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Wednesday, June 10, 2009

अध्ययन और अभ्यास

हम सब जो यहाँ बैठे हैं, सबको "शब्द ज्ञान" तो है। शब्द का कोई अर्थ होता है। मिसाल के लिए - "पानी" एक शब्द है। पानी एक वस्तु है - जो आदि-काल से अस्तित्व में है, अभी भी है, आगे भी रहेगा। इसी तरह, किसी भी वस्तु का नाम लेते हैं, वह नाम वस्तु नहीं है। जैसे मैं "नागराज" शब्द नहीं हूँ। मैं अपने स्वरूप में अस्तित्व में हूँ। मानव-स्वरूप में मेरी स्थिति-गति है। नाम वस्तु नहीं है। वस्तु का नाम है।

शब्द के अर्थ को समझना अध्ययन है। शब्द को सुना, उसको उच्चारण किया - वह कोई अध्ययन नहीं है। शब्द से अर्थ इंगित होता है। अर्थ अस्तित्व में वस्तु है। वस्तु समझ में आया - मतलब अध्ययन किया। शब्द को उच्चारण भर किया, मतलब पठन किया। अध्ययन है - शब्द के अर्थ को अस्तित्व में वस्तु के स्वरूप में पहचानना।

"सत्य", "धर्म", "न्याय", "नियम", "नियंत्रण", "संतुलन" शब्द हैं - इनसे इंगित वास्तविकताओं को हमें पहचानना ही पड़ेगा। हम यदि वस्तु को पहचानते हैं, उसका मूल्यांकन कर पाते हैं - तभी उसका सम्मान करना हमसे बन पायेगा। यदि सत्य को हम वास्तिविकता रूप में नहीं पहचानते हैं, उसका मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं, तो उसका सम्मान करना हमसे बनेगा नहीं। "सत्य" शब्द का उच्चारण करने से सत्य का सम्मान करना बनेगा नहीं।

अनुभवगामी पद्दति ही अध्ययन-विधि है। हम जो कुछ भी शब्द बताते हैं, उसका अर्थ-बोध होते तक अध्ययन है। "अध्ययन" शब्द का मतलब इतना ही है। आचरण से लेकर दर्शन तक, और दर्शन से लेकर आचरण तक अध्ययन कराने की व्यवस्था दी है। भाषा परम्परा की है। परिभाषाएं मैंने दी हैं। परिभाषा के अनुसार अध्ययन कराने से लोगों को बोध होगा। यह मानव-जाति का पुण्य रहा, मानव-जाति का अपेक्षा रहा, चिर-कालीन तृषा रहा - ऐसा मैं मानता हूँ।

अभ्यास का मतलब है :- अध्ययन पूर्वक वस्तु को जो पहचान लिया - उसका उपयोग करना, संरक्षण करना, उससे तृप्ति पाना। जैसे - पानी को हमने पहचान लिया - अब उसको उपयोग करना, संरक्षण करना, उससे तृप्ति पाना। उसी तरह अध्ययन पूर्वक सत्य को पहचान लिया, उसके बाद सत्य में जीना अभ्यास है। अध्ययन के बाद ही उपयोगिता, सदुपयोगिता, और प्रयोजनशीलता की बात आती है।

जीने के लिए अभ्यास है। अभ्यास का अन्तिम-छोर है - अनुभव में जीना। पहले सर्व-शुभ सूचना के आधार पर जीना। फ़िर सर्व-शुभ सूचना के अनुकूल अध्ययन में जीना। अध्ययन पूरा होने पर अनुभव में जीना। अनुभव में जीना = अखंड-समाज सार्वभौम-व्यवस्था सूत्र व्याख्या में जीना। इस तरह जीने का मतलब है - समाधान-समृद्धि पूर्वक परिवार में जीना। समाधान-समृद्धि-अभय पूर्वक समाज में जीना। समाधान-समृद्धि-अभय-सह-अस्तित्व पूर्वक व्यवस्था में जीना। ये चारों भाग चाहिए या नहीं चाहिए, इसका आप निर्णय कीजिये। आगे संतानों को इसकी ज़रूरत है या नहीं - इसको सोचिये।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित।

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