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Sunday, June 7, 2009

"ब्रह्म सत्य - जगत मिथ्या" से परेशानी

हमारे शास्त्रों में ब्रह्म को सत्य, परम-पावन बताया गया है। ब्रह्म अव्यक्त और अनिर्वचनीय है - यह भी बताया गया है। साथ ही यह भी लिखा है - ब्रह्म से ही जीव-जगत पैदा हुआ। जीव-जगत को मिथ्या भी कहा है। इससे मुझे परेशानी हुई - "सत्य से मिथ्या भी पैदा हो सकता है!?" यही मेरे अनुसंधान का मूल प्रश्न रहा।

मैंने वैदिक-विचार के चिंतन को देखा, समझा, और उसके अनुसार जीने के लिए तैय्यारी किया। वहाँ किताबों में लिखा है - "ईश्वर से यह जगत पैदा हुआ है।" "ब्रह्म से आकाश, आकाश से वायु, वायु से जल, जल से अग्नि पैदा हुआ" - यह लिखा है। इसके अलावा जीव के भी ब्रह्म से पैदा होने के बारे में लिखा है। "ब्रह्म की परछाई माया पर पड़ने से असंख्य जीवों की उत्पत्ति हो गयी।" - ऐसा बताया गया है। इस तरह ब्रह्म या ईश्वर से ही जीव-जगत पैदा होने की बात लिखी गयी है। अंत में फ़िर लिखा है - "ब्रह्म सत्य - जगत मिथ्या"। यह किताबों में लिखा हुआ है। उसको आप भी पढ़ सकते हैं। यह पढने के बाद मेरे मन में बहुत आन्दोलन हुई - सत्य से मिथ्या कैसे पैदा हो सकता है? मेरा परिवार श्रेष्ठतम वैदिक-परम्परा का सम्मान जो प्राप्त किया हुआ था - वे मेरे इस "वितंडावाद" से बहुत परेशान हुए। उस समय रमण मह्रिषी जीवित थे, जिनके प्रति हमारे परिवार की आस्था थी। उनकी आज्ञा से कि मेरे प्रश्नों के उत्तर समाधि में मिलेंगे - मैं यहाँ अमरकंटक चला आया।

अनुसंधान सफल होने पर मुझे पता चला - सत्य से कोई मिथ्या पैदा नहीं होता। "पैदा होता है" - यह सोच ही ग़लत है। अस्तित्व में कुछ पैदा नहीं होता, न विनाश होता है। अस्तित्व में प्रकटन है, और लुप्त होना है। प्रकटन होना हर धरती पर नियति-सहज व्यवस्था है। प्रकटन होना - विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति के रूप में ही होता है। दूसरा कुछ होता ही नहीं है। मनुष्य के प्रकटन तक कोई परेशानी नहीं है। सारी परेशानी की जड़ मनुष्य ही है। मनुष्य स्वयं फंसा है। कैसे उद्धार होगा? - इसका उत्तर हमको विगत में मिला नहीं था। इसके उत्तर को अब मैं पा गया हूँ। वह यदि आप तक पहुँचता है, तो आप भी मेरे जैसे सत्यापन कर सकते हैं।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००६, कानपुर में बाबा श्री नागराज शर्मा के प्रबोधन पर आधारित

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