह अपराध को वैध मानना हुआ कि नहीं? यह केवल हमारे देश की ही बात नहीं है। सभी देशों में ऐसा ही है। इस तरह धरती के सारे ७०० करोड़ लोग अपराध के भागीदार हो गए कि नहीं?

सह-अस्तित्व में ज्ञान संपन्न होने से हम अपने-पराये की मानसिकता से मुक्त होते हैं - फलतः अपराध-मुक्त होते हैं। मनुष्य जाति के अपराध-मुक्त हुए बिना धरती का स्वस्थ होना बनेगा नहीं। मनुष्य को धरती पर बने रहना है तो सम्पूर्ण मनुष्य-जाति को अपने-पराये की मानसिकता से मुक्त होना ही होगा। यह शिक्षा-विधि से सम्भव है।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित।

Saturday, June 6, 2009

सम्बन्ध, न्याय, और सामाजिकता

सम्बन्ध क्यों हैं? व्यवस्था में जीने के लिए सम्बन्ध हैं। और कोई प्रयोजन नहीं है संबंधों का! संबंधों में ही व्यवस्था में होने-रहने की गवाही मिलती है। संबंधों को छोड़ कर मनुष्य के व्यवस्था में होने-रहने की कोई गवाही नहीं मिलती।

सम्बन्ध पूर्णता के अर्थ में अनुबंध हैं। अनुबंध का मतलब प्रतिज्ञा है। पूर्णता के अर्थ में ही सारे सम्बन्ध हैं। चाहे वह माँ-बच्चे का सम्बन्ध हो, या बंधू-बांधव का सम्बन्ध हो। सह-अस्तित्व की समझ मूल में रहने पर ही संबंधों में तृप्ति की निरंतरता बन पाती है। अभी जो है, थोड़े समय तक सम्बन्ध निभा, फ़िर टूट गया - यह परेशानी सह-अस्तित्व की समझ के बाद दूर हो जाती है। सामाजिकता में परेशानी भी यही है। पहले दिन हम दूसरे के साथ जो सम्बन्ध को पहचाना, वैसे वह निभ नहीं पाना। सह-अस्तित्व में समझ पूर्वक सम्बन्ध को सटीक पहचानने की योग्यता आती है। इस तरह समझदारी पूर्वक संबंधों को सटीक पहचानने पर सम्बन्ध निभ पाते हैं, उनमें तृप्ति की निरंतरता बनती है। इस तरह अखंड-समाज और सार्वभौम-व्यवस्था की सूत्र-व्याख्या हो जाती है।

न्याय है - संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, और उभय-तृप्ति। संबंधों में न्याय पूर्वक जीना ही मानव के व्यवस्था में जीने का पहला घाट है।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

पुण्य-शीलता

सच्चाई को स्वीकारने में पुण्य-शील व्यक्ति देर नहीं लगाते। सच्चाई को स्वीकारने में पुण्य-शीलता का प्रभाव रहता है। क्या पुण्य-शीलता है? अच्छा करने की इच्छा पुण्य-शीलता है। दूसरे, जिसको अच्छा परम्परा में माना गया है उसको बनाए रखना, और जिसको बुरा माना गया है उससे दूर रहना। ये दोनों रहने से हम पुण्य-शील कहलाये।

पुण्य-शीलता के साथ अध्ययन को जोड़ने पर हम में सच्चाइयाँ स्वीकार होती हैं। समझदारी करतलगत होती है।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

आगे की पीढी आगे

हर मानव-संतान में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता जीवित रहता है। हम अपने बच्चे को कुछ भी समझायें, सिखाएं, करायें - उसके बाद भी उसमें यह कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता जिन्दा रहता है। गणितीय विधि से इसे सोचें - जैसे, मैंने आपको कुछ समझाया, उसके बाद आपका कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता आपके पास सुरक्षित है, उसको आप जोड़ते हैं तो आप मुझसे आगे हो ही गए! यही आधार है - आगे की पीढी हमसे आगे ही होगी! आगे की पीढी के हमसे और अच्छा होने की नियति-सहज व्यवस्था बना हुआ है।

मैं अनुसन्धान पूर्वक अपने-पराये से मुक्त हुआ, भय-मुक्त हुआ, और समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना सिद्ध कर पाया। वह ज्ञान आपमें प्रवेश होता है, आप उसको पूरा स्वीकार लिए - उसके बाद आप अपना कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता उसमें जोड़ते हैं, तो आप मुझसे अच्छा जी ही सकते हैं, मुझसे अच्छा दूसरों का उपकार कर ही सकते हैं। अभी मैं न्यूनतम स्वरूप में उपकार कर रहा हूँ। इस तरह आगे-आगे पीढियों का मुझसे अच्छा जीने, मुझसे अच्छा उपकार करने का रास्ता खुल गया।

