"सर्व-शुभ में जीने" का मतलब है - मेरा शुभ सबके लिए स्वीकार्य है तथा सबका शुभ मेरे लिए स्वीकार्य है। यही मानव-चेतना पूर्वक जीना है। अभी की स्थिति इसका उल्टा है। हम जो जीते हैं - वह किसी को स्वीकार्य नहीं है। दूसरे सब को जीते हैं - वह हमको स्वीकार्य नहीं है। यही "भ्रम में जीना" है, या जीव-चेतना में जीना है। जीवों के सदृश जीना मानव के लिए भ्रम है।
मानव-चेतना पूर्वक ही मनुष्य के सुख-पूर्वक जीने की व्यवस्था है। जीव-चेतना पूर्वक मानव के सुख-पूर्वक जीने की व्यवस्था नहीं है। जीवों को देखने पर पता चलता है - जीव-जानवर अपनी अपनी जाति के साथ व्यवस्था में जी लेते हैं। मनुष्य को देखते हैं तो पता चलता है, हम कुछ भी व्यवस्था में नहीं जी पा रहे हैं। "मनुष्य जीवों से भिन्न है, और मानव-जाति एक है" - यह हमें पहचान नहीं हुई है। हमको मानवत्व पूर्वक जीने के लिए आवश्यक ज्ञान की पहचान नहीं हुई है। न ही हमें मानवत्व पूर्वक जीने की व्यवस्था के स्वरूप की पहचान है। फ़िर भी हम जी रहे हैं, यंत्रणा को भुगत रहे हैं। इसमें जो मनुष्य के साथ यंत्रणा गुजरी वह कोई उतनी महत्त्वपूर्ण बात नहीं है। सबसे बड़ी बात है - धरती का बीमार होना। धरती के बीमार होने पर अब सदबुद्धि का प्रयोग करने की आवश्यकता आ गयी है।
- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६ कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित
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