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Wednesday, June 17, 2009

स्वत्व समझ ही है.

हर मनुष्य में "स्वत्व" समझदारी के रूप में समीचीन है। समझदारी या तो प्रमाण के रूप में आ गया है, या फ़िर समीचीन है। समीचीन का मतलब निकटवर्ती है। समझदारी प्राप्त करने का अवसर हर मनुष्य के लिए हमेशा बना ही रहता है। समझदार होने का अवसर मनुष्य के पास आदिकाल से है, आज भी है, आगे भी रहेगा। यदि यह मिलने वाला नहीं होता तो हम उसकी आशा भी नहीं कर सकते थे। जिसको हम आशा ही नहीं कर सकते, वह हमको मिल भी नहीं सकता। जो मिल सकता है, उसी के प्रति हम आशा करते हैं। आप-हम जो यहाँ बैठे हैं, सबके साथ ऐसा ही है। आप हम सभी यह आशा करते हैं - "स्वत्व" हमको समझ में आए।

समझदारी स्वत्व है। समझदारी मानव-परम्परा के लिए शाश्वत स्वत्व है। समझदारी एक बार आने के बाद सदा-सदा के लिए रहता है, उससे फ़िर विलागीकरण नहीं होता। अभी तक स्वत्व किसको मानते रहे? कुछ चोरी करके घर ले आए - उसको स्वत्व मानते रहे। कुछ प्रतिफल के रूप में मिल गया - उसको स्वत्व मान लिया। प्रतिफल, पारितोष, और पुरस्कार के रूप में हम जो कुछ भी पाते हैं, वह स्वत्व के रूप में रहता नहीं है। वह अंततोगत्वा हस्तांतरित हो ही जाता है। अभी तक किसी भी आदमी के पास कोई भौतिक-वस्तु स्वत्व के रूप में स्थिर होता हुआ देखने को नही मिला। आज यदि वस्तु पास में है, कल उससे वियोग होता ही है। बड़े-बड़े धनाढ्य घरानों में भी एकत्रित किया गया धन एक दिन दूसरे को हस्तांतरित हो ही जाता है। यह तो सभी जानते हैं, शरीर छोड़ने के बाद ये जो भौतिक-रासायनिक वस्तुएं हैं, वे धरती के साथ ही चिपकी रहती हैं। मरे हुए व्यक्ति के साथ भागती नहीं हैं! इसको आप-हम देखते ही हैं। यह देखने पर हम यह निर्णय ले सकते हैं - भौतिक-रासायनिक वस्तुएं हमारा "स्वत्व" नहीं हो सकती। इनसे वियोग हो कर ही रहेगा। इनका उपयोग हो कर रहेगा। ये बंट कर ही रहेंगी। ये खर्च हो कर ही रहेंगी।

शरीर स्वत्व नहीं है। सदा के लिए जो काम ही न कर सके, उसे स्वत्व कैसे कहें? शरीर को स्वत्व के रूप में हम पहचान नहीं पायेंगे। शरीर एक आगंतुक उपलब्धि है, संयोग है। जब तक शरीर स्वस्थ रहता है तब तक संसार में समझदारी को हम व्यक्त करेंगे - जीवन में ऐसा संकल्प होना ही समझदारी का मतलब है।

यह निर्णय लेने पर हम इस बात पर आ सकते हैं, समझदारी ही हमारा स्वत्व हो सकती है। इससे अधिक स्वत्व के रूप में तो और कुछ हो नहीं सकता। इससे कम में हमारा काम नहीं चल सकता।

समझदारी अपने में परिपूर्ण होना पाया जाता है। सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व दर्शन हमको पूर्णतया समझ में आने पर हम "समझदार" हुए। जीवन-ज्ञान पूर्णतया समझ में आने पर हम समझदार हुए। ऐसी समझदारी स्वत्व के रूप में शरीर रहते हुए भी रहता है, शरीर के बाद भी रहता है, पुनः मानव-परम्परा में शरीर लेने पर भी साथ रहता है। इस स्वत्व की आवश्यकता है या नहीं, इसको आप हम को मिल कर तय करना है। यदि मानव-परम्परा को धरती पर बने रहना है तो इसके लिए सर्व-सम्मति और सर्व-स्वीकृति की आवश्यकता बनती है। जिसको हम स्वीकार लेते हैं, उसके लिए हम प्रयत्न भी करते हैं। जिसको हम स्वीकारते नहीं हैं - उसके लिए हम कुछ भी प्रयत्न नहीं करते। सर्व-मानव में यह गुण है - जिसको वह आवश्यक मान लेता है, उसके लिए जी-जान लगाता ही है। जिसको वह आवश्यक नहीं मानता - उसकी तरफ़ देखने तक नहीं जाता।

समझदारी रुपी "स्वत्व" को पाने के लिए बहुत सारी विधियां, उपाय मानव-परम्परा में सुझाए गए हैं। पर अंततोगत्वा वे समझदारी रुपी स्वत्व को पाये नहीं! ऐसा मैं किस आधार पर कहता हूँ? क्योंकि अभी तक यह शिक्षा विधि से आया नहीं है। प्रचलित व्यवस्था स्वत्व को पहचाना नहीं है। इन दो गवाहियों के आधार पर मैं कहता हूँ - "अभी तक मानव-परम्परा में समझदारी आया नहीं है।" मेरा यह कथन आपको कठोर लग सकता है, एक हकीकत भी लग सकता है। मेरा इसमें आग्रह यही है - सच्चाई को यथावत स्वीकारा जाए। उसको ज्यादा भी न किया जाए, कम भी न किया जाए।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित

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