समझदारी के बाद ही उपकार करने की योग्यता आती है। यह तो पहले हम बात कर चुके हैं। समझदारी से पहले कोई उपकार कर नहीं पायेगा।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित।

ज्ञान, विवेक, विज्ञान और उपकार

अपने-पराये की मानसिकता ही अपराध-प्रवृत्ति है। यदि मनुष्य-जाति मनः-स्वस्थता हासिल करता है, तो अपने-पराये की दीवारें उसी समय से समाप्त हो जाती हैं। समुदाय-समुदाय के बीच जो कटुता है, युद्ध का जो झंझट है - उससे मुक्ति पाना बनता है। मनः-स्वस्थता समझदारी से आता है। "हम सह-अस्तित्व में जी रहे हैं" - यह है समझदारी! सह-अस्तित्व है - व्यापक वस्तु में जड़-चैतन्य प्रकृति का संपृक्त होना और रहना। यह ज्ञान हर मनुष्य को होना है। यह ज्ञान यदि सुदृढ़ होता है, तो उसके आधार पर हम विवेक और विज्ञान को पहचान सकते हैं।

विवेक में "जीवन का अमरत्व" समझ में आता है। विगत में "ज्ञान" को अव्यक्त और अनिर्वचनीय बता कर समझाना छूट गया था, साथ ही जीवन को समझाना नहीं बन पाया था - उसको मैं पा गया। मैं जीवन को समझाने में समर्थ हूँ, पारंगत हूँ, प्रमाणित हूँ - यह मैं आपके सामने सत्यापित कर रहा हूँ। जीवन का अमरत्व जब समझ में आता है तो मरने-कटने का भय समाप्त हो जाता है। मनुष्य के पास भय तीन ही प्रकार से है - मृत्यु-भय (प्राण-भय), धन-भय, और मान-भय। "मान-भय" है - हम जिस हैसियत या तबके में रहते हैं, वह छिन न जाए। "धन-भय" है - हमारा संग्रह, सम्पदा हमसे छिन न जाए। इन तीनो प्रकार के भय से हम विवेक पूर्वक मुक्त हो जाते हैं।

ज्ञान और विवेक के बाद विज्ञान संपन्न होने की बारी आती है। विज्ञान संपन्न होने पर समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की अर्हता आती है। यदि हम ज्ञान और विवेक सम्मत विज्ञान से संपन्न होते हैं, उसके अनुरूप विचार और योजना के क्रियान्वयन में लगते हैं - तब समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की योग्यता बन जाती है।

इस तरह - ज्ञान पूर्वक अपने-पराये से मुक्ति, विवेक पूर्वक भय मुक्ति, और विज्ञान पूर्वक समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की योग्यता बन जाती है। ये तीनो बात आपके गले से उतरता है तो यह मानव-परम्परा के लिए एक बहुत भारी देन है। यदि यह आपके द्वारा ग्रहण नहीं होता है तो मानव-परम्परा के लिए कोई देन नहीं है। ग्रहण होता है या नहीं, इस बात को मैंने छोटी-छोटी जगह पर आजमाया - उसी आधार पर इस सम्मलेन में मुझे यह बात कहने को कहा गया है। मेरे बोलने मात्र से हम सार्थक हो गए, ऐसा नहीं है। आप में जब यह स्वीकृत होता है - तभी यह सार्थक है।

इस तरह अपने-पराये से मुक्त, भय-मुक्त, और समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने पर उपकार-प्रवृत्ति का उदय होता है। समाधान-समृद्धि से कम में कोई उपकार नहीं करेगा। अभी तक यह मानते रहे - किसी भूखे को खाना दे दिया तो उपकार कर दिया। किसी के पास कपड़ा नहीं है, उसको कपड़ा दे दिया, तो उपकार हो गया। यह ग़लत हो गया। यह उपकार नहीं है। यह कर्तव्य है। उसी तरह हमारा अडोस-पड़ोस, गाँव, धरती के साथ कर्तव्य बना रहता है। कर्तव्य और उपकार में फर्क है। उपकार में दूसरे को अपने जैसा बनाने की बात होती है। जैसे हम समाधानित हैं, समृद्ध हैं - वैसा ही दूसरे को बना देने से उपकार होता है। उसके पहले कोई उपकार नहीं होता - यह मेरी घोषणा है। यह मेरा अनुभव है। उपकार करने के क्रम में ही मैं यहाँ आपके सम्मुख प्रस्तुत हूँ।

उपकार करने में कोई बंधन या भ्रम नहीं होता। मेरे यह बोलने मात्र से उपकार नहीं हुआ। आपकी स्वीकृति पूर्वक उसमें आपकी प्रतिबद्धता होने पर ही उपकार सफल हुआ। वैसे ही आप दूसरे व्यक्ति पर उपकार कर सकते हैं। इस ढंग से उपकार का परम्परा बनता है - जैसे दीप से दीप जलते हैं! उपकार-विधि से ही मानवीय-परम्परा बनती है। दूसरे किसी विधि से हम मानवीय-परम्परा बना नहीं पायेंगे।

- जीवन विद्या सम्मलेन २००६ कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

Wednesday, June 3, 2009

सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति

व्यापक को आप प्रकृति की इकाइयों की परस्परता में दूरी के रूप में पहचान सकते हैं। व्यापक में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति के स्वरूप में सह-अस्तित्व नित्य वर्तमान है। व्यापक वस्तु को आप "ईश्वर", "ज्ञान", "परमात्मा", "ब्रह्म", "शून्य" - ये सब नाम दे सकते हैं। इसको मैंने नाम दिया है - "साम्य ऊर्जा"।

व्यापक में हम "डूबे" हुए हैं - यह समझ में आता है। इससे हम "घिरे" हुए हैं - यह भी समझ में आता है। उसके बाद व्यापक में हम "भीगे" हुए हैं - यह समझ में आना मुख्य मुद्दा है। इस व्यापक वस्तु में आप-हम जो ज्ञानी, अज्ञानी, विज्ञानी कहलाते हैं, वे सभी भीगे हैं - यह समझ में आना मुख्य मुद्दा है। व्यापक वस्तु पारगामी है। पत्थर-शिला-धातुओं में भी, वनस्पतियों में भी, जीव-जानवरों में भी, मनुष्यों में भी, हर परमाणु, अणु, अणु-रचित रचना में भी - यह आर-पार है। व्यापक में भीगे होने के कारण हर वस्तु ताकतवर है - या ऊर्जा-संपन्न है।

यह ऊर्जा-सम्पन्नता जड़-वस्तुओं (भौतिक-रासायनिक वस्तुओं) में चुम्बकीय-बल के रूप में है। यही ऊर्जा-सम्पन्नता चैतन्य-वस्तु (जीवन) में जीने की आशा से शुरू होती है। इसके बाद यही ऊर्जा-सम्पन्नता चैतन्य वस्तु द्वारा विचार, इच्छा, बोध, और अनुभव के रूप में प्रकट होती है।

पदार्थ-अवस्था और प्राण-अवस्था साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता वश क्रियाशील है, आचरणशील है। जीव-अवस्था में जीवन शरीर-वंश के अनुसार कार्य करता है। गाय का बच्चा गाय के वंश के अनुसार काम करना सीख कर ही पैदा होता है। बिच्छु का बच्चा बिच्छु के वंश के अनुसार काम करना सीख कर ही पैदा होता है। इसी ढंग से हर जीव-जानवर की बात है। इसके बाद आता है - मनुष्य। मनुष्य समझदारी के अनुसार जीना चाहता है। समझदारी के दो भाग हैं - एक, मनाकार को साकार करना। दूसरा, मनः-स्वस्थता को प्रमाणित करना। इसमें से मनाकार को साकार करने का भाग मनुष्य ने प्रमाणित कर लिया। मनः-स्वस्थता का भाग अभी तक नहीं हुआ। इतनी सी बात है। यही एक ईंट खिसका है। दूसरा ईंट मजबूत है!

मनाकार को साकार करने का क्रम रहा - आहार से आवास, आवास से अलंकार, अलंकार से दूर-श्रवण, दूर-श्रवण से दूर-गमन, दूर-गमन से दूर-दर्शन। इससे ज्यादा की जरूरत मुझे तो महसूस होता नहीं है। होता होगा तो आप लोग बताएँगे! मनाकार को साकार करने में मनुष्य "यांत्रिक विधि" से सफल हुआ है। घर बनाना ("आवास") एक यांत्रिक विधि है। इस तरह वस्तुओं (जैसे - मिट्टी, पत्थर, लोहा) को जोड़ कर रचना स्वरूप देने की सामर्थ्य मनुष्य के पास आयी। इसी क्रम में मनुष्य ने आहार, आवास, अलंकार, दूर-श्रवण, दूर-गमन, दूर-दर्शन संबन्धी वस्तुओं का इन्तेजाम कर लिया।

सभी वस्तुओं का इन्तजाम करने के बाद भी हम परेशान क्यों हैं? समस्या से घिरे क्यों हैं? इसका कारण ढूँढने जाते हैं - तो पता चलता है, मनुष्य की सारी समस्याएं मनुष्य के साथ ही हैं। पत्थर, पेड़-पौधे, और जीव-जानवरों के साथ मनुष्य को कोई समस्या नहीं है।

मनुष्य के साथ समस्या होने का कारण मनः-स्वस्थता का अभाव है। मनः-स्वस्थता "समाधान" के रूप में आता है, फ़िर "प्रमाण" के रूप में आता है, फ़िर "जागृत-परम्परा" के रूप में आता है। मनः-स्वस्थता ही जागृत-परम्परा का आधार बनेगा। मनाकार को साकार करना जागृत-परम्परा का आधार बनेगा नहीं। मनः-स्वस्थता को प्रमाणित करने के लिए समझदारी (सह-अस्तित्व में अनुभव) एक मात्र रास्ता है। दूसरा कोई रास्ता नहीं है। ज्ञान से विवेक, विवेक से विज्ञानं, विज्ञानं से योजना, योजना से कार्य, कार्य से फल-परिणाम। फल-परिणाम पुनः ज्ञान के अनुरूप होने पर हम समाधानित हुए, नहीं तो हम कोई समाधानित नहीं हुए। इतनी छोटी सी बात के लिए हम हजारों वर्षों से परिक्रमा किए जा रहे हैं, पर पाये नहीं हैं। हम कितने भाग्यवान हैं, या अभागे हैं - आप ही सोच लीजिये!

- जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन से

वर्तमान को समझना

वर्तमान को समझना है। अस्तित्व (जो कुछ भी है) नित्य वर्तमान है। स्थूल रूप में हम अस्तित्व को पहचानते हैं। जैसे यह धरती निरंतर बनी है - यह स्थूल ज्ञान है। सूक्ष्म रूप - अर्थात वैचारिक रूप में हम अस्तित्व को पहचानते हैं। वैचारिक रूप में अस्तित्व "नियम", "नियंत्रण", "संतुलन", "न्याय", "धर्म", और "सत्य" के रूप में पहचान में आता है। उससे भी गहन - कारण स्वरूप में अस्तित्व "होने" और "रहने" के रूप में समझ आता है। वह होता है - सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान। यह अनुभव-मूलक विधि से ही होता है। यह मुख्य बात है।

मनुष्य ने चार विषयों और पाँच संवेदनाओं के ज्ञान के साथ जी कर देख लिया। उसके बाद भी कुछ समझना शेष बचा रहा। मनुष्य वैचारिक स्तर पर बहुत सोचा है। व्यवहारिक स्तर पर कुछ किया है, कुछ करना शेष भी है। किंतु ज्ञान स्वरूप में अस्तित्व को जो पहचाना है, समझा है, जिया है - ऐसे सत्यापन के साथ जिए हुए व्यक्ति धरती पर बिरले ही होंगे। इस तरह सत्यापित करने वाले आदमी को मैं अभी तक पहचाना नहीं हूँ। मैं यहाँ आप को सत्यापित करके बता रहा हूँ - मैं इन मुद्दों को समझा हूँ, जिया हूँ। यदि आप मेरे इस सत्यापन पर यकीन कर सकते हैं, तो आप मुझसे सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व को समझ सकते हैं। यदि आप यकीन नहीं कर सकते तो यह समझने का रास्ता आप अपने लिए बंद कर लेते हैं।स्थूल रूप में आज भी स्कूलों में विद्यार्थी अपने अध्यापकों को सही मान कर ही उनसे पढ़ते हैं। जिस दिन उन्होंने अध्यापक को ग़लत मान लिया, उसी तिथि से उनका अध्यापक से सीनाजोरी शुरू हो जाता है। आप और मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही धर्म-संकट है! कुछ बात को आप मान कर चलते हैं, और उसका जीने में परीक्षण करते हैं। वह परीक्षण में सही उतरता है, तो सम्मान बचता है। सही नहीं उतरता तो सम्मान बचता नहीं है! इतना ही बात है। यह सबके रहते आप यहाँ जो जिज्ञासु - ज्ञानी, विज्ञानी बैठे हैं, साथ में कुछ अज्ञानी भी बैठे होंगे - उनसे मेरा यह विनय है। यदि आप ठीक से समझना चाहते हैं तो आप सब के पास वह माद्दा है। हर मनुष्य में कल्पनाशीलता है, जिसके सहारे वह समझदार हो सकता है। सह-अस्तित्व नित्य वर्तमान है। इसको समझने वाला केवल मनुष्य ही है। दूसरा कोई नहीं है।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६ - कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित